Saturday, 18 October 2014

शंकराचार्य के बयान को गंभीरता से न लें. / विजय शंकर सिंह.




शंकराचार्य का बयान आया है कि मंदिरों में दलितों का प्रवेश उचित नहीं है. इस बयान को गंभीरता से लेने की ज़रुरत नहीं है. ईश्वर हो या धर्म वह किसी एक व्यक्ति या संस्था के अधीन नहीं है. वैसे भी शंकराचार्य माने तो सनातन धर्म के आचार्य हैं पर न तो इनका पद विवाद से परे रहा है और न ही ये खुद विवाद से मुक्त रहे हैं. 

शंकराचार्यों के चार पीठ है. बद्री केदार, द्वष्रिका, पुरी और श्रृंगेरी. काशी का भी एक पीठ था. वह सुमेरु पीठ कहलाता है. पर वह अभिशप्त है. शंकराचार्य सन्यासियों की परंपरा से आते है. आदि शंकराचार्य ने इन पीठों की स्थापना की थी. उन्ही के समय नागा साधुओं की परम्परा भी शुरू हुयी और मठ बने. मठ का कांसेप्ट बौद्ध संघारामों की परंपरा से आया है. क्योंकि बौद्ध संघारामों के पहले मठों का ज़िक्र नहीं मिलता है. गुरुकुलों और आश्र्स्मों की परंपरा थी जो एक प्रकार से पठन पाठन, और शिक्षा के केंद्र थे. वहाँ शास्त्रार्थ , धर्म दर्शन आदि पर गंभीर चर्चा होती थी.

जो मठ बने वे नागा साधुओं के अखाड़े थे. मठों के सन्यासियों की भी एक रैंकिंग है. महंत, श्री महंत, मंडलेश्वर, महा मंडलेश्वर, आचार्य मंडलेश्वर और शंकराचार्य इसके रैंक्स होते हैं. यह गठन सैन्य परम्परा से प्रभावित था. यह शैव साधुओं की परंपरा है. वैष्णव परंपरा अलग है. शैव , शिव के भक्त होते हैं. कभी पहले शिव और विष्णु के भक्तों में आपसी संघर्ष होता रहता था. वह भी एक प्रकार की साम्प्रदायिक समस्या थी. लेकिन वह बाद में सुलझ गया. हालांकि अब भी कुम्भ के स्नान को ले कर अखाड़ों में आपसी प्रतिद्वंद्विता बहुत रहती है. और अक्सर झगडा हो जाता है. तब यह सोचने के लिए हम बाध्य हो जाते हैं कि संसार छोड़ने वाला, मोह माया त्यागने वाला, सन्यासी आखिर अहंकार क्यों नहीं छोड़ पाता. पर मुझे इसका उत्तर नहीं मिलता.

मंदिरों में दलितों का प्रवेश एक आन्दोलन के रूप में आज़ादी के लड़ाई के दौरान किया गया था. मंदिरों की परंपरा में कब दलितों का प्रवेश बाधित किया गया, यह मैंने ढूँढने की कोशिश की तो मुझे कोई सन्दर्भ नहीं मिला. लेकिन मंदिरों में प्रवेश शास्त्रतः वर्जित था या नहीं था, यह तो शोध करने पर ही जाना जा सकेगा, पर प्रवेश को सामाजिक रूप से मान्यता नहीं थी. गाँधी जी ने जब अछूतोद्धार का आन्दोलन चलाया तो मंदिरों में प्रवेश को ले कर भी आन्दोलन चला. बनारस में भी यह आन्दोलन काशी विश्वनाथ मंदिर में प्रवेश के लिए चला था. अब किसी मंदिर में प्रवेश वर्जित नहीं है और न ही किसी मंदिर में किसी को जाति प्रमाणपत्र पूछ कर ही प्रवेश दिया जाता है.

मंदिरों का जो स्वरुप आज मिलता है वह वैदिक काल में नहीं था. वैदिक काल में  मूर्तिपूजा का भी स्वरुप भी विक्सित नहीं हो पाया था. यग्य की विधियां थी. जो विभिन्न प्रकार की थीं. मंदिरों और मूर्तियों की अवधारणा बाद में विक्सित हुयी. अधिकतर मंदिर और उनका वास्तु और स्थापत्य गुप्त काल में विक्सित हुआ. मूर्तिकला का विकास भी उसी समय हुआ. हालांकि मूर्तिकला के विभिन्न स्कूल गांधार कला, मथुरा कला आदि का विकास कुषाणों के समय में ही हो चूका था, बुद्ध की मूर्तियाँ बननी और संघारामों में राखी जाने लगीं थी. उनका कर्म काण्ड और पूजा पद्धति भी विक्सित होने लगी थी. स्तूप निर्माण तो और पहले अशोक के समय से ही शुरू हो गया था. लेकिन मंदिरों में शूद्रों का प्रवेश वर्जित था या नहीं, यह पता नहीं चलता है.

मुस्लिम आक्रमण के बाद देश धर्म और समाज में जो परिस्थितियाँ बदलीं उसमें जकड़न प्रारम्भ हो गया. मंदिरों में अनार्य प्रवेश वर्जित हो गया. विश्वनाथ मंदिर, वाराणसी के द्वार पर आज भी एक पट्टिका है, जिस पर लिखा है  अनार्याम प्रवेश वर्जित: . इसका मुख्य कारण सुरक्षा था. इस्लाम मूर्तिपूजा विरोधी धर्म है और मूर्तिभंजन को पुण्य के रूप में देखता है, इसके विपरीत सनातन धर्म में मूर्तिपूजा सर्वाधिक प्रचलित और मान्य पूजा पद्धति थी. तर्क यह था कि जिसे मूर्तिपूजा में आस्था नहीं है वह वहाँ क्यों जाए. लेकिन शूद्र अनार्य नहीं थे. हो सकता है यही जकड़न और वर्जना कालांतर में शूद्रों के लिए भी हो गयी हो. लेकिन किसी भी स्मृति और शास्त्र में यह वर्जित नहीं है. जितना मुझे मालूम है.

पुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद के इस बयान को न तो मानने की ज़रुरत है और न ही गंभीरता से लेने की. यदि कोई ऐसा साक्ष्य प्राचीन शास्त्रों में मिलता भी है तो उसे मत मानिए. धर्म समाज के लिए है. समाज एकजुट रहे, प्रगति करे, और समरसता बनी रहे यह सबसे ज़रूरी है. शास्त्र अगर वैमनस्य फैलाये, समाज को बांटे तो ऐसे शास्त्रों की न सिर्फ अवहेलना करें बल्कि निंदा भी करें. एस सी एस टी आयोग ने शंकराचार्य को नोटिस भेजी है और गिरफ्तारी का आदेश भी दिया है. यह देश के क़ानून के अनुसार ही है. और कोई भी क़ानून के ऊपर नहीं है. शंकराचार्य आते जाते रहेंगे. उनकी धारणाएं बदलती रहेंगी. शास्त्रों की व्याख्याएं समय, काल, परिस्थितियों तथा मेधा के अनुसार होती रहेंगी पर समाज एक जुट रहे और मानवीय भेद जाति, वर्ण आधारित न हो यह सबसे अधिक ज़रूरी है. धर्मगुरु जब समाज को बांटने की बात करें तो वह कितने भी बड़े और पूज्य हों उनकी निंदा कीजिये. शंकराचार्य की बात को गंभीरता से लेने की ज़रुरत नहीं है.

विजय शंकर सिंह


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