Thursday 2 October 2014

Origin of Durga Puja / दुर्गा पूजा का प्रारम्भ और परम्परा....विजय शंकर सिंह.


आज अष्ठमी है। आज पूरी रात माँ दुर्गा की पूजा और आराधना की जाती है। आधुनिक दुर्गा पूजा की परम्परा बंगाल से शुरू हुयी है। यह पूर्वी भारत का सबसे प्रसिद्ध पर्व है। शरद ऋतु में यह पर्व दस दिनों तक मनाया जाता है। लेकिन आख़िरी पाँच दिनों षष्टी , सप्तमी , अष्ठमी , नवमी और दशमी इसमें प्रमुख होते हैं। इसी अवधि में दुर्गा के महिषासुर बध करती हुयी सिंहारूढ़ प्रतिमा रखी जाती है और दशमी के दिन उनकी परम्परागत रूप से पूजा कर के विसर्जित कर दिया जाता है। 
जिन रूपों में दुर्गा की पूजा आज हो रही है यह परम्परा कब से शुरू हुयी है इसका उद्भव और विकास कब से हुआ है इसे जानना भी बहुत रोचक होगा। 

कहा जाता है सबसे पहले यह पूजा भगवान राम ने रावण से युद्ध के पहले शक्ति की आराधना के रूप में की थी। निराला की एअक बहुत प्रसिद्ध कविता राम की शक्ति पूजा इसी कथानक पर है। एक सौ आठ कमल पुष्पों के साथ राम आराधना करते हैं और एक एक कर वह कमल पुष्प माँ को अर्पित करते जाते हैं। अंत में जब एक कमल शेष बचता है तो माँ खेल करते हुए वह पुष्प चुरा लेती हैं। राम आसान से उठाते हैं तो यह पूजा भंग होती है , और नहीं उठते हैं तो वह कमल कैसे अर्पित करें ! अजीब धर्म संकट है। सारा अतीित उनका उनकी आँखों के सामने छा जाता है। निराला ने इस उहापोह का अद्भुत वर्णन किया है। अचानक राम को स्मरण आता है कि , उनकी माँ उनके आँखों को कमल समान कहती थीं। " माँ कहती थी मुझे राजीव नयन " , और वह एक तीर उठा कर अपनी आँख ही अर्पित करने के लिए आँख के पास ले आते हैं तभी दुर्गा जो उनकी परीक्षा ले रही अकस्मात प्रकट हो गयीं और वह पुष्प उन्हें लौटा दिया । शक्ति का आशीर्वाद उन्हें प्राप्त हुआ और वह संग्राम में विजयी हुए।


पर राम कथा पर आधारित वाल्मीकि रामायण में यह कथा नहीं मिलती है। सागर तट पर रामेश्वर में शिव लिंग की स्थापना की कथा तो मिलती है पर दुर्गा से जुडी यह कथा नहीं मिलती है। दुर्गा की आराधना का सबसे प्रमाणित संग्रह दुर्गा सप्तशती है। सात सौ श्लोकों का यह संग्रह है। यह ग्रन्थ खुद ही मार्कण्डेय पुराण का अंश है। लेकिन सप्त शती का कोई उल्लेख इस लिए वाल्मीकि रामायण में नहीं मिलता है क्यों कि , मार्कण्डेय पुराण की रचना वाल्मीकि रामायण के बहुत बाद हुयी है। फिर निराला की यह कविता का कथानक बाद में कहीं से उठाया गया है। राम कथा पर लगभग सभी भारतीय भाषाओं में  लिखा गया है , पर रामेश्वर में शिव पूजा का उल्लेख तुलसी के राम चरित मानस में तो मिलता है पर दुर्गा पूजा का नहीं। कोई मित्र अगर इसका श्रोत बता सकें तो उत्तम होगा।



बंगाल में पहली दुर्गा पूजा का ज्ञात इतिहास 1500 ईस्वी का मिलता है। उसी साल पूजा की परम्परा का प्रारम्भ हुआ था। कहा जाता है , दिनाजपुर और मालदा के ज़मींदारों ने सबसे पहले पूजा का प्रारम्भ किया। एक अन्य विवरण के अनुसार 1606 ईस्वी में तहरपुर के राजा कंग्श नारायण या नदिया के भावनारायण मजूमदार ने शारदीय नवरात्र में इस प्रकार की पूजा की शुरुआत किया। जो भी हो 1500 ईस्वी के पूर्वा इस प्रकार की पूजा का उल्लेख नहीं मिलता है। दुर्गा या शक्ति की पूजा तो बहुत पहले से हो रही है , पर मैं ऐसे जिस रूप में अब पूजा हो रही है का ज़िक्र कर  रहा हूँ।


अभी जो पूजा आप पंडालों में देखते है उसे सार्वजनीन पूजा कहते हैं। इस प्रकार के पूजा की शुरुआत हुगली जिले के गुप्तीपाड़ा गाँव के बारह युवकों ने सार्वजनिक रूप से चन्दा एकत्र कर किया था। चूँकि इसमें बारह युवकों या दोस्तों का योगदान था इस लिए इसे बारो यारी , यानी बारह मित्रों की पूजा कहते हैं। यह पूजा 1790 ईस्वी में गुप्तीपाड़ा गाँव में हुयी थी। बाद में सार्वजनीन पूजा का प्रारम्भ कोलकता में 1832 से प्रारम्भ हुआ ,जिसे कासिम बाज़ार के राजा हरिनाथ ने प्रारम्भ किया था।  इसके पूर्व यही पूजा राजा हरिनाथ के पूर्वजों के घर मुर्शिदाबाद में 1824 से 1831 ईस्वी तक मनाई जाती थी। यह विवरण अंग्रेज़ी पत्र स्टेट्समैन फेस्टिवल के 1991 में उल्लेखित है। 


इस बारो यारी पूजा ने सार्वजनीन या सामुदायिक पूजा का मार्ग प्रशस्त किया। 1910 ईस्वी में सनातन धर्मोत्साहिनी सभा ने कोलकाता  के बाघ बाज़ार इलाक़े में नियमित पूजा की परम्परा शुरू की। यह पहली पूजा थी जिसमें जनता ने अपनी भागीदारी दी।  कुछ लोग इसे महाराष्ट्र में तिलक द्वारा प्रारम्भ किये गए गणेशोत्सव पूजा का भी प्रभाव देखते हैं। लेकिन यह अगर सच न भी हो तो यह सच है कि , बारो यारी पूजा या बारह दोस्तों की पूजा ने इसे व्यक्तिगत पुजागृहों से निकाल कर जन जन तक पहुंचा दिया। अठारहवीं और उन्नीसवी सदी की इस पूजा का बंगाल पुनर्जागरण पर और बंगाल पुनर्जागरण का इस पूजा का व्यापक प्रभाव पड़ा है। 


इतिहासकार सुकान्त चौधरी , ने कलकत्ता पर एक पुस्तक संपादित की है , कैलकटा द लिविंग सिटी। इस पुस्तक के  भाग एक  में एक रोचक विवरण मिलता है। उस विवरण के अनुसार , जैसा कि उसमें एक शोध पत्र प्रकाशित है , ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अँगरेज़ साहब भी बंगाली ज़मींदारों के यहां दुर्गा पूजा में भाग लेने जाते थे। सबसे आश्चर्यजनक तथ्य यह अंकित है कि 1765 ईस्वी में जब लार्ड क्लाइव को मुग़ल बादशाह द्वारा बंगाल की दीवानी दी गयी थी तो उस अवसर पर जो उत्सव मनाया गया था , उस में दुर्गा पूजा भी की गयी थी। 1757 ईस्वी में प्लासी का युद्ध हुआ था , जिसमें मीर ज़ाफ़र के अंग्रेज़ों से मिल जाने और अमीचंद के गद्दारी करने के कारण मुर्शिदाबाद के नवाब सिराजुद्दौला की हार हो गयी थी। इस युद्ध ने भारत में अंग्रेज़ी राज का रास्ता खोल दिया था। उस समय बंगाल की दीवानी का अर्थ , बंगाल, सहित  बिहार और ओडिशा के भी कुछ भाग थे। आज का बांग्ला देश तो था ही। 1765 ईस्वी की जो पूजा हुयी थी वह माँ के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन थी। उसमे ज़मींदारों ने भाग लिया था।  यह पूजा ईस्ट इंडिया कंपनी के तत्कालीन ऑडिटर जनरल जॉन चिप्स ने कंपनी के कार्यालय वीरभूमि में पूजा की स्थापना की थी। यह क्रम अंग्रेज़ों द्वारा आधिकारिक रूप से  1840  ईस्वी तक प्रचलित रहा. फिर वायसराय ने इसे एक क़ानून बना कर कि कोई भी धार्मिक गतिविधि कंपनी के कार्यालय में नहीं होगी ,प्रतिबंधित कर दिया। पर इसका वास्तविक कारण समाज में जागृति और बंगाल का पुनर्जागरण था।.


समय के साथ साथ , दुर्गा की प्रतिमा, तथा उनकी पूजा पद्धति और पंडाल आदि भी विकसित होते गए। दस भुजा वाली, हर हाँथ में शस्त्र , दिव्य विशाल नयन, जिसके कारण इन्हे विशालाक्षी कहा गया , साथ में कार्तिकेय , गणेश , सरस्वती और लक्ष्मी की प्रतिमाएं, गरजता हुआ  सिंह, और भैंसे से निकलता हुआ आहत असुर महिषाासुर आदि की प्रतिमाएं और रूप कल्पना से कालान्तर में गढ़े गए और वह बदलते भी रहते हैं। जब प्रतिमा बनी तो साज सज्जा भी आवश्यक है। कोलकाता के कुम्हार टोली में दुर्गा प्रतिमाओं के निर्माण और उनके साज सज्जा का काम अब भी होता है। कुछ प्रतिमाएं सभी रूपों की एक ही आधार पर बनती थीं , और कुछ की अलग अलग बना कर स्थापित की जाती थी। जो एक ही आधार पर बनती हैं उसे एक चला कहते हैं।  जब साज सज्जा के इतने उपकरण उपलब्ध नहीं थे तो ,दो प्रकार की साज सज्जा का उल्लेख मिलता है। शोलार साज और डाकेर साज। शोलार साज यानी शोला दलदली गीली मिट्टी के आभूषण बना कर उसी से श्रृंगार होता था। शोलार और डाकेर बांग्ला भाषा का शब्द है।  जब थोड़ी समृद्धि आयी और प्रतिमा पंडालों में प्रतियोगिता का भाव आया तो आभूषण रांगे , चांदी और सोने के पानी चढ़े धातुओं के बनने लगे। उस समय जो धातु के आभूषण बनते थे वे कृत्रिम थे और यूरोप विशेषकर जर्मनी से आयात होते थे। डाक द्वारा मंगाए जाने के कारण आभूषणों से हुए श्रृंगार को डाकेर साज कहा गया। पंडालों में भी विविधिता आयी। जैसे जैसे धन बढ़ता गया पंडालों का स्वरुप बेहतर, और आकर्षक और भव्यतर होता गया। कला की कल्पना असीम होती है।

(विजय शंकर सिंह)

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