जिस दौर में सर सैयद का जन्म हुआ था वह देश का एक संक्रमण काल था मुग़ल साम्राज्य का अंत हो गया था, और ईस्ट इंडिया कम्पनी का राज पसर रहा था. ब्रिटिश राज्य के विरुद्ध जनता में प्रतिकूलता भी फ़ैल रही थी. देसी रियासतों का जिस छल से अधिग्रहण अँगरेज़ कर रहे थे इस से उनमें असंतोष भी फ़ैल रहा था. जो वातावरण बन रहा था उसी के बीच एक चिनगारी चमकी और 1857 का विप्लव भड़क उठा. पूरा उत्तर भारत, सिंधिया, सिखों और गुरखों को छोड़ कर इस अभिनव क्रान्ति में शामिल था. आख़िरी सम्राट बहादुर शाह ज़फर को इस बगावत का नेता चुना गया. लेकिन जो परिणाम किसी युद्ध का वैचारिक पीठिका और रणनीति के अभाव में होता है वैसा ही इस विप्लव का भी हुआ. यह विद्रोह जिसे सावरकर देश का प्रथम स्वाधीनता संग्राम कहते हैं, अंग्रेजों द्वारा दबा दिया गया. इसी के साथ व्यापार करने आयी ईस्ट इंडिया कंपनी की भूमिका समाप्त हो गयी और देश सीधे ब्रिटेन का गुलाम बन गया. बहादुर शाह ज़फर गिरफ्तार कर लिए गए. उनके बेटों को क़त्ल कर दिया गया और उन्हें रंगून जेल भेज दिया गया. वहीं 1862 में उनकी मृत्यु हो गयी. उन्हें कू ए यार में दो गज ज़मीन भी मयस्सर नहीं हुयी. नियति कब किसे कौन सा रंग दिखा दे, इसका अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता है.
इस विप्लव ने देश में हलचल पैदा कर दी थी. पहली बार हिन्दू और मुसलमान एक साथ एकजुट हो कर अंग्रेजों के खिलाफ खड़े थे. ऐसी ही परिस्थितियों में हिन्दुओं में सुधारवादी आन्दोलन का सूत्रपात हुआ. राजा राम मोहन रॉय सहित अनेक समाज सुधारक पश्चिमी दर्शन, शिक्षा और राज प्रणाली से प्रभावित हो रहे थे. सामंतवाद टूट रहा था. एक नयी रोशनी आ रही थी. लेकिन यह सूरज पस्चिम से उग रहा था.
मुस्लिम समाज दुविधा में था. सात सौ साल तक मुस्लिम शासन के बाद इस समाज को लग रहा था कि उनकी विरासत ख़त्म हो रही है. खान पान, वेश भूषा, भाषा बोली सभी बदल रही थी. फारसी जो राजभाषा थी का स्थान अंग्रेज़ी ने ले लिया था. व्रज, अवधी, आदि हिन्दी की समृद्ध बोलियों पर मुजफ्फरपुर से निकली हुयी खडी बोली हावी हो रही थी. उसका रूप बदल रहा था. दक्षिण में सभी प्रचलित बोलियों को मिला कर एक बेहद आकर्षक भाषा का विकास हो गया था, जिसे रेख्ता कहा गया जो सैन्य शिविरों का नाम ग्रहण कर उर्दू कहलायी .
सर सैयद ने इस परिवर्तन को न केवल समझा बल्कि इसके अनुसार उन्होंने अपनी रणनीति भी तय की. अंग्रेज़ी ने दुनिया में जो आयाम खोला था, उस में सर सैयद ने झांका और शिक्षा पर उन्होंने अपना पूरा ध्यान लगाया. वह एक बहुमुखी प्रयिभा के व्यक्ति थे. मूलतः वह न्याय विभाग से जुड़े थे. उन्होंने इस्लाम में जड़ बना रही परम्पराओं पर भी चोट की. 23 वर्ष की उम्र में उन्होंने पहली पुस्तक लिखी, अथर अस्नादीद. यह किताब दिल्ली के इतिहास पर थी. वह दिल्ली के सामंतों के परिवार से आते थे. 1857 को उन्होंने बहुत करीब से देखा. उन्होंने इस विप्लव में भाग नहीं लिया बल्कि वह उस समय कंपनी के मुलाजिम थे. इस महान विप्लव पर उन्होंने अंग्रेज़ी में एक परचा लिखा, द काज़ेज़ ऑफ़ इंडियन रिवोल्ट. इस पर्चे पर अँगरेज़ हुक्मरानों की निगाह पडी. यह विप्लव क्यों और कैसे हुआ और फिर असफल कैसे हुआ, इस पर बहुत बेबाकी से सर सैयद ने लिखा. इस पर्चे की बेबाकी ने उन्हें अंग्रेजों के करीब ला दिया. साथ ही बदले निजाम और ज़माने के अनुसार खुद और कौम को बदलने की इच्छा भी उनकी जगी. उन्होंने सोच लिया कि मुस्लिमों का पिछडापन दूर करने का एक ही उपाय है शिक्षा।
उन्होंने 1869 - 1870 में इंग्लॅण्ड का भ्रमण किया और वहीं से एक शिक्षा संस्थान खोलने की उनकी धारणा प्रारम्भ हुयी. इंग्लैंड से लौट के आने के बाद उन्होंने एक अखबार निकाला, तहदीब अल अखलाक. यह उनका समाज सुधार का मुख पत्र था. ब्रिटेन की यात्रा के दौरान उन्हें कैम्ब्रिज की तर्ज़ पर एक शिक्षा संस्थान स्थापित करने का विचार आया. हालांकि शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने काम करना शुरू कर दिया था. 1858 में ग़ाज़ीपुर, 1863 में मुरादाबाद में उन्होंने शिक्षा संस्थाओं की शुरुआत कर दी थी. ऐसा नहीं था कि यह संस्थाएं केवल मुस्लिमों के लिए ही थीं. बल्कि हिन्दू मुस्लिम दोनों के लिए ही थीं. मई 1875 में अलीगढ़ में एक एंग्लो मोहमडन स्कूल की स्थापना हुयी जो आगे चल कर अलोगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बना. 1876 में वह सरकारी सेवा से रिटायर हो गए और 1877 में इसी स्कूल को कॉलेज में बदल दिया गया. इस कॉलेज की नीवं तत्कालीन वायसरॉय द्वारा रखी गयी. 1886 में उन्होंने आल इंडिया मोहमडन एजुकेशनल कांफ्रेंस की स्थापना की जो हर साल अपने अधिवेशन में मुस्लिमों की शिक्षा की बेहतरी के लिए विचार विमर्श करती थी.
आधुनिकता वस्त्रों से नहीं अभिव्यक्त होती वह विचारों से ही अभिव्यक्त होती है. समाज जब असुरक्षित महसूस करने लगता है तो जकडन शुरू हो जाती है. हम अपने मस्तिष्क के सारे कपाट और गवाक्ष बंद कर देते हैं. बाहर की हर हवा हमें शैतानी लगने लगती हैं. हम कमरे की ही दमघोंटू हवा को प्राणवायु समझ बैठते हैं. धर्म गुरु ऐसी दशा में धर्म के कर्मकांड पक्ष से और चिपक जाते हैं. धर्म जो हमें धारण करता है और जो हमारी उन्नति के लिए आविष्कृत है उसे ही हम बचाने में लग जाते हैं. ऐसा हिन्दू और इस्लाम दोनों ही धर्मों के साथ हुआ. कुरीतियाँ दोनों ही धर्मों में थी. समाज ऐसी बुराइयों में खुद ही अपना एंटीबाडी उत्पन्न करता है. और समाज सुधारकों का प्रादुर्भाव होता है. राजा राम मोहन रॉय, केशब चन्द्र सेन, विवेकानंद इसी की कड़ी थे. ऐसी ही एक कड़ी सर सैयद अहमद की थी. इस्लाम अक्सर सुधार के प्रयासो पर सवाल उठाता है. शास्त्रार्थ और विभिन्न मत मतान्तर के दर्शन के अभाव में इस्लाम हर सुधार को कुरान की रोशनी और हदीस की परम्पराओं में देखता है. इस लिए समाज सुधार का काम यहाँ कठिन था. सर सैयद ने कुरान और हदीस से उद्धरण दे कर तालीम की और समाज को मोड़ने का काम किया. वे पर्दा प्रथा सहित अन्य कुरीतियों के भी खिलाफ थे. उन्हें लगा कि शिक्षा, न सिर्फ जीवन स्तर भी सुधारेगी बल्कि दुनिया की रोशनी से जब मस्तिष्क रोशन होगा तो हज़ार रास्ते भी खुलेंगे. सर सैयद का यही योगदान है. इसी लिए उन्हें इस क्षेत्र में अग्रदूत कहा जाता है.
अल्लामा इकबाल , सर सैयद का योगदान रेखांकित करते हुए बहुत साफ़ शब्दों में कहते हैं, कि, इस्लाम की नए आलोक में व्याख्या करना ही सर सैयद की सबसे बड़ी उपलब्धि रही है. ऐसा करने वाले वह पहले भारतीय मुस्लिम थे.
अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में सर सैयद डे बहुत ही गरिमा पूर्ण ढंग से मनाया जाता है. 1857 ने हिन्दू मुस्लिम एकता का जो प्रदर्शन हुआ उसने अंग्रेजों को तो अपनी रणनीति बदलने पर मज़बूर किया ही, देश के बुद्धिजीवियों को भी सोचने के लिए बाध्य कर दिया। हिन्दू मुस्लिम को भारत माता की दो आँखे बताने वाले सर सैयद ने इस एकता की अनिवार्य आवश्यकता को पहचान लिया था. यह अलग बात है कि इतिहास और समय कब कब कौन सी करवट बदलता है यह नहीं कहा जा सकता.
सर सैयद का निधन, 27 मार्च, 1898 को अलीगढ़ में हुआ. विश्वविद्यालय की भव्य मस्जिद के पास ही वह चिर निद्रा में लीन हैं. उनकी जन्म तिथि पर उन्हें विनम्र स्मरण !!
(विजय शंकर सिंह)
No comments:
Post a Comment