Monday 31 May 2021

इस्मत चुगताई - संस्मरण : 01


संस्मरण ‘लिहाफ़ के इर्द गिर्द’, जिसे इस्मत चुगताई की किताब ‘गुनहगार’ से लिया गया है. 
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शाम के चार बजे होंगे या शायद साढ़े चार कि बड़े ज़ोर से घंटी बजी. नौकर ने दरवाजा खोला और आतंकित होकर पीछे हट गया.
“कौन है?”
“पुलिस!” शाहिद हड़बड़ाकर उठ बैठे.
“जी हाँ,” नौकर थर-थर काँप रहा था. “मगर साब मैंने कुछ नहीं किया, कसम से साब.”
“क्या किस्सा है?” शाहिद ने दरवाजे के पास जाकर पूछा,
“सम्मन है.”
“सम्मन? मगर…खैर लाइये”
“सॉरी…आपको नहीं दे सकते.”
“मगर…किसका सम्मन…और कैसा सम्मन?”
“इस्मत चुग़ताई के नाम! उन्हें बुलाइये.” नौकर की जान में जान आयी.
“मगर यह तो बताइये…”
“आप उन्हीं को बुलाइये, लाहौर से सम्मन आया है.”

मैं सीमा (अपनी दो महीने की बच्ची) के लिए दूध बनाकर बोतल ठंडा कर रही थी. “लाहौर से सम्मन?”, मैंने बोतल ठंडे पानी में हिलाते हुए पूछा.
“हाँ भई, लाहौर से आया है.” शाहिद झुंझला गये.
मैं हाथ में बोतल लिए नंगे पैर बाहर निकल आयी.
“अरे भई कैसा सम्मन है?” और सम्मन का शीर्षक पढ़कर मेरी हँसी छूट गयी, लिखा था…’इस्मत चुग़ताई’ vs ‘द क्राउन’.
“अरे यह बादशाह सलामत को मुझसे क्या शिकायत हो गयी, जो मुक़दमा ठोंक दिया.”
“मजाक़ न कीजिए”, इंस्पेक्टर साहब सख्ती से बोले. “बढ़कर दस्तख़त दीजिए.”

मैंने सम्मन आगे पढ़ा. बड़ी मुश्किल से समझ में आया. मेरी कहानी ‘लिहाफ’ पर अश्लीलता के आरोप में सरकार ने मुक़दमा चला दिया है और मुझे जनवरी में लाहौर हाईकोर्ट में हाज़िर होना है. दूसरी हालत यानी मेरी गैर हाज़िरी पर सख्त कार्रवाई की जायेगी.

“भई, मैं नहीं लेती सम्मन”, मैंने काग़ज़ वापस करते हुए कहा और दूध की बोतल हिलाने लगी. “मेहरबानी करके वापस ले जाइये.”
“आपको लेना पड़ेगा.”
“क्यों?” मैं आदतन बहस करने लगी. “अरे भई क्या किस्सा है?” मोहसिन अब्दुल्लाह ने जल्दी-जल्दी सीढ़ियाँ चढ़ते हुए पूछा. वह धूल में अंटे हुए न जाने कहाँ से खाक छानकर आ रहे थे. “देखो ये लोग मुझे जबरदस्ती सम्मन दे रहे हैं, मैं क्यों लूँ,” मोहसिन ने वकालत पढ़ी थी और अव्वल दर्जे से पास हुए थे.
“हूँ” उन्होंने सम्मन पढ़कर कहा. “कौन- सी कहानी है?”
“भई है एक कमबख्त कहानी, जान की मुसीबत हो गयी है.”
“सम्मन तुम्हें लेना पड़ेगा.”
“क्यों?”
“फिर वही जिद.” शाहिद भड़क उठे.
“मैं हरगिज़ नहीं लूँगी.”
“नहीं लोगी तो तुम्हें गिरफ़्तार कर लिया जायेगा.” मोहसिन गुर्राये.
“कर लेने दो गिरफ़्तार, मगर मैं सम्मन नहीं लूँगी.”
“जेल में बन्द कर दी जाओगी.”

“जेल में? अरे मुझे जेल देखने का बहुत शौक है. कितनी बार यूसुफ से कह चुकी हूँ, मुझे जेल ले चलो, मगर हँसता है कमबख्त और टाल जाता है.”
“इंस्पेक्टर साहब मुझे जेल ले चलिये, आप हथकड़ियाँ लाये हैं?” मैंने बड़े प्यार से पूछा. इंस्पेक्टर साहब का पारा चढ़ गया, गुस्सा दबाकर बोले, “मज़ाक़ मत कीजिए, दस्तख़त कर दीजिए.”

शाहिद और मोहसिन फट पड़े. मैं बिल्कुल मज़ाक़ के मूड में हँस-हँस कर बके जा रही थी. अब्बा मियाँ जब सूरत में जज थे तो कचहरी बिल्कुल घर के मर्दानखाने (पुरुषों की बैठक) में लगती थी. हम लोग खिड़की से चोर-डाकुओं को हथकड़ियों-बेड़ियों में जकड़ा हुआ देखा करते थे. एक बार बड़े खतरनाक डाकू पकड़े गये. उनके साथ एक बहुत खूबसूरत नौजवान औरत भी थी. बाकायदा बिरजिस और कोर्ट पहने शकरे जैसी आँखें, चीते जैसी कमर और लम्बे काले बाल, मेरे ऊपर इसका बड़ा रोब पड़ा.
शाहिद और मोहसिन ने बौखला दिया, मैंने बोतल इंस्पेक्टर साहब को पकड़ानी चाही ताकि दस्तख़त कर सकूँ. मगर वह ऐसे बिदके जैसे मैंने उनकी तरफ पिस्तौल की नाल बढ़ा दी हो. जल्दी से मोहसिन ने बोतल मुझसे छीन ली और मैंने दस्तख़त कर दिया.
“आप थाना चलकर जमानत दीजिए, पाँच सौ रुपये की जमानत.”
“मेरे पास तो इस वक़्त पाँच सौ नहीं हैं.”
“आपको नहीं, किसी और साहब को आपकी जमानत देनी पड़ेगी.”
“मैं किसी को फंसाना नहीं चाहती. अगर मैं नहीं गयी तो जमानत जब्त हो जायेगी.” मैंने अपनी जानकारी की धौंस जमाई.
“आप मुझे गिरफ्तार कर लीजिए.”

इस बार इंस्पेक्टर साहब को गुस्सा नहीं आया. उन्होंने मुस्कुरा कर शाहिद की तरफ देखा, जो सोफे पर सिर पकड़े बैठे थे और मुझसे बड़ी नरमी से कहा.
“चलिये भी, जरा-सी देर की बात है.”
“मगर जमानत?” मैंने नरम होकर कहा, अपने मूर्खतापूर्ण मज़ाक़ पर शर्मिन्दा हुई.
“मैं दूँगा.” मोहसिन बोले.
“मगर मेरी बच्ची भूखी है, उसकी आया बिल्कुल नयी है और एकदम छोटी है.”
“आप बच्ची को दूध पिला दीजिए.” इंस्पेक्टर साहब बोले.
“तो आप अन्दर बैठिये.” मोहसिन ने पुलिसवालों को बैठाया. इंस्पेक्टर साहब शाहिद के फैन निकले. और ऐसी मीठी-मीठी बातें कीं कि उनका भी मूड ठीक होने लगा.
(जारी)

© अनन्या सिंह
#vss

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