Thursday 27 June 2019

गिरोहबंद पूंजीवाद की ओर बढ़ता अर्थतंत्र अराजकता में बदल जाता है / विजय शंकर सिंह

न्यू इंडिया सामाजिक सद्भाव ही नहीं, विकास की भी एक नई इबारत लिख रहा है। सद्भाव बना रहे इस मुहिम में अब जय श्रीराम भी शामिल हो गये हैं। विकास की इबारत में सारी सरकारी कम्पनियों को चहेते पूंजीपतियों को बेच दिए जाने की योजना नीति आयोग की है। आगोग ने चहेता शब्द नहीं प्रयोग किया है बल्कि यह शब्द मैंने जोड़ा। न्यू इंडिया में रोजगार, अर्थ व्यवस्था, आदि की क्या दशा होगी यह बजट आये तो पता चले। फिलहाल तो आरबीआई के गवर्नर ने ही यह कह दिया है कि आर्थिक स्थिति विकट है। पर सरकार को बदनाम करना उचित नहीं है।

सिर्फ एक उद्योगपति और उसकी टेलीकॉम कंपनी  के लिये सरकार ने अपनी प्रतिष्ठित और लाभांश देने वाली टेलीकॉम कम्पनी बीएसएनएल को पिछले पांच साल में इस हालत में पहुंचा दिया कि उसे अपने कर्मचारियों को वेतन देने के लाले पड़ गए।

वह उद्योगपति हैं, मुकेश अंबानी और उसकी कम्पनी है जिओ। जिसके उद्घाटन पर जिओ ने प्रधानमंत्री की फ़ोटो का बिना उनकी अनुमति के प्रचार के लिये विज्ञापन में छापा और 500 रुपये का अर्थदंड भी भुगता। सरकार ने जिओ को 4 G का लाइसेस दिया जो आज तक बीएसएनएल को नहीं मिल पाया है। अब सरकार कह रही है कि प्रतियोगिता में सरकारी कंपनी पिछड़ गयी। सरकार किसी भी प्रतियोगिता में अपने चहेते पूंजीपतियों के साथ है न कि जनता की कम्पनियों के साथ।

सिर्फ एक उद्योगपति के लिये सरकार ने अपनी लाभ कमाती विमान निर्माण की कम्पनी एचएएल को बैठाने का उपक्रम कर दिया। सिर्फ उक्त उद्योगपति को लाभ पहुंचाने के लिये, राफेल विमान का तयशुदा समझौता रद्द कर महंगी दर और कम संख्या में विमानों की खरीद का नया समझौता फ्रांस की दसाल्ट कम्पनी से किया, और यह भी पहलीं बार है कि उसमे न तो सावरेन गारंटी ली गई और न ही भ्रष्टाचार से जुड़े जांच के प्राविधान रखे गए, और जो पिछले समझौते में थे, वह भी हटा दिए गये। 

वे उद्योगपति हैं, अनिल अंबानी जिनके पास ऑफसेट ठेका मिलने तक विमान से जुड़े काम करने के लिये ज़मीन भी नहीं थी। फिर भी उन्होंने 15 दिन पहले कंपनी बनायी और 60 साल की विमान निर्माण में अनुभवी कंपनी को धकेल कर राज कृपा से ठेका हथिया लिया। अब एचएएल जो 2016 तक लाभ देती रही, वह भी घाटे में जाने लगी।

अनिल अंबानी वही हैं जो अभी अभी एरिक्सन कंपनी का धन न चुका देने के कारण, जेल जाने से बाल बाल बचे थे। अभी चीन का कर्ज उनके ऊपर है ही। अब इसे क्या कहिएगा, एक डिफाल्टर उद्योगपति को जो कोई भी प्रोजेक्ट ढंग से चला नहीं पाया, केवल गड्ढे से उबारने के लिये सरकार अपनी ही कंपनी को गड्ढे में ढकेलने जा रही है।

सिर्फ एक उद्योगपति को अनुचित लाभ पहुंचाने के लिये छत्तीसगढ़ के जंगल काटे जा रहे है, आदिवासी समाज का उत्पीड़न किया जा रहा है, और पर्यावरण के जानकार  लोगों की राय दरकिनार कर दी जा रही है।

वह उद्योगपति हैं, गौतम अदाणी। छत्तीसगढ़ में जंगल और ज़मीन की संस्थागत लूट जारी है। ये वही अडानी हैं जिनके खिलाफ ऑस्ट्रेलिया में कोयले की खान को लेकर जनाक्रोश भड़का है। यह वही कोयला की खानों का मामला है, जिसके लिये स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने अरबो रुपये का ऋण दिया। ऋण स्वीकृत करने वाली सीएमडी अब रिलायंस में सुख पूर्वक जीवन जी रही हैं।

सिर्फ एक उद्योगपति का एहसान चुकाने के लिये सरकार ने देश के 5 हवाई अड्डों को प्रबंधन के लिये सौंप दिया, जबकि उनके प्रबंधन में कोई कमी नहीं बतायी गयी थी।

यह उद्योग समूह है, अडानी समूह । जिसे अगले 50 सालों के लिए देश के पांच हवाईअड्डों ( अहमदाबाद, तिरुअनंतपुरम, लखनऊ, जयपुर और मैंगलोर ) के संचालन की जिम्मेदारी मिली है। एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एएआई) ने 6 हवाईअड्डों के निजीकरण के लिए नीलामी रखी थी। एक अधिकारी ने बताया कि नीलामी प्रक्रिया में अडानी ग्रुप ने पांच एयरपोर्ट के लिए सबसे ज्यादा बोली लगाई। यह निजीकरण का बुखार है जो देश की सारी आर्थिक उन्नति का राज निजीकरण में ही पाता है।

इन पूंजीपतियों ने 2014 से 2019 के बीच बैंकों के साथ क्या किया है इसे जानने के लिये संसद में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का यह सवाल जवाब आप पढ़ सकते हैं,
' एक सवाल के जवाब में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने देश मे बढ़ रहे विलफुल डिफाल्टर की जानकारी रखी। जिसके अनुसार, सरकार के 2014 से 2019 के कार्यकाल में देश में विलफुल डिफॉल्टर ( जानबूझकर कर्ज़ न चुकाने वाले ) की संख्या में करीब 60 फीसदी की बढ़त हुई है। वित्त वर्ष 2014-15 के अंत में देश में विलफुल डिफॉल्टर्स की संख्या 5,349 थी, लेकिन वित्त वर्ष 2018-19 के अंत यानी गत मार्च तक यह संख्या बढ़कर 8,582 तक पहुंच गई। "
सरकार इन कर्जखोर पूंजीपतियों के खिलाफ क्या कार्यवाही कर रही है यह वित्त मंत्री ने नहीं बताया।

अक्सर सरकारी कम्पनियों पर कुप्रबंधन का आरोप लगता है। पर जब प्रबंधन सरकार का ही है तो इस कु की जांच हो और यह कु प्रत्यय हटे यह भी सरकार की जिम्मेदारी है। हर साल इन कम्पनियों की बैलेंस शीट आती है। ऑडिट होती है। अगर घाटे में है तो क्यों है और किसकी वजह से है इसकी जिम्मेदारी तय कर उसे दंडित क्यों नहीं किया जाता है ?

पर ऐसा होता नहीं है। ऐसा लगता है सरकार इस इंतज़ार में बैठी रहती है कि कब जनता की कम्पनियां घाटे के दलदल में फंसे और कब उन्हें बेच बाच कर गंगा नहाये।

अब खबर आ रही है कि शताब्दी औऱ राजधानी ट्रेनें निजी क्षेत्र में जाएंगी। यह लाभ कमाने वाली ट्रेनें हैं। इनके लिये कोई भी पूंजीपति सांमने आ जायेगा और यह तर्क देगा कि वह इन्हें बेहतर ढंग से चलाएगा। अगर बेहतर ढंग से चलाने का माद्दा और नीयत है तो वह बनारस भटनी पैसेंजर क्यों नहीं चलाता, जिसमे तो और भी साधारण लोग यात्रा करते हैं।

यही बात प्रफुल्ल पटेल जब नागरिक उड्डयन मंत्री थे तो उन्होंने ने भी की थीं। जो लाभदायक एयर रूट थे उन पर बेहतर यात्री उपलब्धता के समय स्लॉट में निजी एयर कम्पनियों, सहारा, किंग फिशर, और जेट को अवसर दिया और एयर इंडिया की उपेक्षा की। परिणाम, एयर इंडिया भी ऑन सेल हो गयी है।

पूंजीवाद जब अधिक विकृत होता है तो वह गिरोहबंद पूंजीवाद क्रोनी कैपिटलिज़्म में बदलने लगता है। यह सत्ता और पूंजीपति का गठजोड़ नहीं, बल्कि उससे आगे बढ़ कर  एकीकृत औऱ समस्त लोकतांत्रिक परंपराओं को धता बता कर एकाधिकारवादी होती हुई सत्ता का चुनिंदा पूंजीपतियों के साथ गठजोड़ हो जाता है। यह स्थिति एक गिरोह का रूप ले लेती है। यही धीरे धीरे हो रहा है।

एक एनआरआई जो खनन उद्योग में हैं सरकार के साथ मीटिंग में यह राय देता है कि सरकार व्यापार करने के लिये नहीं बनी है। वह यह कभी नहीं कहेगा कि पूंजीपति केवल लाभ के लिये ही कंपनी नहीं चलाते हैं। उसे अपनी कम्पनी का लाभ चाहिये चाहे कितने भी कल्याणकारी कानूनों को तोड़ना पड़े।

गिरोहबंद पूंजीवाद में पूंजी का प्रवाह कुछ लोगों के हांथो में सिमटता जाता है। और देश मे पूंजी का यह एकत्रीकरण जनता को अमीर गरीब की एक बडी खाई में बांट देता है। इसका परिणाम, जनता में असंतोष भड़कता है। सत्ता और पूंजीपतियों का गठजोड़ इस असंतोष की संभावना से वाकिफ रहता है। अब उस असंतोष को, जो अभाव के खिलाफ, रोजी, रोटी, शिक्षा स्वास्थ्य आदि के लिये जनता को सजग और एकजुट कर रहा है को  दूसरी दिशा में भटकाने के लिये धर्म, जाति, राष्ट्रवाद के हवाई मुद्दों को सामने लाता है जिससे वे असल मुद्दे जिनका कोई भी समाधान, नीयत और नीति सरकार के पास अक्सर नहीं होती है। अंततः अगर जन सजगता और जन सरोकार से जुड़ा नेतृत्व नहीं है तो जनता आपस में ही उलझ जाती है।

जनता के बेहतरी के मुद्दे, रोजी, रोटी, शिक्षा, स्वास्थ्य, आदि जिनसे जनता का जीवन स्तर ऊपर उठे, समाज मे एकजुटता रहे, विभाजनकारी ताकतें हतोत्साहित हों और शोषण कम हो की तरफ सरकार और समाज का ध्यान ही न जाने पाये । बंटा हुआ औऱ आपस मे लड़ता हुआ समाज, अक्सर एकजुट नहीं हो पाता है और बिल्लियों के ऐसे झगड़े में बंदर की ही चांदी रहती है।

जहां तक देश की आर्थिक स्थिति का प्रश्न, सरकार इस तथ्य से वाकिफ है कि 2016 में नोटबन्दी के फैसले के बाद जीडीपी सहित सभी आर्थिक सूचकांकों में गिरावट आयी है। जीडीपी के आंकड़ों पर पहले भाजपा सांसद, और अर्थशास्त्री डॉ सुब्रमण्यम स्वामी ने सवाल उठाया और उन्हें फ़र्ज़ी करार दिया, फिर पूर्व आर्थिक सलाहकार अरविंद पनगढ़िया ने भी फर्जीवाड़े की बात की। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर उर्जित पटेल ने आरबीआई की स्वायत्तता और रिजर्व फंड जो धारा 7 के अंतर्गत सरकार द्वारा जबरन लिये जाने के प्रस्ताव के कारण तो पिछले साल त्यागपत्र दिया ही था, अभी डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने भी 6 माह पहले ही पद त्याग कर दिया है। आज सरकार के पास आरबीआई के लिये कोई प्रोफेशनल अर्थशास्त्री नहीं है। सरकार कैसे निपटती है इस स्थिति से यह अगला बजट आये तो पता चले।

एक तरफ सरकार को यह आभास भी है कि देश की आर्थिक स्थिति विकट है, दूसरी तरफ वह बड़े लक्ष्य भी निर्धारित करती जा रही है। बडे लक्ष्य निर्धारित करना अनुचित नहीं है और न ही आशावादी होना। पर रूमानी काल्पनिक आशावाद जो वास्तविकता से जबरन आंखे मूंद कर पाला जाता है वह अक्सर घातक भी होता है। इस लक्ष्य निर्धारण पर सौरभ कृष्ण सिंह ने अपनी फेसबुक वाल पर एक रोचक और प्रासंगिक टिप्पणी लिखी है, जिसे मैं यहां जस का तस प्रस्तुत कर रहा हूँ।

" बड़े लक्ष्य निर्धारित करने में कोई बुराई नहीं,लेकिन शेखचिल्ली न बनें!मोदी भारत की वर्तमान लगभग 3 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था को 5 साल में 5 लाख करोड़ डॉलर पहुंचाने की बात कर रहे हैं,जो 70% के करीब वृद्धि है और इसे हासिल करने के लिए 12.5% से 13% तक की विकास दर प्रतिवर्ष चाहिए... जो उनके पिछले सूरमाइ कार्यकाल में 5% से 7% तक रही,अब जब विशेषज्ञ बता रहे हैं की देश मन्दी की तरफ जा रहा है तो साहब के दिमाग में ख्याली बुलेट ट्रेन सरपट दौड़ रही है। "

जैसे जैसे आर्थिक हालात बदतर होते जाएंगे, साम्प्रदायिक धर्मांधता जन्य भीड़ हिंसा और अन्य अपराध की घटनाएं बढ़ती जाएंगी। इसका कारण बेटोज़गारी और बिगड़ती आर्थिक स्थिति तो है ही साथ ही जनता आर्थिक मुद्दे पर एकजुट न रह सके, इस लिये उसे आपसी साम्प्रदायिक द्वंद्व में उलझा दिया जाय और लोग उसी मकड़जाल में उलझे रहें। इस पर अभी से सजगता आवश्यक है।

© विजय शंकर सिंह

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