Saturday, 29 September 2018

एक लघुकथा असली हिजड़े - अर्शी ज़ैदी की फेसबुक टाइमलाइन से / विजय शंकर सिंह

टैम्पो से वे छः सात ठसाठस लोग एक साथ नीचे उतरे. हाय हाय और तालियों के अलग अन्दाज ने बता दिया कि वे आ गये हैं. आसपास के घरों के लोग अपने अपने छज्जों से किसी तमाशे झगडे और नंगनाच की उम्मीद में झाँकने लगे थे.

सुरेश फटाफट दौड़कर नीचे गया..उसने मुस्कराते हुये उनमें से कुछ से हाथ मिलाया और कुछ से हाथ जोड़कर नमस्ते की.और सुरेश के बेटे ने बड़ों के नाते सबके पाँव छुए .उन्होंने पूछा क्या इसी की शादी हुई है .सुरेश के हाँ कहते ही सबने बेटे का हाथ और माथा चूमते हुये बहुत दुआएँ दीं.सुरेश सबको सम्मान से ऊपर घर में लाए.उनके घर में आते ही पूरे घर ने खड़े होकर उनका सम्मान किया .बहू ने कुछ सगुन दे देकर सबके पाँव छुए और जीभर उनकी दुआएँ लीं .सब साथ बैठे ,जमकर पूरे परिवार के साथ चाय नाश्ता हुआ ..इसके बाद सुरेश ,सुरेश के बेटे बेटी और बहू सब इनके साथ देर तक नाचे और जमकर मस्ती की..फिर सबने साथ खाना खाया..

आख़िर में पान खाकर जब ये सब वापस चलने को हुये तो सुरेश ने इनके हाथ पर एक लिफाफा रख दिया, लेकिन बहुत अनुनय विनय और आग्रह के बाद भी इन्होंने यह कहते हुये लिफाफा वापस कर दिया कि सर जी हम सब जिन्दगी भर जहाँ गये हिजड़े ही बनकर गये ..आज पहली बार आपने अपने बच्चे की शादी में हमें कार्ड देकर इन्सान की तरह बुलाया है .बहू ने शगुन दे दिया अब कुछ भी लेना बाकी न रहा . इसके बाद वे सब जाने के लिये नीचे उतर आये ..और वे अपने परचित टैम्पो वाले को काल करने लगे तो सुरेश ने उनका हाथ पकड़ लिया .इसी समय सुरेश का बेटा इनोवा के दरवाजे खोलते हुये बोला ..चलिये बैठिये मै आपको घर तक पहुँचाकर आता हूँ .

वे हतप्रभ से सुरेश को देखते हुये इनोवा में बैठने लगे .तभी किसी ने अपने छज्जे से सामने वाले छज्जे पर खड़े व्यक्ति को आवाज लगाई ..ओए देख हिजड़े इनोवा से जा रहे हैं ..अचानक सबसे आगे की सीट पर बैठने वाला शख्स गाड़ी से नीचे उतरा और छज्जों की ओर सर उठाकर अपना सीना ठोंकते हुये दहाड़ा ..ओए सुन ..हाँ हम हिजड़े हैं ..हैं हिजड़े ..लेकिन तुम सब भी मर्द नहीं हो ..मर्द तो बस ये हैं सुरेश जी , इन्होंने हमें इन्सान समझा ..इन्सान की तरह कार्ड देकर बेटे की शादी में बुलाया और इन्सान की तरह ही इनका बच्चा हमें भेजने जा रहा है .

और सुन हम तो वो हिजड़े हैं जो कहीं भी दुआएँ देने के लिये जाते हैं , लेकिन तुम सब तो वो हिजड़े हो जो इंसानियत के नाम पर बददुआ होते हैं .थू है तुम सब पर..

फिर वे गाड़ी में बैठकर चले गये थे और अपने पीछे असली हिजड़े छोड़ गये थे.…
( साभार अर्शी ज़ैदी )

© विजय शंकर सिंह

फ़र्ज़ी मुठभेड़ें, सिर्फ और सिर्फ एक हत्या है / विजय शंकर सिंह

फ़र्ज़ी मुठभेड़ें सिर्फ और सिर्फ एक हत्या है.
एनकाउंटर स्पेशलिस्ट, यह शब्द किसने और कहां ईजाद किया है, यह मैं नहीं बता पाऊंगा। पर पुलिस के कुछ मुठभेड़ों की वास्तविकता जानने के बाद, यह शब्द हत्या का अपराध करने की मानसिकता का पर्याय बन गया है। अगर सभी मुठभेड़ों की जांच सीआईडी से हो जाय तो बहुत कम पुलिस मुठभेड़ें कानूनन और सत्य साबित होंगी अन्यथा अधिकतर मुठभेड़ें हत्या में तब्दील हों जाएंगी और जो भी पुलिस कर्मी इनमें लिप्त होंगे वे जेल में हत्या के अपराध में या तो सज़ा काट रहे होंगे या अदालतों में बहैसियत मुल्ज़िम ट्रायल झेल रहे होंगे ।

जब पुलिस के एसआई, इंस्पेक्टर ऐसी मुठभेड़ों में जेल में होते हैं तो उनकी पीठ थपथपाने वाले अफसर और उनकी विरुदावली गाने वाले चौराहे के अड्डेबाज़ नेता, इनमें से एक भी मदद करने सामने नहीं आता है। पुलिस का काम हत्या रोकना है, हत्यारे को पकड़ना है, सुबूत इकट्ठा कर अदालत में देना है, न कि फ़र्ज़ी कहानी गढ़ कर के किसी को गोली मार देना है। लोग कहेंगे अदालत अपराधियो को छोड़ देती है। हत्यारों और अपराधियों को लंबे समय तक सज़ा नहीं मिलती है। उनकी जमानतें हो जाती है। वे सज़ायाबी का प्रतिशत भी दिखाएंगे, और सारा दारोमदार पुलिस के ऊपर रख देंगे।  पर जब पुलिस के अधीनस्थ अधिकारी मुठभेड़ सम्बंधी  हत्या के किसी मामले में फंस कर, अपने जीपी फंड का पैसा वकीलों को दे कर, बदहवास हुये अदालतों का चक्कर काटते हैं तो यही लोग पैंतरा बदल कर रास्ता बदल देते हैं। यह सारा दारोमदार धरा का धरा रह जाता है। पुलिस का काम कानून को लागू करना है। और कानून में ही यह बात भी स्पष्ट है कि कौन सा कानून कैसे लागू किया जाएगा।

सरकार और अफसरों की एक अघोषित नीति बनती जा रही है कि वे अधीनस्थों को मुठभेड़ों के लिये उकसायें। मैं यहां प्रोत्साहन शब्द जान बूझकर नहीं लिख रहा हूँ। क्योंकि जिस तरह से राजनेताओं से लेकर बड़े अफसरों तक मुठभेड़ें कर के अपना खोखला शौर्य दिखाने की होड़ में दौड़ते हैं, वह कभी कभी लगता है कि, विभाग, सरकार, समाज और कानून सबके लिये घातक है।

© विजय शंकर सिंह

Thursday, 27 September 2018

राफेल सौदा - कुछ तथ्य और महत्वपूर्ण घटनाक्रम / विजय शंकर सिंह

* इंडियन एक्सप्रेस में सुशांत सिंह के लेख के अनुसार सितंबर 2016 में रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर और फ्रांस के रक्षा मंत्री के बीच रफाएल क़रार पर दस्तख़त हुए थे, उसके ठीक पहले रक्षा मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने रफाल लड़ाकू विमानों की कीमतों को लेकर सवाल उठाए थे और इसे फाइल में दर्ज़ किया था।

* यह अधिकारी कांट्रेक्ट नेगोशिएशन कमिटी के सदस्य भी थे। रक्षा मंत्रालय में इनका ओहदा संयुक्त सचिव का था। इनका काम था कैबिनेट की मंज़ूरी के लिए नोट तैयार करना।

* संयुक्त सचिव के एतराज़ के कारण कैबिनेट की मंज़ूरी में वक्त लग गया। इनके एतराज़ को दरकिनार करने के बाद ही क़रार पर समझौता हुआ था। जब उनसे वरिष्ठ दर्जे के अधिकारी यानी एक्विज़िशन( ख़रीद-फ़रोख़्त) के महानिदेशक ने उस एतराज़ को दरकिनार कर दिया।

* संयुकत सचिव और एक्विज़िशन मैनेजर ने जिस फाइल पर अपनी आपत्ति दर्ज की थी वो इस वक्त सीएजी के पास है। दिसंबर के शीतकालीन सत्र में सीएजी अपनी रिपोर्ट सौंपने वाली है।

* संयुक्त सचिव की मुख्य दलील 36 रफाल विमानों के बेंचमार्क कीमत को लेकर थी। उनका कहना था 126 रफाल विमानों के लिए जो बेंचमार्क कीमत तय थी उससे कहीं ज़्यादा 36 रफाल विमानों के लिए दी जा रही है।

* यूपीए के समय 126 लड़ाकू विमानों के लिए टेंडर निकला था। इसके बाद भारतीय वायुसेना ने छह विमान कंपनियों के विमान को टेस्ट किया था। ये सभी फाइनल राउंड के लिए चुने गए थे। रफाल के साथ जर्मनी क यूरोफाइटर से भी बातचीत चली थी।

* संयुक्त सचिव ने कहा था कि यूरोफाइटर तो टेंडर में कोट किए गए दाम में 20 प्रतिशत की छूट भी दे रहा है। तो यह काफी सस्ता पड़ेगा। यूरोफाइटर ने यह छूट तब देने की पेशकश की थी जब मोदी सरकार बन चुकी थी।

* संयुक्त सचिव ने लिखा है कि रफाल से भी 20 प्रतिशत की छूट की बात होनी चाहिए क्योंकि उसका कंपटीटर यानी प्रतिस्पर्धी 20 प्रतिशत कम पर जहाज़ दे रहा है। रफाल और यूरोफाइटर दोनों में ख़ास अंतर नहीं है। दोनों ही उत्तम श्रेणी के लड़ाकू विमान माने जाते हैं।

* संयुक्त सचिव के नोट में यह बात भी दर्ज है कि भारतीय वायुसेना के पास सुखोई 30 विमानों का जो बेड़ा है उसका निर्माण हिन्दुस्तान एयरोनोटिक्स लिमिटेड कर रहा है।

* भारतीय वायसेना इस पैसे में ज़्यादा सुखोई 30 हिन्दुस्तान एयरोनोटिक्स लिमिटेड से ही ख़रीद सकती है। सुखोई 30 भी उत्तम श्रेणी के लड़ाकू विमानों में है और इस वक्त भारतीय वायुसेना के लड़ाकू विमानो का नेतृत्व करता है।

* अगस्त 2016 में रक्षा मंत्री मनोहर परिर्कर ने इस नोट पर विचार किया था। इसके लिए डिफेंस एक्विज़िशन काउंसिल है जिसे DAC कहते हैं। इसी बैठक में 36 रफाल विमानों की ख़रीद की मंज़ूरी दी गई थी और कैबिनट को प्रस्ताव भेजा गया था। इस बैठक में ही संयुक्त सचिव के एतराज़ को खारिज किया गया।

* सितंबर के पहले सप्ताह में DAC ने रफाल डील को मंज़ूरी दे दी।

* पत्रकार रोहिणी सिंह ने ट्विट के अनुसार, एक्विजिशन की महानिदेशक स्मिता नागराज को रिटायर होने के बाद सरकार ने एहसान चुका दिया। उन्हें संघ लोक सेवा आयोग ( यूपीएससी ) का सदस्य बना दिया।

* ऐतराज करने वाले संयुक्त सचिव के छुट्टी पर चले जाने के बाद एक नए अफसर से कैबिनेट के लिए नोट तैयार करवाया गया। जिसे सितंबर 2016 के तीसरे सप्ताह में मंज़ूरी दी गई। 23 सितंबर 2016 को भारत के रक्षा मंत्री और फ्रांस के रक्षा मंत्री के बीच 59,262 करोड़ की डील पर दस्तखत हुआ।

* फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वां ओलांद ने भी कहा था कि मूल सौदा 126 का था। लेकिन भारत में नई सरकार बन गई और उसने प्रस्ताव को बदल दिया, जो हमारे लिए कम आकर्षक था क्योंकि यह सिर्फ 36 विमानों के लिए था।

* रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा था कि भारत की हिन्दुस्तान एयरोनोटिक्स लिमिटेड कंपनी 126 रफाल नहीं बना सकती थी इसलिए अनिल अंबानी की रिलायंस डिफेंस के साथ दास्सो एविएशन ने करार किया। मेरा सवाल यह है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि अनिल अंबानी की नई नई कंपनी 126 विमान नहीं बना सकती थी इसलिए उसे फायदा पहुंचाने के लिए 36 विमानों का करार किया गया?

( श्रोत इंडियन एक्सप्रेस में सुशांत सिंह का लेख  और रवीश कुमार का ब्लॉग )
© विजय शंकर सिंह

Monday, 24 September 2018

24 सितंबर दिनकर की पुण्यतिथि पर उनकी एक कविता - भारत का यह रेशमी नगर / विजय शंकर सिंह

रामधारी सिंह दिनकर, हिंदी के मूर्धन्य कवियों में से एक रहे है। पद्य पर जितनी पकड़ इनकी थी, उससे कम इनकी पैठ गद्य में नहीं थी। अनेक निबंध, यात्रा वृत्तांत इन्होंने लिखे हैं। पर इतिहास और संस्कृति पर लिखी इनकी कालजयी पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय अपने तरह की अनूठी पुस्तक है। यह पुस्तक दिनकर के अध्ययन और पांडित्य को प्रदर्शित करती है।

आज उनकी यह कविता पढ़े। यह कविता दिल्ली पर है। दिल्ली जो देश की राजधानी है, और अनेकों बार लूटी गयी, जलायी गयी, भूलुंठित हुयी, बनी, संवरी और फिर इतिहास में दफन हो गयी गोया कोई शहर नहीं, एक जीवित प्राणी हो। इंद्रप्रस्थ से लेकर नयी दिल्ली ने कितने कलेवर धारण किये कितने रंग बदले इसका लेखाजोखा किया जाय तो एक बहुखण्डीय पुस्तक बन सकती है। महाभारत के इंद्रप्रस्थ से लेकर विलियम डेलिरिम्पल के द सिटी ऑफ जिन्न तक दिल्ली पर बहुत कुछ लिखा गया है। पर दिनकर की यह कविता अनोखी है।
***
भारत का यह रेशमी नगर
रामधारी सिंह "दिनकर"

दिल्ली फूलों में बसी, ओस-कण से भीगी, दिल्ली सुहाग है, सुषमा है, रंगीनी है,
प्रेमिका-कंठ में पड़ी मालती की माला, दिल्ली सपनों की सेज मधुर रस-भीनी है।

बस, जिधर उठाओ दृष्टि, उधर रेशम केवल, रेशम पर से क्षण भर को आंख न हटती है,
सच कहा एक भाई ने, दिल्ली में तन पर रेशम से रुखड़ी चीज न कोई सटती है।

हो भी क्यों नहीं? कि दिल्ली के भीतर जाने, युग से कितनी सिदि्धयां समायी हैं।
औ` सबका पहुंचा काल तभी जब से उन की आंखें रेशम पर बहुत अधिक ललचायी हैं।

रेशम से कोमल तार, क्लांतियों के धागे, हैं बंधे उन्हीं से अंग यहां आजादी के,
दिल्ली वाले गा रहे बैठ निश्चिंत मगन रेशमी महल में गीत खुरदुरी खादी के।

वेतनभोगिनी, विलासमयी यह देवपुरी, ऊंघती कल्पनाओं से जिस का नाता है,
जिसको इसकी चिन्ता का भी अवकाश नहीं, खाते हैं जो वह अन्न कौन उपजाता है।

उद्यानों का यह नगर कहीं भी जा देखो, इसमें कुम्हार का चाक न कोई चलता है,
मजदूर मिलें पर, मिलता कहीं किसान नहीं, फूलते फूल, पर, मक्का कहीं न फलता है।

क्या ताना है मोहक वितान मायापुर का, बस, फूल-फूल, रेशम-रेशम फैलाया है,
लगता है, कोई स्वर्ग खमंडल से उड़कर, मदिरा में माता हुआ भूमि पर आया है।

ये, जो फूलों के चीरों में चमचमा रहीं, मधुमुखी इन्द्रजाया की सहचरियां होंगी,
ये, जो यौवन की धूम मचाये फिरती हैं, भूतल पर भटकी हुई इन्द्रपरियां होंगी।

उभरे गुलाब से घटकर कोई फूल नहीं, नीचे कोई सौंदर्य न कसी जवानी से,
दिल्ली की सुषमाओं का कौन बखान करे? कम नहीं कड़ी कोई भी स्वप्न कहानी से।

गंदगी, गरीबी, मैलेपन को दूर रखो, शुद्धोदन के पहरेवाले चिल्लाते हैं,
है कपिलवस्तु पर फूलों का शृंगार पड़ा, रथ-समारूढ़ सिद्धार्थ घूमने जाते हैं।

सिद्धार्थ देख रम्यता रोज ही फिर आते, मन में कुत्सा का भाव नहीं, पर, जगता है,
समझाये उनको कौन, नहीं भारत वैसा दिल्ली के दर्पण में जैसा वह लगता है।

भारत धूलों से भरा, आंसुओं से गीला, भारत अब भी व्याकुल विपत्ति के घेरे में।
दिल्ली में तो है खूब ज्योति की चहल-पहल, पर, भटक रहा है सारा देश अँधेरे में।

रेशमी कलम से भाग्य-लेख लिखनेवालों, तुम भी अभाव से कभी ग्रस्त हो रोये हो?
बीमार किसी बच्चे की दवा जुटाने में, तुम भी क्या घर भर पेट बांधकर सोये हो?

असहाय किसानों की किस्मत को खेतों में, कया जल मे बह जाते देखा है?
क्या खाएंगे? यह सोच निराशा से पागल, बेचारों को नीरव रह जाते देखा है?

देखा है ग्रामों की अनेक रम्भाओं को, जिन की आभा पर धूल अभी तक छायी है?
रेशमी देह पर जिन अभागिनों की अब तक रेशम क्या? साड़ी सही नहीं चढ़ पायी है।

पर तुम नगरों के लाल, अमीरों के पुतले, क्यों व्यथा भाग्यहीनों की मन में लाओगे?
जलता हो सारा देश, किन्तु, होकर अधीर तुम दौड़-दौड़कर क्यों यह आग बुझाओगे?

चिन्ता हो भी क्यों तुम्हें, गांव के जलने से, दिल्ली में तो रोटियां नहीं कम होती हैं।
धुलता न अश्रु-बुंदों से आंखों से काजल, गालों पर की धूलियां नहीं नम होती हैं।

जलते हैं तो ये गांव देश के जला करें, आराम नयी दिल्ली अपना कब छोड़ेगी?
या रक्खेगी मरघट में भी रेशमी महल, या आंधी की खाकर चपेट सब छोड़ेगी।

चल रहे ग्राम-कुंजों में पछिया के झकोर, दिल्ली, लेकिन, ले रही लहर पुरवाई में।
है विकल देश सारा अभाव के तापों से, दिल्ली सुख से सोयी है नरम रजाई में।

क्या कुटिल व्यंग्य! दीनता वेदना से अधीर, आशा से जिनका नाम रात-दिन जपती है,
दिल्ली के वे देवता रोज कहते जाते, `कुछ और धरो धीरज, किस्मत अब छपती है।´

किस्मतें रोज छप रहीं, मगर जलधार कहां? प्यासी हरियाली सूख रही है खेतों में,
निर्धन का धन पी रहे लोभ के प्रेत छिपे, पानी विलीन होता जाता है रेतों में।

हिल रहा देश कुत्सा के जिन आघातों से, वे नाद तुम्हें ही नहीं सुनाई पड़ते हैं?
निर्माणों के प्रहरियों! तुम्हें ही चोरों के काले चेहरे क्या नहीं दिखाई पड़ते हैं?

तो होश करो, दिल्ली के देवो, होश करो, सब दिन तो यह मोहिनी न चलनेवाली है,
होती जाती है गर्म दिशाओं की सांसें, मिट्टी फिर कोई आग उगलनेवाली है।

हों रहीं खड़ी सेनाएं फिर काली-काली मेंघों-से उभरे हुए नये गजराजों की,
फिर नये गरुड़ उड़ने को पांखें तोल रहे, फिर झपट झेलनी होगी नूतन बाजों की।

वृद्धता भले बंध रहे रेशमी धागों से, साबित इनको, पर, नहीं जवानी छोड़ेगी,
सिके आगे झुक गये सिद्धियों के स्वामी, उस जादू को कुछ नयी आंधियां तोड़ेंगी।

ऐसा टूटेगा मोह, एक दिन के भीतर, इस राग-रंग की पूरी बर्बादी होगी,
जब तक न देश के घर-घर में रेशम होगा, तब तक दिल्ली के भी तन पर खादी होगी।
***
रामधारी सिंह 'दिनकर' ( 23 सितंबर 1908 - 24 अप्रैल 1974 ) हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। बिहार प्रान्त के बेगुसराय जिले का सिमरिया घाट उनकी जन्मस्थली है। उन्होंने इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से की। उन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था।

'दिनकर' स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद राष्ट्रकवि के नाम से जाने गये। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तिय का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है। उर्वशी को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार जबकि कुरुक्षेत्र को विश्व के 100 सर्वश्रेष्ठ काव्यों में 74 वाँ स्थान दिया गया।
दिनकर जी की पुण्यतिथि 24 सितंबर को उनका विनम्र स्मरण।

© विजय शंकर सिंह

रक्षा सौदों की नियति - राफेल विवाद और उस पर उठते कुछ सवाल - एक चर्चा / विजय शंकर सिंह

देश मे आज का समसे सामयिक विवाद राफेल लड़ाकू विमानों की खरीद का है। यह विवाद टीवी चैनलों, अखबारों और सोशल मीडिया पर छाया हुआ है। ऐसा भी नहीं है कि यह देश का सबसे पहला रक्षा सौदा विवाद है। रक्षा सौदाओं की नियति ही है विवादित होना। लगभग सभी रक्षा सौदों पर विवाद उठा है। देश का आज़ादी के बाद का सबसे पहले घोटाला, 1949 में जीप खरीद घोटाला था, जो सेना के उपयोग के लिये खरीदी गयी थीं। पर तब देश आजाद हुआ था। संचार के इतने व्यापक माध्यम नहीं थे। लोगों को सरकार के कामकाज की अधिक जानकारी भी नहीं थी। देश का राजनैतिक नेतृत्व जिनके हांथों में था, वे तपे तपाये स्वतंत्रता सेनानी थे जिन पर संदेह जनता कर ही नहीं सकती थी। पर जैसे जैसे राजनीतिक क्षरण और जनसंचार के माध्यम बढ़ने लगे उतने ही सवालात उठने लगे और लोग हर विवाद पर अपनी राय देने लगे। राफेल के पहले बोफोर्स तोप खरीद का एक घोटाला देश की राजनीति को हिला चुका है। 1986 87 में हुआ 64 करोड़ की दलाली का यह मामला, राजीव गांधी की सरकार का पतन और वीपी सिंह की प्रधानमंत्री पद पर ताजपोशी का कारण बना। यह अलग बात है कि जेपीसी, एसआईटी, तथा अन्य जांच एजेंसियों की जांच के बाद भी सच सामने नहीं आ सका। पर यह जिन्न 1986 के बाद सालों तक संसद में अपनी उपस्थिति से पक्ष और विपक्ष दोनों को ही बहस की पर्याप्त सामग्री उपलब्ध कराता रहा।


बोफोर्स के बाद एक और चर्चित प्रकरण उठा, ऑगस्टा वेस्टलैंड हेलीकॉप्टर घोटाले का। इटली की एक अदालत ने इस आधुनिक वीवीआइपी हेलीकॉप्टर के खरीद के मामले में रिश्वत देने का आरोप पाया और रिश्वत देने के आरोपी व्यक्तियों के विरुद्ध मुकदमा चलाया, पर उन्हें अंततः बरी कर दिया क्यों कि रिश्वत देने के सुबूत नहीं मिले। भारत मे सीबीआई ने भी इसकी जांच की। एक पूर्व वायुसेना अध्यक्ष इस मामले में आरोपी बनाए गए, जेल भेजे गए और अब जमानत पर हैं। अभी यह मामला अदालत में चल रहा है। लेकिन जब रिश्वत देने का ही आरोप साबित नहीं हुआ तो रिश्वत लेने का आरोप कैसे साबित हो जाएगा । मामला अभी विचाराधीन है।

इसके बाद जो ज्वलंत रक्षा सौदा विवादों के घेरे में आया है वह है राफेल विमान खरीद का। राफेल विमान फ्रांस की दसॉल्ट एविएशन कंपनी बनाती है। यह पहले मिराज विमान भी बनाती थी, जिसे भारत ने खरीदा है और उसका उपयोग भी किया है। 2007 में जब इंडियन एयरफोर्स को नए विमानों की ज़रूरत पड़ी तो, दुनिया भर में विमान कम्पनियों से विमान खरीदने के लिये संपर्क किया गया। भारत अपनी 60 % रक्षा सामग्री विदेशों से आयात करता है क्योंकि सरकारी क्षमता इतनी नहीं है कि पूरी आपूर्ति की जा सके। कुछ निजी क्षेत्रों ने भी दिलचस्पी दिखायी। जिसमे मुख्य रूप से मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज थी। भारत ने विमानों की खरीद के लिये वैश्विक निविदा आमंत्रित की। जिसमे 2012 में जब उसके परिणाम आये तो फ्रांस की दसॉल्ट कंपनी की निविदा स्वीकार की गयी । मुकेश अंबानी की रिलायंस ने रक्षा सौदे के लिये रिलायंस एयरोस्पेस टेक्नोलॉजी लिमिटेड ( आरएटीएल ) का गठन जो 2008 में हुआ था, के साथ दसॉल्ट ने समझौता किया। पर किन्ही कारणों से यह समझौता 2014 में ही रिलायंस ने रद्द कर दिया। इसके पहले ही, दसॉल्ट से भारत का 126 विमानों की खरीद का समझौता हो गया था। यह भी तय हो गया था उन विमानों के लिये भारत मे टेक्नोलॉजी ट्रांसफर होगी और एचएएल उसे देश मे ही बनाएगी। एचएएल के साथ दसॉल्ट का समझौता 13 मार्च 2014 को होता है। 2015 की 25 मार्च को दसॉल्ट के प्रमुख बेंगलुरु एचएएल आते हैं और वे यह घोषणा करते हैं कि दसॉल्ट से एचएएल की सारी बात और शर्तें तय हो चुकी हैं, बस हस्ताक्षर की औपचारिकता शेष है। 2014 में चुनाव होता है और एनडीए सरकार में आती है नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बनते हैं। 2015 की 25 मार्च तक यही सबको पता है कि यूपीए द्वारा किया गया सौदा ही तय हैं। 8 अप्रैल 2015 को विदेश सचिव जय शंकर यह बयान देते हैं कि प्रधानमंत्री के दौरे में अहम कूटनीतिक बातें होती हैं। रक्षा सौदे अलग ट्रैक पर चलते हैं। पर प्रधानमंत्री के फ्रांस के दौरे के बाद  ही इस सौदे में परिवर्तन हुआ और दो महत्वपूर्ण बातें हुयी।
* पहले 126 विमान खरीदे जाने वाले थे उनकी संख्या घट कर 36 हो गयी।
* एचएएल के बजाय जो दायित्व एचएएल को मिलना था, वह अब अनिल अंबानी की बिल्कुल नयी कंपनी जो सौदे से कुछ ही दिनों पहले 28 मार्च 2015 को मुंबई में पंजीकृत होती है, उसे दे दिया गया।
इसके बाद तो संदेह, और आरोप प्रत्यारोप का दौर चलने लगा।

सवाल उठने लगे तो मुख्य रूप से यही पूछा जाने लगा कि सौदा कितने रुपये का है ? यूपीए का कहना था कि उसने जो सौदा किया था उसमें प्रति विमान की कीमत 513 करोड़ थी पर अब वही विमान 1600 करोड़ में प्रति विमान के दर से खरीदे जा रहे हैं। सरकार का कहना है कि यूपीए के विमान केवल विमान थे उनमें युद्धक सामग्री नहीं थी। अब जो है उसमें युद्धक सामग्री हैं। इसलिए कीमत बढ़ी है। इस पर विपक्ष ने सरकार का प्रतिवाद किया कि जो युद्धक स्पेसिफिकेशन थे उन्ही युद्धक स्पेसिफिकेशन पर यह सौदा हुआ है। फिर यह सवाल उठा कि पहले ठेका एचएएल को देने की बात तय की गयी थी, अब अचानक अनिल अंबानी की अनुभवहीन कंपनी को दे दिया गया। अंबानीे परिवार से प्रधानमंत्री की निकटता से इस सौदे में पक्षपात के अंश भी ढूंढे जाने लगे।

अभी तक तो विवाद बढ़ती कीमतों को लेकर ही था पर अचानक जब पूर्व फ्रेंच राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद का बयान आ गया कि अनिल अंबानी का नाम भारत सरकार ने ही सुझाया था तो इससे भारतीय राजनीति में तूफान आ गया।
फ्रेंच अखबार मिडियापार्ट ने पूर्व फ्रेंच राष्ट्रपति ओलांद के हवाले से यह खबर छापी । फ्रांस के अंदर भी इस सौदे को लेकर सवाल उठ रहे थे। इस सौदे में अनिल अंबानी को जुड़ने की एक और वजह फ्रांस में चर्चा में थी। कहा जाता है कि फ्रेंच पूर्व राष्ट्रपति ओलांद की महिला मित्र जूली गाइये एक फ़िल्म बना रही थी जिसके लिए धन की व्यवस्था अनिल अंबानी ने की। इसी उपकार का एक प्रतिदान राफेल सौदा है। वहां की मीडिया ने भी जब यह खंगालना शुरू किया कि कैसे एचएएल को हटाकर अनिल अंबानी इस सौदे में घुसे तो वहां की मीडिया को यह समाचार भी मिला। यह तो साबित हो गया कि अनिल अंबानी ने जूली के फ़िल्म निर्माण में दिलचस्पी दिखायी है। मिडियापार्ट यह भी सवाल उठाता है कि जिस फ़िल्म से भारत का दूर दूर दराज़ से कोई संबंध नहीं है उसमें एक भारतीय उद्योगपति क्यों रुचि दिखला रहा है ? फिर फ़िल्म निर्माण और राफेल सौदे के समय के साथ जो तालमेल है उससे इस पर सवाल उठना लाज़िम है। ओलांद ने इसीलिए अपने बयान में उन्होंने फिल्म की बात से इनकार किया है। लेकिन यह भी कह कर सनसनी फैला दी कि अनिल अंबानी का नाम भारत सरकार ने ही सुझाया था और उनके पास विकल्प नहीं था। 

अब जब यह सौदा सन्देह के घेरे में आ गया तो जनता के मन मे अनेक सवाल उठने लगे। जो सवाल उठते हैं उन्हें इस प्रकार से देखा जा सकता है। 
* जब पहले होने वाले सौदे जो यूपीए के समय मे हो रहा था, तब एचएएल का नाम दसाल्ट के भारतीय साझेदार के रूप में तय हुआ था, फिर अचानक अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस डिफेंस का नाम कैसे आ गया ? 
* जब 126 विमानों की खरीद का सौदा तय हो चुका था तो उसे केवल 36 विमानों पर ही किसके संस्तुति और क्यों कर दिया गया ? यह निर्णय सीसीएस कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्युरिटी द्वारा किया जाता है। क्या उसका संख्या बदलने के लिये अनुमोदन लिया गया था। 
* सौदे के कुछ ही दिन पहले पूर्व विदेश सचिव ने कहा था कि राफेल सौदे में एचएएल के साझेदार बनाने की बात चल रही है, फिर अचानक एचएएल का नाम क्यों हटा दिया गया और यह नाम हटाया जाय इसे किसने तय किया था ?
* अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस डिफेंस के अलावे क्या किसी और निजी कंपनी ने इस सौदे में दिलचस्पी दिखाई थी ? अगर नहीं दिखाई थी तो निजी क्षेत्र में ही क्यों नहीं किसी और बेहतर कंपनी की तलाश की गयी ? क्योंकि रिलायंस की तो कंपनी ही कुछ महीने पहले बनी थी। 
* एचएएल एक सरकारी कंपनी है और 70 साल का अनुभव है। उसके प्रोफ़ाइल को देखें और रिलायंस के प्रोफ़ाइल को देखें तो दोनों की तुलना करने पर एचएएल रिलायंस से बेहतर ही बैठती है, फिर सरकार ने अपनी कंपनी का नाम जो पहले से ही चर्चा में थी को क्यों नहीं सुझाया ? 
* कहा जा रहा है कि एचएएल सक्षम नहीं है। क्या एचएएल की सक्षमता पर कभी कोई ऐसी जांच, अध्ययन या ऑडिट हुयी है जिसमे इस कंपनी को नालायक बताया जा रहा है ? 
* अगर ऐसा है तो एचएएल प्रबंधन की जिम्मेदारी तय कर उनके विरुद्ध क्या कोई कार्यवाही की गईं है ?
* यह बात सच है कि सरकारी कंपनी अक्सर सुस्त और कागज़ी कार्यवाही के आरोपों से घिरे होते हैं, पर इन आरोपो से उन्हें मुक्त करने की कभी कोई कार्यवाही किसी भी सरकार ने की है ? 
* सरकारी उपक्रम अगर नालायक हैं तो कितने सरकारी उपक्रम के प्रबंधन और बोर्ड ऑफ डायरेक्टर के लोगों के खिलाफ सरकार ने कार्यवाही की है ? 
* कहीं यह केवल निजी क्षेत्रों के अपने चहेते पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने के लिये एक बहाने की तरह इस्तेमाल किया जाने वाला तथ्य और तर्क मात्र तो नहीं है ?

सार्वजनिक उपक्रमों को अपने रास्ते से हटाने के लिये उनके खिलाफ भ्रष्टाचार, अकर्मण्यता, मजदूर यूनियनों की नेतागिरी की बीमारी से ग्रस्त, लालफीताशाही से जकड़ी हुयी प्रबंधन व्यवस्था, फिजूलखर्ची और बदइंतजामी के आरोप अक्सर निजी क्षेत्र लगाते रहते है । हालांकि कुछ बातें सही भी होती हैं । सरकारें भी उनके इस षड्यंत्र में शामिल हो जाती है। धीरे धीरे सरकार अपने ही उपक्रमों को नजरअंदाज करती जाती  है और अक्सर जब कभी ऐसा मामला आता है तो सरकार अपने कंपनी की कम और निजी उद्योगपति की अधिक सुनती है। नतीज़तन धीरे धीरे सरकारी उपक्रम बैठते जाते हैं। फिर उन्हें सरकार पर बोझ के रूप में बताने और प्रचारित करने का एक लंबा खेल चलता है।  सरकारी उपक्रम, उपेक्षा और सरकार की पूंजीपति समर्थक नीतियों के कारण जो प्रतियोगिता का भाव सरकारी कंपनियों में आना चाहिये वह नहीं हो पाता है । सरकार जिसे इस पेशेवरराना औद्योगिक प्रतियोगिता में निष्पक्ष रहना चाहिये वह निष्पक्ष नहीं रह पाती है। अनेक कारणों से उसका लगाव और झुकाव पूंजीपतियों की तरफ हो जाता है । यह सरकारी उपक्रमों की धीमी मृत्यु का एक कारण है। सरकार यह कभी नहीं बताती कि कोई सरकारी कम्पनी डूब क्यों रही है ? बदइंतजामी है तो इसके लिये जिम्मेदार कौन है ? जो जिम्मेदार है उसके खिलाफ क्या कार्यवाही की गयी ? सरकार में बैठे अफसरों और मंत्रियों जो इन उपक्रमों को अपनी निजी रियासत समझ कर इनके साथ व्यवहार करते हैं, के खिलाफ क्या कार्यवाही की गयी ? सरकारी कंपनी अगर बीमार और बैठ रही है तो सरकार कैसे अपनी जिम्मेदारी से बच सकती है ?

उद्योगों में प्रतियोगिता एक बड़ा प्रेरक तत्व होता है। प्रतियोगिता के लिये चाहे उद्योग हो या व्यक्ति सभी को अद्यावधिक होना पड़ता है नहीं तो वह दौड़ से बाहर हो जाएगा। इस मामले में भी जिस प्रकार 70 सालों की अनुभवी एचएएल को हटा कर नितांत अनुभवहीन अनिल अंबानी की कंपनी को यह दायित्व दिया गया है, उससे सरकार पर अनेक सवाल उठ खड़े  हुए हैं। सरकार का यह दायित्व है कि वह इस संदेह का निवारण करे। अब वह इस मामले में शंका समाधान कैसे करती है यह सरकार पर निर्भर करता है।

© विजय शंकर सिंह