प्रधान
मंत्री ने फिर कल संसद में दहाड़ा। देश के सुर से सुर मिलाते हुए , देश के आक्रोश को प्रतिध्वनित करते हुए। पता नहीं दहाड़ की गूँज पीर पंजाल की पर्वत शृंखलाओं के पार गयी या नहीं , डल के शांत और सूफियाना जल में हिलोरें उठीं या नहीं , सियाचिन की हाड कंपा देने वाली , ठंडक में असली 56 इंची सीने वाले मस्त , सख्त और सतर्क जवानों के जोश में कोई बढ़ोत्तरी हुयी या नहीं , पर अखबार और न्यूज़ चैनेल ज़रूर , मिले सुर मेरा तुम्हारा ,के मोड में दिखे। बहुत पुरानी बात है। 1962 में चीन से हम हार चुके थे। नेहरू अपनी लोकप्रियता और साख तेजी से गंवाते जा रहे थे। लाल क़िले पर एक उत्सव हुआ था , जिस में , कवि प्रदीप का अमर गीत , ' ऐ मेरे वतन के लोंगो ' लता जी द्वारा गाय गया था। गीत सुन कर नेहरू की आँखे छलछला गयीं थीं। तब डॉ लोहिया ने इस पर कहा था , प्रधान मंत्री को रोना नहीं चाहिए। उसे इस हार और अपमान का प्रतिकार करना चाहिए। प्रधान मंत्री देश के प्रतीक हैं। जब हम सब आक्रोशित हों , तो उन्हें साथ हमारे मनोभावों के अनुसार उसका निदान ढूंढना चाहिए। आप का आक्रोश , आप की असहायता और अकर्मण्यता नहीं होना चाहिए। , बल्कि आप को नेतृत्व के अवसर पर बुलंदी से खड़े होना चाहिए और ऐसा दिखना चाहिए।
नेतृत्व
का सबसे बड़ा टेस्ट संकटकाल में होता है। जब सब ठीक है , तो ईश्वर की भी आराधना पूजा कम हो जाती है। संकटकाल में तो उनकी भी पूछ बढ़ जाती है। समस्या पी डी पी , भाजपा गठबंधन नहीं है , समस्या मुफ्ती भी नहीं है , समस्या आतंकवाद पर देश का दृष्टिकोण क्या है , यह है। जब किसी भी दल को सदन में बहुमत नहीं मिलता है तो मिली जुली सरकारें बनतीं ही हैं। श्रीनगर में भी यही हुआ। लेकिन देश में जब लोग धर्म आधारित हिंसा , जो एक प्रकार का आतंकवाद ही है , से त्रस्त हैं तो , ऐसे जुर्म में लिप्त कोई भी अभियुक्त अगर न्यायिक प्रक्रिया से छूटता है , तो भी उस पर लोग अंगुली उठाते है , और पंक्तियों के बीच निहितार्थ ढूंढने लगते हैं। यहां भी यही हुआ। प्रधान मंत्री मेरे आक्रोश में अपना आक्रोश मिला कर , मुझे आश्वस्त नहीं कर पा रहे हैं बल्कि और व्यथित ही कर रहे हैं। उन्हें इस अवसर पर , देश को यह संदेश देना चाहिए कि भले ही गठबंधन की सरकार हो , पर देश की अखण्डता ,और रक्षा के मामलों में वर्चस्व उनका ही रहेगा।
अक्सर भक्त गण , प्रधान मंत्री जी की तुलना , शेर से करते हैं। पर वह यह भी भूल जाते हैं कि शेर एक आलसी और सुस्त जीव है। और हाँ , वह चुनाव से राजा नहीं बनता है ! मसर्रत की रिहाई का विरोध , साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के रिहाई की मांग , डी आई जी वंजारा , और माया कोडनानी के जमानत पर रिहा होने पर हर्ष , सब एक साथ नहीं चल सकते हैं। इस पर तुलसी दास की ' हसब ठठाइ , फुलाइब गालू,' चौपाई याद आती है। गुजरात और जे के में , भाजपा और पी डी पी में एक समता है। दोनों अपने अपने चेले चापड़ को जेल से रिहा कर रहे हैं। अगर कोई न्यायिक प्रक्रिया के तहत छूट रहा है तो , उसका श्रेय भी , छुटभैये ले ले रहे हैं। जिस वोट बैंक की राजनीति का आक्षेप , आज के सत्ता धीश अपने पूर्ववर्ती सरकारों पर बराबर लगाते रहते हैं , वे भी अंततः उसी मार्ग पर हैं।
-vss
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