पाश, अवतार सिंह संधू के #जन्मदिन ( 9 सितंबर 1950 ) के अवसर पर उनकी एक कविता पढ़े।
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भारत
भारत
मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द
जहाँ कहीं भी प्रयोग किया जाए
बाक़ी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते है
इस शब्द के अर्थ
खेतों के उन बेटों में है
जो आज भी वृक्षों की परछाइओं से
वक़्त मापते है
उनके पास, सिवाय पेट के, कोई समस्या नहीं
और वह भूख लगने पर
अपने अंग भी चबा सकते है
उनके लिए ज़िन्दगी एक परम्परा है
और मौत का अर्थ है मुक्ति
जब भी कोई समूचे भारत की
राष्ट्रीय एकता' की बात करता है
तो मेरा दिल चाहता है --
उसकी टोपी हवा में उछाल दूँ
उसे बताऊँ
के भारत के अर्थ
किसी दुष्यन्त से सम्बन्धित नहीं
वरन खेत में दायर है
जहाँ अन्न उगता है
जहाँ सेंध लगती है
अपनी असुरक्षा से
देश की सुरक्षा यही होती है
कि बिना जमीर होना ज़िन्दगी के लिए शर्त बन जाए
आँख की पुतली में हाँ के सिवाय कोई भी शब्द
अश्लील हो
और मन बदकार पलों के सामने दण्डवत झुका रहे
तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है ।
हम तो देश को समझे थे घर-जैसी पवित्र चीज़
जिसमें उमस नहीं होती
आदमी बरसते मेंह की गूँज की तरह गलियों में बहता है
गेहूँ की बालियों की तरह खेतों में झूमता है
और आसमान की विशालता को अर्थ देता है
हम तो देश को समझे थे आलिंगन-जैसे एक एहसास का नाम
हम तो देश को समझते थे काम-जैसा कोई नशा
हम तो देश को समझते थे कुरबानी-सी वफ़ा
लेकिन गर देश
आत्मा की बेगार का कोई कारख़ाना है
गर देश उल्लू बनने की प्रयोगशाला है
तो हमें उससे ख़तरा है
गर देश का अमन ऐसा होता है
कि कर्ज़ के पहाड़ों से फिसलते पत्थरों की तरह
टूटता रहे अस्तित्व हमारा
और तनख़्वाहों के मुँह पर थूकती रहे
क़ीमतों की बेशर्म हँसी
कि अपने रक्त में नहाना ही तीर्थ का पुण्य हो
तो हमें अमन से ख़तरा है
गर देश की सुरक्षा को कुचल कर अमन को रंग चढ़ेगा
कि वीरता बस सरहदों पर मर कर परवान चढ़ेगी
कला का फूल बस राजा की खिड़की में ही खिलेगा
अक़्ल, हुक्म के कुएँ पर रहट की तरह ही धरती सींचेगी
तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है
( अवतार सिंह संधू ' पाश ' )
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अवतार सिंह संधू (9 सितम्बर 1950 - 23 मार्च 1988), जिन्हें सब पाश के नाम से जानते हैं पंजाबी कवि और क्रांतिकारी थे। उनका जन्म 09 सितम्बर 1950 को ग्राम तलवंडी सलेम, ज़िला जालंधर और निधन 37 साल की युवावस्था में 23 मार्च 1988 अपने गांव तलवंडी में ही हुआ था। वे गुरु नानक देव युनिवर्सिटी, अमृतसर के छात्र रहे हैं। उनकी साहित्यिक कृतियां, लौहकथा, उड्ड्दे बाजाँ मगर, साडे समियाँ विच आदि हैं।
पाश एक विद्रोही कवि थे। वे अपने निजी जीवन में बहुत बेबाक थे, और अपनी कविताओं में तो वे अपने जीवन से भी अधिक बेबाक रहे। वे घुट घुटकर, डर डरकर जीनेवालों में से बिलकुल नहीं थे। उनको सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि सबके लिए शोषण, दमन और अत्याचारों से मुक्त एक समतावादी संसार चाहिए था। यही उनका सपना था और इसके लिए आवाज़ उठाना उनकी मजबूरी थी। उनके पास कोई बीच का रास्ता नहीं था। वे कहते भी हैं,
यह वक़्त बहुत अधिक खतरनाक है साथी.
हम सब खतरा हैं उनके लिए
जिन्हें दुनिया में बस ख़तरा-ही-खतरा है.।
और उनका यह डर भी कोई बेबुनियाद डर नहीं था। पहले उन्हें 1969 में झूठे आरोपों में फंसाकर जेल भेजा गया फिर खालिस्तानी आतंकवादियों ने 23 मार्च, 1988 को उनकी हत्या कर दी। पर इस हत्या से पाश के शब्द नहीं मरे. उनकी कविताएं लोगों के दिल में जीती रहीं. हर गलत वक़्त में उन्हें ताकीद करती रहीं -
सबसे खतरनाक होता है
सपनों का मर जाना
न होना दर्द का
सब कुछ सहन कर जाना
सबसे खतरनाक वे आंखें होती हैं
जो सबकुछ देखते हुए भी जमा हुआ बर्फ होती हैं.
हिंदी के प्रख्यात आलोचक डॉ नामवर सिंह के अनुसार,
" वे एक शापित कवि थे। किसी शापित यक्ष की ही तरह. जिंदगी से भरे इस कवि को कभी भी अपने मन लायक जीवन या दुनिया नहीं मिली. "
शायद पाश से शापित वह विचारधारा है जिसने उनकी जान ली. ये विचारधाराएं आज भी हमारे आसपास कभी-कभार प्रभावी होती दिख जाती हैं । उससे लड़ने के लिये हमारे पास हैं अब भी पाश की अमर कविताएं ।
© विजय शंकर सिंह
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