Thursday 11 March 2021

किसान आंदोलन 2020 - कुछ छोटी लेकिन महत्‍वपूर्ण बातें - 3 - क्या मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन फासीवाद-विरोधी आन्दोलन है ?

जिन कुलकवादी-कौमवादी “कम्युनिस्टों” को मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन का समर्थन करने के लिए और कुछ भी समझ नहीं आ रहा है उनका तर्क है यह आन्दोलन चूंकि मोदी सरकार के लिए एक चुनौती बन गया है, इसलिए हमें इसका समर्थन करना चाहिए। इन लोगों के अनुसार, यह आन्दोलन ठीक इसी वजह से एक फासीवाद-विरोधी आन्दोलन है।

पहली बात तो यह है कि सिर्फ मोदी सरकार का विरोध करने के कारण कोई शक्ति या कोई आन्दोलन फासीवाद-विरोधी हो जाता है तो शिवसेना और महाराष्ट्र के महागठबन्धन को भी फिलहाल फासीवाद-विरोधी क्यों न मान लिया जाय? महाराष्ट्र में शिवसेना फिलहाल भाजपा के लिए निस्सन्देह एक चुनौती है। उसी प्रकार तेजस्वी यादव से बिहार में हाथ मिला लेना चाहिए। संशोधनवादियों ने तो मिला ही लिया था, तमाम अन्य मार्क्सवादी-लेनिनवादी कम्युनिस्टों को भी मिला लेना चाहिए था! यह पूरा तर्क ''कम बुरे को चुनने'' के तर्क से पैदा हो रहा है।

दूसरी बात, धनी किसानों-कुलकों का आन्दोलन आज मोदी सरकार के लिए एक स्तर पर अवश्य चुनौती बन गया है, लेकिन इसकी वजह यह है कि यह शासक वर्ग के ही राजनीतिक व सामाजिक रूप से एक शक्तिशाली धड़े द्वारा किया जा रहा आन्दोलन है। हज़ारों ट्रैक्टरों, छह माह के राशन के साथ धनी किसान-कुलक दिल्ली के बॉर्डर पर पिछले डेढ़ माह से मौजूद हैं। इसके समर्थन में भाजपा का छोड़कर अन्य सभी पूंजीवादी पार्टियां हैं, एक मंत्री इस्तीफा दे चुकी है, दो दल समर्थन वापस ले चुके हैं, अतिधनाढ्य पंजाबी पॉप स्टार जैसे सिद्धू मूसेवाला, जैज़ी बी, दिलजीत दुसांझ आदि इसके समर्थन में आ चुके हैं, कनाडा और अमेरिका से एनआरआई करोड़ों रुपये चन्दा भेज चुके हैं, कई बॉलीवुड स्टार इसके समर्थन में आ गये हैं! कई बार लक्षणों से भी किसी आन्दोलन का वर्ग चरित्र पता चलता है। क्या आपको याद है कि आम मेहनतकश जनता के किसी आन्दोलन में कभी ऐसा हुआ है? तूतीकोरिन में गोली काण्ड पर क्या किसी मन्त्री ने इस्तीफ़ा दिया था? ग्वालियर मज़दूर गोली काण्ड पर क्या पूंजीवादी दलों ने समर्थन वापस लिये थे? मारूति के मज़दूरों के समर्थन में क्या कोई पॉप स्टार या बॉलीवुड की हस्ती आई थी? अभी हाल ही में बंगलुरू की आईफोन फैक्ट्री में मज़दूरों की बग़ावत के समर्थन में कभी कोई नेता-मंत्री आया? नहीं! जिस वर्ग का यह आन्दोलन है, उसके लिए मज़दूरों के मुकाबले यह कहीं ज़्यादा आसान है कि वह छह महीने राशन-पानी के साथ दिल्ली के बॉर्डर पर घेरा डाल सके, क्योंकि उसके पास उजरती मज़दूरी की लूट के आधार पर ही भारी पूंजी संचय है। शासक वर्ग के आपसी अन्‍तरविरोधों के फलस्‍वरूप जो आन्‍दोलन होते हैं, उसमें भी कई बार व्‍यक्तिगत वीरता की मिसालें कायम होती हैं, बहादुरी के उदाहरण पेश होते हैं, लोग मारे भी जाते हैं। कोई यह सोचता है कि वर्ग युद्ध में व्‍यक्तिगत वीरता, बहादुरी और शहादत पर केवल क्रान्तिकारी वर्गों का एकाधिकार है, तो न तो वह व्‍यक्ति इतिहास से वाकिफ है और न ही विज्ञान से। बहरहाल, मज़दूरों को कोई लम्बी हड़ताल भी चलानी होती है तो उन्हें कुछ माह की तैयारी करनी पड़ती है क्योंकि वे रोज़ कुआं खोदते और रोज़ पानी पीते हैं। केवल तब जाकर वह सरकार या किसी बड़े नियोक्ता/कम्पनी के लिए चुनौती बन पाते हैं। मौजूदा अन्तरविरोध शासक पूंजीपति वर्ग के दो धड़ों के बीच है: ग्रामीण पूंजीपति वर्ग और बड़ा इजारेदार औद्योगिक-वित्तीय पूंजीपति वर्ग। यही सच है, चाहे किसी को अच्छा लगे या बुरा।

तीसरी बात, दो ठोस उदाहरणों से समझें कि मौजूदा आन्दोलन कोई फासीवाद-विरोधी आन्दोलन नहीं है। 10 दिसम्बर को अन्तरराष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस था। वामपंथी रुझान वाले नेतृत्व की एक यूनियन बीकेयू (एकता उग्राहां) ने इस दिन को किसान आन्दोलन में भी राजनीतिक बन्दियों की मुक्ति की मांग उठाने को समर्पित करने का फैसला किया। यह बिल्कुल सही जनवादी कदम था। इसके तौर पर इस यूनियन ने उमर ख़ालिद, वरवर राव, जी.एन. साईबाबा, वर्नोन गोंजाल्वेस, सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा जैसे राजनीतिक कैदियों के प्रति जारी अत्याचार को बन्द करने की मांग उठाई, इन कैदियों की तस्वीरों के साथ प्रदर्शन किया। लेकिन बीकेयू (एकता उग्राहां) के नेतृत्व के इस सही कदम और फैसले का तत्काल बाकी 32 यूनियनों और उनके नेतृत्व ने विरोध किया। उन्होंने एक बयान जारी करके कहा कि एकता उग्राहां द्वारा इस आन्दोलन को राजनीतिक हितों के लिए इस्तेमाल न किया जाय, यह आन्दोलन पूरी तरह से कृषि कानूनों की वापसी और एमएसपी पर केन्द्रित है और फजूल के राजनीतिक मसले उठाकर इसका ध्यान भटकाया न जाय। कोई भी फासीवाद-विरोधी ही नहीं बल्कि आम तौर पर जनवादी आन्दोलन इस मांग को अवश्य उठाता। लेकिन यहां पर जब एक यूनियन ने यह मांग उठाई भी तो बाकी सभी यूनियनों ने इससे किनारा कर लिया और एकता उग्राहां के नेतृत्व को भी बैकफुट पर जाकर बयान देकर यह मानना पड़ा कि 'हां, आन्दोलन का मुख्य मुद्दा तो एमएसपी ही है।'

दूसरी घटना भी दिखलाती है कि मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन पूरी तरह से ग्रामीण बुर्जुआजी की एक आर्थिक मांग यानी एमएसपी पर केन्द्रित है और उसे अन्य मसलों से कोई विशेष सरोकार नहीं है। जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्रों का एक समूह दिल्ली के यूपी बॉर्डर पर बैठे किसानों के समर्थन में वहां गया, तो वहां मौजूद किसानों ने पुलिस से जाकर शिकायत कर दी और कहा कि वे नहीं चाहते कि जामिया के छात्र यहां समर्थन करने आएं। वजह क्या थी? जामिया मिल्लिया इस्लामिया की पूरी छवि मोदी की फासीवादी सरकार ने आतंकवाद और इस्लामिक कट्टरपंथ के अड्डे के तौर पर और देशद्रोहियों के ठिकाने के तौर पर बनाई थी। इन धनी किसानों को मोदी सरकार द्वारा जामिया को इस प्रकार निशाना बनाए जाने का विरोध करना तो दूर वहां से आए छात्रों का समर्थन स्वीकार करना भी गवांरा नहीं था, क्योंकि उन्हें लगता था कि उनका मूल मुद्दा किनारे हो जाएगा और उनके आन्दोलन की छवि ख़राब हो जाएगी।

निश्चय ही ये किसी फासीवाद-विरोधी आन्दोलन की विशिष्टताएं नहीं थीं! किसानों ने बार-बार खुद भी स्पष्ट किया है कि वे बस एमएसपी की व्यवस्था को कानूनी अधिकार बनाना चाहते हैं और यदि सरकार का कहना सही है कि पहले दो कानूनों से लाभकारी मूल्य की व्यवस्था पर कोई ख़तरा नहीं है, तो बस सरकार हमें एक चौथा कानून दे दे जो कि एमएसपी पर ख़रीद को सरकार और निजी खरीदारों, दोनों के लिए ही एक बाध्यता बना दे। जब तक मोदी सरकार लाभकारी मूल्य को लगातार बढ़ा रही थी, तब भी धनी किसानों-कुलकों के वर्ग को मोदी सरकार के फासीवादी चरित्र से कोई परेशानी नहीं थी। उल्टे चावल पर लाभकारी मूल्य में भारी बढ़ोत्तरी के लिए कई यूनियनों ने मोदी सरकार को धन्यवाद भी दिया था।

लुब्बेलुबाब यह कि आज भी मोदी सरकार यदि एमएसपी को कानूनी अधिकार बनाना स्वीकार कर ले तो यह आन्दोलन तत्काल समाप्त हो जाएगा क्योंकि उससे ज़्यादा इसकी कोई मांग ही नहीं है। न तो यह अपने चरित्र और प्रकृति से फासीवाद-विरोधी है और न ही कारपोरेट-विरोधी, यदि हर स्थिति में उसे एमएसपी मिलता रहे। सच्चाई तो यही है। लेकिन पराजयबोध और निराशा-हताशा के शिकार तमाम कम्युनिस्टों को भी लग रहा है कि यह फासीवाद-विरोधी आन्दोलन है! चूंकि फिलहाल मज़दूर वर्ग की ताक़तें इतनी गोलबन्द और संगठित नहीं हैं, उनके बीच एक मज़बूत और सूझबूझ वाला राजनीतिक नेतृत्व नहीं खड़ा है, चूंकि मज़दूर आन्दोलन की शक्तियां बिखरी हुई हैं, इसलिए मज़दूर वर्ग तत्काल कोई बड़ा आन्दोलन या चुनौती मोदी सरकार के समक्ष नहीं खड़ा कर सकता है। मध्यवर्गीय जल्दबाज़ी और रूमानीवाद और साथ ही निराशावाद और पराजयवाद से एक साथ लैस टुटपुंजिया ''कम्युनिस्ट'' क्रान्तिकारी जैसे नरोदवादी, कौमवादी, कुलकवादी ''कम्युनिस्ट'' बहती गंगा में हाथ धोने के लिए व्याकुल हो उठे हैं। जबकि विशेष तौर पर इस समय कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों का काम था कि कारपोरेट पूंजी के विरुद्ध ग़रीब किसानों, निम्न मंझोले किसानों, खेतिहर मज़दूर आबादी और साथ ही शहरी मज़दूर आबादी को उनकी साझा मांगों पर जागृत, गोलबन्द और संगठित करना और आम तौर पर पूंजीवादी लूट और शोषण के विरुद्ध व्यापक मेहनतकश ग़रीब आबादी को संगठित करना, चाहे वह ग्रामीण पूंजीपति वर्ग के हाथों हो या फिर कारपोरेट पूंजीपति वर्ग के हाथों। केवल तभी शासक वर्ग के इन दो धड़ों के बीच के अन्तरविरोधों का सर्वहारा वर्ग और उसके मित्र वर्गों (ग़रीब व निम्न मंझोले किसानों, निम्न मध्य वर्गों) के हितों के फ़ायदे के मुताबिक तीख़ा भी बनाया जा सकता था। लेकिन अफ़सोस है कि मौजूदा आन्दोलन के आकार और आक्रामकता को देखकर कई पढ़े-लिखे कम्युनिस्ट भी एक बेहद बुनियादी चीज़ को भूल गये हैं: राजनीतिक वर्ग विश्लेषण।

अनुभव सिन्हा 
( Anubhav Sinha )

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