Wednesday 24 March 2021

क्या विजेता के कैसे भी कर्म हर स्थिति में उचित ही होते हैं?

क्या विजेता के कैसे भी कर्म हर स्थिति में उचित ही होते हैं?
क्या भीड़ और बहुमत हमेशा ही सही होता है?
आइए बात करते हैं!

कौरवों के लिए द्रौपदी का चीर हरण न्याय सम्मत था? 
क्योंकि 
वे संख्या में अधिक थे और सत्ता में भी थे। 

और तो और जुए में जीत भी उनकी ही हुई थी। कैसे हुई थी इस पर बात करने का उनके पास अवकाश न था और पांडव परेशान थे। कम थे। पराजित भी।
सभी पांडव चुप थे, एक भीम को छोड़ कर।

उस चीर हरण पर राज्य प्रजा और रनिवास तक सब मौन थे। क्योंकि उनके महाराज धर्मराज ने द्रौपदी को वस्तु की तरह दांव पर लगाया था और दूसरे महाराज ने जीता था।

यानी भीड़ एक साथ थी। एकमत थी। इकट्ठी थी। इसलिए ठीक हो रहा था सब कुछ!

उस चीर हरण पर भीष्म द्रोण कृप सब चुप थे। अन्य बुजुर्ग कौरव सभासद मौन थे। हालाकि धृतराष्ट्र के दो पुत्र बिंदु और अनुविंदु या (विकर्ण) ने इसे गलत ठहराया। लेकिन उनकी सुनी न गई। क्योंकि वे दो ही बोल रहे थे। अट्ठानबे दुर्योधन के साथ थे। या कहें की द्रौपदी के खिलाफ थे।

विदुर भी विकल थे। लेकिन वे दासी पुत्र थे और निष्ठा संदिग्ध थी। लेकिन उनकी चिंता कैसे बेमानी हो गई। क्या सिर्फ इसलिए की वे अल्पमत की आवाज थे। एक पराजित और अकेली स्त्री की आवाज थे। 

तो सैकड़ों के सामने भीम विदुर विंदु अनुविंदु और खुद द्रौपदी गलत थे क्योंकि ये पांच ही थे। जो प्रश्न कर रहे थे। 

महान वीर कर्ण ने द्रौपदी को वैश्या पातुर और पुंशचली (छिनाल) कहा। क्योंकि उसके पांच पति थे। कर्ण ने उसमें एक दो और पति कर लेने की संभावना देखी। क्योंकि वह संख्या में अकेली और पराजित थी। 

दुर्योधन ने उसी राज सभा में द्रौपदी को अपनी जंघा पर बैठने के लिए कहा। दुर्योधन जहां तक अपनी जांघ नंगी कर सकता था किया। वह ऐसा कर सकता था क्योंकि वह जीत गया था। और द्रौपदी हारी हुई थी। 

क्योंकि दुर्योधन आदि के लिए पराजितों का कोई अधिकार नहीं होता। कम संख्या वालों का जीवन सम्मान अभिमान गौरव उनके लिए मायने नहीं रखता। 

फिर कर्ण के उकसावे पर दुर्योधन ने चीर हरण के लिए दुशासन को आदेश दिया। क्योंकि द्रौपदी जुए में हारी गई थी। पराजितों को अपमानित किया जा सकता है। यह ही कौरव नीति है। कौरव नीति विवेक नष्ट करती है। कौरव की जीत भी विवेक को पराजित करती है।

दुर्योधन का विवेक उसकी उस जीत ने नष्ट कर दिया था। जीत कर व्यक्ति विवेकहीन हो जाए यह बहुत प्रबल संभावना होती है। महाभारत इसकी गवाही बार बार देता है। महाभारत में जीत कर कंस हो जाता है व्यक्ति। वह अपने बुजुर्ग पिता को किनारे कर के गद्दी पर चढ़ बैठता है। लगातार जीत कर व्यक्ति जरासंध बन जाता है। कम शक्ति शाली राजाओं की बलि योजना पर काम करने लगता है वह। जीता हुआ अहंकारी व्यक्ति इंसान नहीं बनता हैवान हो जाता है। यह मैं नहीं महाभारत कह रहा है। 

वैसे घमंडी बड़बोले और क्रूर के साथ
विवेकहीन कौरव पहले से थे यह विवेकहीनता तब और प्रबल हुई जब वे विजई हुए। और मनमानी करने लगे। और उनकी मनमानी पर युग और समाज मौन रहा। तो क्या समाज के मौन या सहमति से अन्याय न्याय हो जाता है। क्या अपनी जीत से दुर्योधन यह का सकता है कि मैं द्रौपदी का दोषी नहीं। 

एक बहुत छोटा सा प्रश्न है की 
क्या हर हाल में विजेता की जीत सही होती है। क्या कौरवों का धर्म और उनके मान मूल्य भारत के मान मूल्य हैं आज। क्या विजेता हमेशा सही ही होता है। 

आप कल्पना करें कि कौरव कुरुक्षेत्र का युद्ध जीत जाते तो भी क्या वे द्रौपदी के अपराधी नहीं रह जाते। क्या प्रजा का मौन उसे दोष मुक्त कर देता। क्या नियम से जुए में हारी द्रौपदी का चीर हरण उचित था। क्योंकि वह विजेताओं द्वारा किया जा रहा कर्म था?

भारत में अभी भी सूर्य पृथ्वी के चक्कर लगाता है तो क्या विज्ञान असत्य है। पहलूखान हो या कल्बर्गी अनेक लोग उनकी हत्या को अपना समर्थन देते पाए जाएंगे तो क्या ये हत्यारे अपराधी नहीं हैं। क्योंकि उनको जन समर्थन है। 

अभिमन्यु को घेर कर मार दिया गया तो क्या उसको घेर कर मारने वाली भीड़ सही थी क्योंकि वह संख्या में अधिक थी। अठारह अक्षौहिणी में ११ कौरव और ७ पांडवों के पक्ष में थे। 

सीता को रावण लंका ले गया। लंका में उसका बहुमत था। लेकिन लोग प्रश्न करते रहे की यह कर्म तुमने गलत किया। अनेक लोगों ने उसे अनेक बार टोका की सीता का हरण एक गलत कर्म है। वह महा प्रतापी था। नहीं माना। उससे भी बड़ी बात यह है कि सिया के हरण पर लंका का बहुमत उसके साथ था। और भरी सभा में उसके सभासदों ने कहा कि मस्त रहो हम राम को देख लेंगे।

रावण के अभिमान में उसके अपने बल के साथ ही बहुमत और जनबल का अभिमान भी शामिल था। तो क्या रावण उचित था। उसके सभी कर्म उचित है। क्योंकि रावण उचित होगा तो ही शूर्पणखा भी उचित होगी। मारीच भी। लंका से संचालित राक्षसी अभियान भी।

एक सरल उदाहरण देता हूं। एक क्लास में चालीस विद्यार्थी हैं। ३५ एक साथ क्लास छोड़ कर सिनेमा चले जाते हैं। उस दिन की क्लास नहीं होती। तो क्या बाकी ५ विद्यार्थी सही नहीं रह जाते।

एक विश्व विख्यात उदारहरण ग्रीक इतिहास से भी मिलता है जो भीड़ तंत्र और लोक तंत्र के मर्म को समझने के लिए बहुत काम का है। 

एथेंस में सुकरात पर एक मुकदमा चला। उन पर आरोप था कि वे अपने विचारों से जनता को संविधान के रास्ते से भटका रहे हैं।  वहां भी लोकतंत्र था। सुकरात को २२० के मुकाबले २८१ मतों से अपराधी करार दिया गया और मौत की सज़ा सुनाई गई। 

यानी ६१ मतों से सुकरात और उनके विचारों को मौत के योग्य पाया गया और मारा भी गया। 

ज़हर का प्याला पीने के पहले सुकरात ने ६१ मतों से मिली पराजय को भीड़ से मिली पराजय की संज्ञा दी और कहा कि
"भीड़ न तो इंसान का भला कर सकती है, न अनभल | वह किसी आदमी को न तो विचारवान बना सकती है और न ही विचार रहित | भीड़ तो भीड़ की तरह मनमाने ढंग से काम करती है।

यानी एक भीड़ ने सुकरात की मोब लिंचिंग की। एक भीड़ ने संसार को नया विचार देने वाने सुकरात को निपटा दिया। 

बहुमत ने ब्रूनो को निपटाया। बहुमत ने गैलेलीयो को मौन रहने पर मजबूर किया। 

भीड़ तंत्र की विवेक हीनता पर एक छोटा किस्सा भी सुनाता हूं। १० सवार दिल्ली जा रहे थे। अकाल का समय था। कहीं कुछ खाने को नहीं दिख रहा था। एक मृत जानवर को खत्म करने में कुछ कौए दिखे। एक ने सुझाव दिया कौए खाए जाएं। ९ लोग सहमत हो गए। एक नहीं माना। उस एक ने ९ का साथ यह कह कर छोड़ दिया कि तुम सब भक्ष्य अभक्ष्य भूल कर जीवन जी रहे हो यह भविष्य के लिए खतरनाक संकेत है। 

कौआ खा कर सब आगे बढ़े। एक अकेले ने काफिले का साथ छोड़ दिया। वह अलग चलने लगा। आते जाते लोगों ने उसके अलग चलने का कारण पूछा। वह अकेला इसका कोई उत्तर दे की सब बोलते " हमने इसे अलग किया है क्योंकि इसने कौआ खाने का कुकर्म किया है"।

तो आप सब से निवेदन है भीड़ को ही सब कुछ न मान लें। एक वही बात सत्य नहीं जिसे बहुसंख्या बोल रही हो। आप कम हो रही आवाजों को भी सुनें। भीड़ में तब्दील होने से खुद को बचाएं साथ ही इस महान देश को एक 
भीड़ तंत्र का आहार हो जाने से भी बचाएं। यह आपका नागरिक कर्तव्य है। 

अपने यहां बुद्ध हमेशा भीड़ तंत्र के खिलाफ रहे। शाक्यों और कोलियों के बीच जल विवाद पर उन्होंने खुद को भीड़ के खिलाफ खड़ा किया और उसी मार्ग पर आगे गए। 

मेरा निवेदन है कि आने वाले दिनों में गत पांच सालों की भांति यह भीड़ एक तंत्र बन कर आपके रास्ते में अनेक तरह से आने वाली है। आगे बोलना लिखना कहना प्रश्न उठाना अंगुली दिखाना सब बहुत भारी होने जा रहा है। क्योंकि जयी लोगों को प्रश्न नहीं मन की बात करनी है। मन की करनी है। 

आप लोगों का मंगल हो
मिलते रहेंगे। कुछ न कुछ कहेंगे। बाकी जो है सो है। 

विजेता पक्ष को बधाई।

बोधिसत्व, मुंबई
( Bodhi Satwa )

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