Saturday 28 February 2015

संसद में मन की बात और आज का बजट / विजय शंकर सिंह



हर अधिवेशन के पूर्व राष्ट्रपति जी के अभिभाषण की परम्परा रही है। यह अभिभाषण राष्ट्रपति को सरकार यानी कैबिनेट द्वारा लिख और पारित कर के भेजा जाता है। जो भेजा जाता है वह सरकार का वक्तव्य होता है। राष्ट्र्पति महोदय उस से सहमत हों या न हों पर उन्हें बिना विराम , अर्धविराम छुए वही पढ़ना पड़ता है। कुछ समय के लिए इसे आप उनकी निजी अभिव्यक्ति पर बंधन भी मान सकते हैं पर यह संसदीय परंपरा है। लोक से चुनी संसद ही सर्वोच्च है , और उसी से चुनी कैबिनेट अपनी बात लोक के समक्ष रखती है। फिर उस अभिभाषण के विन्दुओं पर जिसमें सरकार की दशा और दिशा तय होगी संसद में बहस होती है। अंत में सदन के नेता के रूप मैं प्रधान मंत्री उस बहस के दौरान विपक्ष द्वारा उठाये गए विन्दुओं पर अपनी बात कहते हैं।

कल प्रधान मंत्री जी का भाषण था। वह एक ओजस्वी वक्ता हैं। मूलतः वह प्रचारक थे और इस कारण उन्हें वाणी में महारत प्राप्त है। पर सदन में उनके भाषण और वक्तृता शैली से देश भले आशान्वित हो जाय , उत्साहित हो जाय , समर्थक ऊर्जस्वित हो जाएँ पर देश की हकीकत जब तक सड़क पर नहीं सुधरती है तब तक तब तक ऐसे आलंकारिक शब्दावली का कोई उपयोग भी नहीं है। सरकार के गठित हुए 10 माह हो गए हैं। इतना समय किसी भी सरकार के आकलन के लिए कम होता है पर दीये में तेल कितना है यह अनुमान लगाया जा सकता है। उन्होंने कहा था , अन्धेरा घना है , पर दिया जलाना कहाँ मना है। आज उसी अँधेरे में एक दीप लेकर सरकार ससद में आ रही है। बहुत फ़र्क़ होता है संसद और सड़क के मौसम में। बहुत फ़र्क़ है राजपथ और मेरे गाँव की और जाती सड़क में । आशा है , यह फ़र्क़ कुछ तो कम होगा।

राहें तारीक़ हैं,
कुछ सूझ भी नहीं रहा है ,
कोई दीप नहीं ,
कोई रोशनी नहीं।
एक जुगनू ने आ कर ,
उम्मीद की चमक दिखाई है ,
पर इस का क्या ,
यह भी तो जीव है ,
कब तक रहेगा मेरे साथ ,
एक दीया , मुझे दे दो ,
उसकी रोशनी से असंख्य दीप ,
जैसे जगमगाते हैं ,
गंगा के किनारे, देव दीपावली के दिन,
वैसे ही आलोकित हो मेरा पथ। 

वह मनरेगा का ढोल आन बान और शान से सिर्फ इसलिए पीटते रहेंगे जिस से उनके चिर प्रतिद्वंद्वी का उपहास हो सके।  वह साठ  साल के गड्ढ़े इसलिए दिखाना चाहते  है ताकि वह यह साबित कर सकें कि , यदा यदा हि धर्मस्य यह एक राजनीतिज्ञ का बयान कम , बल्कि राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी का बयान अधिक लगता है। नशे और उन्माद में हम वह भी कह जाते हैं जो हमें नहीं कहना चाहिए। इन्ही साठ साली गड्ढा बनाओ अभियान में आप का भी कुछ योगदान रहा है हुज़ूर। आप कांग्रेस को कोसिये , जो जैसा है उसे वैसा ही कहा जायेगा , वह सुने या सुने , पर अगर आप गुजरात, मध्य प्रदेश,  छत्तीसगढ़ , राजस्थान , पंजाब , हिमाचल , जहां जहां आप शासन पिछले दस सालों से अधिक अवधि से कर रहे हैं , के अपने कार्यकाल के आंकड़े पेश करके कांग्रेस को आइना दिखाते तो बात ही कुछ और होती। जब तथ्य छिछले रहते हैं, और ढोल थोथे तो शोर बहुत मचता  हैं। भाषण से एक बात मेरी समझ में आयी कि चिंता , मनरेगा के लाभार्थियों की नहीं चिंता खुद की ज़मीन खिसकने की है। जिस देह भाषा और नाटकीयता के स्वरारोह अवरोह से आप आज सदन में बोल रहे थे , वह चुनावी भाषण अधिक , सरकार का वक्तव्य कम लग रहा था।

शेर की दहाड़ से जिसका पेट भरता हो, भरे ,
मुझे तो किसान के खेत का अनाज चाहिये !!




आज बजट आया। त्राता की भूमिका उनकी बना दी थी उनके भक्तों ने। कुछ ने सोचा था विकास रथ दौड़ पडेगा। जिसने भी आलोचना के कुछ बोल निकाले , वह देश द्रोही घोषित हो गया। हामिद अंसारी जैसे व्यक्ति और उप राष्ट्रपति जैसे पदासीन शख्सियत को तत्काल देशद्रोही कह दिया गया। विकास की बात होती तो कहा जाता था बजट में देखियेगा। आज वह भी देख लिया।

दर असल भारतीय जन संघ , जो भाजपा का पूर्वावतार है वह आर्थिक मोर्चे पर कभी साफ़ दृष्टि रख ही नहीं पायी। शुरुआती दौर में जन संघ जो आर एस एस का राजनैतिक चेहरा था  ,  आज़ादी पूर्व साम्प्रदायिक घृणा की प्रतिक्रिया थी। मुस्लिम लीग की यह एंटी थीसिस थी या मुस्लिम लीग, जन संघ के भी पूर्वावतार हिन्दू महा सभा या आर एस एस की एंटी थीसिस थी। या दोनों ही एक दूसरे की थीसिस और एंटी थीसिस थी आप इसे ऐसा भी समझ सकते हैं।  इस साम्प्रदायिक वैमनस्य और घृणा ने जो मूलतः जिन्ना द्वारा मुस्लिम लीग के बैनर तले फैलाई गयी थी से देश बँटवारा हुआ और थक चुके उस समय कांग्रेस नेतृत्व ने भी अंतिम समय में हाँथ खड़े कर इस बंटवारे पर अपनी सहमति दे दी।  जनसंघ का कोई आर्थिक एजेंडा तब भी नहीं था।  वह तो स्वतंत्र पार्टी की तरह पूंजीवादी थी , कम्युनिस्टों की तरह मार्क्सवादी , और ही लोहिया के दृष्टिकोण के अनुसार समाजवादी। कांग्रेस ने नेहरू के नेतृत्व में अपनी आर्थिक विचारधारा चुन ली थी वह मध्यम मार्ग था। जिसे लेफ्ट ऑफ़ सेंटर कहते थे।

इंदिरा के नेतृत्व में जब कांग्रेस आयी तो इसने समाजवादी स्वरुप ग्रहण कर लिया।  संविधान में संशोधन हुआ और समाजवादी तथा सेकुलर शब्द जोड़े गए। हालांकि इन शब्दों के जोड़ने से तो देश समाजवादी हुआ और धर्म निरपेक्षता में ही कोई बढ़ोत्तरी हुयी। भाजपा जो जनता दल से 1979 में दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर अलग हुयी ने अपनी विचारधारा गांधी वादी समाजवाद घोषित की।  जी वही गांधी जिनके यौन प्रयोगों को ही केवल , संस्कारी लोग उनके जन्म दिन पर ज़रूर याद करते हैं और उनके हत्यारे को हिन्दू धर्म का एक अवतार ही मान बैठे  हैं। लेकिन कोई भी आर्थिक दृष्टिकोण , विचारधारात्मक रूप से पनप नहीं पाया।   

यह तो राम की कृपा हुयी।  मंडल बनाम कमंडल की राजनीति शुरू हुयी। साम्प्रदायिक उन्माद चरम पर पहुंचा , और जिस से भाजपा का जनाधार बढ़ गया।  1991 में नरसिम्हा राव की सरकार ने समाजवादी केंचुल भी  फेंक दिया। मुक्त अर्थ व्यवस्था के दिन गए। प्रगति हुयी और प्रगति दिखी भी। दुनिया भर में समाजवादी अर्थ तंत्र असफल होने लगा था पूंजीवाद अपनी आदत के अनुसार तात्कालिक लाभ तुरंत दिखाता है और वह लाभ दिखा भी।  अब जब 10 साल मनमोहन सरकार थी तो यही मुक्त अर्थ व्यवस्था कई क्षेत्रों में असफल होने लगी। भ्रष्टाचार ने सीमा तोड़ दी थी। कांग्रेस नेतृत्वा के संकट से भी जूझ रही थी।  तब मोदी ने अपनी ओजस्वी वाणी से भविष्य की आकर्षक रूप रेखा प्रस्तुत की। और वह अत्यंत सफलता पूर्वक अपने लक्ष्य को पाने में सफल हुए।

यह तकनीकी तौर पर तो दूसरा बजट है , पर सच कहिये मोदी सरकार का यह पहला बजट है।  बजट से जो खबरें मैं देख रहा हूँ लोग  प्रसन्न नहीं नहीं हैं।  दरअसल जब आप अपेक्षा बढ़ा देते हैं तो अपेक्षा पूरी होने पर जो उपेक्षित होने का भाव होता है वह बिलकुल न्यूटन के तीसरे नियम की तरह होता है।  सरकार के पास समय है। वह अभी भी कुछ अपेक्षानुसार कर सकती है। पर उसे मानना  होगा कि विकास सिर्फ उद्योगों से ही नहीं होता , कृषि और किसान उसकी अनिवार्य अंग है।

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