आज ही के दिन 1967 में
नयी दिल्ली के वेलिंग्टन नर्सिंग होम में इस अत्यंत परतिभाशाली व्यक्ति, एक प्रखर और विचारोत्तेजक चिन्तक, और स्वन्तंरता संग्राम के जुझारू
योद्धा का निधन हुआ था. डॉ लोहिया आज़ादी के बाद जितने भी नेता भारतीय संसद में
पहुंचे हैं में सबसे अधिक प्रतिभाशाली सांसदों में थे. जिस अस्पताल में उन्होंने
आख़िरी सांस ली थी वही अब डॉ राम मनोहर लोहिया अस्पताल है.
डॉ लोहिया का संसदीय जीवन बहुत लंबा नहीं रहा. वह 1963 में फरुखाबाद से एक उप चुनाव में
सोशलिस्ट पार्टी की तरफ से चुनाव जीते और दुबारा फिर उसी सीट से 1967 में आम चुनाव में चुने गए. 1963 से 1967 कुल चार साल कुछ महीने और सत्रह
खण्डों में प्रकाशित लोकसभा में लोहिया की ग्रंथमाला ! सच है लोहिया अपने युग के
सबसे मुखर सांसद थे. जब वे लोकसभा में पहुंचे तो देश का नेतृत्व जवाहरलाल नेहरु के
पास था. हालांकि नेहरु का भी प्रभा मंडल ढलने लगा था. भारत चीन के साथ पराजित हो
चूका था. नेहरु अपना दबदबा खो रहे थे. लेकिन फिर भी वह थे तो नेहरू ही. पहली बार
संसद में सरकार के खिलाफ अविश्वास का प्रस्ताव पेश हुआ. बहस हुयी. प्रस्ताव पास तो
नहीं हुयी पर एक स्वस्थ संसदीय परंपरा की शुरुआत हुयी.
देश की बदहाली, गरीबी
पर बात उठी. आज़ादी के मुग्ध्गान के संवेग से मुक्त होकर लोगों ने हकीकत से रू ब रू
होना शुरू किया.देश को आपने चाहे जितना भी दिया हो, पर सदैव उसी पूंजी के सहारे आप ज़िंदा और प्रासंगिक नहीं
बने रह सकते है. लोग जब भी आकलन करेंगे वह वर्तमान से ही करेंगे. उज्जवल अतीत उस
आकलन का मानदंड ही बनेगा. संसद में बहस हुयी कि देश की प्रति व्यक्ति गुज़र बसर
तेरह आने में होती है या तीन आने में . सरकारी आंकड़े इसे तेरह आने पर ले जा रहे
थे. डॉ लोहिया जो खुद अर्थशास्त्र के विद्यार्थी थे ने आंकड़ों का मायाजाल भेदा और
यह साबित किया कि यह राशि तीन आना है. नेहरु को यह बात माननी पडी. यह सिर्फ उस
संसदीय पुरोधा के कार्यकाल का एक उदाहरण है.
लोहिया और नेहरु में कभी नहीं पटी. नेहरु भी खुद को समाजवादी कहते
थे. उस समय समाजवादी कहना एक फैशन था. जैसे आज राष्ट्रवादी कहना एक शगल हो गया है.
लेकिन लोहिया का समाजवाद मनसा वाचा कर्मणा भी था. यह प्रतिद्वंद्विता इतनी बढी कि
डॉ लोहिया ने नेहरु के खिलाफ चुनाव लड़ने का फैसला किया. यह एक प्रतीकात्मक चुनावी
युद्ध था. नेहरु इलाहाबाद के फूलपुर तहसील से चुनाव लड़ते थे. वहीं से वह बराबर लोक
सभा में पहुंचे. लोहिया उनके खिलाफ 1957 में
चुनाव के लिए खड़े हुए. बुद्धिजीवियों के शहर इलाहाबाद के लिए यह बहुत रोचक मुकाबला
था. लोहिया के भी समर्थक कम नहीं थे, पर
नेहरु का व्यक्तित्व सबको आत्मसात कर लेता था
डॉ लोहिया ने नेहरु को इस चुनाव में जो चिट्ठी लिखी, उसमें उन्होंने लिखा कि,
" मैं आप के खिलाफ चुनाव लड़ने जा रहा हूँ. मैं जानता हूँ कि मैं पहाड़ से सिर टकरा रहा हूँ. पहाड़ का कुछ नहीं बिगड़ेगा.सिर ही टूटेगा. फिर भी अगर मैं आप को सुधार कर सन सैंतालीस के पहले का नेहरु बना सका तो यह मेरी उपलब्धि होगी. "
नेहरु ने इसका उत्तर दिया,
" प्रिय राम मनोहर, तुम मेरे खिलाफ चुनाव लड़ रहे हो. मेरी शुभकामनाएं. तुम्हारी सुविधा के लिए मैं फूलपुर चुनाव क्षेत्र में प्रचार के लिए नहीं जाउंगा."
इतना ही नहीं लोहिया ने चुनाव लड़ने के लिए नेहरु से धन भी माँगा और आनंद भवन का एक कमरा कार्यालय के लिए भी. नेहरु ने दिया भी.
(श्रोत, लोहिया -ओमकार शरद )
" मैं आप के खिलाफ चुनाव लड़ने जा रहा हूँ. मैं जानता हूँ कि मैं पहाड़ से सिर टकरा रहा हूँ. पहाड़ का कुछ नहीं बिगड़ेगा.सिर ही टूटेगा. फिर भी अगर मैं आप को सुधार कर सन सैंतालीस के पहले का नेहरु बना सका तो यह मेरी उपलब्धि होगी. "
नेहरु ने इसका उत्तर दिया,
" प्रिय राम मनोहर, तुम मेरे खिलाफ चुनाव लड़ रहे हो. मेरी शुभकामनाएं. तुम्हारी सुविधा के लिए मैं फूलपुर चुनाव क्षेत्र में प्रचार के लिए नहीं जाउंगा."
इतना ही नहीं लोहिया ने चुनाव लड़ने के लिए नेहरु से धन भी माँगा और आनंद भवन का एक कमरा कार्यालय के लिए भी. नेहरु ने दिया भी.
(श्रोत, लोहिया -ओमकार शरद )
लेकिन परिणाम अपेक्षित था. लोहिया हारे पर जमानत बच गयी. नेहरु की
इसे मैं हार ही कहूंगा. अतीत के संघर्ष का संवेग और सूर्य का तेज अब ढलान पर था.
लेकिन आज के पप्पू, फेंकू, मौत का सौदागर, इटली की बार डांसर वाली जुमले
बाज़ी भरी राजनीति के बीच ये संस्मरण खुद को ही हैरान करते हैं. तभी तिब्बत की
समस्या हुयी. नेहरु की चुप्पी इस मसले लोहिया के विरोध का कारण बनी. आज जो हम चीन
सीमा पर रोज़ रोज़ चीनी सैनिकों द्वारा तम्बू कनात लगाए जाने की खबरे पढ़ते रहते हैं
उसका एक कारण ड्रैगन द्वारा तिब्बत को निगल जाना भी है. आज हम मानसरोवर का एक
वैकल्पिक मार्ग पा जाने पर आह्लादित हैं , लोहिया
ने तभी सरकार से कहा था कि कैलास और मानसरोवर पर हम अपना दावा ठोंके. वह हमारी
संस्कृति और विरासत की पवित्र झील और पर्वत है. तब इन धार्मिक प्रतीकों पर वोट भी
मिल सकता है या नहीं, किसी
ने सोचा नहीं था. किसी समय स्वार्थ, और
घृणा फैलाने के लिए शुरू किया गया राम मंदिर आन्दोलन जो अब डीप फ्रीज़र में है और
सत्ता की सीढी के रूप में यदा कदा प्रयुक्त होता है, वही राम लोहिया के भी आदर्श थे. उन्होंने अपने जीवनकाल
में ही चित्रकूट में रामायण मेला की शुरुआत की थी. उसके नाम पर चन्दा और वोट नहीं
माँगा था. साथ ही सीता की अग्नि परीक्षा, और
परित्याग को लेकर राम की मर्यादा पर सवाल भी उठाये थे.
लोहिया एक प्रखर चिन्तक भी थे. मार्क्स गाँधी एंड सिशालिज्म, इतिहास चक्र, राम शिव और कृष्ण, भारत विभाजन के अपराधी आदि
पुस्तकों सहित वह नियमित अपनी बातें अखबारों में लिखते रहते थे. वह महान थे. सफलता
ही सदैव महत्ता का मापदंड नहीं होती. अपने जीवन काल में ही उनकी विचारधारा ने
युवाओं को बहुत ही प्रभावित किया था. उस समय देश के सभी प्रमुख विश्वविद्यालयों
में छात्र राजनीति में लोहिया हावी थे. जब उनका निधन हुआ तो उस समय की सर्वाधिक
महत्वपूर्ण पत्रिका दिनमान जिसके सम्पादक अज्ञेय थे जो सम्पादकीय लिखा था वह
अद्भुत था. अज्ञेय ने उनकी मृत्यु को असामयिक और देश के लिए आघात बताते हुए लिखा
था कि आज देश के युवाओं को अनुप्राणित कर सकने वाला लोहिया जैसा कोई व्यक्तित्व
नहीं है. ऐसा कोई नहीं है जो एक व्यापक जन आन्दोलन खडा कर सके. इस दल के पास आधे
दर्जन ऐसे मुखर सांसद हैं जो संसद के किसी भी मसले पर बहस को अपने पक्ष में मोड़
सकते हैं.
आज लोहिया नहीं हैं पर उनके विचार, उनकी किताबें उनका योगदान सदैव अनुप्राणित करता रहेगा.
हाँ एक बात और. समाजवादी पार्टी लोहिया का भले नाम ले पर उसे डॉ लोहिया के
विचारधारा,
सोच और चिंतन से जोड़ कर
न देखें और न ही उसके आधार पर डॉ लोहिया का मूल्यांकन ही करें.
(विजय शंकर सिंह)
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