Wednesday 15 October 2014

सिंघम पुलिसिंग नहीं है / विजय शंकर सिंह

पुलिस पर अक्सर फिल्मे बनती रहती हैं । और आगे भी बनती रहेंगी। पुलिस सरकार की आर्थिक भाषा में नॉन प्लान एक्सपेंडीचर की श्रेणी में आती है। " सरकार का ताज आप के सिर पर है " यह वाक्य अक्सर हमारे उस्ताद पुलिस ट्रेनिंग एकेडेमी में दोहराते रहते थे । जब थोड़ी बहुत लापरवाही हम लोग कर देते थे तो । सरकार का सबसे महत्वपूर्ण, मीडिया का पसंदीदा सॉफ्ट टार्गेट, आम जनता से ईश्वरीय अपेक्षा लिए हुए यह विभाग सरकार, सत्ता, अधिकार, का प्रतीक हैं । फिल्मों में कभी पांडू हवलदार की क्षवि, तो कभी सुपरमैन और कभी एंग्री यंग मैन, की क्षवि लिये हुए यह विभाग चित्रित होता रहता है. पुलिस एक बिरादरी है. पुलिस एक मानसिकता भी है और पुलिस को एक दुर्गुण के रूप में भी कभी कभी लिया जाता है. कुल मिला जुला कर यह सरकार का अकेला विभाग है जो जब सारी मशीनरी थम जाती है तो और भी गतिमान हो जाता है। यह नीलकंठ की तरह विषपायी है ।
कुछ दिनों पहले सलमान खान और अजय देवगन की चार फ़िल्में आयीं. दो दबंग. और दो सिंघम. दबंग में सलमान खान जिस तरह के पुलिस कर्मी के रूप में चित्रित किये गए वैसा सिघम में अजय देवगन नहीं किये गए हैं. चारों फिल्मों की कथावस्तु, थीम, लगभग एक जैसा ही सन्देश देती है पर ये फ़िल्में अलग अलग हैं. इन फिल्मों से जो सन्देश निकलता है वह यह बताता है कि पुलिस अपने विधि विधान से अगर कार्य करेगी तो न तो समाज का भला होगा और न ही जनता का. क़ानून किसी भी प्रकार की बुराई के लिए अप्रासंगिक हो चुका है. पुलिस को क़ानून का राज कायम करने के लिए क़ानून की अवहेलना करनी चाहिए. अक्सर जनता के लोग अपराधियों को सार्वजनिक रूप से पीटते हुए, गधे पर बिठा कर जुलूस निकालते हुए देख कर प्रसन्न होते हैं और ऐसे दरोगा की जम कर तारीफ़ और वाह वाही करते हैं. लेकिन जब यही खबर कहीं छपती है और दिखाई जाती है तो दरोगा जी कागजों का पुलिंदा लिए अपनी शिकायतों के खिलाफ की जा रही जांचों में बयान देते हुए हलफनामा भरते हुए नज़र आते है। नायक से खलनायक के बीच की जो सीमारेखा है, वह कब समाप्त हो जाती है पता भी नहीं चलता है.
पुलिस का मुख्य काम अपराधों की रोकथाम, अन्वेषण और क़ानून व्यवस्था बनाए रखना है. क़ानून का पालन हो यह उसकी सबसे पहली प्राथमिकता है. कौन क़ानून कैसे लागू किया जाएगा, कौन लागू करने के लिए अधिकृत है और कब लागू किया जाएगा यह सब क़ानून की किताबों में स्पष्ट रूप से लिखा है और हम सब को पढ़ाया भी जाता है. लेकिन जब इन कानूनों के बावजूद भी समाज और जनता को अपेक्षित लाभ नहीं पहुँच पाता तो जो कुंठा समाज और समाज से होते हुए सरकार तक पहुँचती है तो निशाने पर पुलिस ही आती है. तभी यह मानसिकता भी जन्म लेती है कि अब कानूनन कुछ नहीं हो पायेगा, कुछ न कुछ क़ानून से हट कर कदम उठाने पड़ेंगे. जनता जो अक्सर पुलिस पर कानूनन काम न करने का आक्षेप लगाती रहती है, खुले आम क़ानून के उल्लंघन पर पुलिस को हांथों हाँथ ले लेती है. कुछ मित्र इसे असामान्य कदम , असामान्य परिस्थितियों के लिए कह कर इसका बचाव करेंगे. लेकिन डीके बसु कोड और अदालतें इसे विधि विरुद्ध और पुलिस अराजकता और न जाने क्या क्या कहती हुयी पुलिस को कठघरे में ही खड़े कर देंगी. तब वह सारा असामान्य कदम जो असामान्य परिस्थितियों के लिए एक औषधि के रूप में लाया गया था, अचानक पुलिस के लिए हलाहल बन जाता है. जी मैं बात पुलिस मुठभेड़ की ही कर रहा हूँ ।आज गुजरात में 30 पुलिस कर्मी जिस में 7 आई पी एस अधिकारी और उनमें भी एक जो डी जी स्तर के हैं इसी असामान्य कदम के लिए जेल में है ।
अक्सर लोग तर्क देते हैं कि जब तक सख्ती नहीं होगी अपराध नहीं रुकेंगे. सख्ती का आशय क़ानून की सख्ती नहीं बल्कि बिना कानूनी पचड़े में पड़े सख्ती है. मैं उनके इस तर्क से सहमत हूँ कि क़ानून कभी कभी अपनी धार खो बैठता है. लेकिन जो पुलिस जन समाज के हित में क़ानून विरोधी तरीके से व्यवस्था बनाने और अपराध रोकने का काम करते हैं क्या उनके हित और हक में समाज और लोग लम्बे समय तक खड़े नज़र आते हैं. तात्कालिक समर्थन की बात मैं नहीं कह रहा हूँ. तत्काल तो हम सुपर काप हो ही जाते हैं. मेरा अनुभव है यह। वक़्त अपने साथ सारे आवेग भी लेता चला जाता है. रह जाता है सिर्फ एक था राजा !
पंजाब में जब केपीएस गिल सर डीजीपी थे तो पंजाब आतंकवाद के बेहद बुरे दिन देख रहा था। क़ानून व्यवस्था का यह हाल था कि कोई क़ानून रह ही नहीं गया था। असामान्य, परिस्थितयों में असामान्य कदम उठाये गए, स्थिति सुधरी और पंजाब में अमन चैन वापस आया । गिल साहब बेहद सराहे गए. लेकिन तभी उन्ही असामान्य कदमों पर सवाल भी उठने लगे । कुछ मानवाधिकार संगठन जो आतंकी दिनों में बिल में घुस गए थे निकल आये और इतनी याचिकाएं अदालतों में दायर हुईं कि कल के नायक और त्राता रातों रात हत्यारे, भ्रष्ट , सुपारी पर ह्त्या कराने वाले खलनायक हो गए।. हद तब हो गयी जब इन्ही याचिकाओं से पीड़ित अमृतसर के एक पूर्व एसएसपी ने रेलवे स्टेशन पर ट्रेन के सामने कूद कर आत्महत्या कर ली। आखिर किस ने झेला यह सब ? ऐसे कई उदाहरण पूरे देश में आप को मिलेंगे ।
ऐसे क़ानून के उल्लंघन को आप राज्य के पक्ष में कह कर उचित ठहरा सकते हैं । पर राज्य का हित निजी हित न बने ऐसा करने से आप कदापि किसी को रोक नहीं सकते हैं । अपने साथियों से यही कहना चाहूँगा कि हम सब को क़ानून का पालन करने की ट्रेनिंग दी गयी है।क़ानून का दुरुपयोग करने की नहीं. समाज में और आपराधिक न्याय प्रशासन के और भी अंग हैं। न्याय पालिका है, अभियोजन है. कभी किसी न्यायालय ने यह जानते हुए भी कि अभियुक्त ने सच में अपराध किया है पर साक्ष्य नहीं है दण्डित किया है ? शायद नहीं. जज चाहते हुए भी नहीं करते। लेकिन हम अक्सर ऐसे रास्ते एडवेंचर के रूप में अपना लेते हैं। न्यायालय की अपनी मज़बूरियाँ और कमियाँ होंगी और हैं पर उसके लिए हम क़ानून तोड़ें, और फिर कोई बात हो जाय तो अकेले भुगतें यह बिलकुल उचित नहीं है।
क़ानून का रास्ता भी हमारे साथी तभी अपनाते हैं जब उन्हें क़ानून के गहराई की जानकारी कम होती है. विवेचना में मेहनत करना, सुबूत जुटाना और उसे साबित करना कठिन काम है. लेकिन यह तो हमारा दायित्व है। सिंघम और दबंग वास्तविक पुलिसिंग नहीं है। यह एडवेंचर है। इस प्रवित्ति से लोगों को तात्कालिक लाभ भले मिल जाए, पर इसके दूरगामी परिणाम सुखद नहीं होते हैं। और यह उचित भी नहीं है. क़ानून का राज क़ानून के प्राविधानों से ही लागू किया जाना चाहिए. गैर कानूनी तरीके से नहीं.
(विजय शंकर सिंह)

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