Monday, 2 July 2018

जीएसटी कर प्रणाली का एक साल - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह

एक साल हो गए इस टैक्स सुधार यंत्र के लागू हुये। मैं न तो व्यापारिक परिवार और परिवेश से हूं और न ही मेरे घर परिवार में किसी ने कभी कोई व्यापार किया है न निकट भविष्य में ऐसा होने की कोई संभावना है। लेकिन नौकरी के दौरान कानपुर में बहुत अधिक समय तक नियुक्त रहने और फिर निजी कारणों से कानपुर में ही फिलहाल बस जाने के कारण कानपुर के अधिकतर व्यापारी मित्रों और घरानों से अच्छी दोस्ती है और उनसे मिलना जुलना भी होता रहता है।

जब जीएसटी लागू नहीं हुई थी तो अधिकतर व्यापारी मित्र कहते थे, एक देश एक टैक्स प्रणाली आ जायेगी तो व्यापार को गति मिलेगी और सरकारी अधिकारियों को दी जाने वाली रिश्वत पर भी नकेल लगेगी। व्यापार करना और सामान मंगाना और भेजना, करों की एकरूपता के कारण सुगम हो जाएगा। लेकिन जब एक साल पहले संसद में घण्टे की ध्वनि के साथ इस महत्वकांक्षी कर सुधार की घोषणा की गई तो कुछ ही दिन में इसकी आलोचना भी व्यापारी वर्ग करने लगा।

किसी ने कहा कि जीएसटी में हर दस दिन पर रिटर्न भरना होता है। रिटर्न भी जटिल है। कभो सर्वर नहीं खुलता है, कभी खुलता है तो डाउनलोड धीरे धीरे होता है । कभी आधा फॉर्म भरते भरते फिर सर्वर को मूर्च्छा आ जाती है।

किसी ने कहा कि सीए साहबान ने भी अपनी फीस बढ़ा दी और कभी कभी सीए साहबान भी नहीं समझ नहीं पाते कि जीएसटी के किस प्राविधान में क्या किया जाय और क्या न किया जाय ।

कोई कहता कि अब हर दुकान पर कम्प्यूटर रखना पड़ेगा और उसी हिसाब से कम्प्यूटर क्लर्क रखने पड़ेंगे। खैर कम्प्यूटर की भले ही कमी हो जाय पर कम्प्यूटर चलाने के लिये  कौशल स्कूल से ले कर एमबीए तक ढेर सारे बेरोजगार युवा उपलब्ध हैं। तीन बुलाएं तेरह आवें। पर यह भी तो एक फालतू का खर्च है। शुभ लाभ रिद्धि सिद्धि तो व्यापारी देखता ही है।

एक मित्र ने कहा कि, अब एक ही शहर में एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजने के लिये एक ईवे बिल होता है, उसे भरना पड़ता है। हालांकि यह बिल अभी लोग भर नहीं रहे हैं। क्यों कि इसे भरना बड़ा जटिल है। अगर न भरा तो कोई भी सेल्स टैक्स वाला गाड़ी धर लेगा। फिर हर कोई नमक का दारोगा तो होता नही । सेल्स टैक्स वालों को तो छोड़िये, पुलिस और होमगार्ड ही अगर भनक लग जायेगी तो पकड़ लेंगे। यह भी कहा चलिये अभी लखनपुर आप को वाणिज्यकर कार्यालय ले जा कर दिखा दें कितनी गाड़ियां पकड़ के खड़ी की गयी हैं। लखनपुर में सेल्स टैक्स का आफिस है।

एक मित्र कह रहे थे, कि टैक्स जमा करने के बाद जो टैक्स अधिक जमा हुआ है उसको सरकार रिफंड कर देती है। मैंने कौतूहल वश पूछा कि क्या जो रिफंड सरकार देती है उस पर कोई व्याज भी देती है ? इस पर उनकी मुखमुद्रा जान बची लाखों पायी जैसी हो गयी, कहा कि, अरे भाई साहब थोड़ा थोड़ा ही कर के रिफंड सरकार दे दे तो यही गनीमत समझिये। आप को व्याज की पड़ी है।

सवाल पूछना मेरी स्वाभाविक आदत है। मैंने पूछा कि वैट ठीक था या यह मास्टरस्ट्रोक ? उन्होंने कहा कि वैट में इतना झंझट नहीं था। टैक्स का रिटर्न भी इतना जटिल नहीं था। रिफंड का भी झंझट नहीं था। अब तो आपने जहां से सामान खरीदा है उसका जीएसटी नम्बर मिला कर ही अपना रिटर्न भर सकते हैं। और  ही तकनीकी चीजें वे मुझे समझाते रहे, मैं कुछ समझा कुछ नहीं समझा। हालांकि उन्होंने मुझे बहुत समझाने की कोशिश की। पर मैंने भी उनकी बात बड़ी संजीदगी के साथ सुना । व्यथा किसी की भी हो उसे सुनना ही चाहिये। हल करने की सामर्थ्य भले ही न हो। सुनाने  वाले को राहत मिल जाती है। मैंने भी इसे जटिल मान लिया क्यों कि कई बातें मेरे ऊपर से निकल गयीं।  बस मेरी समझ मे यह आया कि वे इस कर प्रणाली की जटिलताओं और कुछ खामियों से दुखी भी है। उनके व्यापार पर इस जटिल कर प्रणाली का असर पड़ा है।

मैंने उनसे कहा कि हम तो यह मान कर चलते थे कि व्यापारी भाजपा का सबसे विश्वसनीय वोट बैंक रहा है। पर यह कहर भी आपलोग ही झेल रहे हैं। जनसंघ को तो बनियों की पार्टी कहा ही जाता था। और पार्टियां तो वैसे ही व्यापारी विरोधी कही जाती हैं।
मित्र उदास हो गए। कहा पूरे खानदान ने जनसंघ के समय से इन्ही लोगों को ही वोट दिया है और अभी पिछले चुनाव तक भी वोट दिया है, और चंदा भी दिया। पर इस राज में सबसे अधिक व्यापारी समुदाय ही पीड़ित है।

मैंने कहा, कि आप लोग मिल कर सरकार से या वित्त मंत्री से बात क्यों नहीं करते ? उनको व्यवहारिक दिक्कत क्यों नहीं बताते ?
उनकी पीड़ा और छलक पड़ी। उन्होंने कहा " यह जो जेटली है न यह कभी चुनाव जीता ही नहीं। इस लहर में भी वह डूब गया। उसे टैक्स वैक्स की कोई समझ नही  है। वह तो ठहरा वकील। मोदी का पक्का विश्वासपात्र है। पिछले साल सराफे वालों की हड़ताल हुयी थी, आप को याद होगा। आप के भी तो कई बड़े बड़े ज्वेलर्स मित्र हैं। उन्हीं से पूछ लीजिये। देश भर के बड़े सराफा व्यापारियों का संबठन उनसे मिलने गया था। वह मिला ही नहीं। मिला भी तो उसने कोई बात नहीं मानी। थक हार के सबने हड़ताल वापस ले ली। "

मैंने भी उनके दर्द पर मरहम लगाया। यही कहा कि " आप लोग अपनी बात कहिये। न कोई सुने तो यहां के सांसद और विधायक से कहिये। सरकार को सुधार हेतु सुझाव भेजिये। बिना शोर मचाये भी कोई सुनता है आज कल। "
वे मुस्कुरा कर बोले, " भाई साहब, हम ट्रेड यूनियनों की तरह हरकत नहीं कर सकते। आप भी समझ रहे हैं। फिलहाल तो यह आधी रात का घण्टा तो घण्टा ही निकला। "
उनकी बात से यह आभास हुआ कि जीएसटी भले ही एक सकारात्मक कर सुधार प्रणाली हो, पर इसे बिना पूरी ढांचागत व्यवस्था के लागू होने से कारोबार पर बहुत असर पड़ा है। चाहे मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर हो, या भवन निर्माण सेक्टर या अन्य कोई क्षेत्र हर जगह व्यापारी समाज मे एक असन्तोष का वातावरण है। ऐसा क्यों है यह तो अर्थ व्यवस्था पर नज़र रखने वाले मित्र ही बता पाएंगे।

किसी भी कानून को कैसे कुप्रबंधन द्वारा लागू किया जा सकता है, यह अगर जानना हो तो आप जीएसटी के लागू करने के प्राविधानों का अध्ययन कर के देख सकते हैं। जैसे बिना ठोस तैयारी के नोटबंदी लागू की गयी, वैसे ही बिना तैयारी के जीएसटी भी लागू कर दी गयी। कानून बनाना महत्वपूर्ण नहीं होता है, महत्वपूर्ण होता है कानून को लागू करना। प्रत्येक कानून के वैधानिक पक्ष के साथ साथ व्यवहारिक पक्ष भी होता है। लेकिन जीएसटी लागू करते समय क्या क्या व्यावहारिक सनस्याएँ सामने आ सकती हैं, उनका निदान कैसे किया जाएगा। यदि कोई आक्समिकताएँ  आती हैं तो उनका निदान कैसे किया जाएगा। इन सभी संभावित समस्याओं का पूर्वानुमान और उनका वाजिब निदान भी प्रबंधन का एक महत्वपूर्ण सबक होता है। जिस तरह से जीएसटी लागू करते ही समस्याओं का अंबार खड़ा हो गया और सरकार भी उन समस्याओं के समाधान के समय आत्म विश्वास से हीन दिखी, उससे यह साफ संकेत गया कि सरकार की तैयारी आधी अधूरी थी। सैद्धांतिक रूप से जीएसटी एक बेहतर कर तँत्र है। पर तँत्र का बेहतर होना जितना ज़रूरी है,  उतना ही ज़रूरी है उसे कम से कम समस्याओं के साथ लागू कर देना।

कोई भी कानून पूर्ण नहीं होता है। हर कानून समय, परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुसार बदलता रहता है। उसे बदल देना भी चाहिये। जीएसटी में भी व्यवहारिक दिक्कतों को देखते हुये बदलाव करना चाहिए । फिलहाल एक साल की समीक्षा करने से यह स्पष्ट है कि व्यापारिक वर्ग इस तँत्र के लागू किये जाने और इसके कतिपय प्रशासनिक प्रावधानों से संतुष्ट नहीं है।

© विजय शंकर सिंह

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