Tuesday 25 May 2021

येरुशलम - अल-अक़्सा भाग 4.

यहूदी धर्म हज़ारों सालों से एक ईश्वर की उपासना करता आया है.. एकेश्वरवाद की धारणा लाने वाला सबसे पुराना धर्म यहूदी ही माना जाता है.. एक ईश्वर यहोवा और उसकी उपासना करने वाले यहूदी होते हैं.. अगर आप यहूदियों की पवित्र किताब तोरह, जिसे अरबी में तौरेत कहते हैं, का अध्यन करेंगे तो पाएंगे कि जिस तरह के ईश्वर का वर्णन उस किताब में हैं बिल्कुल वैसा ही ईश्वर इस्लाम मे है.. मगर उस ईश्वर की अवधारणा और उसके गुण को क़ुरआन में उतनी डिटेल में नहीं बताया गया है.. ये सब कुछ इस्लाम की हदीसों में हैं.. क़ुरआन में नहीं.. हदीसें परमपराओं और मान्यताओं का श्रुति ज्ञान है जो एक इंसान से दूसरे इंसान तक पहुंचती है.. तो ईश्वर का वो रूप जिसके बारे में "तोरह" कहता है, वो आपको इस्लाम की हदीसों में मिलेगा मगर क़ुरआन में नहीं

उदाहरण के लिए जैसे रूढ़िवादी इस्लाम के मानने वाले किसी भी जानदार जानवर या इंसान की तस्वीर अपने घरों में लगाना नहीं पसंद करते हैं.. दिल्ली के लालकिले में जो पत्थरों की नक्काशी में मोर और अन्य जानवर बने थे, उसे औरंगज़ेब में तोड़ दिया था.. औरंगज़ेब रूढ़िवादी इस्लाम मानने वाला था.. अब इस तरह का कोई इस्लामिक नियम आपको क़ुरआन में नहीं मिलेगा और न ही किसी शिक्षा में.. मगर अगर आप पढ़ेंगे तो ये आपको यहूदियों की किताब तोरह में मिलेगा.. जिसमे हर जानदार चीज़ की फ़ोटो या मूर्तियां बनाना मना किया गया है.. जानदार की तस्वीर यहूदी धर्म मे वर्जित है, इस्लाम मे नहीं.. मगर ये परंपरा इस्लाम के मानने वाले मानते तो हैं मगर जानते नहीं कि उसका मूल तोरह है, क़ुरआन नहीं

ऐसे ही आज के रूढ़िवादी इस्लाम की ज़्यादातर चीज़ें आपको यहूदियों की किताबों में मिलेंगी.. और इन्ही किताबों की बातों को इस्लाम की हदीस में शामिल कर लिया गया.. हदीस इक्कट्ठा करने वालों ने हजारों और लाखों हदीसों को पूरी तरह से हटा दिया था क्योंकि वो सब यहूदी और ईसाई परंपरा की बातें थीं..मगर अभी भी जो हदीसें बची हैं उनमें भी ज़्यादातर यहूदी परंपरा के क़ानून और कर्मकांड हैं

ये बातें मैं इसलिए लिख रहा हूँ ताकि आप समझ सकें कि मुहम्मद ने अपना किबला तो जेरुसलम से मक्का कर किया था मगर बीते तेरह सालों के दौरान जो यहूदी परम्परा इस्लाम के मानने वालों का मूल बन गयी थी, वो जाते जाते भी नहीं गयी.. कितने क़ानून और कितने फैसले ऐसे थे जो सब यहूदी थे मगर उसे मुहम्मद ने इस्लाम मे अपनाए थे.. और अब उन्हें बदलना उनके लिए आसान नहीं था.. इसलिए लोग जो शुरू से मानते आ रहे थे वो उसे मानते गए और धीरे धीरे वो परंपराएं और मज़बूत ढंग से इस्लाम का हिस्सा बन गईं

यहूदियों के अपने धर्म को लेकर जड़ होने का अंदाज़ा मुहम्मद को नहीं था.. वो ये समझ ही नहीं पाए कि यहूदी कभी भी किसी दूसरे क़बीले या दूसरी नस्ल के पैग़म्बर को अपना पैग़म्बर स्वीकार ही नहीं करेगा.. मगर जब तक वो ये समझते, बात बहुत आगे निकल चुकी थी.. तब तक उन्होंने यहूदी धर्म की लगभग हर बातें इस्लाम के रूप में अपने अनुयायियों को थमा दी थी.. तेरह साल तक "बैत हा-मिक़दश" की तरफ़ मुहं करके प्रार्थना करने वाले लोग एकदम से कैसे अपनी धारणाओं और आस्था को छोड़ देते? ये बड़ा कठिन काम था.. आस्था को बदलना बड़ा मुश्किल काम होता है

तो एकेश्वरवाद से लेकर लगभग सब कुछ इस्लाम का, यहूदियों से आया था.. और अब उन्हीं के विरोध में जाना, ये अपने आप मे एक टेढ़ी खीर था.. मगर मुहम्मद ने ये किया.. वो बहुत दृढ़ निश्चय वाले व्यक्ति थे.. जैसे पहले उन्होंने यहूदियों की तमाम परंपराओं को इस्लाम में लागू करवाया था वैसे ही उन्होंने अब मक्का वाले मूर्तिपूजकों की सारी परंपराओं को, धार्मिक कर्म कांडों को इस्लाम का हिस्सा बना दिया.. विरोध हुवा मगर धीरे धीरे उनके अनुयायी इस बात को स्वीकार कर ले गए

तो यहूदी धर्म और उसके प्रतीकों से मुहम्मद ने पूरी तरह से आज़ादी ले ली थी किबला बदलने की शुरुवात कर के.. और जो धर्म अब उन्होंने अपने लोगों को दिया वो शुरवाती इस्लाम से एकदम अलग था.. जिस मक्का के मंदिर काबा के सामने मुसलमान झुकना पसंद नहीं करते थे, अब उसी के आगे झुक रहे थे

उनके सबसे बड़े बड़े अनुयायियों के लिए भी ये बड़ा मुश्किल काम था

उदाहरण के लिए..
इस्लाम के दूसरे ख़लीफ़ा हज़रत उमर की बात ही ले लीजिए.. उमर मुहम्मद के सबसे वफादार और अच्छे शिष्यों में से एक माने जाते हैं.. जब मक्का के मूर्तिपूजकों की परंपराओं को इस्लाम मे मुहम्मद ने शामिल किया तो उमर स्वयं कई बातों से संतुष्ट नहीं थे।

बुखारी की सहीह हदीस में एक वर्णन है कि एक बार जब ख़लीफ़ा उमर काबा में लगे काले पत्थर, हज्र-ए-असवद को चूम रहे रहे तो उन्होंने कहा, 
"मैं जानता हूँ कि तुम बस एक पत्थर हो, और तुम न तो मुझे कोई फ़ायदा पहुंचा सकते हो और न नुकसान.. इसलिए अगर मैंने पैग़म्बर मुहम्मद को तुम्हें चूमते न देखा होता तो मैं तुम्हें कभी नहीं चूमता ।"

ये छोटी सी हदीस ये बताती है कि मूर्तिपूजक परंपराओं को अपनाना मुहम्मद के अपने ख़ास लोगों के लिए कितना पीड़ादायक था.. इस्लाम का किबला तो बदल गया मगर इस वजह से इस्लाम का सारा स्वरूप भी बदल गया था और वो मुहम्मद के साथ साथ उनके अनुयायियों के लिए पीड़ादायक था.. और यहूदियों के उपेक्षा का वो दंश इस्लाम के  रूप और इतिहास को पूरी तरह से बदल देने वाला था। 
(क्रमशः)

© सिद्धार्थ ताबिश
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