मेरी कविताओं में
,
इश्क़ ओ मुहब्बत की बातें देख
वह वह थोड़ा शरारत से मुस्कुराये ,
और फुसफुसा कर पूछा ,
' यह आह ओ
फ़ुग़ाँ , यह सितम बयानी ,
इज़हार ए इश्क़ यह !
आखिर सफर ये
दरिया ए आतिश का ,
क्या बला है।
'
कहा हमने ,
उसी अंदाज़ में
,
जिस
में रू ब
रू हुए थे
वह ,
" बला खूबसूरत है
, या क्या है
,
नहीं पता मुझे।
यूँ ही बैठे बिठाए , एक निर्झर ख्यालों का ,
तोड़ कर भीतर कुछ, फूट पड़ता है
,
शब्द बिखरते हैं
,
चुनता हूँ उन्हें मैं , तस्वीर खिंच जाती है ,
लोग समझते हैं
वह हजरत ए
इश्क़ हैं ! '
सुन के बयान मेरा ,
धीरे से बोले वे मुझ से ,
' फिर ये सारे शेर , कवितायें ,
किस से शुरू होती हैं ,
और उतरती कहाँ हैं।
कितने ज़ालिम किस्से ,
इश्क़ के बयाँ हैं इनमें।
आखिर कोई तो
शै होगी ,
जहां से है इब्तिदा इनकी। ''
मैंने कहा ,
" न इब्तिदा है
इश्क़ की , न
है कहीं इंतहा ,
न जाने कब
एक सोता फूट
पड़ता है ,
पत्थरों को तोड़
कर ,
एक आहट हल्की सी ,
और चल पड़ता है , ढलान की ओर ,
एक अंतहीन यात्रा पर।
आँख के कोर
से घोर उमस
के बाद ,
मन में घुमड़े बादल ,
पा कर राह
, छलक उठते हैं। '
सब को तृप्त करती सरिता ,
हर अवरोध के
बीच , मार्ग ढूंढती ,
अग्रसर है सागर की ओर। '
इश्क़ व मुहब्बत में , कोई
बला हो ,
यह
ज़रूरी तो नहीं,
एक पत्थर
दिल पर ही रख दे कोई,
और
सोख ले सारा रस,
जीवन का ,
हो जाय बंजर सब ,
पसर जाय मरू चहुँ ओर ,
फिर कहाँ से
घुमड़ेंगे , प्रेम पगे अभ्र, मित्र !
यह सफर तो
दोस्त ,
आगाज़ ए दुनिया से शुरू हो कर ,
दुनिया के फना
होने तक चलेगा।
भला प्रेम के
बिना भी कभी
,
दुनिया रह सकती है !!
( विजय शंकर सिंह )
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