डॉ राम मनोहर लोहिया , देश के अग्रणी समाजवादी चिंतक थे। उन्होंने देश की अनेक समस्याओं पर मौलिक चिंतन किया है , और अपने विचार लिपि बद्ध भी किये हैं। आज उनका यह लेख पढ़ें , हिन्दू बनाम हिन्दू। कतिपय राष्ट्रवादी मित्र जो न देश की परम्परा और विरासत को समझते हैं , और न ही समझना चाहेंगे वे इस लेख में भी छद्म सेकुलरवाद ढूंढ ही लेंगे। नेट और सूचना क्रान्ति के जहां हज़ार फायदे हैं , वहीं , एक बड़ा नुकसान यह है कि , इसने गंभीर और वैचारिक अध्ययन को थोड़ा पीछे कर दिया है। आप को हैरानी नहीं होगी ,यह जान कर कि लोहिया अपने शिष्यों के बीच ही अप्रासांगिक हो गए है। आप इसे महसूस कर रहे हैं। एक उदाहरण देखें। एक बार मुझसे एक सिफारिश करने राय बरेली में जब मैं वहाँ एस पी था तो राज्य स्तर के एक नेता , जो समाजवादी पार्टी के ही थे , और लोहिया विचार मंच से जुड़े भी थे , जैसा कि उन्होंने खुद ही यह बताया था मुझे , उनसे मैंने डॉ लोहिया के बारे में पूछा तो उन्हें डॉ लोहिया की किसी पुस्तक और लेख की जानकारी नहीं थी। पर उनकी कॉलिंस पर लोहिया की विरासत का दावा करने वाली , समाजवादी पार्टी के दो दो झंडे सुशोभित थे , और बन्दूक धारी अंग रक्षक तो थे ही।
कृपया यह लेख पढ़ें।
हिन्दू
बनाम हिन्दू – डा.
राममनोहर लोहिया
भारतीय
इतिहास की सबसे बड़ी लड़ाई, हिंदू
धर्म में उदारवाद और कट्टरता की लड़ाई पिछले पाँच हजार सालों से भी अधिक समय से चल
रही है और उसका अंत अभी भी दिखाई नहीं पड़ता। इस बात की कोई कोशिश नहीं की गई, जो होनी चाहिए थी कि इस लड़ाई को नजर
में रख कर हिंदुस्तान के इतिहास को देखा जाए। लेकिन देश में जो कुछ होता है, उसका बहुत बड़ा हिस्सा इसी के कारण
होता है।
सभी
धर्मों में किसी न किसी समय उदारवादियों और कट्टरपंथियों की लड़ाई हुई है। लेकिन
हिंदू धर्म के अलावा वे बँट गए, अक्सर उनमें रक्तपात हुआ और थोड़े या बहुत दिनों की लड़ाई के बाद वे
झगड़े पर काबू पाने में कामयाब हो गए। हिंदू धर्म में लगातार उदारवादियों और
कट्टरपंथियों का झगड़ा चला आ रहा है जिसमें कभी एक की जीत होती है कभी दूसरे की और
खुला रक्तपात तो कभी नहीं हुआ है, लेकिन झगड़ा आज तक हल नहीं हुआ और
झगड़े के सवालों पर एक धुंध छा गया है।
ईसाई, इस्लाम और बौद्ध, सभी धर्मों में झगड़े हुए। कैथोलिक मत
में एक समय इतने कट्टरपंथी तत्व इकट्ठा हो गए कि प्रोटेस्टेंट मत ने, जो उस समय उदारवादी था, उसे चुनौती दी। लेकिन सभी लोग जानते
हैं कि सुधार आंदोलन के बाद प्रोटेस्टेंट मत में खुद भी कट्टरता आ गई। कैथोलिक और
प्रोटेस्टेंट मतों के सिद्धांतों में अब भी बहुत फर्क है लेकिन एक को कट्टरपंथी
और दूसरे को उदारवादी कहना मुश्किल है। ईसाई धर्म में सिद्धांत और संगठन का भेद है
तो इस्लाम धर्म में शिया-सुन्नी का बँटवारा इतिहास के घटनाक्रम से संबंधित है।
इसी तरह बौद्ध धर्म हीनयान और महायान के दो मतों में बँट गया और उनमें कभी रक्तपात
तो नहीं हुआ, लेकिन
उसका मतभेद सिद्धांत के बारे में है, समाज की व्यवस्था से उसका कोई संबंध
नहीं।
हिंदू
धर्म में ऐसा कोई बँटवारा नहीं हुआ। अलबत्ता वह बराबर छोटे-छोटे मतों में टूटता
रहा है। नया मत उतनी ही बार उसके ही एक नए हिस्से के रूप में वापस आ गया। इसीलिए
सिद्धांत के सवाल कभी साथ-साथ नहीं उठे और सामाजिक संघर्षों का हल नहीं हुआ। हिंदू
धर्म नए मतों को जन्म देने में उतना ही तेज है जितना प्रोटेस्टेंट मत, लेकिन उन सभी के ऊपर वह एकता का अजीब
आवरण डाल देता है जैसी एकता कैथोलिक संगठन ने अंदरूनी भेदों पर रोक लगा कर कायम की
है। इस तरह हिंदू धर्म में जहाँ एक और कट्टरता और अंधविश्वास का घर है, वहाँ वह नई-नई खोजों की व्यवस्था भी
है।
हिंदू
धर्म अब तक अपने अंदर उदारवाद और कट्टरता के झगड़े का हल क्यों नहीं कर सका, इसका पता लगाने की कोशिश करने के पहले, जो बुनियादी दृष्टि-भेद हमेशा रहा है, उस पर नजर डालना जरूरी है। चार बड़े और
ठोस सवालों – वर्ण, स्त्री, संपत्ति और सहनशीलता – के बारे में हिंदू धर्म बराबर उदारवाद
और कट्टरता का रुख बारी-बारी से लेता रहा है।
चार हजार
साल या उससे भी अधिक समय पहले कुछ हिंदुओं के कान में दूसरे हिंदुओं के द्वारा
सीसा गला कर डाल दिया जाता था और उनकी जबान खींच ली जाती थी क्योंकि वर्ण
व्यवस्था का नियम था कि कोई शूद्र वेदों को पढ़े या सुने नहीं। तीन सौ साल पहले
शिवाजी को यह मानना पड़ा था कि उनका वंश हमेशा ब्राह्मणों को ही मंत्री बनाएगा
ताकि हिंदू रीतियों के अनुसार उनका राजतिलक हो सके। करीब दो सौ वर्ष पहले, पानीपत की आखिरी लड़ाई में, जिसके फलस्वरूप हिंदुस्तान पर
अंग्रेजों का राज्य कायम हुआ, एक हिंदू सरदार दूसरे सरदार से इसलिए लड़ गया कि वह अपने वर्ण के अनुसार
ऊँची जमीन पर तंबू लगाना चाहता था। करीब पंद्रह साल पहले एक हिंदू ने हिंदुत्व की
रक्षा करने की इच्छा से महात्मा गांधी पर बम फेंका था, क्योंकि उस समय वे छुआछूत का नाश करने
में लगे थे। कुछ दिनों पहले तक, और कुछ इलाकों में अब भी हिंदू नाई अछूत हिंदुओं की हजामत बनाने को तैयार
नहीं होते, हालाँकि
गैर-हिंदुओं का काम करने में उन्हें कोई एतराज नहीं होता।
इसके साथ
ही प्राचीन काल में वर्ण व्यवस्था के खिलाफ दो बड़े विद्रोह हुए। एक, पूरे उपनिषद में वर्ण व्यवस्था को सभी
रूपों में पूरी तरह खत्म करने की कोशिश की गई है। हिंदुस्तान के प्राचीन साहिय
में वर्ण व्यवस्था का जो विरोध मिलता है, उसके रूप, भाषा और विस्तार से पता चलता है कि ये
विरोध दो अलग-अलग कालों में हुए – एक, आलोचना का
काल और दूसरा, निंदा का।
इस सवाल को भविष्य की खोजों के लिए छोड़ा जा सकता है, लेकिन इतना साफ है कि मौर्य और गुप्त
वंशों के स्वर्ण-काल वर्ण व्यवस्था के एक व्यापक विरोध के बाद हुए। लेकिन वर्ण
कभी पूरी तरह खत्म नहीं होते। कुछ कालों में बहुत सख्त होते हैं और कुछ अन्य
कालों में उनका बंधन ढीला पड़ जाता है। कट्टरपंथी और उदारवादी वर्ण व्यवस्था के
अंदर ही एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं और हिंदू इतिहास के दो कालों में एक या दूसरी
धारा के प्रभुत्व का ही अंतर होता है। इस समय उदारवादी का जोर है और कट्टरपंथियों
में इतनी हिम्मत नहीं है कि वे गौर कर सकें। लेकिन कट्टरता उदारवादी विचारों में
घुस कर अपने को बचाने की कोशिश कर रही है। अगर जन्मना वर्णों की बात करने का समय
नहीं तो कर्मणा जातियों की बात की जाती है। अगर लोग वर्ण व्यवस्था का समर्थन नहीं
करते तो उसके खिलाफ काम भी शायद ही कभी करते हैं और एक वातावरण बन गया है जिसमें
हिंदुओं की तर्कबुद्धि और उनकी दिमागी आदतों में टकराव है। व्यवस्था के रूप में
वर्ण कहीं-कहीं ढीले हो गए हैं लेकिन दिमागी आदत के रूप में अभी भी मौजूद हैं। इस
बात की आशंका है कि हिंदू धर्म में कट्टरता और उदारता का झगड़ा अभी भी हल न हो।
आधुनिक
साहित्य ने हमें यह बताया है कि केवल स्त्री ही जानती है कि उसके बच्चे का पिता
कौन है, लेकिन तीन
हजार वर्ष या उसके भी पहले जबाल को स्वयं भी नहीं मालूम था कि उसके बच्चे का
पिता कौन है और प्राचीन साहित्य में उसका नाम एक पवित्र स्त्री के रूप में आदर
के साथ लिया गया है। हालाँकि वर्ण व्यवस्था ने उसके बेटे को ब्राह्मण बना कर उसे
भी हजम कर लिया। उदार काल का साहित्य हमें चेतावनी देता है कि परिवारों के स्रोत
की खोज नहीं करनी चाहिए क्योंकि नदी के स्रोत की तरह वहाँ भी गंदगी होती है। अगर
स्त्री बलात्कार का सफलतापूर्वक विरोध न कर सके तो उसे कोई दोष नहीं होता क्योंकि
इस साहित्य के अनुसार स्त्री का शरीर हर महीने नया हो जाता है। स्त्री को भी
तलाक और संपत्ति का अधिकार है। हिंदू धर्म के स्वर्ण युगों में स्त्री के प्रति
यह उदार दृष्टिकोण मिलता है जबकि कट्टरता के युगों में उसे केवल एक प्रकार की
संपत्ति माना गया है जो पिता, पति या पुत्र के अधिकार में रहती है।
इस समय
हिंदू स्त्री एक अजीब स्थिति में है, जिसमें उदारता भी है और कट्टरता भी।
दुनिया के और भी हिस्से हैं जहाँ स्त्री के लिए सम्मानपूर्ण पद पाना आसान है
लेकिन संपत्ति और विवाह के संबंध में पुरुष के समान ही स्त्री के भी अधिकार हों, इसका विरोध अब भी होता है। मुझे ऐसे
पर्चे पढ़ने को मिले जिनमें स्त्री को संपत्ति का अधिकार न देने की वकालत इस तर्क
पर की गई थी कि वह दूसरे धर्म के व्यक्ति से प्रेम करने लग कर अपना धर्म न बदल दे, जैसे यह दलील पुरुषों के लिए कहीं ज्यादा
सच न हो। जमीन के छोटे-छोटे टुकड़े नहीं हों, यह अलग सवाल है, जो स्त्री व पुरुष दोनों वारिसों पर
लागू होता है, और एक
सीमा से छोटे टुकड़ों के और टुकड़े न होने पाएँ, इसका कोई तरीका निकालना चाहिए। जब तक
कानून या रीति-रिवाज या दिमागी आदतों में स्त्री और पुरुष के बीच विवाह और
संपत्ति के बारे में फर्क रहेगा, तब तक कट्टरता पूरी तरह खत्म नहीं होगी। हिंदुओं के अंदर स्त्री को देवी
के रूप में देखने की इच्छा, जो अपने उच्च स्थान से कभी न उतरे, उदार से उदार लोगों के दिमाग में भी
बेमतलब के और संदेहास्पद खयाल पैदा कर देती है। उदारता और कट्टरता एक-दूसरे से
जुड़ी रहेंगी जब तक हिंदू अपनी स्त्री को अपने समान ही इंसान नहीं मानने लगता।
हिंदू
धर्म में संपत्ति की भावना संचय न करने और लगाव न रखने के सिद्धांत के कारण उदार
है। लेकिन कट्टरपंथी हिंदू कर्म-सिद्धांत की इस प्रकार व्याख्या करता है कि धन
और जन्म या शक्ति का स्थान ऊँचा है और जो कुछ है वही ठीक भी है। संपत्ति का
मौजूदा सवाल कि मिल्कियत निजी हो या सामाजिक, हाल ही का है। लेकिन संपत्ति की स्वीकृत
व्यवस्था या संपत्ति से कोई लगाव न रखने के रूप में यह सवाल हिंदू दिमाग में
बराबर रहा है। अन्य सवालों की तरह संपत्ति और शक्ति के सवालों पर भी हिंदू दिमाग
अपने विचारों को उनकी तार्किक परिणति तक भी नहीं ले जा पाया। समय और व्यक्ति के
साथ हिंदू धर्म में इतना ही फर्क पड़ता है कि एक या दूसरे को प्राथमिकता मिलती है।
आम तौर पर
यह माना जाता है कि सहिष्णुता हिंदुओं का विशेष गुण है। यह गलत है, सिवाय इसके कि खुला रक्तपात अभी तक उसे
पसंद नहीं रहा। हिंदू धर्म में कट्टरपंथी हमेशा प्रभुताशाली मत के अलावा अन्य
मतों और विश्वासों का दमन कर के एकरूपता के द्वारा एकता कायम करने की कोशिश करते
रहे हैं लेकिन उन्हें भी सफलता नहीं मिली। उन्हें अब तक आम तौर पर बचपना ही माना
जाता था क्योंकि कुछ समय पहले तक विविधता में एकता का सिद्धांत हिंदू धर्म के
अपने मतों पर ही लागू किया जाता था, इसलिए हिंदू धर्म में लगभग हमेशा ही
सहिष्णुता का अंश बल प्रयोग से ज्यादा रहता था, लेकिन यूरोप की राष्ट्रीयता ने इससे
मिलते-जुलते जिस सिद्धांत को जन्म दिया है, उससे इसका अर्थ समझ लेना चाहिए। वाल्टेयर
जानता था कि उसका विरोधी गलती पर ही है, फिर भी वह सहिष्णुता के लिए, विरोधी के खुल कर बोलने के अधिकार के
लिए लड़ने को तैयार था। इसके विपरीत हिंदू धर्म में सहिष्णुता की बुनियाद यह है
कि अलग-अलग बातें अपनी जगह पर सही हो सकती हैं। वह मानता है कि अलग-अलग क्षेत्रों
और वर्गों में अलग-अलग सिद्धांत और चलन हो सकते हैं, और उनके बीच वह कोई फैसला करने को
तैयार नहीं। वह आदमी की जिंदगी में एकरूपता नहीं चाहता, स्वेच्छा से भी नहीं, और ऐसी विविधता में एकता चाहता है
जिसकी परिभाषा नहीं की जा सकती, लेकिन जो अब तक उसके अलग-अलग मतों को एक लड़ी में पिरोती रही है। अत: उसमें
सहिष्णुता का गुण इस विश्वास के कारण है कि किसी की जिंदगी में हस्तक्षेप नहीं
करना चाहिए, इस विश्वास
के कारण कि अलग-अलग बातें गलत ही हों यह जरूरी नहीं है, बल्कि वे सच्चाई को अलग-अलग ढंग से व्यक्त
कर सकती हैं।
कट्टरपंथियों
ने अक्सर हिंदू धर्म में एकरूपता की एकता कायम करने की कोशिश की है। उनके उद्देश्य
कभी बुरे नहीं रहे। उनकी कोशिशों के पीछे अक्सर शायद स्थायित्व और शक्ति की इच्छा
थी, लेकिन
उनके कामों के नतीजे हमेशा बहुत बुरे हुए। मैं भारतीय इतिहास का एक भी ऐसा काल
नहीं जानता जिसमें कट्टरपंथी हिंदू धर्म भारत में एकता या खुशहाली ला सका हो। जब
भी भारत में एकता या खुशहाली आई, तो हमेशा वर्ण, स्त्री, संपत्ति, सहिष्णुता आदि के संबंध में हिंदू
धर्म में उदारवादियों का प्रभाव अधिक था। हिंदू धर्म में कट्टरपंथी जोश बढ़ने पर
हमेशा देश सामाजिक और राजनैतिक दृष्टियों से टूटा है और भारतीय राष्ट्र में, राज्य और समुदाय के रूप में बिखराव
आया है। मैं नहीं कह सकता कि ऐसे सभी काल जिनमें देश टूट कर छोटे-छोटे राज्यों
में बँट गया, कट्टरपंथी
प्रभुता के काल थे, लेकिन
इसमें कोई शक नहीं कि देश में एकता तभी आई जब हिंदू दिमाग पर उदार विचारों का
प्रभाव था।
आधुनिक
इतिहास में देश में एकता लाने की कई बड़ी कोशिशें असफल हुईं। ज्ञानेश्वर का उदार
मत शिवाजी ओर बाजीराव के काल में अपनी चोटी पर पहुँचा, लेकिन सफल होने के पहले ही पेशवाओं की
कट्टरता में गिर गया। फिर गुरु नानक के उदार मत से शुरू होनेवाला आंदोलन रणजीत
सिंह के समय अपनी चोटी पर पहुँचा, लेकिन जल्दी ही सिक्ख सरदारों के कट्टरपंथी झगड़ों में पतित हो गया। ये
कोशिशें, जो एक बार
असफल हो गईं, आजकल फिर
से उठने की बड़ी तेज कोशिशें करती हैं, क्योंकि इस समय महाराष्ट्र और पंजाब
से कट्टरता की जो धारा उठ रही है, उसका इन कोशिशों से गहरा और पापपूर्ण आत्मिक संबंध है। इन सब में भारतीय
इतिहास के विद्यार्थी के लिए पढ़ने और समझने की बड़ी सामग्री है जैसे धार्मिक संतों
और देश में एकता लाने की राजनैतिक कोशिशों के बीच कैसा निकट संबंध है या कि पतन के
बीज कहाँ हैं, बिल्कुल
शुरू में या बाद की किसी गड़बड़ी में या कि इन समूहों द्वारा अपनी कट्टरपंथी
असफलताओं को दुहराने की कोशिशों के पीछे क्या कारण है? इसी तरह विजयनगर की कोशिश और उसके पीछे
प्रेरणा निंबार्क की थी या शंकराचार्य की, और हम्पी की महानता के पीछे कौन-सा
सड़ा हुआ बीज था, इन सब
बातों की खोज से बड़ा लाभ हो सकता है। फिर, शेरशाह और अकबर की उदार कोशिशों के
पीछे क्या था और औरंगजेब की कट्टरता के आगे उनकी हार क्यों हुई?
देश में
एकता लाने की भारतीय लोगों और महात्मा गांधी की आखिरी कोशिश कामयाब हुई है, लेकिन आंशिक रूप में ही। इसमें कोई शक
नहीं कि पाँच हजार वर्षों से अधिक की उदारवादी धाराओं ने इस कोशिश को आगे बढ़ाया, लेकिन इसके तत्कालीन स्रोत में, यूरोप के उदारवादी प्रभावों के अलावा
क्या था – तुलसी या
कबीर और चैतन्य और संतों की महान परंपरा या अधिक हाल के धार्मिक-राजनैतिक नेता
जैसे राममोहन राय और फैजाबाद के विद्रोही मौलवी? फिर, पिछले पाँच हजार सालों की कंट्टरपंथी
धाराएँ भी मिल कर इस कोशिश को असफल बनाने के लिए जोर लगा रही हैं और अगर इस बार
कट्टरता की हार हुई, तो वह फिर
नहीं उठेगी।
केवल
उदारता ही देश में एकता ला सकती है। हिंदुस्तान बहुत बड़ा और पुराना देश है।
मनुष्य की इच्छा के अलावा कोई शक्ति इसमें एकता नहीं ला सकती। कट्टरपंथी हिंदुत्व
अपने स्वभाव के कारण ही ऐसी इच्छा नहीं पैदा कर सकता, लेकिन उदार हिंदुत्व कर सकता है, जैसा पहले कई बार चुका है। हिंदू धर्म, संकुचित दृष्टि से, राजनैतिक धर्म, सिद्धांतों और संगठन का धर्म नहीं है।
लेकिन देश के राजनैतिक इतिहास में एकता लाने की बड़ी कोशिशों को इससे प्रेरणा मिली
है और उनका यह प्रमुख माध्यम रहा है। हिंदू धर्म में उदारता और कट्टरता से महान
युद्ध को देश की एकता और बिखराव की शक्तियों का संघर्ष भी कहा जा सकता है।
लेकिन
उदार हिंदुत्व पूरी तरह समस्या का हल नहीं कर सका। विविधता में एकता के सिद्धांत
के पीछे सड़न और बिखराव के बीज छिपे हैं। कट्टरपंथी तत्वों के अलावा, जो हमेशा ऊपर से उदार हिंदू विचारों
में घुस आते हैं और हमेशा दिमागी सफाई हासिल करने में रुकावट डालते हैं, विविधता में एकता का सिद्धांत ऐसे
दिमाग को जन्म देता है जो समृद्ध और निष्क्रिय दोनों ही है। हिंदू धर्म का बराबर
छोटे-छोटे मतों में बँटते रहना बहुत बुरा है, जिनमें से हरेक अपना अलग शोर मचाए रखता
है और उदार हिंदुत्व उनको एकता के आवरण में ढँकने की चाहे जितनी भी कोशिश करे, वे अनिवार्य ही राज्य के सामूहिक जीवन
में कमजोरी पैदा करते हैं। एक आश्चर्यजनक उदासीनता फैल जाती है। कोई इन बराबर
होनेवाले बँटवारों की चिंता नहीं करता जैसे सबको यकीन हो कि वे एक-दूसरे के ही अंग
हैं। इसी से कट्टरपंथी हिंदुत्व को अवसर मिलता है और शक्त्िा की इच्छा के रूप
में चालक शक्ति मिलती है, हालाँकि
उसकी कोशिशों के फलस्वरूप और भी ज्यादा कमजोरी पैदा होती है।
उदार और
कट्टरपंथी हिंदुत्व के महायुद्ध का बाहरी रूप आजकल यह हो गया है कि मुसलमानों के
प्रति क्या रुख हो। लेकिन हम एक क्षण के लिए भी यह न भूलें कि यह बाहरी रूप है और
बुनियादी झगड़े जो अभी तक हल नहीं हुए, कहीं अधिक निर्णायक हैं। महात्मा
गांधी की हत्या, हिंदू-मुस्लिम
झगड़े की घटना उतनी नहीं थी जितनी हिंदू धर्म की उदार व कट्टरपंथी धाराओं के युद्ध
की। इसके पहले कभी किसी हिंदू ने वर्ण, स्त्री, संपत्ति और सहिष्णुता के बारे में
कट्टरता पर इतनी गहरी चोटें नहीं की थीं। इसके खिलाफ सारा जहर इकट्ठा हो रहा था।
एक बार पहले भी गांधी जी की हत्या करने की कोशिश की गई थी। उस समय उसका खुला ओर
साफ उद्देश्य यही था कि वर्ण व्यवस्था को बचा कर हिंदू धर्म की रक्षा की जाए।
आखिरी और कामयाब कोशिश का उद्देश्य ऊपर से यह दिखाई पड़ता था कि इस्लाम के हमले
से हिंदू धर्म को बचाया जाए, लेकिन इतिहास के किसी भी विद्यार्थी को कोई संदेह नहीं होगा कि यह सब से
बड़ा और सब से जघन्य जुआ था, जो हारती हुई कट्टरता ने उदारता से अपने युद्ध में खेला। गांधी जी का हत्यारा
वह कट्टरपंथी तत्व था जो हमेशा हिंदू दिमाग के अंदर बैठा रहता है, कभी दबा हुआ और कभी प्रकट, कुछ हिंदुओं में निष्क्रिय और कुछ में
तेज। जब इतिहास के पन्ने गांधी जी की हत्या को कट्टरपंथी-उदार हिंदुत्व के युद्ध
की एक घटना के रूप में रखेंगे और उन सभी पर अभियोग लगाएँगे जिन्हें वर्णों के
खिलाफ और स्त्रियों के हक में, संपत्ति के खिलाफ और सहिष्णुता के हक में, गांधी जी के कामों से गुस्सा आया था, तब शायद हिंदू धर्म की निष्क्रिता और
उदासीनता नष्ट हो जाए।
अब तक
हिंदू धर्म के अंदर कट्टर और उदार एक-दूसरे से जुड़े क्यों रहे और अभी तक उनके
बीच कोई साफ और निर्णायक लड़ाई क्यों नहीं हुई, यह एक ऐसा विषय है जिस पर भारतीय
इतिहास के विद्यार्थी खोज करें तो बड़ा लाभ हो सकता है। अब तक हिंदू दिमाग से
कट्टरता कभी पूरी तरह दूर नहीं हुई, इसमें कोई शक नहीं। इस झगड़े का कोई हल
न होने के विनाशपूर्ण नतीजे निकले, इसमें भी कोई शक नहीं। जब तक हिंदुओं
के दिमाग से वर्ण-भेद बिल्कुल ही खत्म नहीं होते, या स्त्री को बिल्कुल पुरुष के बराबर
ही नहीं माना जाता, या
संपत्ति और व्यवस्था के संबंध से पूरी तरह तोड़ा नहीं जाता तब तक कट्टरता भारतीय
इतिहास में अपना विनाशकारी काम करती रहेगी और उसकी निष्क्रियता को कायम रखेगी। अन्य
धर्मों की तरह हिंदू धर्म सिद्धांतों और बँधे हुए नियमों का धर्म नहीं है बल्कि
सामाजिक संगठन का एक ढंग है और यही कारण है कि उदारता और कट्टरता का युद्ध अभी
समाप्ति तक नहीं लड़ा गया और ब्राह्मण-बनिया मिल कर सदियों से देश पर अच्छा या
बुरा शासन करते आए हैं जिसमें कभी उदारवादी ऊपर रहते हैं कभी कट्टरपंथी।
उन चार
सवालों पर केवल उदारता से काम न चलेगा। अंतिम रूप से उनका हल करने के लिए हिंदू
दिमाग से इस झगड़े को पूरी तरह खत्म करना होगा।
इन सभी हल
न होनेवाले झगड़ों के पीछे निर्गुण और सगुण सत्य के संबंध का दार्शनिक सवाल है।
इस सवाल पर उदार और कट्टर हिंदुओं के रुख में बहुत कम अंतर है। मोटे तौर पर, हिंदू धर्म सगुण सत्य के आगे निर्गुण
सत्य की खोज में जाना चाहता है, वह सृष्टि को झूठा तो नहीं मानता लेकिन घटिया किस्म का सत्य मानता है।
दिमाग से उठ कर परम सत्य तक पहुँचने के लिए वह इस घटिया सत्य को छोड़ देता है।
वस्तुत: सभी देशों का दर्शन इसी सवाल को उठाता है। अन्य धर्मों और दर्शनों से
हिंदू धर्म का फर्क यही है कि दूसरे देशों में यह सवाल अधिकतर दर्शन में ही सीमित
रहा है, जबकि
हिंदुस्तान में यह जनसाधारण के विश्वास का एक अंग बन गया है। दर्शन को संगीत की
धुनें दे कर विश्वास में बदल दिया गया है। लेकिन दूसरे देशों में दार्शनिकों ने
परम सत्य की खोज में आम तौर पर सांसारिक सत्य से बिल्कुल ही इनकार किया है। इस
कारण आधुनिक विश्व पर उसका प्रभाव बहुत कम पड़ा है। वैज्ञानिक और सांसारिक भावना
ने बड़ी उत्सुकता से प्रकृति की सारी जानकारी को इकट्ठा किया, अलग-अलग कर के क्रमबद्ध किया और उन्हें
एक में बाँधनेवाले नियम खोज निकाले। इससे आधुनिक मनुष्य को, जो मुख्यत: यूरोपीय है, जीवन पर विचार करने का एक खास
दृष्टिकोण मिला है। वह सगुण सत्य को, जैसा है वैसा ही बड़ी खुशी से स्वीकार
कर लेता है। इसके अलावा ईसाई मत की नैतिकता ने मनुष्य के अच्छे कामों को ईश्वरीय
काम का पद प्रदान किया है। इन सब के फलस्वरूप जीवन की असलियतों का वैज्ञानिक और
नैतिक उपयोग होता है। लेकिन हिंदू धर्म कभी अपने दार्शनिक आधार से छुटकारा नहीं पा
सका। लोगों का साधारण विश्वास भी व्यक्त और प्रकट सगुण सत्य से आगे जा कर अव्यक्त
और अप्रकट निर्गुण सत्य को देखना चाहता है। यूरोप में भी मध्य युग में ऐसा ही
दृष्टिकोण था लेकिन मैं फिर कह दूँ कि यह दार्शनिकों तक ही सीमित था और
सगुण सत्य से इनकार कर के उसे नकली मानता था जबकि आम लोग ईसाई मत को नैतिक विश्वास
के रूप में मानते थे और उस हद तक सगुण सत्य को स्वीकार करते थे। हिंदू धर्म ने
कभी जीवन की असलियतों से बिल्कुल इनकार नहीं किया बल्कि वह उन्हें एक घटिया किस्म
का सत्य मानता है और आज तक हमेशा ऊँचे प्रकार के सत्य की खोज करने की कोशिश करता
रहा है। यह लोगों के साधारण विश्वास का अंग है।
एक बड़ा
अच्छा उदाहरण मुझे याद आता है। कोणार्क के विशाल लेकिन आधे नष्ट मंदिर में पत्थरों
पर हजारों मूर्तियाँ खुदी हुई मिलती हैं। जिंदगी की असलियतों की तस्वीरें देने
में कलाकार ने किसी तरह की कंजूसी या संकोच नहीं दिखाया है। जिंदगी की सारी विभिन्नताओं
को उसने स्वीकार किया है। उसमें भी एक क्रमबद्ध व्यवस्था मालूम पड़ती है। सब से
नीचे की मूर्तियों में शिकार, उसके ऊपर प्रेम, फिर संगीत
और फिर शक्ति का चित्रण है। हर चीज में बड़ी शक्ति और क्रियाशीलता है। लेकिन मंदिर
के अंदर कुछ नहीं है, और
क्रियाशीलता से अंदर की खामोशी और स्थिरता, मंदिर में बुनियादी तौर पर यही अंकित
है। परम सत्य की खोज कभी बंद नहीं हुई।
चित्रकला
की अपेक्षा वास्तुकला और मूर्तिकला के अधिक विकास की भी अपनी अलग कहानी है। वस्तुत:
जो प्राचीन चित्र अब भी मिलते हैं, वास्तुकला पर ही आधारित हैं। संभवत:
परम सत्य के बारे में अपने विचारों को व्यक्त करना चित्रकला की अपेक्षा वास्तुकला
और मूर्तिकला में ज्यादा सरल है।
अत: हिंदू
व्यक्तित्व दो हिस्सों में बँट गया है। अच्छी हालत में हिंदू सगुण सत्य को स्वीकार
कर के भी निर्गुण परम सत्य को नहीं भूलता और बराबर अपनी अंतर्दृष्टि को विकसित
करने की कोशिश करता रहता है, और बुरी हालत में उसका पाखंड असीमित होता है। हिंदू शायद दुनिया का सबसे
बड़ा पाखंडी होता है, क्योंकि
वह न सिर्फ दुनिया के सभी पाखंडियों की तरह दूसरों को धोखा देता है बल्कि अपने को
धोखा दे कर खुद अपना नुकसान भी करता है। सगुण और निर्गुण सत्य के बीच बँटा हुआ
उसका दिमाग अक्सर इसमें उसे प्रोत्साहन देता है। पहले, और आज भी, हिंदू धर्म एक आश्चर्यजनक दृश्य
प्रस्तुत करता है। हिंदू धर्म अपने माननेवालों को, छोटे-से-छोटे को भी, ऐसी दार्शनिक समानता, मनुष्य और मनुष्य और अन्य वस्तुओं
की एकता प्रदान करता है जिसकी मिसाल कहीं और नहीं मिलती। दार्शनिक समानता के इस
विश्वास के साथ ही गंदी से गंदी सामाजिक विषमता का व्यवहार चलता है। मुझे अक्सर
लगता है कि दार्शनिक हिंदू खुशहाल होने पर गरीबों और शूद्रों से पशुओं जैसा, पशुओं से पत्थरों जैसा और अन्य वस्तुओं
से दूसरी वस्तुओं की तरह व्यवहार करता है। शाकाहार और अहिंसा गिर कर छिपी हुई
क्रूरता बन जाते हैं। अब तक की सभी मानवीय चेष्टाओं के बारे में यह कहा जा सकता
है कि एक न एक स्थिति में हर जगह सत्य क्रूरता में बदल जाता है और सुंदरता
अनैतिकता में, लेकिन
हिंदू धर्म के बारे में यह औरों की अपेक्षा ज्यादा सच है। हिंदू धर्म ने सचाई और
सुंदरता की ऐसी चोटियाँ हासिल कीं जो किसी और देश में नहीं मिलतीं, लेकिन वह ऐसे अँधेरे गढ़ों में भी गिरा
है जहाँ तक किसी और देश का मनुष्य नहीं गिरा। जब तक हिंदू जीवन की असलियतों को, काम और मशीन, जीवन और पैदावार, परिवार और जनसंख्या वृद्धि, गरीबी और अत्याचार और ऐसी अन्य
असलियतों को वैज्ञानिक और लौकिक दृष्टि से स्वीकार करना नहीं सीखता, तब तक वह अपने बँटे हुए दिमाग पर काबू
नहीं पा सकता और न कट्टरता को ही खत्म कर सकता है, जिसने अक्सर उसका सत्यानाश किया है।
इसका यह
अर्थ नहीं कि हिंदू धर्म अपनी भावधारा ही छोड़ दे और जीवन और सभी चीजों की एकता की
कोशिश न करे। यह शायद उसका सबसे बड़ा गुण है। अचानक मन में भर जानेवाली ममता, भावना की चेतना और प्रसार, जिसमें गाँव का लड़का मोटर निकलने पर
बकरी के बच्चे को इस तरह चिपटा लेता है जैसे उसी में उसकी जिंदगी हो, या कोई सूखी जड़ों और हरी शाखों के
पेड़ को ऐसे देखता है जैसे वह उसी का एक अंश हो, एक ऐसा गुण है जो शायद सभी धर्मों में
मिलता है लेकिन कहीं उसने ऐसी गहरी और स्थायी भावना का रूप नहीं लिया जैसा हिंदू
धर्म में। बुद्धि का देवता, दया के
देवता से बिल्कुल अलग है। मैं नहीं जानता कि ईश्वर है या नहीं है, लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि सारे जीवन
और सृष्टि को एक में बाँधनेवाली ममता की भावना है, हालाँकि अभी वह एक दुर्लभ भावना है। इस
भावना को सारे कामों, यहाँ तक
कि झगड़ों की भी पृष्ठभूमि बनाना शायद व्यवहार में मुमकिन न हो। लेकिन यूरोप
केवल सगुण, लौकिक सत्य
को स्वीकार करने के फलस्वरूप उत्पन्न हुए झगड़ों से मर रहा है, हिंदुस्तान केवल निर्गुण, परम सत्य को ही स्वीकार करने के फलस्वरूप
निष्क्रियता से मर रहा है। मैं बेहिचक कह सकता हूँ कि मुझे सड़ने की अपेक्षा झगड़े
से मरना ज्यादा पसंद है। लेकिन विचार और व्यवहार के क्या यही दो रास्ते मनुष्य
के सामने हैं? क्या खोज
की वैज्ञानिक भावना का एकता की रागात्मक भावना से मेल बैठाना मुमकिन नहीं है, जिसमें एक दूसरे के अधीन न हो और समान
गुणोंवाले दो कर्मों के रूप में दोनों बराबरी की जगह पर हों। वैज्ञानिक भावना वर्ण
के खिलाफ और स्त्रियों के हक में, संपत्ति के खिलाफ और सहिष्णुता के हक में काम करेगी और धन पैदा करने के
ऐसे तरीके निकालेगी जिससे भूख और गरीबी दूर होगी। एकता की सृजनात्मक भावना वह
रागात्मक शक्ति पैदा करेगी जिसके बिना मनुष्य की बड़ी-से-बड़ी कोशिशें लोभ, ईर्ष्या, शक्ति और घृणा में बदल जाती हैं।
यह कहना
मुश्किल है कि हिंदू धर्म यह नया दिमाग पा सकता है और वैज्ञानिक और रागात्मक
भावनाओं में मेल बैठ सकता है या नहीं। लेकिन हिंदू धर्म दरअसल है क्या? इसका कोई एक उत्तर नहीं, बल्कि कई उत्तर हैं। इतना निश्चित है
कि हिंदू धर्म कोई खास सिद्धांत या संगठन नहीं है न विश्वास और व्यवहार का कोई
नियम उसके लिए अनिवार्य ही है। स्मृतियों और कथाओं, दर्शन और रीतियों की एक पूरी दुनिया है
जिसका कुछ हिस्सा बहुत ही बुरा है और कुछ ऐसा है जो मनुष्य के काम आ सकता है। इन
सब से मिल कर हिंदू दिमाग बनता है जिसकी विशेषता कुछ विद्वानों ने सहिष्णुता और
विविधता में एकता बताई है। हमने इस सिद्धांत की कमियाँ देखीं और यह देखा कि दिमागी
निष्क्रियता दूर करने के लिए कहाँ उसमें सुधार करने की जरूरत है। इस सिद्धांत को
समझने में आम तौर पर यह गलती की जाती है कि उदार हिंदू धर्म हमेशा अच्छे विचारों
और प्रभावों को अपना लेता है चाहे वे जहाँ से भी आए हों, जबकि कट्टरता ऐसा नहीं करती। मेरे खयाल
में यह विचार अज्ञानपूर्ण है। भारतीय इतिहास के पन्नों में मुझे ऐसा कोई काल नहीं
मिला जिसमें आजाद हिंदू ने विदेशों में विचारों या वस्तुओं की खोज की हो। हिंदुस्तान
और चीन के हजारों साल के संबंध में मैं सिर्फ पाँच वस्तुओं के नाम जान पाया हूँ
जिनमें सिंदूर भी है, जो चीन से
भारत लाई गई। विचारों के क्षेत्र में कुछ भी नहीं आया।
आजाद हिंदुस्तान
का आम तौर पर बाहरी दुनिया से एकतरफा रिश्ता होता था जिसमें कोई विचार बाहर से
नहीं आते थे और वस्तुएँ भी कम ही आती थीं, सिवाय चाँदी आदि के। जब कोई विदेशी
समुदाय आ कर यहाँ बस जाता और समय बीतने पर हिंदू धर्म का ही एक अंग या वर्ण बनने
की कोशिश करता तब जरूर कुछ विचार और कुछ चीजें अंदर आतीं। इसके विपरीत गुलाम
हिंदुस्तान और उस समय का हिंदू धर्म विजेता की भाषा, उसकी आदतों और उसके रहन-सहन की बड़ी
तेजी से नकल करता है। आजादी में दिमाग की आत्मनिर्भरता के साथ गुलामी में पूरा
दिमागी दीवालियापन मिलता है। हिंदू धर्म की इस कमजोरी को कभी नहीं समझा गया और यह
खेद की बात है कि उदारवादी हिंदू अज्ञानवश, प्रचार के लिए इसके विपरीत बातें फैला
रहे हैं। आजादी की हालत में हिंदू दिमाग खुला जरूर रहता है, लेकिन केवल देश के अंदर होनेवाली
घटनाओं के प्रति। बाहरी विचारों और प्रभावों के प्रति तब भी बंद रहता है। यह उसकी
एक बड़ी कमजोरी है और भारत के विदेशी शासन का शिकार होने का एक कारण है। हिंदू
दिमाग को अब न सिर्फ अपने देश के अंदर की बातों बल्कि बाहर की बातों के प्रति भी
अपना दिमाग खुला रखना होगा और विविधता में एकता के अपने सिद्धांत को सारी दुनिया
के विचार और व्यवहार पर लागू करना होगा।
आज हिंदू
धर्म में उदारता और कट्टरता की लड़ाई ने हिंदू-मुस्लिम झगड़े का ऊपरी रूप ले लिया
है लेकिन हर ऐसा हिंदू जो अपने धर्म और देश के इतिहास से परिचित है, उन झगड़ों की ओर भी उतना ही ध्यान
देगा जो पाँच हजार साल से भी अधिक समय से चल रहे हैं और अभी तक हल नहीं हुए। कोई
हिंदू मुसलमानों के प्रति सहिष्णु नहीं हो सकता जब तक कि वह उसके साथ ही वर्ण और
संपत्ति के विरुद्ध और स्त्रियों के हक में काम न करे। उदार और कट्टर हिंदू धर्म
की लड़ाई अपनी सबसे उलझी हुई स्थिति में पहुँच गई है और संभव है कि उसका अंत भी
नजदीक ही हो। कट्टरपंथी हिंदू अगर सफल हुए तो चाहे उनका उद्देश्य कुछ भी हो, भारतीय राज्य के टुकड़े कर देंगे न
सिर्फ हिंदू-मुस्लिम दृष्टि से बल्कि वर्णों और प्रांतों की दृष्टि से भी। केवल
उदार हिंदू ही राज्य को कायम कर सकते हैं। अत: पाँच हजार वर्षों से अधिक की लड़ाई
अब इस स्थिति में आ गई है कि एक राजनैतिक समुदाय और राज्य के रूप में हिंदुस्तान
के लोगों की हस्ती ही इस बात पर निर्भर है कि हिंदू धर्म में उदारता की कट्टरता
पर जीत हो।
धार्मिक
और मानवीय सवाल आज मुख्यत: एक राजनैतिक सवाल है। हिंदू के सामने आज यही एक रास्ता
है कि अपने दिमाग में क्रांति लाए या फिर गिर कर दब जाए। उसे मुसलमान और ईसाई बनना
होगा और उन्हीं की तरह महसूस करना होगा। मैं हिंदू-मुस्लिम एकता की बात नहीं कर
रहा क्योंकि वह एक राजनैतिक, संगठनात्मक या अधिक से अधिक सांस्कृतिक सवाल है। मैं मुसलमान और ईसाई के
साथ हिंदू की रागात्मक एकता की बात कर रहा हूँ, धार्मिक विश्वास और व्यवहार में नहीं, बल्कि इस भावना में कि ”मैं वह हूँ”। ऐसी रागात्मक एकता हासिल करना कठिन
मालूम पड़ सकता है, या अक्सर
एक तरफ हो सकता है और उसे हत्या और रक्तपात की पीड़ा सहनी पड़ सकती है। मैं यहाँ
अमरीकी गृह-युद्ध की याद दिलाना चाहूँगा जिसमें चार लाख भाइयों ने भाइयों को मारा
और छह लाख व्यक्ति मरे लेकिन जीत की घड़ी में अब्राहम लिंकन और अमरीका के लोगों
ने उत्तरी और दक्षिणी भाइयों के बीच ऐसी ही रागात्मक एकता दिखाई। हिंदुस्तान का
भविष्य चाहे जैसा भी हो, हिंदू को
अपने आप को पूरी तरह बदल कर मुसलमान के साथ ऐसी रागात्मक एकता हासिल करनी होगी।
सारे जीवों और वस्तुओं की रागात्मक एकता में हिंदू का विश्वास भारतीय राज्य की
राजनैतिक जरूरत भी है कि हिंदू मुलसमान के साथ एकता महसूस करे। इस रास्ते पर बड़ी
रुकावटें और हारें हो सकती हैं, लेकिन हिंदू दिमाग को किस रास्ते पर चलना चाहिए, यह साफ है।
कहा जा
सकता है कि हिंदू धर्म में उदारता और कट्टरता की इस लड़ाई को खत्म करने का सब से
अच्छा तरीका यह है कि धर्म से ही लड़ा जाए। यह हो सकता है लेकिन रास्ता टेढ़ा है
और कौन जाने कि चालाक हिंदू धर्म, विरोधियों को भी अपना एक अंग बना कर निगल न जाए। इसके अलावा कट्टरपंथियों
को जो भी अच्छे समर्थक मिलते हैं, वह कम पढ़े-लिखे लोगों में और शहर में
रहनेवालों में। गाँव के अनपढ़ लोगों में तत्काल चाहे जितना भी जोश आ जाए वे उसका
स्थायी आधार नहीं बन सकते। सदियों की बुद्धि के कारण पढ़े-लिखे लोगों की तरह
गाँववाले भी सहिष्णु होते हैं। कम्युनिज्म या फासिज्म जैसे लोकतंत्रविरोधी
सिद्धांतों से ताकत पाने की खोज में, जो वर्ण और नेतृत्व के मिलते-जुलते
विचारों पर आधारित हैं, हिंदू
धर्म का कट्टरपंथी अंश भी धर्म-विरोधी का बाना पहन सकता है। अब समय है कि हिंदू
सदियों से इकट्ठा हो रही गंदगी को अपने दिमाग से निकाल कर उसे साफ करे। जिंदगी की
असलियतों और अपनी परम सत्य की चेतना, सगुण सत्य और निर्गुण सत्य के बीच
उसे एक सच्चा और फलदायक रिश्ता कायम करना होगा। केवल इसी आधार पर वह वर्ण, स्त्री, संपत्ति और सहिष्णुता के सवालों पर
हिंदू धर्म के कट्टरपंथी तत्वों को हमेशा के लिए जीत सकेगा जो इतने दिनों तक उसके
विश्वासों को गंदा करते रहे हैं और उसके देश के इतिहास में बिखराव लाते रहे हैं।
पीछे हटते समय हिंदू धर्म में कट्टरता अक्सर उदारता के अंदर छिप कर बैठ जाती है।
ऐसा फिर न होने पाए। सवाल साफ हैं। समझौते से पुरानी गलतियाँ फिर दुहराई जाएँगी।
इस भयानक युद्ध को अब खत्म करना ही होगा। भारत के दिमाग की एक नई कोशिश तब शुरू
होगी जिसमें बौद्धिक का रागात्मक से मेल होगा, जो विविधता में एकता को निष्क्रिय नहीं
बल्कि, सशक्त
सिद्धांत बनाएगी और जो स्वच्छ लौकिक खुशियों को स्वीकार कर के भी सभी जीवों और
वस्तुओं की एकता को नजर से ओझल न होने देगी।
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