यह एक लम्बी कविता है। हिब्रू की एक लोक कथा इस कविता का आधार है।
एक लम्बी कविता,
नियति !
राजा, मद मस्त, राजा, पद मस्त
ऐश्वर्य में डूबा , इतराता हुआ ,
लगवा रहा था एक उपवन द्राक्षा का ,
हाड़ तोड़ मेहनत, कर रहे थे, दास ,
अपनी पीठ पर बरसते कोड़े, झेलते हुए ,
इतरा रहा था राजा ,
इस कल्पना में लीन ,
बंद किये आँखें बैठा था कि,
चषक भर भर पिएगा,
इसी उपवन की द्राक्षा - सुरा को .
एक बृद्ध दास ,
कृषकाय , मजबूर और मजलूम ,
चलने में अशक्त , बीमार ,
थक कर चूर ,
ले रहा था एक झपकी ,
सहेज रहा था अपनी , कुछ संचित शक्ति, .
देखा राजा ने ,
नहीं रहा गया उसे ,
क्रोधातुर, उठी भृकुटि,
गूंजा कर्कश स्वर ,
दुत्कारा , दास को ,
'' उठ श्रम कर .
इस उपवन को होना है शीघ्र पूर्ण , ,
पीऊँगा चषक भर -भर ,
मदिरा , इसी उपवन के द्राक्षा की। ''
दास उठा ,
अन्यमनस्क सा ,बुदबुदाया ,
''पी नहीं पाओगे तुम,
इस उपवन के किसी द्राक्छा का आसव ,
पी तो लहू , रहे तुम , हमारा।
राजा हो तुम ,
प्रजा -पालक या हो तुम प्रजा -पीड़क ''
उठा और गिरा,
फिर उठा और बढ़ चला डगमग क़दमों से ,
कोसते हुए राजा के राजमद को ,
उपवन की ओर,
गूंजा अट्टहास ,
कहा राजा ने ,
व्यंग्य क़ी मुस्कान लिए,
अधरों पर ,
''तू रोकेगा !
मुझे रोकेगा !
बाधा देगा तू ! “
बाहें उठा दोनों ,
समेट कर सारी आसुरी शक्ति ,,
चीखा वह ,
“ यह उपवन मेरा ,
यह धरती मेरी,
यह प्रजा मेरी ,
तू जिधर देख रहा है ,
ऊपर वह सारा आसमान मेरा।
यहाँ चलता है आदेश केवल मेरा ,
अब तो पीनी ही है ,
सुरा , मुझे इसी उपवन की
शीघ्र, अतिशीघ्र .
तेरे ही समक्ष , उठाऊंगा पात्र ,
तू ही भरेगा चषक,
और देखेगा मुझे तृप्त होते ''
समय बीता ,
तैयार हुआ उपवन ,
द्राक्षा पके ,
आसुत हुयी सुरा ,
चषक आया ,
सुरा आयी ,
राजा बैठा चषक भर सुरा ले के ,
अचानक , कुछ याद आया उसे ,
'' उस दास को बुलाओ ,
संशय था , जिसे ,
कहा था , जिस ने ,
नहीं पी पाओगे ,
सुरा , इस उपवन के द्राक्षा की ,
कहाँ है वह .?''
उपस्थित हुआ दास
नत शिर ,
अधरों पर विश्वास क़ी स्मिति लिए ,
चेहरे पर उम्र की परतें संजोये।
'' पी रहा हूँ यह मदिरा इसी उपवन के द्राक्छा क़ी ,
देख तेरा लहू पी रहा हूँ .
देख तू ,
तू केवल जीवित रहा तो , इसीलिए,
देख मुझे पीते हुए चषक भर -भर ,
होती नहीं आह,
किसी दास की कुछ भी .
तेरा भ्रम था .
देख अपने सामने देख .''
''स्वामी , नहीं पी पाओगे मदिरा
चषक रह जाएगा भरा ,
उपवन रहेगा ऐसे ही हरा भरा ,,
द्राक्षा , भी फलेगी लता गुल्म पर
मदिरा भी बनेगी ,
पर तुम रहोगे अतृप्त.
चषक और अधरों में
अभी दूरी बहुत है। ''
नेपथ्य से कोलाहल उठा अचानक,
सब हक्के -बक्के चित्रलिखित से ,
अवाक , मूक , स्तब्ध।
भरा चषक राजा ने रख , पूछा ,
'' यह कैसा विप्लव ,''
घबराए स्वर में आया हरकारा, बोला ,
''राजन , घुस आया है उपवन में,
अरण्य वाराहों का दल ,
नष्ट कर दिया उपवन सारा ,
ध्वस्त कर दिया हर अंगूर लता को ,
तोड़ दिए उसने सारे आसव घट.''
क्रोधातुर राजा उठा , फुफकारता हुआ ,
शस्त्र बद्ध, आरूढ़ हुआ अश्व पर ,
चल दिया लेकर सैन्य बल ,
वाराह दलन हेतु .
चषक रहा, भरा का भरा ही,
चख न सका था राजा,
युद्ध छिड़ा था , उपवन में ,
राजा सन्नद्ध हुआ मृगया में,
घिर गया राजा वाराह दल से ,
अश्व हुआ आहत,
राजा गिरा अश्व से ,
आहत, भग्न , क्लांत ,भूलुंठित ,
वाराह भागे नष्ट कर उपवन सारा,
लौटा सैन्य दल हताश ,
देखा ,
राजा जीवन शून्य , पडा धरती पर ,
उधर चषक था भरा हुआ ,
नहीं छुआ किसी ने उसे,
राजा पडा भूमि पर निष्प्राण ,
चषक भरा रहा प्रतीक्षा में ,
एक बूँद भी ,
चख न सका था राजा !
( विजय शंकर सिंह )
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