Sunday 23 June 2019

श्यामा प्रसाद मुखर्जी के मृत्यु की जांच और नेहरु / विजय शंकर सिंह

नेहरू भी न चैन ने रहते हैं और न भाजपा को पूर्ण बहुमत के बाद भी चैन से काम करने देते हैं। भाजपा के कार्यकारी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा है कि जवाहरलाल नेहरु ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी की संदिग्ध मृत्यु जो, कश्मीर में हुयी थी, की जांच नहीं करायी।

1977 मे जनसंघ के बड़े नेता अटल बिहारी बाजपेयी, और लाल कृष्ण आडवाणी दोनों ही भारत सरकार में कैबिनेट मंत्री थे, तब इस घटना की जांच करा सकते थे, क्यों नहीं कराया ? जबकि जहां हुये थे बलिदान मुखर्जी वह कश्मीर हमारा है कहते ये थकते नहीं थे कभी।

1998 से 2004 तक अटल जी एनडीए सरकर में पीएम थे। आडवाणी गृहमंत्री थे। भाजपा की सरकार थी। पर 6 साल के कार्यकाल मे न तो किसी को श्यामा प्रसाद मुखर्जी की संदिग्ध मृत्यु याद आयी और न ही जांच की मांग किसी ने की।

2014 से अब तक केंद्र में भाजपा की सरकार है और 2024 तक चलेगी। अगर इतनी ही चिंता श्यामा प्रसाद जी की है तो, आज ही सुप्रीम कोर्ट के जज की अध्यक्षता में एक कमीशन बना कर जांच करा लिया जाय। जेपी नड्डा खुद जब मंत्री 2014 से 19 तक रहे तो क्यों नहीं जांच की मांग सरकार से की ?

कश्मीर में पिछले पांच साल से भाजपा या तो राज्य सरकार के एक साथी के रूप में या राज्यपाल के माध्यम से केंद्र सरकार के रूप में सत्ता पर काबिज है, पर उसने क्यों कभी जांच नहीं करायी ? नाम तक नहीं लिया डॉ मुखर्जी का कभी। क्यों ?

श्यामा प्रसाद मुखर्जी ही नहीं, भाजपा के इकलौते थिंकटैंक दीनदयाल उपाध्याय जी की मृत्यु भी संदिग्ध परिस्थितियों में मुगलसराय स्टेशन पर हुयी थी। मुगलसराय स्टेशन का नाम बदल गया। अब वह दीनदयाल जी के नाम पर है। पर कई बार भाजपा सरकार रहते हुए भी उनके मृत्यु की जांच न तो की गयी और न उसकी ओर किसी ने सोचा भी।

मैं जेपी नड्डा की इस बात से सहमत हूँ कि नेहरू ने जांच नहीं करायी पर यह बात मेरी समझ मे नहीं आ रही है कि भाजपा सरकार के प्रधानमंत्रियोँ ने अपने कार्यकाल में इन दो शीर्षस्थ नेताओं के संदिग्ध मृत्यु की जांच क्यों नही  करायी ? और अब भी जब कि वे पूर्ण बहुमत से सत्ता में हैं, जांच क्यों नहीं करा रहे हैं ?

अब जरा डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बारे में भी कुछ जान लें।

डॉ मुखर्जी हिन्दू महासभा से थे l वे संघ से विकसित नहीं हुये थे। वे बंगाल के एक अति सम्मानित और शिक्षाविद सर आशुतोष मुखर्जी के पुत्र थे। विद्वान थे । संसदीय प्रणाली के वे जानकार थे। वे हिन्दू महासभा के नेता की हैसियत से नेहरू जी के अंतरिम मंत्रीमंडल में मंत्री रहे l बाद में उन्होंने नेहरू मंत्रिमंडल से त्याग पत्र दे दिया था। कश्मीर में वे निषेधाज्ञा उल्लंघन कर प्रवेश करते हुये गिरफ्तार हुये थे जहां, उनकी मृत्यु हो गयी।

महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस को सरकार ने प्रतिबंधित संघटन घोषित कर दिया था। संघ की ही राजनीतिक शाखा के रूप में भारतीय जनसंघ का जन्म हुआ। हालांकि हिंदू महासभा जिसके सावरकर थे एक राजनीतिक दल के रूप में विद्यमान थी। डॉ मुखर्जी भी उसी दल में थे। 

आरएसएस ने हिन्दू महासभा में विलय करने या विलीन होने के बजाय श्यामा प्रसाद मुखर्जी को हिन्दू महासभा से तोड़कर उनके नेतृत्व में भारतीय जनसंघ नामक पार्टी बनाई गई थी जो अब भाजपा के नाम से जानी जाती है l जिसका राजनीतिक दर्शन गांधीवादी समाजवाद है।

1937 में चुनी हुई कांग्रेस सरकार ने बिना देसी सरकारों की अनुमति के भारत को द्वितीय विश्व युद्ध मे शामिल करने के ब्रिटेन के निर्णय के विरोध में त्यागपत्र दे दिया था। तब जो शून्य बना उसमे सावरकर की हिंदू महासभा औऱ एमए जिन्ना की मुस्लिम लीग साथ साथ आ गयी और दोनों ने ही अंग्रेज़ों के समर्थन में साझी सरकार बनायी।

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में जब देश का सबसे बड़ा स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था, तब, बंगाल में मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा की मिली जुली सरकार थी l जिसमें डॉ मुखर्जी उपमुख्यमंत्री थे l उपमुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने दिल्ली की तत्कालीन सरकार को भारत छोड़ो आंदोलन से निपटने और उसका दमन करने के महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे और  बंगाल के लिए अतिरिक्त पुलिस बल की मांग की थी l उल्लेखनीय है कि हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग ने अपनी अपनी पार्टी में  भारत छोड़ो आंदोलन के खिलाफ प्रस्ताव पास किया था l विपरीत दिखाई देने वाली इन दोनों सियासी जमातों में इस बिंदु पर कमाल की एकता थी l इसका कारण, दोनों ही धर्म आधारित राष्ट्र चाहते थे। दोनों की ही राष्ट्र की अवधारणा धर्म पर आधारित थी।

बंगाल में जब तक सुभाष बाबू पलायित नहीं हुए थे तब तक सुभाष बाबू से इनकी टक्कर रही। सुभाष साम्प्रदायिक राजनीति के खिलाफ थे। सुभाष के देश के बाहर चले जाने के कारण कलकत्ता में जो शून्य बन गया उसमे डॉ मुखर्जी साम्प्रदायिक एजेंडे के साथ सक्रिय हो गए। उसी समय वे मुस्लिम लीग के साथ सरकार में भी थे।

अब एक और दुःखद खबर अखबार में छपी है। देश के लोकप्रिय प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के अस्थि विसर्जन का खर्च उठाने के लिये कोई तैयार नहीं है। देश मे बहुलतावादी संस्कृति है। हर सोच और विचारधारा के नेता और लोग यहां हैं। यह परंपरा भारत के ज्ञात इतिहास के प्रत्यूष से है। वैचारिक विरोध डॉ मुखर्जी और अटल जी से है पर उनकी मृत्यु को संदिग्ध मानते हुए भी उनके ही शिष्यों द्वारा उसकी जांच में कोई रुचि न लेना और अटल जी के अस्थि कलश विसर्जन पर इस तरह की खबर पढ़ना, खलता है। सरकार इन दोनों ही मामलों का संज्ञान ले।

© विजय शंकर सिंह

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