कानून व्यवस्था सुदृढ़ करने के नाम, पर कानून का खुला उल्लंघन करते हुए, जिस तरह से बुलडोजर को, ही कानून की किताबें मान लिया जा रहा है, उससे एक बेअंदाज और बेलगाम नौकरशाही और पुलिस तंत्र के विकसित होने का खतरा उत्पन्न हो गया है जो, कानून को कानूनी तरह से लागू करने वाली एजेंसियों को, एक संगठित और प्रशिक्षित विधितोड़क, कानून लागू करने वाले गिरोह में बदल कर रख देगी। बुलडोजर, इस तरह के गिरोह के नए प्रतीक के रूप में उभर रहा है और हैरानी की बात है कि, ऐसी मनोवृत्ति को उन पढ़े लिखे लोगों का समर्थन भी हासिल है, जो खुद को, कानून के राज के हिमायती के रूप में, दिखाते हुए नहीं थकते हैं।
वे बुलडोजर को महिमामंडित भी करते हैं। यदि सरकार पक्षपात रहित होकर शहरी या ग्रामीण क्षेत्रों में, हर तरह के अतिक्रमण को चिह्नित करके, बिना किसी नोटिस या विधि में दी गई कानूनी प्रक्रियाओं को दरकिनार करके, उन अतिक्रमण का बुलडोजरी समाधान, जैसा कि पिछले कुछ सालों से किया जा रहा है, करने लगे, तो क्या तब भी, बुलडोजर को ही न्याय का प्रतीक मान लेने वाला समाज, इससे सहमत हो जाएगा ? कदापि नहीं। वह इसे आतंक का राज कहने लगेगा। वह तभी तक चुप है जब तक कि, यह 'बुलडोजर प्रक्रिया संहिता', के कानून से वह बचा हुआ है।
यकीन मानिए, कानून को लागू करने वाली एजेंसियों ने जिस दिन कानून को कानूनी तरह से लागू करने की मनोवृति को, तिलांजलि देने की आदत और मानसिकता विकसित कर ली, उस दिन न कानून का राज बचेगा, न गवर्नेंस और न ही कोई सभ्य कहा जाने वाला विधिपालक समाज। हम एक ऐसे अराजक, और अनिश्चित आशंका में जीने के लिए अभिशप्त समाज में तब्दील हो जायेंगे, जहां, कानून, अदालतें, पुलिस और प्रशासन, किसी नियम कायदे से नहीं, बल्कि अपनी सनक और हनक से हांकी जाने लगेंगी। ऐसे अशनि संकेत अब दिखने भी लगे हैं।
यहीं, यह बात भी जोड़ना समीचीन होगा कि, यदि कानून लागू करने वाली एजेंसी को, एक बार गैर कानूनी तरह से कानून लागू करने की छूट मिल जाएगी, तो फिर उन्हे कानूनी तरीके से ही कानून को लागू करने वाली मानसिकता में ढालना आसान नहीं होगा। आज यह प्रवृत्ति संक्रामक रूप ले चुकी है और इसका समाधान किया जाना चाहिए। एनकाउंटर स्पेशलिस्ट, दबंग, सिंघम जैसी पुलिसिंग या बिना किसी तहकीकात और कानूनी प्रक्रिया के ही, मात्र बदले की कार्यवाही या सबक सिखाने के नाम पर, तोड़फोड़ कर देना, एक अराजक और ऐसे शासनतंत्र को विकसित कर रहा है, जिसे सभ्य समाज नहीं कहा जा सकता है।
(विजय शंकर सिंह)
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