Friday 13 March 2015

विचारों का विरोध विचार से ही करें / विजय शंकर सिंह



 
आज़ादी सबसे लुभावना शब्द है. शायद मृत होती हुयी आशा को भी जीवनदान दे दे. जैसे ही हम कुछ समझने बूझने लायक होते हैं खुद को बंधन मुक्त होते देखना चाहते हैं. चाहे शिशु हो, या युवा,या बृद्ध. शिशु भी अपनी मर्ज़ी के अनुसार ही खेलना चाहता है, उसका रोना, ज़िद करना, और फ़ैल जाना उसका आज़ाद होने की ही जिजीविषा को बताता है. युवा तो आक्रोशित रहते ही है . वह वृद्ध जो जीवन भर सबको अपनी मर्ज़ी से नाच नचाते रहे हैं अपने अवसान काल में स्वयं उसी आज़ादी के लिए तत्पर रहते हैं. आप दिन भर किसी कमरे में खुद ही रहें, हफ़्तों न निकलें, आप को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा. पर जैसे ही कोई कहे कि आप को दो दिन इस कमरे से बाहर नहीं निकलना है, आप की भृकुटि तन जाती है. आप की वही ख्वाबगाह आप को अखरने लगती है. यह और कुछ नहीं सिर्फ आज़ाद होने और आज़ाद रहने की ललक है यह. दुनिया का कोई मुल्क जैसे ही थोड़ा परिपकव होना शुरू हो जाता है वह आज़ाद होने के लिए कसमसाने लगता है. पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं ! ऐसे ही नहीं कहा है और मनुष्य आज़ाद पैदा हुआ है, पर वह जीवन भर जंज़ीरों से जकड़ा हुआ है, यह भी रूसो ने जो आधुनिक लोकतंत्र और स्वतंत्रता आन्दोलनों की जनक फ्रेंच क्रान्ति का प्रेरणा पुरुष था ने कहा था, कभी.

इसी तरह, गुलाम बनाने की भी प्रवित्ति होती है. सारी प्राचीन सभ्यताओं में दास या ग़ुलाम बनाने के साक्ष्य मिलते है. भारतीय संस्कृति में शूद्र उसी का मिलता जुलता रूप है. अपने को बेहद आज़ाद ख़याल मानने वाला देश ब्रिटेन ने लगभग पूरी दुनिया पर शासन किया. यह अलग बात है कि उसी आज़ाद खयाली ने उसके गुलाम मुल्कों को आज़ाद होने को प्रेरित भी किया. लेकिन यह आज़ाद खयाली कोई पाश्चात्य अवधारणा नहीं है. भारतीय मनीषा और संस्कृति का मूल तत्व ही स्वतंत्र चेता है. मुक्ति की कामना या मोक्ष भी उसी चेतना का ही रूप है. हम सदैव मोक्ष चाहते हैं. जीवन मृत्यु के इस चक्कर से. लेकिन यह कामना भी कितने चक्र और पैदा कर देती है, तभी, महाभारत के यक्ष, युधिष्ठिर संवाद का क्षेपक याद आ जाता है किम आश्चर्यम ! जब भी आज़ादी और गुलामी की मनोवृत्तियों में संघर्ष छिड़ता है तो, तो जो सबल होता है वही जीतता है.

यह संघर्ष, देश और व्यक्ति से परे जा कर विचारों में आता है. और खुद ही आज़ाद होने और आज़ाद सोचने की और जन्मुख हो जाता है. लेकिन आज़ादी ही परम लक्ष्य नहीं है. इस आज़ाद खयाली के कुछ खतरे भी हैं जो कभी कभी बहुत गंभीर हो जाते है . तब वह उच्चरिखलता बन जाती है. जैसे आज़ाद खयाली की भी अपनी सीमाएं और मानदंड होते हैं वैसे ही उच्छरीखलता के भी अपने मानदंड होते है . यह सारी सीमाएं, मानदंड हम अपने विचार से ही तय करते हैं. लेकिन कितनी भी आज़ाद खयाली हो जाए, समाज उसे एक सीमा तक ही मान्यता देता है. व्यक्ति अगर अग्रगामी सोच रखता है तो समाज हमेशा प्रतिगामी ही रहेगा. सह पीछे नहीं जाएगा और न जाता है लेकिन ठिठक कर कुछ हैरानी से, तो कुछ तंज़ से उस आज़ाद खयाली से उद्भूत अग्रगामी विचार को देखेगा. भीड़ से जैसे ही कोई कदम आगे बढ़ता है भीड़ की प्रतिक्रिया हमेशा,आश्चर्य और उपहास के भाव से मिली जुली होती है फिर वही भीड़, आगे बढ़ जाती है. यह समाज का मनोविज्ञान है.

विचार का विरोध विचार ही से होना चाहिए, तर्क का प्रतितर्क से. कभी भी विचार विरोध बल से संभव नहीं है. बल उसे ज़ाहिरा तौर पर तो दबाये दिखता है, पर वह विचार न दबता है और न ही बदलता है. वह इस दमन से और ही रूढ़ और अदम्य ही होता जाता है. बच्चों के मनोविज्ञान से इसे समझा जा सकता है. लेकिन आज़ाद खयाली अगर निरुद्देश्य और प्रचार के हेतु है तो वह आज़ाद खयाली नहीं कही जायेगी. वह भी एक प्रकार का व्यापार ही है. आज़ाद खयाली जहां हमें जीवन को उदात्त बनाने का मार्ग प्रशस्त करती है, वहीं इस के खतरे भी कम नहीं हैं. किसी भी विचार का विरोध विचार से करना सीखिये. उसे बल से नियंत्रित न करें. भारतीय मनीषा और वांग्मय इतना समृद्ध है कि आप को हर विचार के लिए सन्दर्भ और तर्क मिल जाएंगे. जीवन अंधकार से और प्रकाश की और जाने में है, चलते रहने में है, जड़ हो जाने और थमने में नहीं !
विजय शंकर सिंह.

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