Wednesday, 11 March 2015

एक कविता ....... रहते रहते, कहाँ गायब जाते हो तुम / विजय शंकर सिंह


अगर ऑक्सीजन के बिना जिया नहीं जा सकता तो , कंप्यूटर और नेट के बिना आसानी से रहा भी नहीं जा सकता। आज यह कविता पढ़ें , जो कंप्यूटर , नेट और सोशल मीडिया पर केंद्रित है। पहले भी इसे फेसबुक पर पोस्ट किया जा चुका है अब यह मेरे ब्लॉग लोक माध्यम के द्वारा शेयर की जा रही है। 



रहते रहते, कहाँ  गायब  जाते हो तुम ,
ढूंढता रहता हूँ, तुम्हे ,
कभी स्टेटस पर ,
कभी इन बॉक्स में ,
और नहीं दिखते हो जब , तुम
हैंग हो जाता हूँ .

कितनी उम्मीद से, लाग इन होता हूँ ,
खंगाल डालता हूँ नोटिफिकेशन सारे ,
झाँक आता हूँ तुम्हारे दोस्तों के वाल पर ,
कि वहीं से सुराग मिले कुछ ,
पर वहाँ भी सन्नाटा ,
इन बॉक्स भी खाली का खाली .

घूरने लगता हूँ स्क्रीन
और देखता हूँ घड़ी को ,
जो टंगी है दीवार पर ,
चलती  ही  रहती है हमेशा .

भर कर खीज से ,
झुंझलाता हूँ तुम पर ,
और कोसता हूँ खुद को ,
कर देता हूँ फ़ोर्स शट डाउन सिस्टम ,

सो जाता हूँ ओढ़ कर लिहाफ ,
इस उम्मीद में कि ,
कल फिर तुम्हे खोजूंगा ...


rahte rahte kahaan gaayab jaate ho tum,
dhoondhtaa rahtaa hun tumhe,
kabhee status par,
kabhee in box mein,
aur nahin dikhte ho jab tum,
hang ho jaataa hun,

kitnee ummeed se log in hotaa hoon,
khangaal daaltaa hoon, notification saare,
jhaank aataa hun,
tumhaare doston ke wall par,
ki waheen se kuchh suraag mile kuchh,
par wahaan bhee sannaataa,
in box bhee khaalee kaa khaalee.

ghoorne lagtaa hoon screen,
aur dekhtaa hoon ghadee ko,
jo tangee hai deewaar par,
aur chalatee hee rahtee hai sadaa.

bhar kar kheej se,
jhunjhalaataa hun tum par,
aur kosataa hoon khud ko,
kar detaa hoon force shut down system.

so jaataa hoon ordh kar lihaaf,
is ummeed mein ki,
kal fir tumhe khojungaa..
-vss 

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