देश मे आज का समसे सामयिक विवाद राफेल लड़ाकू विमानों की खरीद का है। यह विवाद टीवी चैनलों, अखबारों और सोशल मीडिया पर छाया हुआ है। ऐसा भी नहीं है कि यह देश का सबसे पहला रक्षा सौदा विवाद है। रक्षा सौदाओं की नियति ही है विवादित होना। लगभग सभी रक्षा सौदों पर विवाद उठा है। देश का आज़ादी के बाद का सबसे पहले घोटाला, 1949 में जीप खरीद घोटाला था, जो सेना के उपयोग के लिये खरीदी गयी थीं। पर तब देश आजाद हुआ था। संचार के इतने व्यापक माध्यम नहीं थे। लोगों को सरकार के कामकाज की अधिक जानकारी भी नहीं थी। देश का राजनैतिक नेतृत्व जिनके हांथों में था, वे तपे तपाये स्वतंत्रता सेनानी थे जिन पर संदेह जनता कर ही नहीं सकती थी। पर जैसे जैसे राजनीतिक क्षरण और जनसंचार के माध्यम बढ़ने लगे उतने ही सवालात उठने लगे और लोग हर विवाद पर अपनी राय देने लगे। राफेल के पहले बोफोर्स तोप खरीद का एक घोटाला देश की राजनीति को हिला चुका है। 1986 87 में हुआ 64 करोड़ की दलाली का यह मामला, राजीव गांधी की सरकार का पतन और वीपी सिंह की प्रधानमंत्री पद पर ताजपोशी का कारण बना। यह अलग बात है कि जेपीसी, एसआईटी, तथा अन्य जांच एजेंसियों की जांच के बाद भी सच सामने नहीं आ सका। पर यह जिन्न 1986 के बाद सालों तक संसद में अपनी उपस्थिति से पक्ष और विपक्ष दोनों को ही बहस की पर्याप्त सामग्री उपलब्ध कराता रहा।
बोफोर्स के बाद एक और चर्चित प्रकरण उठा, ऑगस्टा वेस्टलैंड हेलीकॉप्टर घोटाले का। इटली की एक अदालत ने इस आधुनिक वीवीआइपी हेलीकॉप्टर के खरीद के मामले में रिश्वत देने का आरोप पाया और रिश्वत देने के आरोपी व्यक्तियों के विरुद्ध मुकदमा चलाया, पर उन्हें अंततः बरी कर दिया क्यों कि रिश्वत देने के सुबूत नहीं मिले। भारत मे सीबीआई ने भी इसकी जांच की। एक पूर्व वायुसेना अध्यक्ष इस मामले में आरोपी बनाए गए, जेल भेजे गए और अब जमानत पर हैं। अभी यह मामला अदालत में चल रहा है। लेकिन जब रिश्वत देने का ही आरोप साबित नहीं हुआ तो रिश्वत लेने का आरोप कैसे साबित हो जाएगा । मामला अभी विचाराधीन है।
इसके बाद जो ज्वलंत रक्षा सौदा विवादों के घेरे में आया है वह है राफेल विमान खरीद का। राफेल विमान फ्रांस की दसॉल्ट एविएशन कंपनी बनाती है। यह पहले मिराज विमान भी बनाती थी, जिसे भारत ने खरीदा है और उसका उपयोग भी किया है। 2007 में जब इंडियन एयरफोर्स को नए विमानों की ज़रूरत पड़ी तो, दुनिया भर में विमान कम्पनियों से विमान खरीदने के लिये संपर्क किया गया। भारत अपनी 60 % रक्षा सामग्री विदेशों से आयात करता है क्योंकि सरकारी क्षमता इतनी नहीं है कि पूरी आपूर्ति की जा सके। कुछ निजी क्षेत्रों ने भी दिलचस्पी दिखायी। जिसमे मुख्य रूप से मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज थी। भारत ने विमानों की खरीद के लिये वैश्विक निविदा आमंत्रित की। जिसमे 2012 में जब उसके परिणाम आये तो फ्रांस की दसॉल्ट कंपनी की निविदा स्वीकार की गयी । मुकेश अंबानी की रिलायंस ने रक्षा सौदे के लिये रिलायंस एयरोस्पेस टेक्नोलॉजी लिमिटेड ( आरएटीएल ) का गठन जो 2008 में हुआ था, के साथ दसॉल्ट ने समझौता किया। पर किन्ही कारणों से यह समझौता 2014 में ही रिलायंस ने रद्द कर दिया। इसके पहले ही, दसॉल्ट से भारत का 126 विमानों की खरीद का समझौता हो गया था। यह भी तय हो गया था उन विमानों के लिये भारत मे टेक्नोलॉजी ट्रांसफर होगी और एचएएल उसे देश मे ही बनाएगी। एचएएल के साथ दसॉल्ट का समझौता 13 मार्च 2014 को होता है। 2015 की 25 मार्च को दसॉल्ट के प्रमुख बेंगलुरु एचएएल आते हैं और वे यह घोषणा करते हैं कि दसॉल्ट से एचएएल की सारी बात और शर्तें तय हो चुकी हैं, बस हस्ताक्षर की औपचारिकता शेष है। 2014 में चुनाव होता है और एनडीए सरकार में आती है नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बनते हैं। 2015 की 25 मार्च तक यही सबको पता है कि यूपीए द्वारा किया गया सौदा ही तय हैं। 8 अप्रैल 2015 को विदेश सचिव जय शंकर यह बयान देते हैं कि प्रधानमंत्री के दौरे में अहम कूटनीतिक बातें होती हैं। रक्षा सौदे अलग ट्रैक पर चलते हैं। पर प्रधानमंत्री के फ्रांस के दौरे के बाद ही इस सौदे में परिवर्तन हुआ और दो महत्वपूर्ण बातें हुयी।
* पहले 126 विमान खरीदे जाने वाले थे उनकी संख्या घट कर 36 हो गयी।
* एचएएल के बजाय जो दायित्व एचएएल को मिलना था, वह अब अनिल अंबानी की बिल्कुल नयी कंपनी जो सौदे से कुछ ही दिनों पहले 28 मार्च 2015 को मुंबई में पंजीकृत होती है, उसे दे दिया गया।
इसके बाद तो संदेह, और आरोप प्रत्यारोप का दौर चलने लगा।
सवाल उठने लगे तो मुख्य रूप से यही पूछा जाने लगा कि सौदा कितने रुपये का है ? यूपीए का कहना था कि उसने जो सौदा किया था उसमें प्रति विमान की कीमत 513 करोड़ थी पर अब वही विमान 1600 करोड़ में प्रति विमान के दर से खरीदे जा रहे हैं। सरकार का कहना है कि यूपीए के विमान केवल विमान थे उनमें युद्धक सामग्री नहीं थी। अब जो है उसमें युद्धक सामग्री हैं। इसलिए कीमत बढ़ी है। इस पर विपक्ष ने सरकार का प्रतिवाद किया कि जो युद्धक स्पेसिफिकेशन थे उन्ही युद्धक स्पेसिफिकेशन पर यह सौदा हुआ है। फिर यह सवाल उठा कि पहले ठेका एचएएल को देने की बात तय की गयी थी, अब अचानक अनिल अंबानी की अनुभवहीन कंपनी को दे दिया गया। अंबानीे परिवार से प्रधानमंत्री की निकटता से इस सौदे में पक्षपात के अंश भी ढूंढे जाने लगे।
अभी तक तो विवाद बढ़ती कीमतों को लेकर ही था पर अचानक जब पूर्व फ्रेंच राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद का बयान आ गया कि अनिल अंबानी का नाम भारत सरकार ने ही सुझाया था तो इससे भारतीय राजनीति में तूफान आ गया।
फ्रेंच अखबार मिडियापार्ट ने पूर्व फ्रेंच राष्ट्रपति ओलांद के हवाले से यह खबर छापी । फ्रांस के अंदर भी इस सौदे को लेकर सवाल उठ रहे थे। इस सौदे में अनिल अंबानी को जुड़ने की एक और वजह फ्रांस में चर्चा में थी। कहा जाता है कि फ्रेंच पूर्व राष्ट्रपति ओलांद की महिला मित्र जूली गाइये एक फ़िल्म बना रही थी जिसके लिए धन की व्यवस्था अनिल अंबानी ने की। इसी उपकार का एक प्रतिदान राफेल सौदा है। वहां की मीडिया ने भी जब यह खंगालना शुरू किया कि कैसे एचएएल को हटाकर अनिल अंबानी इस सौदे में घुसे तो वहां की मीडिया को यह समाचार भी मिला। यह तो साबित हो गया कि अनिल अंबानी ने जूली के फ़िल्म निर्माण में दिलचस्पी दिखायी है। मिडियापार्ट यह भी सवाल उठाता है कि जिस फ़िल्म से भारत का दूर दूर दराज़ से कोई संबंध नहीं है उसमें एक भारतीय उद्योगपति क्यों रुचि दिखला रहा है ? फिर फ़िल्म निर्माण और राफेल सौदे के समय के साथ जो तालमेल है उससे इस पर सवाल उठना लाज़िम है। ओलांद ने इसीलिए अपने बयान में उन्होंने फिल्म की बात से इनकार किया है। लेकिन यह भी कह कर सनसनी फैला दी कि अनिल अंबानी का नाम भारत सरकार ने ही सुझाया था और उनके पास विकल्प नहीं था।
अब जब यह सौदा सन्देह के घेरे में आ गया तो जनता के मन मे अनेक सवाल उठने लगे। जो सवाल उठते हैं उन्हें इस प्रकार से देखा जा सकता है।
* जब पहले होने वाले सौदे जो यूपीए के समय मे हो रहा था, तब एचएएल का नाम दसाल्ट के भारतीय साझेदार के रूप में तय हुआ था, फिर अचानक अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस डिफेंस का नाम कैसे आ गया ?
* जब 126 विमानों की खरीद का सौदा तय हो चुका था तो उसे केवल 36 विमानों पर ही किसके संस्तुति और क्यों कर दिया गया ? यह निर्णय सीसीएस कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्युरिटी द्वारा किया जाता है। क्या उसका संख्या बदलने के लिये अनुमोदन लिया गया था।
* सौदे के कुछ ही दिन पहले पूर्व विदेश सचिव ने कहा था कि राफेल सौदे में एचएएल के साझेदार बनाने की बात चल रही है, फिर अचानक एचएएल का नाम क्यों हटा दिया गया और यह नाम हटाया जाय इसे किसने तय किया था ?
* अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस डिफेंस के अलावे क्या किसी और निजी कंपनी ने इस सौदे में दिलचस्पी दिखाई थी ? अगर नहीं दिखाई थी तो निजी क्षेत्र में ही क्यों नहीं किसी और बेहतर कंपनी की तलाश की गयी ? क्योंकि रिलायंस की तो कंपनी ही कुछ महीने पहले बनी थी।
* एचएएल एक सरकारी कंपनी है और 70 साल का अनुभव है। उसके प्रोफ़ाइल को देखें और रिलायंस के प्रोफ़ाइल को देखें तो दोनों की तुलना करने पर एचएएल रिलायंस से बेहतर ही बैठती है, फिर सरकार ने अपनी कंपनी का नाम जो पहले से ही चर्चा में थी को क्यों नहीं सुझाया ?
* कहा जा रहा है कि एचएएल सक्षम नहीं है। क्या एचएएल की सक्षमता पर कभी कोई ऐसी जांच, अध्ययन या ऑडिट हुयी है जिसमे इस कंपनी को नालायक बताया जा रहा है ?
* अगर ऐसा है तो एचएएल प्रबंधन की जिम्मेदारी तय कर उनके विरुद्ध क्या कोई कार्यवाही की गईं है ?
* यह बात सच है कि सरकारी कंपनी अक्सर सुस्त और कागज़ी कार्यवाही के आरोपों से घिरे होते हैं, पर इन आरोपो से उन्हें मुक्त करने की कभी कोई कार्यवाही किसी भी सरकार ने की है ?
* सरकारी उपक्रम अगर नालायक हैं तो कितने सरकारी उपक्रम के प्रबंधन और बोर्ड ऑफ डायरेक्टर के लोगों के खिलाफ सरकार ने कार्यवाही की है ?
* कहीं यह केवल निजी क्षेत्रों के अपने चहेते पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने के लिये एक बहाने की तरह इस्तेमाल किया जाने वाला तथ्य और तर्क मात्र तो नहीं है ?
सार्वजनिक उपक्रमों को अपने रास्ते से हटाने के लिये उनके खिलाफ भ्रष्टाचार, अकर्मण्यता, मजदूर यूनियनों की नेतागिरी की बीमारी से ग्रस्त, लालफीताशाही से जकड़ी हुयी प्रबंधन व्यवस्था, फिजूलखर्ची और बदइंतजामी के आरोप अक्सर निजी क्षेत्र लगाते रहते है । हालांकि कुछ बातें सही भी होती हैं । सरकारें भी उनके इस षड्यंत्र में शामिल हो जाती है। धीरे धीरे सरकार अपने ही उपक्रमों को नजरअंदाज करती जाती है और अक्सर जब कभी ऐसा मामला आता है तो सरकार अपने कंपनी की कम और निजी उद्योगपति की अधिक सुनती है। नतीज़तन धीरे धीरे सरकारी उपक्रम बैठते जाते हैं। फिर उन्हें सरकार पर बोझ के रूप में बताने और प्रचारित करने का एक लंबा खेल चलता है। सरकारी उपक्रम, उपेक्षा और सरकार की पूंजीपति समर्थक नीतियों के कारण जो प्रतियोगिता का भाव सरकारी कंपनियों में आना चाहिये वह नहीं हो पाता है । सरकार जिसे इस पेशेवरराना औद्योगिक प्रतियोगिता में निष्पक्ष रहना चाहिये वह निष्पक्ष नहीं रह पाती है। अनेक कारणों से उसका लगाव और झुकाव पूंजीपतियों की तरफ हो जाता है । यह सरकारी उपक्रमों की धीमी मृत्यु का एक कारण है। सरकार यह कभी नहीं बताती कि कोई सरकारी कम्पनी डूब क्यों रही है ? बदइंतजामी है तो इसके लिये जिम्मेदार कौन है ? जो जिम्मेदार है उसके खिलाफ क्या कार्यवाही की गयी ? सरकार में बैठे अफसरों और मंत्रियों जो इन उपक्रमों को अपनी निजी रियासत समझ कर इनके साथ व्यवहार करते हैं, के खिलाफ क्या कार्यवाही की गयी ? सरकारी कंपनी अगर बीमार और बैठ रही है तो सरकार कैसे अपनी जिम्मेदारी से बच सकती है ?
उद्योगों में प्रतियोगिता एक बड़ा प्रेरक तत्व होता है। प्रतियोगिता के लिये चाहे उद्योग हो या व्यक्ति सभी को अद्यावधिक होना पड़ता है नहीं तो वह दौड़ से बाहर हो जाएगा। इस मामले में भी जिस प्रकार 70 सालों की अनुभवी एचएएल को हटा कर नितांत अनुभवहीन अनिल अंबानी की कंपनी को यह दायित्व दिया गया है, उससे सरकार पर अनेक सवाल उठ खड़े हुए हैं। सरकार का यह दायित्व है कि वह इस संदेह का निवारण करे। अब वह इस मामले में शंका समाधान कैसे करती है यह सरकार पर निर्भर करता है।
© विजय शंकर सिंह
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