31 अक्तूबर, 1984,
मैं
मिर्ज़ापुर में डी एस पी चुनार के पद पर था. मथुरा से तबादले पर गया था. वहाँ एक
थाना है अदलहाट. अदलहाट थाने में ही एक गाँव है कोलना. उसी गाँव में हर साल सरदार
पटेल की जयन्ती मनाई जाती थी. हर साल की तरह, इस दिन भी जयन्ती मनाई जानी थी.
उनकी प्रतिमा का अनावरण भी किया जाना था. गाँव एक पूर्व विधायक और इलाके के प्रतिष्ठित
व्यक्ति राम चरण सिंह का था. वह कांग्रेस से विधायक थे. उस समय कांग्रेस के नेता , स्व. लोकपति त्रिपाठी स्वास्थ्य
मंत्री थे और मिर्ज़ापुर के ही क्षेत्र लालगंज से विधायक भी थे. उन्ही के द्वारा उस
प्रतिमा का अनावरण किया जाना था. गाँव में उत्सव का माहौल था. मैं भी वहीं था.
मंत्री जी को हेलीकाप्टर से आना था. गाँव में इस उड़न खटोले को देखने के लिए बहुत
भीड़ लगती है. हेलीकाप्टर, यात्रा
की थकान और समय तो बचाता ही है पर वह गाँव देहात में भीड़ बटोरने का भी उत्तम साधन
है. उस समय निजी हेलीकाप्टर सेवा आज की तरह सुलभ नहीं थी. जो हेलीकाप्टर थे वे भी
राज्य सरकार थे. उत्सव के माहौल में देशभक्ति के गीत चल रहे थे. रंग विरंगी तिकोनी
झंडियाँ, पतंगी
कागजों की, सजावट की
गयी थी. मुख्य अतिथि के पहुँचने का समय था 11 बजे.
देर होने लगी, हेलीकाप्टर को लखनऊ से आना था.
बारह बजे, फिर एक बजे.
उस समय फ़ोन सुविधा इतनी सुलभ नहीं थी. जगह जगह एक्सचेंज थे जो ट्रंक कॉल या
लाइटनिंग कॉल , जो
त्वरित दूरभाष सेवा थी से बाहर के शहरों से बात होती थी. बड़ी मुश्किल से डेढ़ बजे
सूचना मिली कि कार्यक्रम निरस्त हो गया और मंत्री जी मुख्य मंत्री के साथ दिल्ली
निकल गए. उस समय मुख्य मंत्री नारायण दत्त तिवारी थे. किसी को किसी अनहोनी की
आशंका नहीं थी. स्थानीय सांसद ने ही प्रतिमा का अनावरण कर दिया गया. हम लोग तीन
बजे तक घर आ गए. तब तक यह पता चला कि इंदिरा गाँधी पर हमला हुआ है और वह एम्स में
भर्ती हैं. ब्रेकिंग न्यूज़ जैसी किसी सनसनी का जन्म नहीं हुआ था. चुनार वैसे भी
छोटी जगह है. सोता हुआ पर प्राचीन क़स्बा. चीनी मिटटी के बर्तनों के लिए प्रदिद्ध, इस कसबे में शेरशाह के ज़माने का
बना किला भी था. उसमे पुलिस ट्रेनिंग स्कूल स्थापित है. चुनार के पत्थर जगत
विख्यात है. अंग्रेजों के कब्र पर तो शिलालेख बनते थे, उनमे, चुनार के ही पत्थरों का, प्रयोग होता था. मेरा आवास कसबे
की छोर पर था. कसबे से दूर. कोई चाह कर ही आ सकता था. अब सूना है उधर भी बस्ती बन
गयी है.
शाम पांच बजे के समाचार से लगा कि कुछ अनहोनी घट गयी है. बात
में पता चला कि इंदिरा गाँधी पर हमला हुआ था. वह नहीं रही. किसने किया, कैसे किया, कब किया, कुछ भी स्पष्ट नहीं था. रात नौ
बजे राष्ट्रीय समाचारों का समय होता है. समाचार वाचक की गंभीर आवाज़ सुनाई दी. पता
लगा कि इंदिरा गाँधी नहीं रही. राष्ट्रपति ग्यानी जैल सिंह ने राजीव गाँधी को प्रधान
मंत्री पद की शपथ दिलाई. तब समाचार संक्षिप्त होते थे. कोई बहस का पैनेल नहीं होता
था. खबर सुनते ही, कुछ तो
उत्कंठा वश और कुछ सावधानी वश मैं और एस डी एम जो मेरे बगल में ही रहते थे, सीधे थाने पहुंचे और थाने पर यह
सूचना मिली कि जिला मुख्यालय पर एक ज़रूरी मीटिंग बुलाई गयी है. रात में ही ग्यारह
बजे हम मिर्ज़ापुर पहुंचे. जिलाधिकारी आवास पर सारे अधिकारी थे. इतना तो आभास हुआ
कि गड़बड़ है, पर कितना
गड़बड़ है, नहीं पता
चला. तब तक सिख विरोधी दंगों के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं हो पायी थी. रात
दो बजे तक वापस आये.
सुबह देर से उठने की पुरानी आदत है, आज भी बनी हुयी है. अब भी देर
से सोने और देर से उठने की आदत है. सुबह सात बजे ही एस एच ओ चुनार एक मिश्र जी थे आये और उन्होंने कहा कि कसबे
में पंद्रह सिख परिवार है. उनपर खतरा हो सकता है. मैंने कहा हुआ क्या,? उन्होंने कहा कि अखबार वाली
गाडी आयी है, बनारस
में सिखों की दुकानों पर लूट पाट हो रही है. यहाँ भी हो सकती है. चुनार बनारस के
नज़दीक था. बल्कि गंगा पार करते ही बीस किलोमीटर था. तुरनत जब तक अफवाह फैलती, सारे सिख परिवारों को, चुनार किले में पुलिस ट्रेनिंग
स्कूल के बैरेक्स में पहुंचा दिया गया. और उनके घर और दुकानों पर पुलिस की ड्यूटी
लगा दी गयी. हालांकि चुनार कोई संवेदनशील क़स्बा नहीं था. और न ही कोई दंगे का
इतिहास इस से जुड़ा था. पर इस सतर्कता से लाभ ही हुआ.
दोपहर तक रेडियो पर ख़बरें आने लगी. बनारस में कर्फ्यू लग गया
है, इलाहाबाद
में कर्फ्यू लग गया. दंगे भड़क गए थे. अप्रत्याशित, अकल्पनीय, और एक दम से पुलिस को
किम्कर्तव्य विमूढ़ कर गए. देश में हिन्दू मुस्लिम दंगों का इतिहास है. लोगों ने
इतना ज़हर घोल दिया है. कि हिन्दू मुस्लिम दंगे अप्रत्याशित नहीं दिखते हैं. पर सिख
विरोधी दंगे की तो कोई संभावना ही नहीं थी. पंजाब में आतंकवाद पैर पसार चुका था.
वहाँ के हालात बेहद संगीन हो चुके थे. धीरे धीरे जैसे जैसे समाचार बुलेटिन आने लगे, वैसे वैसे हालात की गंभीरता का
पता चलने लगा. हम सब ने चाहे वह पुलिस हो या मजिस्ट्रेट किसी के जूते दो दिन तक
नहीं खुले. केवल भ्रमण और भ्रमण. वायरलेस सेट पर या तो हाल पूछा जा रहा था, या निर्देश दिए जा रहे थे.
कानपुर, दिल्ली, जमशेदपुर के हालात बेहद खराब
थे. यह दंगा नहीं एकतरफा साम्प्रदायिक उन्माद था. बेहद दुखद और बेहद
दुर्भाग्यपूर्ण.
ऐसे अवसरों पर अफवाहें बे लगाम हो जाती है. किसी ने कहा
सिखों का पलायन हो रहा है. किसी ने कहा कि सिखों ने पंजाब में हिन्दुओं का क़त्ले
आम करना शुरू कर दिया है. किसी ने कुछ कहा किसी ने कुछ. दिल्ली में राजनैतिक स्तर
और शीर्ष स्तर पर भी भ्रम था. पुलिस और अन्य बल ऐसी विपदा के लिए न तो साधन संपन्न
थे और न ही मानसिक रूप से तैयार . पुलिस सिख अधिकारी खुद भी अपने आवासों में पड़े
थे. एक घटना ने पूरी की पूरी कौम को, जिसने हर युद्ध में अपनी
बहादुरी के डंके गाड़े थे, को
खलनायक बना दिया. ह्त्या, आगज़नी, लूट, कुछ भी बाकी नहीं रहा. सिख
बुजुर्गों को पकिस्तान के बाद का पलायन याद आ गया. यह दंगा नहीं प्रतिशोध था.
प्रतिशोध भी उनसे, जिन्होंने
वह अपराध किया भी नहीं था. दूसरे दिन के बाद, दो नवम्बर को अखबार आये. पूरा
अखबार, हैवानियत
की खबरों से भरा पडा था. न देखे जा सकने वाली चित्र बिखरे पड़े थे. सरकार जो हैंग
हो गयी थी फिर सक्रिय हुयी. नए प्रधानमंत्री राजीव खुद निकले, लोगों का पागलपन थमा. हर उन्माद
और भाव कितना ही गिरे उठे, पर अंततः
वह अपने सामान्य भाव में भी आ जाता है. जैसे विज्ञान कहता है, कि हर चीज़ अपने सामान्य ताप और
दबाव पर आती ही है. यह दंगा भी थमा.
दो तारीख को ही मिर्ज़ापुर के एक और कसबे कछवा में कुछ
कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने शोक सभा का आयोजन किया. धारा 144 लागू थी, अतः बिना अनुमति के कोई सभा
जुलूस नहीं निकल सकता था. अनुमति, पुलिस थाने की रिपोर्ट पर मजिस्ट्रेट या तो दे सकता है या
मना कर सकता है. लोगों ने बनारस इलाहाबाद नेशनल हाइवे पर ही जाम लगा दिया और सिख
ट्रक ड्राइवर्स को रोकना, पीटना और
लूटना शुरू कर दिया. न यह आक्रोश था, न दुःख बल्कि यह एक अपराध था.
बेहद संगीन. आक्रोश की प्रतिक्रिया क्षणिक होती है. वह सोच समझ कर नहीं होती हैं.
जो सोच समझ कर होता है, वह
प्रतिशोध होता है. मैं और मेरे साथी मजिस्ट्रेट, वहाँ पहुंचे. यही रास्ते में तय
हुआ कि पहुँचते ही धुन दिया जाय. यही हुआ. अगर बात होती तो बात बढ़ती फिर बात खराब
भी होती और हज़ार बातें बनने लगतीं. भीड़ से बात न हो सकती है और न ही की जानी
चाहिए. न तो वहाँ बात करने का कोई विवेक होता है और न ही सुनने का धैर्य. स्थिति
संभली. शाम के रेडियो ने दंगा कुछ कुछ थमने की बात बतानी शुरू की. अगले दिन तीन
नवम्बर को, स्थित
सुधरी तो सुधरने ही लगी.
इंदिरा गाँधी का कोई सामान्य व्यक्तित्व नहीं
था. किसी ज़माने में कांग्रेस के तपे तपाते , धुरंधर नेता गण, काम राज, एन संजीवा रेड्डी, मोरार जी देसाई, राम सुभग सिंह, अतुल्य घोष, और चन्द्र भानु गुप्त जैसे
धुरंधर नेताओं से लोहा लिया था. नयी रोशनी की तरह वह दिखीं उन्होंने राजाओं का
प्रिवी पर्स और उनके विशेषाधिकार ख़त्म किये. यह कोई बड़ा आर्थिक कदम नहीं था. पर यह
एक प्रतीकात्मक कदम था. सामंतवाद का शव जैसे दफना दिया गया हो. लोकतंत्र एक कदम
आगे बढ़ा. कांग्रेस विरोध की धार जिसे डॉ लोहिया के गैर कांग्रेस वाद ने तेज़ की थी
को कुंद कर दिया था. 1969 में कांग्रेस फिर बंटी इस कांग्रेस का नाम पडा, इन्डियन नेशनल कांग्रेस आई यानी
इंदिरा. दूसरी कांग्रेस जो खुद को मूल समझ और कह रही थी, कांग्रेस एस बनी अपने तत्कालीन
अध्यक्ष एस निज्लिंगाप्पा के नाम पर. इंदिरा कांग्रेस के अध्यक्ष जगजीवन राम के
नेतृत्व में 1971 के चुनाव हुए. अभूतपूर्व सफलता मिली थी इंदिरा गाँधी को. फिर
बांगला देश बना, और वह
उनकी लोकप्रियता का शिखर था.
शिखर पर पहुंचना कठिन तो होता ही है, पर शिखर पर टिके रहना और भी
मुश्किल. जब लोकप्रियता आती है तो, जड़ता भी आ जाती है. चाटुकार भी
सक्रिय हो जाते हैं. यहाँ भी यही हुआ. देवकांत बरुआ ने इंदिरा इस इण्डिया इंडिया
इस इंदिरा क्या कहा, चारण
समाज एकत्र हो गया. और फिर वही होता है जो चारणों की विरुदावली कराती है. प्रभा
मंडल धुंधलाने लगा. लोग मुखर होने लगे. गुजरात से नव निर्माण के बैनर तले सरकार
विरोधी आन्दोलन शुरू हो गया. गूँज यू पी , बिहार में सूनी गयी. जय प्रकाश
नारायण जो सन बयालीस के हीरो थे, ने कमान संभाली और सम्पूर्ण क्रान्ति की उम्मीद जगाये एक
आन्दोलन भड़क उठा. तभी ड्राइंग रूम सलाहकारों ने आपात काल लगाने की सलाह दे दी.
मुसीबत कभी अकेले नहीं आती है. आपात काल की घोषणा की पृष्ठ भूमि में इलाहाबाद हाई
कोर्ट का फैसला था, जो राज
नारायण की याचिका पर था. उन्हें चुनावी अनियमितता का दोषी माना कोर्ट ने. उनके जीत
को अवैध करार दिया. तभी आपात काल लगा. सारे बड़े विपक्षी नेता, और सक्रिय कार्यकर्ता जेल भेज
दिए गए.
फिर 1977 के आम चुनाव के पहले आपात काल हटा. पर इंदिरा सहित कांग्रेस बुरी
तरह हारी. उत्तर प्रदेश और बिहार में खाता तक नहीं खुला. पर जो आये थे, वह बाढ़ में एकजुट हुयी मानसिकता
के विभिन्न विचारों और पृष्ठभूमि के थे. तीन साल ही चल सकी. जिस गाडी में आगे पीछे
बैल जुते हों वह कैसे चल सकती है. 1980 के चुनाव में वह फिर प्रधान
मंत्री बनीं. इस तरह उनकी जीवन यात्रा 31 अक्तूबर 1984 को, बेहद दुखद और अकल्पनीय
परिस्थितियों में समाप्त हुईं. उनकी शहादत को नमन और विनम्र स्मरण !!
(विजय शंकर सिंह)
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