आज डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्मदिन है। वे भारत के राष्ट्रपति भी रह चुके हैं। राष्ट्रपति होने के पहले वे देश के उपराष्ट्रपति, काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति, बीएचयू के दर्शनशास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष, और दर्शनशास्त्र के अध्यापक भी थे। वे मूलतः अध्यापक थे। लोग बताते हैं कि जब वे वीएचयू के वीसी थे तब भी हफ्ते में एक दिन फिलॉसफी विभाग में दर्शन शास्त्र पढ़ाने जाते थे।
उनके अध्यापन से जुड़े तथ्य देखें ।
सन् 1931 से 36 तक आन्ध्र विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर रहे।
ऑक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय में 1936 से 1952 तक प्राध्यापक रहे।
कलकत्ता विश्वविद्यालय के अन्तर्गत आने वाले जॉर्ज पंचम कॉलेज के प्रोफेसर के रूप में 1937 से 1941 तक कार्य किया।
सन् 1939 से 48 तक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति रहे।
1953 से 1962 तक दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति रहे।
1946 में युनेस्को में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।
मालवीय जी का सबसे बड़ा योगदान यह भी है कि उन्होंने बीएचयू में दुनिया और देश के कोने कोने से विद्वान और दक्ष अध्यापकों को लाकर बीएचयू में अध्यापन के लिये प्रेरित किया। डॉ राधाकृष्णन भी उन्हीं प्रतिभाओं में से एक थे। साठ रुपये मासिक पर महामना ने डॉ राधाकृष्णन को नियुक्त किया था। डॉ राधाकृष्णन भारतीय दर्शन और पाश्चात्य दर्शन के प्रकांड विद्वान थे। वे कोई दार्शनिक नहीं थे और न ही उन्होंने कोई दार्शनिक मतवाद का प्रवर्तन किया पर वे दर्शन शास्त्र के एक सजग विद्यार्थी थे और वे खुद को ऐसा कहते भी थे।
उनसे जुड़ा एक किस्सा बीएचयू के दर्शनशास्त्र विभाग के मेरे सीनियर अक्सर सुनाते थे। किस्सा यह है,
डॉ राधाकृष्णन एक बार ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के एक सेमिनार में गये थे। वहां उन्होंने अद्वैतवाद और चार्वाक पर अलग अलग भाषण दिए। दोनों ही विषयों की उन्होंने बहुत उत्तम तरीके से व्याख्या की। श्रोता मंत्रमुग्ध हो सुनते रहे। श्रोताओं में बर्ट्रेंड रसेल और जॉर्ज बर्नार्ड शॉ भी थे। जब सेमिनार समाप्त हुआ तो बर्ट्रेंड रसेल ने उनसे पूछा कि
" आप अद्वैतवाद को मानते हैं कि चार्वाक को ? "
डॉ राधाकृष्णन ने मुस्कुरा कर कहा कि
" वे खुद को फिलॉसफी का एक विद्यार्थी और एक विनम्र अध्यापक मानते हैं। एक विद्यार्थी का यह कर्तव्य है कि वह अपनी विचारधारा को अलग रख कर जो भी पढ़ रहा है उसके गुण दोषों का सम्यक रूप से अध्य्यन करे और एक शिक्षक का दायित्व है कि वह अध्यापन के समय बिना किसी पूर्वाग्रह के अपने विद्यार्थियों को अपने अध्ययन का लाभ दे । मैं जब पढ़ाता हूँ तो केवल एक अध्यापक रहता हूँ। "
इस बात को गौर से सुनते हुए जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने उनसे कहा कि,
" डॉ राधाकृष्णन, आप की अंग्रेज़ी भाषा पर पकड़ बहुत अच्छी है। मैं एक साहित्यकार की नज़र से आप को सुन रहा था, मुझे नहीं लगा कि यह किसी गैर अंग्रेजीभाषी द्वारा बोली जा रही अंग्रेज़ी है । कमाल की पकड़ है आप की हमारी भाषा पर "
डॉ राधाकृष्णन खिलखिलाकर हंस पड़े और कहा,
" मि शॉ, यह अंग्रेज़ी मुझे घुट्टी में नहीं मिली है, मैंने इसे मेहनत से सीखा है। "
यद्यपि उन्हें 1931 में ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा "सर" की उपाधि प्रदान की गयी थी लेकिन स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात उसका औचित्य डॉ॰ राधाकृष्णन के लिये समाप्त हो चुका था। जब वे उपराष्ट्रपति बन गये तो स्वतन्त्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ॰ राजेंद्र प्रसाद जी ने 1954 में उन्हें उनकी महान दार्शनिक व शैक्षिक उपलब्धियों के लिये देश का सर्वोच्च अलंकरण भारत रत्न प्रदान किया।
डॉ एस राधाकृष्णन के जन्मदिन और शिक्षक दिवस पर उनका विनम्र स्मरण।
© विजय शंकर सिंह
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