Wednesday 27 April 2022

प्रवीण झा / रोम का इतिहास (7)

गणतंत्र शब्द ‘गण’ और ‘तंत्र’ से बना है, जो अंदाज़न ईसा से सात सदी पूर्व भारत के वज्जि आदि महाजनपदों में जन्मा। उसके दो सदी बाद 509 ई. में रोम में रेस पब्लिका (res publica) बनायी गयी, जिससे रिपब्लिक शब्द बना। इस मध्य या इससे पूर्व भी दुनिया के छोटे-छोटे नगरों ने राजा से मुक्ति पा ली थी। ग्रीस में सिकंदर शासित तेरह वर्ष (336-323 ई.पू.) छोड़ दिया जाए, तो वहाँ के अधिकांश नगर राजाओं द्वारा शासित नहीं थे। 

लेकिन, यह व्यवस्था आज के संसद जैसी नहीं थी। पूरे देश में लोकसभा और विधानसभा के आम चुनाव नहीं होते थे। इसे कुलीनतंत्र या अल्पतंत्र (oligarchy) जैसा माना जा सकता है, जहाँ बहुधा कुलीन वर्ग के पुरुष महत्वपूर्ण निर्णय लेते थे। मसलन भारत के वज्जि महाजनपद में सात हज़ार से अधिक राजाओं* की चर्चा होती है, जो आज पूरे भारत के लोकसभा सांसद संख्या के दस गुणे से भी अधिक है। इनमें कितनी सहमति बनती होगी और कितने द्वंद्व होते होंगे? मगध नरेश अजातशत्रु द्वारा उन पर विजय पाना और धीरे-धीरे गणतंत्र का खत्म होना इस विषय पर कुछ संकेत देता है। लेकिन तीन सदियों से अधिक तक गणतंत्र का होना भी एक सफलता थी।

रोम तो विश्व के मानचित्र पर छोटी जगह थी। वहाँ कुलीनों की संख्या बहुत कम थी। इसलिए हज़ार राजा चुनने की विवशता नहीं थी। वहाँ यह निर्णय हुआ कि हर वर्ष दो प्रधान (Consul) चुने जाएँगे। एक के हाथ में सेना होगी, और दूसरे राज्य प्रशासन देखेंगे। ऐसे प्रधान की न्यूनतम आयु सीमा 42 वर्ष थी। 

उन दोनों प्रधानों के पास एक-दूसरे के निर्णय को काटने या विरोध करने की शक्ति थे। वे सर पर मुकुट तो नहीं पहनते, मगर वे एक वर्ष के राजा की भूमिका में रहते। उनके टोगा वस्त्र पर एक चौड़ी बैगनी रंग की पट्टी होती, और वे एक हाथी दाँत की बनी शाही कुर्सी पर बैठते। उस वर्ष का नाम भी उनके नाम पर दर्ज़ कर दिया जाता। जैसे अगर ‘मनोज’ और ‘बहादुर’ नाम के दो व्यक्ति चुने गए, तो वह वर्ष ‘मनोज बहादुर वर्ष’ कहलाएगा।

अगर युद्ध छिड़ जाए या कोई आपातकाल आ जाए तो? उस समय तो शीघ्र निर्णय लेने होते, फिर क्या किया जाता? 

छोटे-मोटे युद्धों का निर्णय विमर्श कर ही किया जाता, या सेना के प्रधान कर लेते। लेकिन, भीषण आपातकाल की स्थितियों में संसद अनिश्चितकाल के लिए एक निरंकुश राजा (Dictator) चुन सकती थी। आपातकाल के बाद उनको गद्दी छोड़ देनी होती।

इसके अतिरिक्त सात-आठ प्रीटर (Praetor) होते, जो विधि-व्यवस्था देखते और प्रतिनिधियों के मुख्य सलाहकार होते। वे भी हाथी दाँत की कुर्सी पर बैठते। ‘क्वेस्टर’ खजाना देखते। ‘सेंसर’ जनगणना करते। ‘एडील्स’ के हाथ में नगर-निर्माण होता। 

एक ऐसा अंग था, जो आम चुनाव से जनता द्वारा चुना जाता। यह कहलाता- ‘ट्रिब्यून’। इसे आज के लोकसभा जैसा समझा जा सकता है, जो राज्य के फैसलों को रोकने (veto) की भी क़ुव्वत रखती थी। जैसा हमने पहले पढ़ा कि एक सर्वहारा वर्ग के व्यक्ति टाइबेरियस ने ट्रिब्यून में जाकर गणतंत्र हिला कर रख दिया था।

लेकिन, इन सबसे अलग और कई मामलों में सबसे अधिक नाक घुसेड़ने वाली भी एक संस्था थी। वह चुनी नहीं जाती, बल्कि उसमें अवैतनिक आजीवन सदस्य होते। प्रधान और अन्य प्रतिनिधि बदलते रहते, मगर वे नहीं बदलते। वहाँ बुजुर्ग पूर्व प्रतिनिधि, रसूखदार कुलीन, जमींदार, बुद्धिजीवी बैठा करते। वहाँ किसी के बोलने की कोई समय-सीमा नहीं थी। एक व्यक्ति खड़ा होता तो घंटे भर बोलता रहता। इससे मिलती-जुलती संस्था वज्जि महाजनपद में ‘सभा’ कहलाती, जो बैठ कर नियमित विमर्श करती और ‘गण’ को सुझाव देती। वर्तमान भारत में ‘राज्यसभा’ थोड़ी-बहुत इस ढर्रे पर है। 

उस संस्था के पास कानून बनाने का या बदलने का अधिकार नहीं था, मगर रोमन गणराज्य इतिहास में उसे भुलाना कठिन है। वह संस्था कहलाती- ‘सीनेट’! 
(क्रमश:)

* वज्जि के गण में कई राजा होते, जिनका अर्थ पूरे महाजनपद के राजा रूप में नहीं था। 

प्रवीण झा
© Praveen Jha

रोम का इतिहास (6)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/04/6.html 
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