Thursday 14 April 2022

शंभूनाथ शुक्ल / कोस कोस का पानी (42) सामने पहाड़ हो, सिंह की दहाड़ हो!


कोरोना काल के कुछ दिन पहले 31 दिसम्बर की मैं शाम राजधानी एक्सप्रेस से अहमदाबाद के लिए निकला। मेरे साथ पत्नी सरोज के अलावा बड़ी बेटी, उसके दो बच्चे (13 साल का कृशु और 9 वर्ष की हर्षी) थी। तथा छोटी बेटी कीर्ति, उसके पति एडवोकेट उत्कर्ष तिवारी और उसके दो बच्चे (चार साल की कनाडेश्वरी एवं दो साल का विद्वत) थे। यानी कुल 9 प्राणी। हमने अहमदाबाद से ही सात दिनों के लिए एक इनोवा टॅक्सी ऑन लाइन बुक करवा ली थी। इस गाड़ी से हमने गुजरात राज्य में लगभग ढाई हज़ार किलोमीटर की यात्रा पूरी की। वह भी पूरा गुजरात नहीं घूम पाया। सिर्फ सौराष्ट्र और कच्छ को ही घूमा। अलबत्ता अहमदाबाद और मेहसाना जरूर गुजरात राज्य के क्षेत्र भी घूम लिए। सौराष्ट्र की यात्रा धार्मिक थी। सोमनाथ, पोरबंदर और द्वारिका के दर्शन तो हर हिंदू को करने ही चाहिए। क्योंकि यहाँ जाकर आप अपने इतिहास और पुरखों का पुण्य-स्मरण करते हैं। द्वारिका श्रीकृष्ण की बसाई हुई नगरी है और पोरबंदर महात्मा गांधी की जन्म स्थली है। सोमनाथ, इसलिए कि सौराष्ट्र, गुजरात तथा कच्छ के अपार धन-संपदा से पोषित राजाओं के वैभव को यहाँ का मंदिर दर्शाता है। दुर्दमनीय आक्रांताओं ने बार-बार यह मंदिर लूटा, मूर्ति खंडित की। लेकिन हर बार यह मंदिर पुनः-पुनः बना। और पहले से कहीं अधिक भव्य। मौजूदा सोमनाथ मंदिर सरदार वल्लभ भाई पटेल के सदप्रयासों से निर्मित हुआ। अरब सागर की उद्दाम लहरें इसके परकोटे पर हर क्षण आकार टक्कर मारती हैं। मानों वे भगवान शिव पर समर्पण को उन्मत्त हों। पूरा मंदिर सोने से बना है।

सौराष्ट्र के इसी इलाके में गिर का विशाल वन-क्षेत्र है। जूनागढ़ के नवाबों के अधीन यह वन क्षेत्र आता था। इसकी विशेषता यह है, कि भारत में सिंह (बबर शेर) सिर्फ यहीं पर है। वह भी एक-दो नहीं, पूरे 563 सिंह यहाँ आबाद हैं। इसी इलाके में अफ्रीका से आई एक जनजाति भी बसी है। आप सुबह साढ़े पाँच बजे से ही जिप्सी हायर कर इस जंगल में प्रवेश कर सकते हैं। प्रति व्यक्ति 200 रुपए एंट्री फीस है। एक दिन तो यहाँ रहना ही चाहिए। इन जिप्सी से आप करीब 20 किमी का इलाका घूम सकते हैं। एक जिप्सी का किराया ढाई हज़ार है। हर जिप्सी में एक गाइड भी रहता है। भारत के ज़्यादातर वन क्षेत्र में बाघ मिलते हैं। बाघ थोड़ा शर्मीला जानवर है, लेकिन सिंह के साथ ऐसा नहीं है। आम तौर पर सिंह मिल ही जाता है और एक साथ तीन-चार की संख्या में। सिंह मनुष्य को देख कर छिपने की कोशिश नहीं करता है न ही वह डरता है। अगर सिंह रास्ता रोक ले तो न आप भाग सकते हैं न उसे भगा सकते हैं। बेहतर यही होगा कि उसके स्वयं ही चले जाने का इंतज़ार करिए। उसे देख कर घबराएँ नहीं, बच्चों को चुप रहने का संकेत करें। कोई हड़बड़ी नहीं। सिंह बिगड़ गया तो बचाव का रास्ता नहीं। वह जिप्सी से लोगों को घसीट लेता है। जिस दिन मैं वन क्षेत्र मे गया तो गाइड ने बताया कि परसों एक जिप्सी से सिंहनी ने एक स्त्री को नाश्ते के वास्ते उठा लिया। उसका पति और पुत्र उसे शेर के पंजों से छुड़ाने गए तो सिंहनी के साथ का मर्द उन दोनों को घसीट ले गया। गिर प्रशासन ऐसी खबरों को दबा जाता है। ऐसा मुझे उस गाइड ने बताया था।

अपने निर्धारित रूट-प्लान के अनुसार हमें एक जनवरी को अहमदाबाद से सासन गिर पहुंचना था। मगर हम दिन को साढ़े दस बजे तो अहमदाबाद पहुँचे। प्लेटफ़ॉर्म से बाहर आते ही हमारी प्री-बुक्ड इनोवा टैक्सी का ड्राइवर लक्ष्मण सिंह शेखावत खड़ा था। जाड़े के सारे कपड़े उतारने पड़े क्योंकि यहाँ बहुत गर्मी थी। जबकि एक जनवरी को दिल्ली में कड़ाके की ठंड पड़ती है। अब पहला काम था कुछ देर के लिए किसी होटल में रुक कर फ़्रेश होना। वहाँ पर हमारे मित्र अभिषेक पांडेय ने एक होटल में दो कमरों की व्यवस्था की हुई थी। लंच हमने बीकानेरवाला के यहाँ किया। उनके यहाँ नॉर्थ इंडियन भोजन उपलब्ध था। इस तरह हम दो बजे निकले सासन गिर के लिए, जो वहाँ से 375 किमी दूर था। इसमें से 350 किमी की दूरी तो हमने फोर लेन हाई वे से गुजारी। सौराष्ट्र का इलाक़ा बंजर है। दूर-दूर तक काली मिट्टी के सपाट मैदान। बीच-बीच में ऊँचें सींगों वाली गाएँ दिखतीं, जिन्हें चरवाहे शायद गाँवों की तरफ़ ले जा रहे थे। सभी गायों की ऊँचाई मुझसे अधिक। ड्राइवर ने बताया ये गिर गाएँ हैं। इंका घी और दूध मशहूर है। सड़क किनारे एक ढाबे में रुके। वहाँ पर फ़ाफड़ा खाया और चाय पी गई। रात होने लगी थी जब हम जूनागढ़ पहुँचे। ड्राइवर ने एक ऊँची पहाड़ी की तरफ़ इशारा कर कहा वहाँ गिर माता का मंदिर है। इसके बाद हाई वे से हम एक पतली सड़क पर उतर गए। यह 25 किमी का इलाका वन-क्षेत्र का हिस्सा है और रास्ता खराब एवं सघन वन से घिरा है। सासन पहुँचने के लिए जंगल के जिस गेट से घुसना चाहते थे, वह तीन दिन पहले की एक लोम-हर्षक घटना के चलते बंद कर दिया गया था। एक ग्रामीण को बबर शेर ने मार दिया था, इसलिए उस गेट से शाम पांच के बाद एंट्री बंद कर दी गई थी। फिर हमें गाँवों से होकर जाने वाले टूटे-फूटे रास्ते से जाना पड़ा। यह सूनसान इलाक़ा था। बच्चों-बड़ों सबको भूख लगी थी। बिस्कुट, केक व चिप्स से कब तक काम चलता।

रात के 11 बज रहे थे। जिस होटल में रुकना था, उसको फ़ोन किया तो उसने बताया कि अब आपको यहाँ भोजन नहीं मिल पाएगा इसलिए रास्ते में ही भोजन कर लें। सड़क अब चौड़ी हो गई थी और एक छोटे क़स्बे से होकर जा रही थी। इस क़स्बे के अंतिम बिंदु पर एक ढाबा खुला मिल गया। लेकिन ढाबे में काम करने वाले हिंदी नहीं बोल पाते थे। हार कर हमने पाँच थालियाँ मंगाईं। हर थाली में आधा-आधा इंच मोटी छह-छह रोटियाँ, जिन्हें रोटला बोलते हैं, लोबिया की दाल, बैगन की सब्ज़ी और कुछ व्यंजन थे। एक ही थाली पर्याप्त थी। लेकिन उसने पाँच थालियों के 450 रुपए का बिल थमाया। मैंने 500 का नोट दिया और कहा रख लो। वह खुश हो गया। हम आगे बढ़े तो देखा कि घर के बड़े में बंधी गाय पर एक तेंदुए ने झपट्टा मारा और ग़ायब हो गया। यह सब बिजली की गति से हुआ। आगे का दृश्य हम नहीं देख पाए। सासन पहले एक गाँव था, पर अब वहां गिर अभ्यारण्य का दफ्तर है। यहाँ वन विभाग के गेस्ट हाउस के अलावा कई होटल भी हैं। दो से तीन हज़ार के बीच अच्छे होटल मज़े से मिल जाते हैं और सब में ऑन-लाइन बुकिंग सुविधा उपलब्ध है। हमने दिल्ली से ही एक होटल बुक करवा लिया था। हम रात साढ़े 12 बजे के करीब होटल पहुंचे। होटल में सिर्फ दूध ही मिला।

सुबह पांच बजे हमें तैयार होकर वन-विभाग के दफ्तर जाने के लिए निकले ही थे तभी दो बार सिंह की दहाड़ सुनाई पड़ी। होटल वाले ने बताया कि शेर पास की नदी में पानी पीने आया है। हमारी उत्तेजना बढ़ गई थी। हम जल्दी से वन विभाग के दफ्तर पहुंचे। वहां पर हमने अन्दर जाने के लिए ऑन लाइन बुकिंग करवा रखी थी, फिर भी उस दिन एंट्री के लिए परिवार के हर सदस्य का पहचान-पत्र दिखाना पड़ा। प्रति सदस्य एंट्री फीस 200 रूपये है। गेट पर ही जंगल के अन्दर जाकर घुमाने के लिए जिप्सी मिल गई, जिप्सी चालक ने हमसे ढाई हज़ार रूपये लिए। उसमें चालक के अलावा आगे की सीट पर एक गाइड बैठता है। जिप्सी के पीछे का हिस्सा खुला रहता है और उसमें सात-आठ लोग मज़े से बैठ सकते हैं। जंगल की कोर एरिया में जाने के 13 अलग-अलग रूट हैं। और रूट का निर्धारण वन विभाग ही करता है। हमें रूट नंबर 13 मिला। साढ़े पांच बजे ख़ासा अँधेरा था, यूँ भी सुदूर पश्चिमी छोर के इस इलाके में सूर्य दिल्ली की तुलना में करीब आधा घंटा देर से उगता है। आसमान पर पूष के कृष्णपक्ष की एकादशी का चाँद बहुत खूबसूरत लग रहा था और उसके ऊपर के कट पर शुक्र तारा चमक रहा था। अचानक मेरे मुँह से फूटा- चाँद के पास जो सितारा है, वह सितारा हसीं लगता है! तब सब का ध्यान उस तरफ और सब लोग अभिभूत रह गए।

शीत लहर चल रही थी और कड़ाके की ठण्ड थी, लेकिन परिवार का हर सदस्य उत्साहित था, दाढ़ी (अयाल) वाले बबर शेर की झलक पाने के लिए। सबसे छोटे सदस्य दो साल के नाती विद्वत को खूब ढक कर ले जाया गया था। अलबत्ता उसकी बहन खूब चहक रही थी। घने जंगल में हमारी गाड़ी प्रवेश कर गई। आधा घंटे तक हमें एक चिड़िया नहीं दिखी, फिर कुछ हिरन दिखे, चीतल और बारासिंघा भी। तभी एक जिप्सी विपरीत दिशा से आती दिखी और उसमें बैठे लोगों ने बताया कि वहां चट्टान पर एक शेरनी बैठी है। हम उसी तरफ बढ़े। जमीन पर पंजों के निशान साफ़ दिख रहे थे। हमारे गाइड ने कह दिया कि कोई भी न तो चीखेगा न आवाज़ करेगा न गाड़ी से नीचे उतरने की कोशिश करेगा। बच्चे चुप रहें। कुछ देर बाद सड़क के दोनों किनारों पर फारेस्ट गार्ड की दो बुलेट मोटर साइकिलें खड़ी थीं, लेकिन गार्ड नदारद। गाइड ने बताया कि गार्ड अन्दर गए हैं, शेर पास में ही हैं। कुछ दूर पर किसी हिरण की काल आई। अब पक्का था कि सिंह आसपास हैं। पंजों की दिशा में हम आगे बढ़े। अचानक दाईं तरफ बीस मीटर की दूरी पर मुझे अयालों वाले शेर की झलक दिखा, मैं फुसफुसाया गाड़ी रोको। वह शेर धीरे-धीरे चलता हुआ उधर चला गया, जहाँ शेरनियों ने किसी गाय को आसानी से शिकार बना लिया था। अब हमारा वहां रुकना खतरे से खाली नहीं था। इसलिए धीरे-धीरे हमारे जिप्सी चालक ने गाड़ी बैक की और हम पास के गाँव की तरफ बढ़ गए।

© Shambhunath Shukla 

कोस कोस का पानी (41)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/04/41.html
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