दिल्ली के नौकरशाह, सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के आदेश को इसलिए नहीं मान रहे हैं कि गृह विभाग का कोई सर्कुलर उनके पक्ष में है। अब उन्हें यह कौन समझाए कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ का निर्णय सबसे ऊपर और अंतिम होता है, जब तक कि उससे बड़ी संविधान पीठ ने कोई और फैसला न दे दिया हो ।
जयपुर के नौकरशाहों को यह हुक्म हुआ है कि प्रधानमंत्री की सभा के लिये भीड़ जुटाएं। यहां एक अवैधानिक ज़ुबानी हुक्म ने ही रीढ़ झुका दी। भीड़ तो जुटानी पड़ेगी ।
एक किस्सा पढ़ लें।
पहले प्राइमरी स्कूलों की चेकिंग के लिये डिप्टी इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल्स जिन्हें डिप्टी साहब कहा जाता था, आया करते थे। डिप्टी साहब का दौरा बड़ा हंगामाखेज होता था। पूरा स्कूल जुट जाता था उनकी आवभगत में। कहीं से टेंट, कहीं से कुर्सी मेज़, कहीं से मसहरी कहीं से मुर्गा मछली, आदि लोग जुगाड़ से ले आते थे। ऐसे ही एक स्कूल में एक हेड मास्टर साहब कुछ सहायक अध्यापकों को लेकर टेंट गड़वा रहे थे। एक नए नए मास्टर थे जो टेंट के लिये खूंटा गाड़ रहे थे। उन मास्टर साहब के एक मित्र अचानक वहीं से गुज़र रहे थे। मास्टर साहब, पसीने से लथपथ कुछ बच्चों के साथ टेंट के लिये खूंटा लगाने में व्यस्त थे। मित्र ने पूछा,
" अरे मास्टर साहब, यह क्या ? आप खूंटा क्यों गाड़ रहे हैं ? आप का काम थोड़े ही है । आप का काम तो पढ़ाना है । "
मास्टर जी ने कहा,
" अरे डिप्टी साहब आ रहे हैं। उनका मुआयना है। उसी कर लिये व्यवस्था की जा रही है। हेड मास्टर साहब, हलुआई ठीक करने गए हैं, और हमसे कह गए कि टेंट खड़ा करवा दीजिये। अब टेंट भी तो जुगाड़ से आया है। टेंट उतार कर आठ खूंटा दे कर चला गया। कह गया कि आप इसे गाड़िये और तंबू तान दीजिये। तो वही कर रहा हूँ। "
" फिर भी मास्टर साहब आप को तो पढ़ाने की नौकरी मिली है न कि तंबू खड़ा करने की। '
तब मास्टर जी ने खिसियाहट से हंसते हुए कहा,
" इहो काम सरकारी, ऊहो काम सरकारी। चाहे लइका पढ़वा लो चाहे खूंटा गड़वा लो। "
तब तक आखिरी खूंटा गड़ चुका था। वे बच्चों की सहायता से तंबू तानने में लग गए।
यह किस्सा मुझे एक प्रायमरी स्कूल के अध्यापक ने सुनाया था। पहले के प्राइमरी स्कूल जिला परिषद के अधीन होते थे। और बताते हैं कि डिप्टी साहब का मुआयना बड़ा महत्वपूर्ण होता था।
यह बात पुरानी है। यह किस्सा पुराना है। सच है या झूठ मैं नहीं बता पाऊंगा। पर आज भी नौकरशाही, अपना मूल काम, सरकारी नियमो के अनुसार न कर के खूंटा गाड़ने का काम करने लगती है। खूंटा गाड़ने का काम हमने भी किया है। हम उसे बेगारी कहते थे। जिस काम के लिये भर्ती हुए वह न कर के वह सब करने लगे जिन्हें नहीं करना चाहिये। बड़े बड़े असरदार सरकारी अफसर, बड़े बड़े नेताओं के हमप्याला हमनिवाला हो कर राजनीतिक दलों को चलाते हैं, लोगों को टिकट दिलवाते हैं, बड़े बड़े ठेकों में, बड़ी बड़ी योजनाओं में बिचौलिए की भूमिका निभाते हैं, चुनाव में खुल कर किसी दल विशेष के साथ हो जाते हैं। क्या यह नौकरशाही का पतन नहीं है। मैं अत्यंत प्रतिभावान सेवाओं की बात कर रहा हूँ, अधीनस्थ सेवाओं की तो बात ही छोड़िये। नौकरशाही की अब लगता है रीढ़ ही नहीं है। सरीसृप हो गए हैं। लेकिन अधिकांश नौकरशाही ऐसी नहीं है। बहुत से निष्ठावान और न झुकने वाले, नियम कायदे से काम करने वाले अफसर भी हैं। पर अधिकतर वे उपेक्षित रहते हैं। अपने इन्ही गुणों के कारण वे सवागत कष्ट भोगते रहते हैं । मैं कोई राज़ की बात नहीं कह रहा हूँ। यह सब अयां है।
© विजय शंकर सिंह
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