गगन था कुछ लोहित हो चला,
तरुशिखा पर थी अविराजती,
कमलिनी कुल बल्लभ की प्रभा !!
यह पंक्तिया है, हरि औध जी की. हरिऔध जिनका पूरा नाम अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध था, हिंदी के कवि थे. छठ के अवसर पर डूबते सूरज को अर्ध्य देते हुए आप को कुछ इसी तरह का मनोरम दृश्य दिखेगा. आज कमर पर पानी में खड़े होकर, सूर्योपासना के कर्म में सूर्य को अर्ध्य दे कर विदा किया जाता है. सुबह फिर भास्कर का स्वागत अर्ध्य प्रणाम कर के किया जाएगा.
सूर्योपासना का इतिहास बहुत पुराना है. संभवतः आदिम युग से ही. उपासना की विधि विक्सित न हुयी हो, फिर भी उपासना तो होती ही थी. वैदिक काल में आज के परम्परागत देवताओं की कल्पना नहीं हो पायी थी. प्रकृति के प्रतीक ही देवता बन गए थे. जो जो कुछ जीवन को देता गया, उसी के प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित की जाती रही और सिर उसी की और झुका, हाँथ वहीं जुड़े. ऋग्वेदिक ऋचाएं उषा, जो सूर्य का आगमन घोषित करती है, सूर्य जो अन्धकार को छांट देता है, इंद्र जो बारिश से धरती को सींचता है, वरुण, जो जल संग्रह सागर का प्रतीक है, पवन, जो प्राण वायु, लिए जीवन का अनिवार्य है और अग्नि, जिसके बिना सभ्यता के उद्भव की कल्पना ही सम्भव नहीं है, की प्रसंशा में ढेरों ऋचाएं हैं. तब इनके वैज्ञानिक रहस्यों का पता नहीं था. उसी कालखंड में यह उपासना कभी प्राम्भ हुयी होगी.पहले ईश्वर की कल्पना हुयी होगी. फिर उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन हेतु उपासना की. धीरे धीरे जब पौरोहित्य परम्परा प्रारम्भ आरम्भ हुयी तो, उपासना पद्धति या पूजा पद्धति विक्सित हुयी और कर्मकांड का स्वरुप भी बना.
यह पर्व, बिहार का मुख्य पर्व है. बिहार में ही सूर्योपसाना का यह स्वरुप क्यों और कब विक्सित हुआ, यह शोध का विषय है. लेकिन इसका कुछ सम्बन्ध अंग देश से मिलता है. वसिष्ठ और विश्वामित्र की आपसी प्रतिद्वंद्विता के बहुत से किस्से वैदिक आख्यानों में मिलते हैं. विश्वामित्र ने वसिष्ठ के छ पुत्रों को जिनके नाम क्रमशः अंग, बंग, औड्र, पौड्र, चोड्ड्य, और पौड्य को शाप दे दिया था. इन्ही के नाम पर देश के छ क्षेत्र, अंग, जो भागलपुर, यानी उत्तर पूर्वी बिहार, बंग, यानी बंगाल, ओड्र यानी उड़ीसा, पौडर यानी, उड़ीसा के नीचे का भाग, चोडय यानी आन्ध्र,, पांड्य यानी सुदूर दक्षिण. इन्हें शूद्र हो जाने का श्राप दिया था.
महाभारत काल में अंग का राज दुर्योधन ने कर्ण को दे दिया था, जब उसने प्रतियोगिता के लिए अर्जुन को ललकारा पर द्रोणाचार्य ने यह कह कर कि वह राजा नहीं है, अतः वह इस प्रतियोगिता में भाग नहीं ले सकता है, अंग का राजा उसे बनाया तो गया, पर सूत पुत्र होने के कारण उसे उस प्रतियोगिता में भाग लेने का अवसर नहीं मिला. सूर्य पुत्र होने के कारण सूर्योपासना की एक नयी कथा इस से जुड़ गयी. लेकिन इस उपासना के कई अन्य कारण भी मिलते हैं.
महाभारत की ही एक कथा के अनुसार, वनवास के दौरान जब पांडव कष्ट में थे, तो उनके कष्ट के निवारण के लिए दरौपदी ने ऋषि धौम्य के कहने पर छठ बरत रखा था.
जैसे इतिहास बदलता रहता है, सभ्यताएं भी उसी के अनुरूप बदलती है. सूर्य तो पुरुष हैं फिर छठी माई, जिसके नाम पर यह पूजा होती है और अर्ध्य दिया जाता है कहाँ से आ गयीं ? हिन्दू धर्म में कर्मकांड का अधिकतर भार महिलाओं ने संभाल रखा है. पुरुष, युद्ध, जीवन यापन की व्यवस्था, आदि में लगे रहते थे. महिलायें इस प्रकार कुछ तो समय बिताने के लिए, और कुछ बाहर गए पुरुषों के कुशल क्षेम के निमित्त पूजा पाठ में व्यस्त हो गयी. तभी स्थानीय रिवाजों द्वारा क्षेत्र क्षेत्र की पूजा पद्धतियों में कर्मकान्डीय परिवर्तन होने लगा. यह पर्व भी मुख्यतः महिलाओं द्वारा ही संपन्न किया जाता है. सूर्योपासना का यह एक प्रकार से मात्रि सत्तात्मक रूप है. हो सकता है छठी माता के सम्बन्ध में कोई और कथा भी हो.
आज का विहार इतिहास का मगध वंश का ही भाग है. मगध राजवंश भारतीय ज्ञात इतिहास का सबसे प्रथम साम्राज्य था. नन्द वंश का विनाश कर चाणक्य के शिश्यत्व में चन्द्रगुप्त ने इस साम्राज्य की आधार शिला रखी. महान अशोक ने इसे शिखर पर पहुंचाया. चंडाशोक से देवानाम्पिय अशोक तक रूपांतरित होने की कथा, इतिहास का एक अद्भुत अध्याय है. छठ पूजा पूरे मगध में प्रचलित थे. जहां जहां मगध का साम्राज्य था वहाँ यह होती थी. वर्तमान बिहार का निर्माण बंगाल को काट कर किया गया है. यह अंग्रेजों ने बुद्ध के विहार स्थल, बोधगया, नालंदा, राजगृह आदि के स्थित रहने के कारण इसे नाम दिया. उन्होंने मगध नाम नहीं दिया, क्यों कि इस नाम में एक महान विरासत और साम्राज्य का समावेश था.
बिहार आज़ादी के लड़ाई में सबसे अग्रणी प्रान्तों में रहा है. गाँधी का प्रथम आन्दोलन का प्रयोग, चंपारण, से लेकर 1942 के भारत छोडो आन्दोलन तक बिहार ने अंग्रेज़ी राज का जम कर विरोध किया था. इसी लिए अंग्रेज़ी राज में बिहार की बदहाली ही रही. आज़ादी के बाद भी बिहार, जिसमे आज का झारखंड भी था, में भी कोई उल्लेखनीय विकास नहीं हुआ. भूमि सुधार की तरफ भी बिहार में कोई विशेष कार्य नहीं हुआ. परिणामतः, बिहार से रोजी रोटी के लिए लोगों का पलायन व्यापक स्तर पर हुआ. कोलकाता, शुरुआती बरसों में ऐसे लोगों का पसंदीदा शहर बना. फिर जहां ज़रूरतें ले गयीं वहाँ लोग जाते रहे. यह दुर्भाग्य ही मैं कहूँगा, कि शस्य श्यामला भूमि, नदियों से सिंचित, यह भूमि आर्थिक दृष्टिकोण से विपन्न ही रही. इसके पहले भी, ब्रिटिश राज में भी लोग रोजी रोटी के लिए सागर पार तक गए.
पलायन का मुख्य माध्यम रेल ही बनी. रेलों द्वारा लोग अपने परिवार को, पत्नी को अपने घर छोड़ कर कोलकाता, मुंबई और पंजाब जाते थे. भोजपुरी के बेहद मार्मिक गीतों मे विरह के गीतों की संख्या बहुत अधिक है. इसी से बिरहा की शैली विक्सित हुयी. भिखारी ठाकुर बिहार के अद्भुत लोक कवि थे. भोजपुरी साहित्य के आलोचक इन्हें भोजपुरी का शेक्सपियर मानते हैं. इन्होने बिदेसिया गीतों की अलग शैली विक्सित की जो अत्यंत प्रसिद्ध हुयी. विरह के दर्द से भरी यह शैली बिहार के उस पलायन को चित्रित करती है जहां लोग अपनी पत्नी, प्रियतमा, सबको छोड़ कर रेलों में लंदे फंदे , पेट के लिए परदेसी हो गए. आप इसे बिहार का योगदान भी कह सकते हैं . आशावादी भाव यही शब्द कहेगा, पर मैं इसे बिहार का दुर्भाग्य भी कहूंगा. इसी प्रकार जहां जहां भी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश का पूर्वी भाग गया वहाँ सूर्योपासना की यह पद्धति भी गयी.
सूर्य का एक विश्व विख्यात मंदिर ओडिशा में कोनार्क में है. तेरहवीं सदी का यह मंदिर, राजा नरसिंह देव, जो गंग वंश के थे, द्वारा बनाया बताया जाता है. यह मंदिर जहा हैं वहाँ सूर्य की किरणे सबसे पहले पहुँचती है. सूर्योपासना की यह पद्धति जो बिहार में नहाय खाय के अर्ध्य जिसे अर्धा कहा जाता है , यहाँ प्रचलित नहीं है. हिन्दू धर्म और संस्कारों पर स्थानीय रंग बहुत चढ़ा है. कर्मकांड का मूल एक ही रहा पर स्थानीय रिवाज़ उन पर हावी रहे. अब जब से मीडिया से सारे त्योहारों को प्रचारित कर दिया तो यह त्यौहार भी देश भर में फ़ैल गया. मेरे बचपन में मेरे गाँव में छठ नहीं होती थी जब कि मेरा गाँव वाराणसी में बिहार सीमा से सत्तर किलोमीटर दूर है. लेकिन अब कुछ कुछ शुरू हो गया है.
लेकिन जैसे दुर्गा पूजा बंगाल का, गणेशोत्सव महाराष्ट्र का, बौसाखी पंजाब का, बिहू, आसाम का, ओणम केरल का, पोंगल आन्ध्र का, मुख्य पर्व है उसी प्रकार छठ बिहार का है. ' पाटलिपुत्र की गंगा ' राम धारी सिंह दिनकर की एक प्रसिद्ध कविता है. उनकी यह पक्तियां पढिये , आप को आनंद आयेगा...
अस्तु, आज गोधूलि लग्न में
गंगे मंद मंद बहना,
गाँवों नगरों के समीप चल,
दर्द स्वर में कहना,
करते हो तुम विपन्नता का,
जिसका अब इतना उपहास,
वहीं कभी मैंने देखा है
मौर्य वंश का विभव विलास !!
आप सब पर भगवान् भास्कर की कृपा बनी रहे. शुभकामनाएं !!
(विजय शंकर सिंह)
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