कल चार बड़ी घटनाएं घटी। पहली तो सुप्रीम कोर्ट ने भीड़ हिंसा मॉब लिंचिंग के खिलाफ अपना फैसले सुनाया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस पर कानून बनाया जाय। अब सरकार को यह काम करना है। अगर सरकार यह काम नहीं करती है तो हो सकता है सुप्रीम कोर्ट कोई निर्देश जारी कर दे।
दूसरी घटना स्वामी अग्निवेश की झारखंड में भाजपा के गुंडों ने पिटाई कर दी। अग्निवेश, आर्य समाज से जुड़े हैं और बंधुआ मज़दूरों के हित मे कई अभियान चला रहे हैं। वे आदिवासियों के पक्ष में वहां गये थे। उनकी बातें भाजपा की समझ मे नहीं आईं तो उन्होंने पीट दिया। कल बड़ा हंगामा सोशल मीडिया पर मचा रहा। भाजपा के कुछ लोग भी इस पीटने और अराजकता का समर्थन करने लगे। चार साल की एक उपलब्धि यह भी है कि हमने इतना विकास कर लिया है कि जिसकी बात समझ मे न आये या बुरी लगे उससे कोई बात न कर उसे पीट दिया जाय। उपलब्धियों के खाने में इसे भी आप मान सकते हैं।
एक घटना टीवी स्टूडियो में घटी। निकाह हलाला जो देश की सबसे ज्वलन्त समस्या इन चार सालों में बन गयी है और अब यह लगने लगा है कि बिना इनका निस्तारण किये देश का भला और राष्ट्र निर्माण नहीं हो सकता है तो कुछ टीवी चैनल जिनमे ज़ी टीवी ग्रुप सबसे अव्वल है ने निकाह हलाला पर एक बहस अपने स्टुडियो में रखी। बहस में एक महिला वकील और एक मौलाना बैठे थे। उसी में बहस तेज हुयी और मौलाना और महिला वकील में मारपीट हो गयी। अभी तक तो चौराहे चौराहे सिपाही लगते थे, अब यह एक समस्या आ गयी कि टीवी स्टुडियो के बहस केंद्र भी सुरक्षित नहीं। अब वहां भी पुलिस लगानी पड़ेगी।
कल एक और घटना घटी थी निदा खान की। निदा खान बरेली की रहने वाली हैं। वे तीन तलाक़, हलाला, बहु विवाह आदि प्रथाएं जो इस्लाम मे हैं के विरोध में सक्रिय रहती हैं। ज़ाहिर है इन प्रथाओं का जो भी विरोध करेगा वह मुल्लाओं के निशाने पर आएगा। यह प्रथा या कुप्रथा ही धर्म के ठेकेदार मुल्लाओं का भरण पोषण करती है। निदा खान बरेली की रहने वाली है और वहां के उस्मान रजा खान से उनकी शादी हुयी थी, जिन्हें एक साल बाद 2016 के फरवरी महीने में उस्मान ने तलाक दे दिया। वे सिविल कोर्ट गयीं और मुकदमा जीत गयीं। उन्होंने गुजारा भत्ता के लिये अदालत की शरण ली, वहां भी वह जीती। लेकिन उस्मान ने गुज़रा भत्ता देने से मना कर दिया। उसने शरीयत का हवाला दिया कि गुज़रा भत्ता का कोई प्राविधान नहीं है। लेकिन मुकदमा अभी चल रहा है।
निदा ने आला हजरत हेल्पिंग सोसायटी का गठन किया और वह इसकी अध्यक्ष बनी। यह सोसायटी पीड़ित मुस्लिम महिलाओं के हित के लिये बनायी गयी है। इस सोसायटी से और भी पीड़ित महिलाएं जुड़ने लगीं जिससे मौलानाओं में खलबली मचनी शुरू हो गयी। निदा खान की इन गतिविधियों से उनके पति के परिवार वालों ने बरेली की दरगाह आला हजरत के दारुल इफ्ता से यह फतवा जारी करा लिया कि निदा का यह कृत्य गैर इस्लामी है और उन्हें इस्लाम से खारिज़ करने की घोषणा कर दी। निदा ने यह फतवा नहीं माना और उन्होंने इस फतवे को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का फैसला किया। उनके दो मौलिक विंदु हैं कि क्या किसी को उसके धर्म से खारिज करने का अधिकार है ? अब देखना है, सुप्रीम कोर्ट क्या फैसला देती है।
निदा का सुप्रीम कोर्ट जाने का निर्णय स्वागतयोग्य है। अभी हाल ही में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने शरिया अदालतों के गठन की बात की है। अदालत नामधारी यह अदालतें कोई संवैधानिक अदालतें नहीं है। ये निकाह, हलाला, आदि के निजी मामलों का निपटारा करती है। ये कोई आपराधिक मामले नहीं सुनती हैं और न इन्हें सुनने का अधिकार है। ये जो मामले सुनती हैं, उनके फैसले अगर कोई पक्ष न माने तो ये कुछ कर भी नहीं सकती हैं। लोग इनके फैसले के खिलाफ सिविल कोर्ट भी जाते हैं। ये एक प्रकार से महिला सहायता केंद्र या मिडिएशन सेंटर है।
इस्लाम मे महिलाओं की स्थिति पर लंबे समय से बहस जारी है और महिलाओं के तलाक के तरीके कि एक ही बार मे तीन तलाक़ या तीन बार तलाक़, कुछ अंतराल में दिया जाना चाहिये, और गुज़ारा भत्ता का क्या निस्तारण हो, आदि आदि विषयों पर बराबर विवाद उठता रहा है। 1985 के समय का शाहबानो का मुकदमा काफी चर्चित रह चुका है जो सीआरपीसी की धारा 125 के अंतर्गत गुजारे भत्ते से जुड़ा था। यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया और शाहबानो यह मुक़दमा जीत गयीं थी। उस मुक़दमे के जीतने से मौलाना और कट्टरपंथी समुदाय में बहुत ही विपरीत प्रतिक्रिया हुआ। राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे। उन पर इस मामले में यह तर्क दे कर कि यह शरीयत का मामला है और निजी कानून है अतः संविधान में संशोधन कर इसे अलग करना चाहिये, संविधान संशोधन का दबाव पड़ा। राजीव राजनीति में नए थे। लोगो ने गुज़ारा भत्ता के लिये मेहर आदि के प्रावधान का तर्क दिया। सारे मौलाना उस समय एक हो गए थे। उस समय कांग्रेस के मुस्लिम नेताओं में भी दो गुट बन गए थे। एक तरफ एमजे अकबर थे जो संशोधन के पक्ष में खड़े थे, दूसरी तरफ आरिफ मुहम्मद खान थे जो संशोधन के पक्ष में नहीं थे। राजीव गांधी झुके और संशोधन को उन्होंने मंजूरी दे दी। यह उनकी एक बड़ी भूल थी। कट्टरपंथी मौलानाओं के सामने उनका यह झुकना, तुष्टीकरण ही था।
लेकिन इन सबके बाद भी दारुल क़ज़ा जो शरिया अदालत कही जाती है ने ऐसा कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किया जिससे यह कहा जा सके कि मुस्लिम महिलाओं की स्थिति में सुधार आया है। अधिकतर मुस्लिम देश तीन तलाक़ की जिस प्रथा को मानते हैं उसे हमारे यहां नहीं माना जाता है। हालांकि, अन्य इस्लामी देशों जैसे, तुर्की ने एक बार तीन तलाक़ को 1926 में इजिप्ट ने 1929, सूडान ने 1935 , ट्युनिसिया ने 1956 और पाकिस्तान ने 1961 में प्रतिबंधित कर दिया था। पर भारत मे यह अभी तक नहीं किया जा सका है। इसे प्रतिबंधित किये जाने की मांग पर, मौलाना ज़िद और बेवकूफी भरी बातों में अक्सर यह कह देते हैं कि यह उनका निजी कानून है जो कुरआन और हदीस पर आधारित है। कानून की व्याख्या भी वह अपने हित के अनुसार करते हैं। अपनी श्रेष्ठता और वर्चस्व वे छोड़ना नहीं चाहते हैं। जब शाहबानो और निदा जैसी कुछ महिलाएं हिम्मत कर के उनके फतवे या फैसले के खिलाफ खड़ी होतीं हैं तो उनको लगता है कि उनका धर्म खतरे में आ गया है। तब वे महिलाओं के खिलाफ आ जाते हैं
सारे धर्म ऎसे ही मुल्लों, पंडितों, पादरियों के गिरोहबंद गठजोड़ से विवादित हुये हैं। मनुष्य ने जिस उद्देश्य से धर्म की अवधारणा की थी वे सभी गौण हो गए हैं। यह पौरोहित्यवाद का पाखंड है। इस्लाम मे वैसे भी सुधारवादी आंदोलन कम चलें हैं और जो चलें भी हैं, उनका विरोध अधिक, समर्थन कम ही हुआ है । लेकिन अब स्थिति बदल रही है। निदा के इस बयान का स्वागत किया जाना चाहिये कि उन्होंने कहा है कि
" मुझे इस्लाम से खारिज करने वाले होते कौन हैं वे ? आज़ाद मुल्क भारत मे दो कोर्ट नहीं चल सकती हैं। "
देश ने जो संविधान स्वीकार किया है उसे तो मानना ही होगा। निजी कानून किसी धर्म का हित करते हैं या नही यह तो पता नहीं पर वे उस धर्म के पौरोहित्यवाद का हित ज़रूर करते हैं। निदा के इस मुहिम को समर्थन आवश्यक है।
© विजय शंकर सिंह
No comments:
Post a Comment