Thursday, 5 July 2018

वायदा और वायदाखिलाफी भरमाने वाले वायदे केवल भरमाने के लिये ही किये जाते हैं / विजय शंकर सिंह

दिल्ली सरकार की कितनी चलेगी और उसे जनता का कार्य करने के लिये कितनी शक्तियां और अधिकार प्राप्त हैं, उप राज्यपाल का कितना नियंत्रण दिल्ली की निर्वाचित सरकार पर होगा, आदि आदि विन्दुओं पर आज सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आ गया है। जनता की चुनी हुई सरकार सर्वोच्च है। मंत्रिमंडल का निर्णय एलजी को मानना होगा। पुलिस, ज़मीन और कानून व्यवस्था का जिम्मा जैसे केंद्र को था, वैसे ही रहेगा। इस निर्णय का स्वागत है। सुप्रीम कोर्ट के ही शब्दों में निर्णय का मूल पढ़ लें ~

"LG is bound by aid and advice of Delhi Govt. He cannot act independently. Delhi Govt does not need concurrence of LG on every decision"
"The state should enjoy freedom from unsolicited interference and popular will cannot be allowed to lose its purpose,"

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल दिल्ली को पूर्ण राज्य दिलाने के लिये एक आन्दोलन कर रहे हैं। हर राजनीतिक दल विभिन्न मांगों को लेकर आंदोलन करता रहता है। केजरीवाल भी कर रहे हैं। यह आश्चर्य की बात नहीं है।

आश्चर्य की बात है, कि भाजपा जो समय समय पर दिल्ली के पूर्ण राज्य के लिए कटिबद्ध थी, वह आज इस मांग के विरोध में क्यों है ? अगर वह विरोध में नहीं है तो पूर्ण राज्य देने के लिये क्या कदम उठा रही है ? भाजपा समर्थक कहेंगे कि दिल्ली देश की राजधानी है। सभी शक्ति केंद्र यहां हैं, दुनिया भर के दूतावासों के दफ्तर है, लगभग हर दिन विदेशी अतिथि और राष्ट्र प्रमुखगण आते रहते हैं, उनकी जटिल और त्रुटिहीन सुरक्षा व्यवस्था करनी पड़ती है, तो दिल्ली कैसे पूर्ण राज्य बन सकती हैं ? कैसे दिल्ली की पुलिस , कानून व्यवस्था और भूमि सम्बन्धी मामले दिल्ली सरकार को सौंपे जा सकते हैं ? बात बिल्कुल सही है । यही तर्क मेरे भी हैं। इन समस्याओं का समाधान किये बिना दिल्ली को अन्य राज्यों की तरह पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया जा सकता है ।

अब एक मौलिक प्रश्न उठता है। दिल्ली तो तब भी राजधानी थी, जब भाजपा ने इसे पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने का वादा किया था। इसी मूल वायदे पर दिल्ली में भाजपा ने कई बार अपनी सरकार बनाई। यह अलग बात है कि जब भाजपा की सरकार दिल्ली में थी तो कांग्रेस केंद्र में सत्तारूढ़ थी। कांग्रेस ने भी पूर्ण राज्य की बात कभी कभार की। पर जितना जोर भाजपा का दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने पर था, उतना ज़ोर किसी भी दल का नहीं है। यह मुद्दा चाहे लोकसभा का चुनाव हो या विधानसभा का भाजपा जोर शोर से उठाती रही है। वैसे भी दिल्ली में भाजपा का प्रभाव कम नहीं रहा है। हालांकि शीला दीक्षित 15 साल लगातार दिल्ली की मुख्यमंत्री रही हैं। पर भाजपा ही मुख्य विरोधी दल रही है। आआपा के जन्म के पहले दिल्ली में या तो कांग्रेस की सरकार रही है या भाजपा की। अब जब केजरीवाल ने भाजपा के ही कोर मुद्दे को ले कर अपनी राजनीति शुरू कर दी और भाजपा की केंद्र सरकार से ही भाजपा के ही कोर मांग, दिल्ली को पूर्ण राज्य के दर्जे की मांग,  को लेकर अपना आंदोलन शुरू कर दिया तो भाजपा असहज होने लगी। मेरे लेख का यह मुद्दा यह नहीं है कि दिल्ली को पूर्ण राज्य दिया जाय या नहीं। व्यक्तिगत रूप से मैं इस मत का हूँ कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा, दिल्ली को देश की राजधानी होने के नाते और कतिपय जटिल परिस्थितियों को देखते हुये, नहीं दिया जा सकता है।

मेरा कहना है कि राजनीतिक दल जनता से कोई वादा करने के पूर्व कभी भी उन वायदों की गहराई में जा कर यह नहीं सोचते हैं कि अगर वे सत्ता में आ गए तो उन वायदों को पूरा कैसे करेंगे। हम जनता के लोग भी आश्वासनों और वायदों के पिनक में जीने के इतने आदी हो गये हैं कि हम जितने शातिराना तरीके से वे वायदे करते हैं उतनी ही मासूमियत से हम उन वायदों पर ऐतबार कर लेते हैं। बिल्कुल इस शेर की तरह , आदतन तुमने कर दिये वादे, आदतन हमने यक़ीन कर लिया !  हमारी दार्शनिक सोच ने हममे इतना अधिक संतोष भाव भर दिया है कि हम रोज़ रोज़ होती हुई वायदाखिलाफी से न तो ऊबते हैं और न ही आक्रोशित होते हैं। गज़ब का नियतिवाद है हममें। अनर्गल और हवाई वायदे जिन्हें वायदे करने वाला व्यक्ति और दल भी जानता है कि इन्हें पूरा करना सम्भव ही नहीं है और फिर भी वह बेशर्मी से वायदे पर वायदे करता जाता है और हम ताली बजाकर उसका स्वागत करते हैं । क्या ऐसा नहीं है ?

लेकिन ऐसा क्यों है ? ऐसा इसलिए है कि हमने वायदों की गहराई में जा कर उनकी समीक्षा करना, उन पर सवाल उठाना और वायदा करने वालों को कठघरे में खड़ा करना छोड़ दिया है। राजनीतिक दल भी अब ऐसी स्थिति को प्राप्त हो चुके हैं कि, वे यह भलीभांति समझ चुके हैं कि वे जो चाहे वह कह कर निकल जाएंगे और उनसे कोई जवाब तलब नहीं करेगा। शायद जवाबतलबी की बात सोचेगा भी नहीं। हमे यह स्वीकार करना होगा कि, सत्ता की जवाबदेही के अभाव में लोकतंत्र, लोकतंत्र नहीं रह सकता है। वह भले ही कुछ और हो पर लोकतंत्र नहीं है। जब जवाबदेही धीरे धीरे कम होने लगती है और चुनी हुई सरकार खुद को विकल्पहीन मान कर अपने सौध के दीवार के पार नहीं देख पाती है तो लोकतंत्र के इस घूर पर कोई न कोई विषबेल अंकुरित होने लगती है और यही चुनी हुई सरकार तानाशाही में बदल जाती है। बीसवीं सदी के फासिस्ट तानाशाहियों का इतिहास देखिएगा तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचियेगा। इटली और जर्मनी का इतिहास देखिये, कैसे जनादेश फिर प्रबल जनादेश, फिर वायदों के हवाई किलों के सपनों पर तानाशाही में बदलता है। किये गए वायदे भुला कर सत्ता फिर नयी मरीचिका दिखाने लगती है। अंत मे जब जनता सचेत होती है, तब तक देश और समाज का जो नुक़सान होना होता है हो चुका होता है। बाद में तानाशाह या तो आत्महत्या करके मर जाय या जनता उसे नकार दे पर अपनी सनक में देश का जो नुकसान वह कर जाता है उसे ठीक होने में कई दशक लग जाते हैं।

कोई भी चुनी हुई सरकार नहीं चाहती कि उसके वायदों को जनता याद दिलाये। क्यों कि वह जानती है कि उनके किये कुछ वायदों को पूरा करना न तो संभव है और न ही उन्हें करना है। चुनाव की धूल और गर्मी भरी सड़क से जीत कर जब नेतागण संसद और सचिवालय के आरामदेह कमरों में तशरीफ़ लाते हैं और नरमदार सोफों पर बैठ कर दुर्लभ चाय की चुस्कियां लेते हुये जब इन वायदों की तह में जाते हैं तो उन्हें लगता है कि बहुत से वायदे तो वे पूरे ही नहीं कर सकते हैं। फिर जनता को वे वायदे याद नहीं आएं, इसलिए वे नए वायदे फिर से करने लगते हैं। हमे वे सदैव भविष्य के रुपहले संसार मे खींच कर ले जाते हैं। हम इन भावी और अपूरणीय वायदों को ही सरकार की उपलब्धि मान बैठते हैं।

राजनीतिक दलों की इस मनोदशा के लिये जितने राजनीतिक दल जिम्मेदार हैं उतने ही हम भी जिम्मेदार हैं। हमारी ख़ामोशी जिम्मेदार है। हमारी ठकुरसुहाती की आदत जिम्मेदार है। हमारी दिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो की सामंती मनोवृत्ति जिम्मेदार है। हमे इस मनोवृत्ति से निकल कर सरकार को जनता के ऊपर शासक के रूप में नहीं बल्कि जनता के प्रति जवाबदेह समझना होगा। सरकार से हम नहीं हैं, हमसे सरकार है।

© विजय शंकर सिंह

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