Tuesday 19 April 2022

प्रवीण झा / रोम का इतिहास - भूमिका

              चित्र: आनंद स्तूप, वैशाली

मैं जब आइसलैंड की यात्रा पर था, तो विश्व का पहला संसद नज़र आया। यह संसद हज़ार वर्षों से अधिक पुराना है। दसवीं सदी में यूँ ही पत्थरों पर खुले आसमान के नीचे बैठ संसद बैठती थी। मगर आइसलैंड तो देश ही बहुत छोटा है। बीच समुद्र में। आस-पास कोई देश नहीं। बल्कि, पृथ्वी के उस देशान्तर में ही उत्तर से दक्षिण तक सिर्फ़ समुद्र। वहाँ अगर चार वाइकिंग मछुआरे बैठ यह बतियाते ही होंगे कि आज मछली मारने कहाँ चला जाए, तो उसे संसद कह देना आज के हिसाब से अतिशयोक्ति है।

मुझे जो स्थानीय गाइड समझा रहे थे, उनको मैंने कहा, “आप जिस दसवीं सदी की बात कर रहे हैं, उससे तो डेढ़ हज़ार वर्ष पहले मेरी मिट्टी पर संसद बैठा करती थी”

उन्होंने पूछा, “कहाँ?”

“भारत में। हिमालय की तराई से लेकर गंगा किनारे तक। वज्जि की राजधानी वैशाली में। आपने बुद्ध का नाम सुना होगा?”

“हाँ। मगर क्या वही संसद अब तक कायम है? संसद तो कभी रोम में भी बैठा करती थी।”

इस प्रश्न को सुने अब कुछ वर्ष हुए। आखिर जिस डेमोक्रेसी या गणतंत्र की हम आज दुहाई देते हैं, वह हज़ारों वर्ष पहले भी थी। अगर यह ‘फूलप्रूफ’ थी, तो ऐसे कैसे खत्म हो गयी? क्यों राजतंत्र और तानाशाही जैसी चीजें आ गयी? 

क्या लोग इससे पक गए? क्या यह भ्रष्ट होता गया? अभी दुनिया के आधुनिक लोकतंत्र अमरिका को ढाई सौ वर्ष नहीं हुए, भारत जैसे देश तो सौ साल नहीं पूरा कर पाए है; तो क्या यह लोकतंत्र भी खत्म हो जाएगा?

मेरा मानना है कि इतिहास को तारीखों तक समेट कर कोई फायदा नहीं। तलवारों को नाप कर, घोड़ों को गिन कर एक दस्तावेज ही बन सकता है। इतिहास का उपयोग तो वर्तमान को समझने में है। इतिहास कैसे खुद को दुहराएगा, या कैसे कुछ संकटों को रोका जा सकता है, हमें यह समझना है।

मैं वज्जि गणतंत्र पर लिखने के उत्साह में ‘वैशाली की नगरवधू’ दुहराने लगा। वहाँ के गण और संघ के विषय में पढ़ने लगा। लगा कि यह तो अमरिका की वर्तमान व्यवस्था जैसी ही सीनेट संरचना थी। मगर यह जोश ठंडा पड़ गया क्योंकि जितने संसाधन मैं सहजता से ढूँढ रहा था, उतने हाथ में आए नहीं। उसके लिए बौद्ध ग्रंथों में खासा दिमाग लगाना होगा। यह बात इसलिए लिख रहा हूँ कि कोई गुणी इस काम पर लग जाएँ, तो मेरा भी भला हो। 

रोम पर तो पुस्तकालय का एक पूरा सेक्शन ही मिल गया। उस सेक्शन से गुजरते हुए मुझे लगा कि मैंने रोमन टोगा वस्त्र पहन रखा है, और किसी कोलोसियम में बैठा हूँ। मैं देख रहा हूँ कि कुछ गाँव के लोग एक नगर बसा रहे हैं, जिसे रोम का नाम दे रहे हैं। वे संगठित होकर शक्तिशाली यूनानियों से लड़ रहे हैं। यूनान गिरने लगता है, रोम चढ़ता जाता है। वहाँ एक गणतंत्र की स्थापना होती है।

मगर यह गणतंत्र भ्रष्ट और सामंतवादी होता जाता है, जहाँ कुछ नेताओं और उनके पूँजीपति साथियों के पास शक्ति और संपत्ति केंद्रित हो जाती है। गृहयुद्ध छिड़ते हैं। जन-आंदोलन होते हैं। षडयंत्र होते हैं। हत्यायें होती है। आखिर जनता से निकल कर एक व्यक्ति रोम का पहला सम्राट बनता है। लोकतंत्र पुन: राजतंत्र में तब्दील हो जाता है।

जब रोमन सम्राट गद्दी पर होता है, कहीं दूर एक शिशु का जन्म होता है। जिसके साथ ही न सिर्फ़ रोम, बल्कि यूरोप की संस्कृति हमेशा-हमेशा के लिए बदल जाती है। रोम गिरने लगता है, मूर्तियाँ टूटने लगती है, विश्वास बदलने लगते हैं, धर्मयुद्ध और रक्तपात होने लगता है। जब कोई कैलेंडर की तारीख बदलते हुए कहता है कि दुनिया आज से शुरू हो रही है। ईसा मसीह के जन्म से।

दुनिया उस समय तो नहीं मानी, मगर एक दिन पूरी दुनिया के घर-घर टंगे कैलेंडर वाकई बदल जाते हैं। 
(क्रमश:)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 
#vss 

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