Wednesday, 15 October 2014

निंदक नियरे राखिये / विजय शंकर सिंह

आप की समस्या है कि आप अपने आराध्य की आलोचना सुन नहीं सकते. वह आप का रक्तचाप बढ़ा देता है. मेरा मानना है कि राजनीति में न कोई आराध्य है और न ही कोई आराधक. आप अग्रगामी दस्ते में मशाल लिए मेरे आगे चल रहे है. लेकिन जहां आप ले चल रहे हैं, और जिस मार्ग से आप ले चल रहे हैं उस स्थान और राह की दुश्वारियों को बताने का भी मेरा हक है. यह भी जानने का अधिकार है कि किस तरह से यह यात्रा हो रही है. यह लोकतंत्र है भेड़ तंत्र में इसे मत बदलिए. दुनिया में कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं है और न ही ऐसा कोई है जिस पर आँख पर पट्टी बाँध कर विश्वास किया जाय. धूमिल की एक बेहद विचारोत्तेजक पंक्ति है. 

"आज की जनता,
एक भेड़ है, 
जो दूसरों की ठण्ड के लिए, 
पीठ पर ऊन की फसल ढोती है." 

यह कविता आज के ही सन्दर्भ में नहीं बल्कि जब जब हम अपना विवेक किसी के प्रभामंडल के सामने गिरवी रख देते हैं, साष्टांग हो जाते हैं तब तब प्रासंगिक रहेगी. यह पंक्तियाँ इमरजेंसी के दौरान लिखी गयीं थी. जब एक आराध्य की छाया पूरे देश को ढंकने पर आमादा दी. पर उस सर्वशक्तिशाली जिसे किसी ने कभी दुर्गा कहा था का क्या परिणाम हुआ, यह सभी को पता है.

बुद्ध भारतीय मनीषा के प्रखरतम चिंतकों में से रहे है. जब वह कुशीनारा जो आज का कुशीनगर है में निर्वाण प्राप्त कर रहे थे तो उनके प्रियतम शिष्य आनंद उनके साथ थे. अतिसार से पीड़ित बुद्ध की सुश्रुसा के लिए उस समय के महान वैद्य जीवक को बुलाया गया था. आनंद की आँखें भरी थीं. शास्ता की जीवन अपने समाप्ति की और थी. बुद्ध जिन्होंने जीवन भर दुख्वाद के दर्शन और इस से मुक्ति का उपाय ढूँढने में बिता दिया का साथ भी आनंद को उस स्तर पर नहीं ले जा सका जहां मृत्यु एक अकाट्य सत्य की तरह स्थापित है. बुद्ध ने कहा, '' मेरी बात सिर्फ इस लिए मत मानों कि उसे मैंने कहा है. उसे अपने विवेक से समझो और जब तुम्हे यह उपयुक्त लगे तो उसे स्वीकार करो." बुद्ध की यह बात गुरुडम के सुप्त अहंकार से कितनी अलग है ?

आज भी दुनिया में बहुत से दर्शन जीवित हैं. नए आविष्कृत भी होंगे . पर सवाल सब पर उठायें जायेंगे. ऋग्वेद की एक ऋचा में लिखा गया है कि जब आचार्य ने शिष्य को हवन के लिए कहा तो शिष्य ने या तो कौतूहल वश या बौद्धिक जिज्ञासा हेतु पूछा, कस्मै देवाय हविश्यामि. किस देवता को समिधा दूं. फिर एक लंबा चौड़ा वार्तालाप. यह वाद विवाद और संवाद की प्रक्रिया से ही उपनिषद निकलते हैं. कहने का आशय यह है प्रश्न उठाते रहिये. आराध्य को प्रशोत्तर और आलोचना से परे मत रखिये नहीं तो आराध्य में अहंकार आयेगा, अहंकार अधिनायकवाद लाता है और अधिनायकवाद विनाश.

सबसे उदात्त दर्शन प्रश्नोत्तरों से निकले हैं. प्रवचनों से नहीं. प्रवचन सिर्फ आप तक पहुँचते हैं. कुछ आदर जगा देते हैं कुछ जिज्ञासा. लेकिन जिज्ञासाएं अनुत्तरित रहती है. आदर जब हद से अधिक बढ़ जाता है तो जिज्ञासाएं मरने लगती हैं और एक ठहराव उत्पन्न हो जाता है. यह ठहराव ही प्रदूषण का कारण बन जाता है. जिन धर्मों में यह जिज्ञासु भाव को महत्व नहीं दिया गया है या हतोत्साहित किया जाता है उनकी गति या तो रुक जाती है या भटक जाती है. आलोचना का मतलब निंदा या गरियाना नहीं है. अपनी जिज्ञासा और आराध्य के स्वप्नों पर सवाल उठाना है. हमारे प्राचीन वांग्मय में शास्त्रार्थ की परम्परा का यही उद्देश्य है.
आलोचनाओं से न बिखरिये न बिफरिये, निखारना सीखिए !!

विजय शंकर सिंह

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