Friday 12 March 2021

श्रीमंत अतुल्य और अपराजेयपेशवा बाजीराव प्रथम - पहला अध्याय

18 अगस्त ई. 1700 विक्रम संवत 1757
मराठा साम्राज्य और भारत भूमि के नये सूरज का उदय...

तो फिर....कहानी यहां से..."फिर" शुरू होती है....3 मार्च 1700 ई. सिंहगढ़ (कोंढाना) का क़िला, रात के आखरी पहर, छत्रपती राजाराम महाराज(छत्रपती शिवाजी महाराज के दूसरे पुत्र) आख़री सांस लेने से पहले तारारानी(पत्नी) से अपनी अंतिम इच्छा ज़ाहिर करते हैं, कि उनके बाद स्वराज का केसरिया ध्वज छत्रपती संभाजी महाराज(शम्भूराजे) के पुत्र "शाहूजी" के हाथों मे होना चाहिए, क्योंकि वही उत्तराधिकारी हैं। बस इतना कहा और राजाराम भी चल बसे। उस वक़्त उनके कमरे में सिर्फ तारारानी और सेनापती धनाजी जाधाव ही मौजूद थे, जिन्हें उनकी अंतिम इच्छा की जानकारी थी। 

तारारानी बाहर दरबार मे आती हैं और सभी मराठा सरदारों के सामने महाराज की मृत्यु और अंतिम इच्छा का ऐलान करते हुए बताती हैं कि अब से मराठा साम्राज्य के नए छत्रपती उनके बेटे शिवाजी द्वितीय होंगे। उनके शब्द सुन कर धनाजी जाधव अवाक रह जाते हैं। सभी सरदार भी इस घोषणा से हैरत में हैं, क्योंकि छत्रपती राजाराम तो जीतेजी भी खुद को शाहूजी का प्रतिनिधि मात्र मानते थे और शिवाजी द्वितीय तो अभी सिर्फ चार बरस के हैं। धनाजी जाधव धीरे से तारारानी से कहते हैं कि, ये तो महाराज की अंतिम इच्छा नहीं थी ? और सभी सरदार भी शाहूजी के इंतज़ार में हैं। तारारानी धनाजी से कहती हैं कि शाहू ज़िंदा भी हैं कि नहीं, इस बात की कोई ख़बर नहीं है...और इस वक़्त जो औरंगज़ेब की क़ैद में है, वो असली ना होकर कोई नकली हुआ तो ?....

ज़ाहिर है कि तारारानी अपने चार साल के बेटे शिवाजी द्वितीय को गद्दी पर बैठा कर सत्ता पूरी तरह से अपने हाथों मे रखना चाहती थीं। हालांकि महारानी ताराबाई एक बहुत ही ऊर्जावान, बुद्धि में तेज़ और बहादुर महिला थीं, लेकिन सवाल सिर्फ किसी छोटे से राज्य को चलाने का नहीं था, बल्कि स्वराज स्थापित करने का था। तारारानी ने मराठा सरदारों को राजाराम महाराज की अंतिम इच्छा का हवाला देकर खुद की इच्छा तो स्थापित कर ली, लेकिन मराठा सरसेनापती धनाजी जाधव के मन में ये टीस शूल की भांति चुभ गई। उन्होंने उस चुभन का एहसास किसी को नहीं होने दिया, सिवाए एक के...वो व्यक्ति जो धनाजी के सब से क़रीबी और भरोसेमंद अधिकारी थे और उनके लिए कर वसूली का काम देखते थे। उस भरोसेमंद व्यक्ति ने ही धनाजी को सुझाया, कि किसी को गुपचुप मुहीम पे भेज कर शाहूजी और महारानी यसुबाई(शंभुराजे की पत्नी और शाहू की मां) की वास्तविक स्थति की जानकारी जुटाई जाए।

यहां ये जानना ज़रूरी हो जाता है कि 1689 में छत्रपती शिवाजी महाराज के बड़े पुत्र छत्रपती संभाजी महाराज की निर्मम हत्या के बाद औरंगज़ेब ने महारानी यसुबाई और किशोर शाहूजी के साथ-साथ कुछ मराठों को क़ैद कर लिया था। औरंगज़ेब ये जानता था कि जब तक शाहूजी क़ैद में हैं, मराठे उसके हाथों में रहेंगे, वरना रेत की तरह फिसलने में वक़्त नहीं लगेगा... और अगर शाहूजी को मार दिया, तो मराठे मर कर भी नहीं हटने वाले। 

अब इतना खतातनाक काम करना है कि औरंगज़ेब के ख़ेमे में जाकर उसकी नाक के नीचे से शाहू जी की जानकारी जुटाना है और सिर्फ जुटाना नहीं है, बल्कि ये भी निश्चित करना है कि "ये शाहू" असली हैं या नकली, मगर...ये काम करेगा कौन?...हालांकि मराठों में मौत का ख़ौफ़ नहीं था। कोई भी मराठा अपने छत्रपती के लिए सर पर कफन बांधने को अपना सौभाग्य समझता, लेकिन... काम सिर्फ इतना नहीं था। किसी जांबाज़ के लिए लड़ कर मौत को गले लगाना फिर भी आसान होता है, लेकिन मौत के मुंह से तमाम जानकारियां जुटा कर वापस लौटना नामुमकिन जैसा ही है। तो इस काम के लिए धनाजी जाधव ने जब अपने उस क़रीबी और भरोसेमंद अधिकारी से सवाल किया कि "कौन" तो जवाब मिला... "मैं"... स्वयं..."बालाजी विश्वनाथ भट्ट"...।

कोंकण के चितपावन कुल के इस ब्राह्मण की बात सुन कर धनाजी जाधव के चेहरे पर जो भाव थे, वो बता रहे थे कि काम सौ फीसद हो जाएगा, क्योंकि वे बालाजी को अच्छी तरह जानते थे, कि बालाजी विश्वनाथ भट्ट सिर्फ बहादुर या ईमानदार नहीं हैं, बल्कि उनके पास बुद्धि भी है और तलवार में धार भी और दोनों एक साथ चलती हैं। उनके बीच ये बातें पुणे और सिंहगढ़ से बहुत दूर नासिक के पास एक छोटे से गांव में हो रही हैं और गांव का नाम है "डुबेरे"। बालाजी की जीवन संगिनी(पत्नी) राधाबाई के मायके का उपनाम बर्वे है। बर्वे परिवार भी कोंकण से ही है, लेकिन निर्वाह के लिए मल्हार दाजी बर्वे(राधाबाई के बड़े भाई) कोकण से घाटा आये थे और फिर ताराबाई ने बर्वे को डुबेरे गांव में ज़मीन इनाम में दी थी। मल्हारबा बर्वे ने उस समय यहां एक वाड़ा भी बनवाया था।

ई. 1700 की जून की उस रात बहुत तेज़ बारिश हो रही थी जब डुबेरे के उस वाड़े में धनाजी जाधव और बालाजी के बीच ये गुप्त मुलाक़ात हुई। जाधव के रवाना होते ही बालाजी ने अपना सामान बांध लिया। उनकी गर्भवती पत्नी राधाबाई ने सामान बांधते वक़्त सुबह होते ही रवाना होने की बात की तो बालाजी विश्वनाथ ने कहा- "अगर सुबह के सूरज का इंतज़ार किया तो स्वराज के सूरज का इंतज़ार बहुत लंबा हो जाएगा"। वे निकल पड़े उस ख़तरनाक मुहीम पर, जहां से वापस भी आएंगे या नहीं, इसकी कोई ज़मानत नहीं दे सकता था। दूसरी तरफ थी राधा बाई जिनके गर्भ में था "स्वराज का भविष्य"...।

बालाजी विश्वनाथ भट्ट भेस बदल के अहमदनगर के पास न सिर्फ औरंगज़ेब के ख़ेमे तक पहुंचने में कामियाब हुए, बल्कि अपनी बुद्धि से मुग़ल ख़ेमे में नोकरी भी हासिल कर ली। कुछ दिनों के परिश्रम, प्रयास और निगरानी के बाद वो लम्हा आता है, जिसके लिए बालाजी इस खतरनाक योजना पर काम कर रहे थे। एक रात उनकी मुलाक़ात शाहू महाराज और महारानी यसुबाई से होती है। यसुबाई का वहां होना इस बात को निश्चित करता है कि वहां जो शाहूजी हैं, वे ही शाहू जी हैं....असली शाहू जी...शम्भूराजे के पुत्र और स्वराज के उत्तराधिकारी....और मराठा साम्राज्य के अगले "छत्रपती" शाहू जी महाराज। बालाजी शाहू को सिंहगढ़ की पूरी जानकारी देते हैं और बताते हैं कि वे किसलिए भेस बदल कर यहां तक पहुंचे हैं। शाहू उन्हें बताते हैं कि औरंगज़ेब के ख़ेमे में उन्हें और मां साहेब को पूरी इज़्ज़त और शान के साथ रखा जाता है। उनके साथ कैदियों जैसा कोई व्यवहार नहीं किया जाता। बस वे नज़रबंदी में रहते हैं और औरंगज़ेब की बेटी मुग़ल शहज़ादी उनका पूरा ध्यान खुद रखती हैं। शाहू जी बालाजीविश्वनाथ को अपनी निशानी के तौर पर एक अंगूठी भी देते हैं। उधर डुबेरे में बालाजी का इंतज़ार हो रहा है, साथ ही उनके सकुशल मुग़ल ख़ेमे से लौटने के लिए प्रार्थना भी।

19 फरवरी 1630 के दिन स्वराज की नींव रखने वाले महान राजा छत्रपती शिवाजी महाराज का जन्म शिवनेरी के किले में हुआ था, जो हमेशा याद रखने वाला दिन है लेकिन, विक्रम संवत 1757 यानी 1700 ई. का 18 अगस्त का दिन भी भारत के इतिहास में उतना ही महत्व रखता है, क्योंकि इस दिन की सुबह जो सूरज निकला, वो अकेले नहीं निकला....उस के साथ उदय हुआ हिंदवी स्वराज का भविष्य तय करने वाला सूरज....ईश्वर ने बालाजीविश्वनाथ भट्ट, राधाबाई और मराठा साम्राज्य को जो उपहार दिया, वो कोई मामूली उपहार नहीं था। वो गर्जना थी स्वराज के फैलाव की, वो किलकारी के रूप में एक जयघोष था, क्योंकि जो आवाज़ डुबेरे के उस वाड़े में अब गूंज रही थी, वो आवाज़ थी मराठा साम्राज्य के सबसे प्रतिभाशाली, ऊर्जावान, महापराक्रमी, निर्भिक, सफल और अजेय योद्धा की....जी हां...वो आवाज़ थी श्रीमंत पेशवा बाजीराव बल्लाल भट्ट प्रथम की। 

एक तरफ ये किलकारी गूंज रही थी, दूसरी तरफ बालाजीविश्वनाथ भट्ट औरंगज़ेब को और मुग़लिया फ़ौज को छका कर वापस डुबेरे लौट रहे थे। मानो उन्हें पहले से पता हो कि उनके पीछे मराठा साम्राज्य के भविष्य ने आंखें खोल ली हैं। वे जब डुबेरे पहुंचे तो शंख और नगाड़ों के उद्घोष के बीच उनका स्वागत हुआ। उनके स्वागत में धनाजी जाधव पहले से ही डुबेरे पहुंच गए थे। इस दिन बालाजीविश्वनाथ की खुशी का ठिकाना नहीं था। खुशी सिर्फ इसलिए नहीं थी कि वे अपने मक़सद में कामियाब होकर लौटे हैं या शाहूजी महाराज सकुशल हैं या ईश्वर ने उन्हें पुत्र के रूप में वरदान दिया है, बल्कि जैसे उन्हें आभास हो गया हो कि आगे मराठा साम्राज्य और हिंदवी स्वराज क्या दिन देखने वाला है। बाजीराव बल्लाल भट्ट के रूप में 18वीं सदी का वो पहला साल भारत भूमी के लिए एक वरदान साबित हुआ। 

नूह आलम 
( Nooh Alam )

नोट- बाजीराव की जन्मस्थली डुबेरे के बारे में जानकारी-

डुबेरे गाँव नाशिक से 35 किलोमीटर सिन्नर के पास स्थित है और नाशिक मेन रोड से 10 किलोमीटर अंदर है। इसी डुबेरे गाँव मे 18 अगस्त 1700 ई. को मराठा साम्राज्य के सबसे सफल पेशवा श्रीमंत बाजीराव प्रथम का जन्म हुआ। आज भी बर्वे कुटुंब इसी बाड़े में रहता है और इस बाड़े का संरक्षण सम्मानपूर्वक कर रहा है, जो एक बड़ी बात है। बाड़े में जहाँ बाजीराव का जन्म हुआ था, वो कमरा और वो पलंग आज भी सुरक्षित है। अभी बाड़े में श्री जयंत बर्वे , प्रो चंद्रशेखर बर्वे, वकील श्री सुहास बर्वे और उनकी पत्नी रहते हैं । बाड़े में आज भी प्राचीन वस्तुएं सम्भालकर रखी गई हैं। बर्वे कुटुंब बड़े गर्व से बाड़े और गाँव के बारे में बताते है और आने वालों का आदर सत्कार भी करते हैं। गांव में सतवाई देवी का मंदिर भी है। बर्वे कुल की एक पीढ़ी में पुत्र नहीं होने पर स्वप्न में देखे गए दृष्टांत के अनुसार उन्होंने यह मंदिर बनवाया था। यह डुबेरे गढ़ एक छोटे से किले के जैसा है। मराठा साम्राज्य का डंका पूरे देश में बजाने वाले ऐसे महापराक्रमी बाजीराव पेशवा के जन्म स्थान के बारे में बहुत सारे लोग नहीं जानते हैं, इसलिए जानकारी हेतु उक्त "नोट" लिखा गया है। धन्यवाद।

यह एक लंबी सीरीज होगी लेकिन अधूरी। यह सीरीज मित्र नूह आलम ने लिखना शुरू किया था, पर दुर्भाग्य से उनका आकस्मिक निधन अभी हाल ही में हो गया। जहां तक वे लिख पाए हैं, वहां तक मैं इसे शेयर करूँगा। नूह का आकस्मिक निधन मेरे लिये बेहद दुःखद है और यह मेरी निजी क्षति भी है। यह सीरीज उनकी स्मृति में है। 

( विजय शंकर सिंह )

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