स्मृतियाँ ही शेष रहती है. जब मनुष्य ने लिखना पढ़ना नहीं शुरू किया था. भाषा नहीं बनी थी. लेकिन अभियाक्तियाँ तो थी ही. अपनी बात आदिम मनुष्य जब पहली बार अपना मुख प्रकृति के अद्भुत रंगों को देख कर खोला होगा तो जो भी स्वर निकला होगा बोलियों का जन्म उसी से हुआ होगा. अनगढ़, भदेस, और बिना व्याकरण के जटिल जाल के वह शब्द क्या था मुझे नहीं मालूम. लेकिन किसी भी चमत्कार, प्रेम, घृणा, लालच, आदि मानवीय प्रवित्तियों की वह अभिव्यक्ति ही रही होगी. लेकिन यादें तो भाषा के बनने के बहुत पहले से ही है. आज भी जब सब समाप्त हो जाता है, तो यादें ही तो निःशेष बचती है.
एकांत के पलों में, जब आप थोड़ा अंतर्मुखी हो कर, अपने अन्दर उतरते हैं तो ऐसा लगता है, हम किसी आर्काइव में आ गए है. जहां सिलसिलेवार साल दर साल की यादें, संजो कर रखी हैं. हम उस बच्चे के मानिंद जिसके पास ढेर सारे खिलौने हैं और वह यह तय नहीं कर पा रहा है कि पहले किस से खेले, और इस उर्साह युक्त ऊहापोह में सारे खिलौने जल्दी जल्दी आजमाता है, हम भी यादों की आर्काइव में डूबते उतराते रहते हैं. जीवन के ठोस धरातल से अलग यह क्षण किसी चाँद की यात्रा सा लगता है, जहां हम समस्याओं के गुरुत्व से थोड़ा मुक्त हो कर खुद को हल्का महसूस करते हैं. यादें न हों तो हम सब पाषाण सामान हो जाएँ और अगर विस्मृति या इरेज़ करने की व्यवस्था न हो तो कंप्यूटर की तरह हैंग हो जाएँ. अच्छी स्मृतियाँ संजो कर रखिये, वह आप को जीवन देगी. लेकिन बुरी यादें, या तो इरेज कर दें या उसे बस्ता ए खामोशी में डाल दें. वह आप को ग़मगीन बनायेगी, और जगह जगह आप का पथ ही अवरुद्ध करेगी.
फादर्स डे, मदर्स दे, आदि दिवस मनाने की परम्परा पश्चिमी सभ्यता और समाज की देन है. पश्चिमी समाज में एकल परिवार की अवधारणा है. वहाँ संयुक्त परिवार का कोई कंसेप्ट अब नहीं रहा है. पहले रहा होगा. पर सामाजिक आर्थिक परिवर्तनों, और कमाने के लिए खानाबदोश बनने पर एकल परिवार कास जन्म हुआ होगा. लेकिन भारतीय समाज में संयुक्त परिवार अभी भी चल रहा है. हालाकि कि इसके कई मानदंड बदल चुके हैं. माता, पिता, चाचा, ताऊ, जिन्हें हम पूर्व में बदका बाबू या बाबू जी कहते हैं एक साथ रहते थे. झगडे भी थे, चुगलखोरी भी थी, लेकिन सुख ,दुःख भी साझे थे. पिता, के बराबर साथ रहने पर उनको याद करने का कोई दिन तय हो, यह कांसेप्ट , विक्सित हो ही नहीं पाया. पर जब खानाबदोशी आयी, गाँव से लोग शहरों के और बढे, तो यादें भी थोक में चली आयीं. और इस तरह फादर्स डे आदि मनाने की परम्परा शुरू हुयी.
भारतीय संस्कृति के तीन ऋणों में पित्री ऋण भी है. यह ऋण सिर्फ याद कर लेने भर से चुकता नहीं होता. जो कर्तव्य है, पिता के प्रति उसका यथा संभव, यथाशक्ति निर्वहन ही उसे पूरा करता है. हम सब अगर किसी न किसी के पुत्र या पुत्री हैं तो किसी न किसी के पिता हैं या बनेंगे.एक प्रकार से देखें तो यह परंपरा, इस दौड़ती भागती ज़िंदगी में जिसमें सब कुछ है पर समय नहीं है, के लिए उचित ही है. कम से कम हम उन्हें इसी बहाने याद तो करते हैं. हालांकि लगभग हर मांगलिक अवसर पर पुरखों को याद करने की एक सनातन संस्कृति. पितृपक्ष उसी के निमित्त रखा गया है, जिसमें हम अपने मृत पुरखों को जल, अर्ध्य दे कर याद करते हैं. यह एक कृतज्ञता ज्ञापन भी है. लेकिन जिनके पिता आज जीवित है, ऐसे लोगों के लिए फादर्स डे का मतलब विशिष्ट है. दुर्भाग्य से मैं इस कोटि में नहीं हूँ. लेकिन जैसा मैंने पहले कहा, यादों की आर्काइव तो मेरे पास भी है !
एकांत के पलों में, जब आप थोड़ा अंतर्मुखी हो कर, अपने अन्दर उतरते हैं तो ऐसा लगता है, हम किसी आर्काइव में आ गए है. जहां सिलसिलेवार साल दर साल की यादें, संजो कर रखी हैं. हम उस बच्चे के मानिंद जिसके पास ढेर सारे खिलौने हैं और वह यह तय नहीं कर पा रहा है कि पहले किस से खेले, और इस उर्साह युक्त ऊहापोह में सारे खिलौने जल्दी जल्दी आजमाता है, हम भी यादों की आर्काइव में डूबते उतराते रहते हैं. जीवन के ठोस धरातल से अलग यह क्षण किसी चाँद की यात्रा सा लगता है, जहां हम समस्याओं के गुरुत्व से थोड़ा मुक्त हो कर खुद को हल्का महसूस करते हैं. यादें न हों तो हम सब पाषाण सामान हो जाएँ और अगर विस्मृति या इरेज़ करने की व्यवस्था न हो तो कंप्यूटर की तरह हैंग हो जाएँ. अच्छी स्मृतियाँ संजो कर रखिये, वह आप को जीवन देगी. लेकिन बुरी यादें, या तो इरेज कर दें या उसे बस्ता ए खामोशी में डाल दें. वह आप को ग़मगीन बनायेगी, और जगह जगह आप का पथ ही अवरुद्ध करेगी.
फादर्स डे, मदर्स दे, आदि दिवस मनाने की परम्परा पश्चिमी सभ्यता और समाज की देन है. पश्चिमी समाज में एकल परिवार की अवधारणा है. वहाँ संयुक्त परिवार का कोई कंसेप्ट अब नहीं रहा है. पहले रहा होगा. पर सामाजिक आर्थिक परिवर्तनों, और कमाने के लिए खानाबदोश बनने पर एकल परिवार कास जन्म हुआ होगा. लेकिन भारतीय समाज में संयुक्त परिवार अभी भी चल रहा है. हालाकि कि इसके कई मानदंड बदल चुके हैं. माता, पिता, चाचा, ताऊ, जिन्हें हम पूर्व में बदका बाबू या बाबू जी कहते हैं एक साथ रहते थे. झगडे भी थे, चुगलखोरी भी थी, लेकिन सुख ,दुःख भी साझे थे. पिता, के बराबर साथ रहने पर उनको याद करने का कोई दिन तय हो, यह कांसेप्ट , विक्सित हो ही नहीं पाया. पर जब खानाबदोशी आयी, गाँव से लोग शहरों के और बढे, तो यादें भी थोक में चली आयीं. और इस तरह फादर्स डे आदि मनाने की परम्परा शुरू हुयी.
भारतीय संस्कृति के तीन ऋणों में पित्री ऋण भी है. यह ऋण सिर्फ याद कर लेने भर से चुकता नहीं होता. जो कर्तव्य है, पिता के प्रति उसका यथा संभव, यथाशक्ति निर्वहन ही उसे पूरा करता है. हम सब अगर किसी न किसी के पुत्र या पुत्री हैं तो किसी न किसी के पिता हैं या बनेंगे.एक प्रकार से देखें तो यह परंपरा, इस दौड़ती भागती ज़िंदगी में जिसमें सब कुछ है पर समय नहीं है, के लिए उचित ही है. कम से कम हम उन्हें इसी बहाने याद तो करते हैं. हालांकि लगभग हर मांगलिक अवसर पर पुरखों को याद करने की एक सनातन संस्कृति. पितृपक्ष उसी के निमित्त रखा गया है, जिसमें हम अपने मृत पुरखों को जल, अर्ध्य दे कर याद करते हैं. यह एक कृतज्ञता ज्ञापन भी है. लेकिन जिनके पिता आज जीवित है, ऐसे लोगों के लिए फादर्स डे का मतलब विशिष्ट है. दुर्भाग्य से मैं इस कोटि में नहीं हूँ. लेकिन जैसा मैंने पहले कहा, यादों की आर्काइव तो मेरे पास भी है !
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