1947 में जब मुहम्मद अली जिन्ना ने एक स्टेनोग्राफर और एक टाइपराइटर के बल पर पाकिस्तान प्राप्त कर लिया तो, दुनिया मे एक ऐसे देश का जन्म हुआ जिसका आधार केवल और केवल मजहब था। जिन्ना मूलतः मजहबी व्यक्ति नहीं थे, पर यह भी एक विडंबना थी कि गांधी जो पूर्णतः एक धर्म परायण व्यक्ति थे ने धर्म निरपेक्ष राज्य की बात की और उसे चुना जब कि, जिन्ना जो स्वाभाविक रूप से सेकुलर और घोषित रूप से गैर मजहबी थे, ने एक मजहबी मुल्क के लिये तमाम कवायद की। लेकिन 1947 से जनरल जिया उल हक के शासन तक, पाकिस्तान एक मजहबी मुल्क तो था, पर इस्लामी कट्टरता के लिये पाकिस्तान में कोई जुनून नहीं था। पाकिस्तान के प्रथम गवर्नर जनरल बनने के बाद जिन्ना ने मुल्क को संबोधित करते हुये अपने प्रथम भाषण में साफ साफ कहा था कि पाकिस्तान भले ही एक इस्लामी मुल्क के रूप में बना हो पर यह देश उन सबका है जो इसमे रहते हैं। जिन्ना का आशय हिन्दू, सिख, ईसाई , जिसमे बाद में अहमदिया भी जुड़ गए थे आदि अल्पसंख्यकों से था। 1947 से जिया के राष्ट्रपति बनने तक ऐसा बिल्कुल भी नहीं था कि पाकिस्तान अल्पसंख्यकों के लिये सुविधाजनक देश रहा हो पर पाकिस्तान का इस्लामीकरण उतनी तेज़ी से नहीं हुआ था, जितनी तेजी से जनरल जिया के शासनकाल में हुआ। पाकिस्तान में लोकतंत्र बहुत दिनों तक उतनी स्वतंत्रता और स्वाभाविकता के साथ नही पनप सका, जितना भारत मे वह मज़बूत हुआ। प्रधानमंत्री लियाकत अली की हत्या के बाद सेना ने देश के शासन पर कब्ज़ा जमा लिया। जनरल अयूब खान, जनरल याहिया खान, जनरल जिया उल हक, जनरल मुशर्रफ इन चार सेनाध्यक्षों ने देश पर फौजी हुक़ूमत की।
पाकिस्तान की विदेशनीति मूलतः अमेरिकी खेमे की रही है। पाकिस्तान में एक मुहावरा बहुत प्रचलित है कि पाकिस्तान के तीन निगेहबान हैं, अल्लाह, आर्मी और अमेरिका। सेना ने न केवल वहां शासन किया बल्कि उसने वहां की सारी लोकतांत्रिक संस्थाओं में हस्तक्षेप कर के पाकिस्तान को एक सैनिक तानाशाही में तब्दील कर दिया। भारत को पाकिस्तान अपना चिर शत्रु मानता है। 1948, 1965, 1971 और कारगिल के युद्धों में लगातार हारने और 1971 में बांग्लादेश के बनने से पाकिस्तान की सेना की पेशेवराना क्षवि को बहुत आघात पहुंचा है। वह इन पराजयों का बदला लेने के लिये निरन्तर प्रयासरत रहती है। लेकिन पाकिस्तान की सेना यह अच्छी तरह समझ गयी है कि किसी भी प्रत्यक्ष युद्ध मे वह भारत से जीत नहीं सकती है, अतः उसने भारत को तोड़ने और परेशान करने के लिये प्रच्छन्न युद्ध का सहारा लिया। उधर अफगानिस्तान में भी सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिकी दखलंदाजी बढ़ गयी थी। वहां की रूस समर्थक सरकार को अस्थिर करने के लिये अमेरिका ने तालिबान को प्रश्रय दिया जिसका केंद्र अमेरिका ने पाकिस्तान को बनाया। जिसके परिणाम स्वरूप पाकिस्तान में आतंकियों की एक नयी जमात पैदा हुई। कुछ तो उनके दबाव में और कुछ उनको पनपने देने के लिये अवसर हेतु पाकिस्तान में धार्मिक कट्टरता बढ़ती गयी और देश मे एक नया दबाव ग्रुप बना जो इन आतंकी गुटों का था। आतंकियों को लक्ष्य दिया गया भारत को अस्थिर करने का और यह कमान पर्दे के पीछे से संभाली आईएसआई ने जो सेना का ही एक अंग और पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी थी। यह क्रम पहले खालिस्तान आंदोलन की शक्ल में पंजाब में खेला गया अब 1990 से यह कश्मीर में खेला जा रहा है।
कश्मीर , पाकिस्तानी हुकमरानों का पसंदीदा मुद्दा है। दिल्ली आए परवेज़ मुशर्रफ जिनके माता पिता दिल्ली से ही 1947 में पाकिस्तान गये थे, से जब दिल्ली में एक पत्रकार ने यह पूछा कि पाकिस्तान, कश्मीर का मुद्दा क्यों नहीं छोड़ देता, तो मुशर्रफ ने कहा कि, कश्मीर का मुद्दा मैं अगर छोड़ दूंगा तो मुझे यहीं दिल्ली में ही आकर रहना होगा। यह उत्तर था तो परिहास में पर यह सभी पाकिस्तानी हुक्मरानों की मानसिकता को बयां करता है। तभी जुल्फिकार अली भुट्टो भारत से हज़ार साल तक जंग की बात करते करते सज़ा ए मौत पा फांसी के फंदे पर जिया उल हक द्वारा लटका दिये गये, कश्मीर की आज़ादी की बात करते करते उनकी पुत्री बेनज़ीर एक बमकांड में मारी गयी, मासूम से दिखने वाले उनके पुत्र बिलाल ने कुछ साल पहले भी कश्मीर हम लेंगे कह कर दुनिया भर में अपना मज़ाक़ उड़वाया था। इसी प्रकार जब आज क्रिकेटर से राजनीतिज्ञ बने इमरान खान जब पाकिस्तान के वज़ीरे आज़म बनने जा रहे हैं तो उन्होंने भी सबसे पहले राग कश्मीर का ही आलाप लिया।
इमरान खान की विजय के बाद उनके पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बनने की पूरी आशा की जा रही है। उनके सत्ता संभालने के बाद पाकिस्तान के अंदरूनी हालात जो भी हों पर भारत के साथ उनके समीकरण क्या होंगे इस पर विदेशनीति के विशेषज्ञ चर्चा कर रहे हैं। कुछ उन्हें तालिबान खान कह कर सम्बोधित कर रहे हैं क्योंकि इमरान ने हिंसक अलगाववादी गुटों से बात करने की वकालत कभी की थी तो कुछ उन्हें इस पद के ही अयोग्य बता रहे हैं। कुछ यह भी आशंका जता रहे हैं कि वे सेना के चंगुल में रहेंगे क्यों कि सेना नहीं चाहती थी कि नवाज़ की पार्टी पीएमएल की जीत हो। क्यों कि नवाज़ के साथ सेना का तालमेल अच्छा नहीं था। सेना से निकटता, आतंकवादियों के प्रति सहानुभूति और उग्रवादी समर्थक इमरान खान के बयानों के कारण यह आशंका घर कर रही है कि हो सकता है भारत और पाकिस्तानी के सम्बंध और खराब हों, क्योंकि सेना और आतंकियों का भारत विरोध और कश्मीर के प्रति दृष्टिकोण जगजाहिर है । भारत को तोड़ना ही उनका अभीष्ट है। चीन के साथ पाकिस्तान का सम्बंध आप को दो देशों का आपसी कूटनीतिक रिश्ता भले ही दिखे, पर बेहिसाब चीनी निवेश के कारण पाकिस्तान धीरे धीरे चीन का एक व्यापारिक उपनिवेश बने लगा है। उधर चीन और भारत के रिश्ते भी सामान्य नहीं है बल्कि हिन्द महासागर और हिमालय में चीन की अनावश्यक दखलंदाजी भारत के लिये एक प्रकार का अशनि संकेत है। ऐसे अंतराष्ट्रीय ऊहापोह के माहौल में इमरान खान का यह बयान कि भारत, पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ के साथ षडयंत्र कर के पाक सेना को कमज़ोर करना चाहता है इमरान खान का इरादा तो स्पष्ट करता ही हैं साथ ही यह भी साफ है कि यह बयान सेना द्वारा स्क्रिप्टेड और सिखाया पढ़ाया है। यह राजनैतिक बयान है भी नहीं।
पाकिस्तान के सभी चुनावों में कश्मीर एक स्थायी मुद्दा रहा है। चाहे फौजी हुक़ूमत हो या लोकतंत्र, कश्मीर पर सभी के सुर सदैव से एक रहे हैं। लेकिन पाकिस्तान तहरीके इंसाफ पार्टी ने अपने घोषणपत्र में कश्मीर का उल्लेख करते हुये यह वादा किया है कि वह कश्मीर का हल संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के निर्देशों के अनुसार कार्यवाही करेगा। इससे यह उम्मीद जगती है कि इमरान खान का रूख कश्मीर के मुद्दे और भारत के साथ सम्बंधो पर अपने पूर्वाधिकारियों के ही नक़्शेकदम पर रहेगा। लेकिन फाइनेंशियल एक्सप्रेस के एक लेख के अनुसार इमरान खान की विदेश नीतियों पर सेना का वर्चस्व साफ रहेगा। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि इमरान कोई राजनैतिक व्यक्ति नहीं है, और उनकी जीत को सेना का पूरा समर्थन है। इमरान खान का इस्लामी कट्टरपंथी आतंकी संगठनों के प्रति जो सहानुभूति है वह उनकी आधुनिक और स्पोर्ट्समैनशिप पृष्टभूमि को देखते हुये अचंभित करती है। उनके पूर्व के कुछ बयानों को देखा जाय तो उन्होंने तालिबान के प्रति अमेरिकी सैन्य कार्यवाही की आलोचना की है। अफगानिस्तान में सत्रह साल से चल रहे अमेरिकी तालिबान सैन्य टकराव को बेमतलब मानते हुए वे ट्रम्प प्रशासन की हालिया ड्रोन हमलों की आलोचना करते हैं जब कि अमेरिका, पाकिस्तान के लिये कितना महत्वपूर्ण है यह सभी जानते हैं। इन बयानों के आलोक में यह भी कहा जा रहा है कि पाक अमेरिकी रिश्तों पर भी असर पड़ सकता है। पाकिस्तान द्वारा चीन के इतना निकट आने की एक वजह यह भी है, कि दोनों की ही विदेशनीति का मूल और स्थायी भाव भारत विरोध है। कश्मीर में पाकिस्तान की रुचि है तो हिमालयी देशों नेपाल, सिक्किम भूटान और हमारे अरुणांचल प्रदेश में चीन अपना हित देखता है।
इमरान खान द्वारा अमेरिका की अफगानिस्तान सम्बन्धी नीतियों की आलोचना 2008 से की जा रही है और उन्होंने पाकिस्तान से सभी अमेरिकी खुफिया अफसरों और अतिरिक्त कूटनीतिक अधिकारियों को हटाने की मांग भी एक बार की थी। इमरान खान द्वारा अमेरिका का यह विरोध तब अधिक मुखर हुआ जब अमेरिका ने पाकिस्तान के कतिपय आतंकी संगठनों पर नकेल कसनी शुरू कर दी थी। लश्करे तैयबा, जैश ए मोहम्मद आदि आतंकी संगठन जो भारत के लिये सिरदर्द बने हुए हैं, को पाकिस्तान ने भी अवांछित करार दे दिया है। पाकिस्तान सरकार को अमेरिका ने कई बार इन संगठनों पर कार्यवाही करने के लिये भी कहा, पर पाकिस्तान ने सेना के दबाव में कोई उल्लेखनीय कार्यवाही इन संगठनों के सरगनाओं पर नहीं किया, अगर किया भी तो वह एक दिखावा था। क्योंकि ये संगठन कश्मीर में पाकिस्तान का ही प्रच्छन्न युद्ध का एजेंडा जारी रखे हुये थे। पाकिस्तानी सेना न केवल इन आतंकियों के साथ है बल्कि वह हर तरह का सैन्य और संसाधनीय सुविधा भी इनको उपलब्ध कराती है। सेना से निकटता और उसकी कृपा पर इमरान खान के सत्ता में आने के कारण ही यह आशंका जताई जा रही है कि भारत के प्रति इमरान खान की विदेशनीति आक्रामक रहेगी। वैसे तो इमरान ने चीन द्वारा किये जा रहे भारी निवेश, चीन पाक आर्थिक कॉरिडोर सीपीईसी आदि पर भी सवाल उठाए हैं। पर कश्मीर का मुद्दा पाकिस्तान के लिये एक भावुक मुद्दा है, जिसे वह मजहब और जिहाद के चश्मे से देखता है न कि वैदेशिक पेशेवराना कूटनीतिक सम्बंधो के नजरिये से ।
पाकिस्तान में नियुक्त रहे भारतीय हाई कमिश्नर टीसीए राघवन का यह कहना है कि इमरान खान की सरकार एक मिलीजुली सरकार होगी अतः यह कहना कि इमरान अपनी विदेशनीति अपनी मर्ज़ी से संचालित कर सकेंगे, अभी जल्दबाजी होगी। सेना का असर तो रहेगा और यह असर तो कश्मीर के मामले में आज भी है। राघवन ने न्यूज़ 18 से बात करते हुये एक मजेदार बात कही है कि, " पाकिस्तान के सभी नेता भारत विरोधी प्रलाप करते हैं और इमरान खान भी अपवाद नहीं है। लेकिन जब वे सत्ता पर काबिज होते हैं तो यह प्रलाप व्यवहारिकता में उतना नहीं बदल पाता जितना चुनाव प्रचार के दौरान कहा गया होता है। " मेरा भी यही दृष्टिकोण है कि भारत के प्रति इमरान खान के कार्यकाल में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आने वाला है। सेना पर्दे के पीछे से तब भी कूटनीतिक फैसलों पर असर डालती थी, अब भी डालेगी। कूटनीतिक वार्तायें, शिखर वार्तालाप की बात भी की जाएगी, यह ईमानदारी भी दिखाई जाएगी कि वे कश्मीर समस्या हल करना चाहते हैं, पर अंदरखाने आतंकी मदद पाक सेना करती रहेगी। जब तक पाक सेना का असर पाकिस्तान की चुनी हुई सरकार पर बरकरार रहेगा, वहां का राजनैतिक नेतृत्व सेना से दिशा निर्देश लेता रहेगा, तब तक कश्मीर समस्या का शान्तिपूर्ण समाधान संभव नहीं है।
© विजय शंकर सिंह
Mujhe ummid hai Imran Ke aane Ke bad dono Mulkon me aapsi samajh badhegi.
ReplyDeleteAap ka lekh tathyaparak or sunder hai.
Mujhe ummid hai Imran Ke aane Ke bad dono Mulkon me aapsi samajh badhegi.
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