Wednesday 1 February 2023

कामलकांत त्रिपाठी / धार्मिक आतंकवाद का वैश्विक उभार और वहाबी पुनरुत्थानवाद (2) वहाबी इस्लाम

इस्लाम के इतिहास का और प्रकारांतर से दुनिया के इतिहास का एक दुर्भाग्यपूर्ण अध्याय. ‘शुद्ध इस्लाम’ की ओर लौटना है. वक़्त अप्रत्याशित तेज़ी से बदलता है, आगे बढ़ता है. परिवर्तन की, सुधार की, गुंजाइश हमेशा रहती है, लेकिन हूबहू पीछे नहीं लौटा जा सकता, क्योंकि तब तक पीछे की दुनिया आमूल बदल चुकी होती है. वह इतिहास बन चुकी होती है। इतिहास कुछ सीखने की सुविधा तो देता है किंतु लौटने की नहीं।  

तो सीखने के लिए इतिहास में पीछे लौटते हैं. सन्‌ 1258. ईरान में मंगोलों का राज क़ायम हो चुका था. वहाँ के सूबेदार हुलागू ने बग़दाद के ख़लीफ़ा की एक उद्धत हरकत के चलते नाराज़ होकर बग़दाद पर धावा बोल दिया और ख़लीफ़ा को सपरिवार मौत के घाट उतारकर बग़दाद को ध्वस्त कर दिया. कई दिनों तक क़त्लेआम चलता रहा. अगले साल इसी तरह अरब के दूसरे महान शहर दमिश्क का भी ध्वंस हुआ. नतीज़तन सुन्नी मुसलमानों के एक तबके में पराभव की ग्रंथि पनपने लगी. इब्न तयमिय्या दमिश्क से भागे एक सीरियायी शरणार्थीं के पुत्र थे. वे उस माहौल में पले-बढ़े थे जिसमें मंगोलों को इस्लाम के क्रूरतम शत्रु के रूप में देखा जा रहा था. वे सुन्नी इस्लाम की चारों क़ानूनी शाखाओं—अनासी, हनाफ़ी, शाफ़ी और हनबली (?)-- में से चौथी, हनबली, के अनुयायी थे जो सबसे बाद की, सबसे कट्टर और सबसे कम लोकप्रिय थी. सन्‌ 900 तक इन चारों शाखाओं के विद्वानों में तक़्लीद (आम सहमति) हो चुकी थी और यह मान लिया गया था कि अब इज्तिहाद (जिस मुद्दे पर क़ुरान और हदीस में कोई रोशनी नहीं मिलती, उस पर स्वतंत्र चिंतन) की ज़रूरत नहीं रही. इब्न तयमिय्या ने तक़्लीद के बंधन को तोड़ दिया,  अपने को स्वतंत्र चिंतन का अधिकारी घोषित किया और इस्लामी क़ानून को नई परिभाषा देने की कोशिश की. यहाँ तक तो ठीक था—बदलती स्थितियों के साथ स्वतंत्र चिंतन की ज़रूरत कब नहीं होती? लेकिन तयमिय्या ने इसके बाद क्या किया? क़ुरान की शाब्दिक व्याख्या शुरू की और मुस्लिम समुदाय में बदलते समय के साथ समंजन के लिए आई ज़रूरी बिदत (विकास) को कुफ़्र क़रार दे दिया. इस्लामी परंपरा (हदीस), जो पैग़म्बर के साथियों द्वारा उनके कथनों और कार्यों की स्मृति के आधार पर बनी थी, के अनुसार मक्कावालों से बद्र के युद्ध (रमज़ान, 624 ई.) से लौटने के बाद पैग़म्बर ने कहा था कि अब बाह्य या छोटे जिहाद (जिहादे असग़र) का ख़ात्मा हुआ और हम बड़े या आंतरिक जिहाद (जिहादे अकबर) की ओर बढ़ते हैं. जिहादे अकबर का तात्पर्य अंदरूनी, नैतिक और आध्यात्मिक संघर्ष से लिया गया था, जिसकी ज़रूरत पहुँचे से पहुँचे लोगों को भी रहती है, और हमेशा रहती है. तयमिय्या ने क़ुरान की दो आयतों (2:193 और 8:39) के आधार पर हदीस के जिहाद-संबंधी वर्गीकरण को ख़ारिज कर दिया और जिहाद को पूरी दुनिया में इस्लाम स्थापित होने तक चलनेवाला अनवरत अभियान बना दिया. और यह जिहाद केवल ग़ैर-मुसलमानों के ख़िलाफ़ नहीं, उन मुसलमानों के ख़िलाफ़ भी चलना था जो विधर्मियों की आदतें अपना लिए थे और इस्लाम मानने का दावा करते हुए भी असल में नहीं मानते थे—यानी वह इस्लाम नहीं मानते थे जो तयमिय्या द्वारा की गई क़ुरान की शाब्दिक व्याख्या के अनुकूल था. यहीं से उस बीज का रोपण होता है जिसे आगे चलकर अल क़ाइदा और अल शबाब और बोको हरम और तालिबान और हमास और ब्रदरहुड और आइ एस आई एस और ऐसी ही अनेक जमातों के रूप में प्रस्फुटित होना था, जिन्होंने इस्लाम के साथ-साथ पूरी मानवता के लिए संकट खड़ा कर दिया। 

अरब में नेज़्द के उयैना क़स्बे में सन्‌ 1702 में पैदा हुए अब्दुल वहाब इन्हीं तयमिय्या के अनुयायी थे. इनसे पहले तयमिय्या के ही भारतीय अनुयायी शेख अहमद सरहिन्दी ने अकबर की मृत्यु और जहाँगीर के गद्दीनसीन होने पर मुस्लिम मूल्यों की पुनर्स्थापना के मक़सद से एक राजनीतिक आंदोलन चलाया था. तो वहाबियों की नाल भारत से अविच्छेद्य रूप से जुड़ी हुई है।  सरहिन्दी के अनुयायी भारतीय वहाबियों की कट्टरता का अलग, समानांतर इतिहास है. उस इतिहास का पटाक्षेप हो जाने से यहाँ उसकी प्रासंगिकता न के बराबर है.

जब उयैना में अब्दुल वहाब के तयमिय्यावादी कट्टर मत का घोर विरोध हुआ तो इन्हें दारिया भागना पड़ा जिसको वहाब ने पैग़म्बर के दारुल हर्ब मक्का से दारुल इस्लाम मदीना की हिज्रत से जोड़कर महिमामंडित किया. दारिया में इन्हें स्थानीय मुखिया मुहम्मद इब्न सऊद का समर्थन तो मिला ही, इन्होंने अपनी बेटी इब्न सऊद के बेटे से ब्याह कर एक मज़बूत गठबंधन बना लिया. इस तरह इब्न सऊद उस प्रांत के अमीर और अब्दुल वहाब शेख-उल-इस्लाम की पदवी धारणकर उसके इमाम बन गए. सन्‌ 1766 में इब्न सऊद की हत्या होने के बाद उनका बेटा और अब्दुल वहाब का दामाद अज़ीज़ इब्न सऊद अमीर बना और, जब सत्तर साल की उम्र में वहाब साहब ने इमाम का पद छोड़ा, तो यही दामाद इब्न सऊद, जो अब तक सिर्फ़ अमीर था, अमीर और इमाम दोनों बन गया.

सऊद से कुछ याद आता है?  जी हाँ, सऊदी अरब. सऊदी अरब में जो सऊदी राजवंश राज कर रहा है, इन्हीं इब्न सऊद का वंशज है—अमीर और इमाम का संयुक्त संस्करण, और कट्टर वहाबी सुन्नी इस्लामी धारा का संरक्षक. वहाबी इस्लाम सऊदी अरब का आधिकारिक धर्म है। लेकिन  धार्मिक आतंकवाद के ख़िलाफ चली लड़ाई में सऊदी अरब ने अमेरिका के साथ हरावल दस्ते की भूमिका भी निभाई. इधर भी, उधर भी. यह सत्ता-मोह आदमी से जो न कराए. धर्म तो इसका  बहुत पुराना और बार-बार आजमाया हुआ औज़ार रहा है.

इसी सऊद वंश के एक दूसरे इब्न सऊद (1880-1953) ने बीमार और कमज़ोर टर्की साम्राज्य की ढिलाई का फ़ायदा उठाकर और अंग्रेजों द्वारा अपने उपनिवेशवादी हितों के लिए मुहैया की गई सुविधा से अपने प्रभाव-क्षेत्र का विस्तार किया. टर्की के सूबेदार से रियाध शहर छीना और अपने द्वारा गठित अति-उत्प्रेरित सैनिक दस्ते ‘अल इख़्वान’ (बंधुत्व) की मदद से नेज़्द के उत्तरी इलाक़े को जीत लिया. प्रथम विश्व युद्ध में टर्की की पराजय के बाद इन्होंने अरब के नेज़्द और हेजाज प्रांतों को मिलाकर स्वतंत्र सऊदी अरब राज्य क़ायम कर लिया (1932). 

अब्दुल वहाब की एक छोटी-सी कृति है ‘किताब-अल-तवाहिद’ (एकत्व की किताब) जिसे उनके शागिर्दों ने खींच-खींचकर चार मोटे खंडों में फैला दिया है. पैग़म्बर व मुस्लिम संतों-पीरों से प्रार्थना करना, अपने और अल्लाह के बीच उन्हें मध्यस्थ मानना, उनसे कृपा की विनती करना,   उनकी मज़ार का दर्शन करना, पैग़म्बर का जन्म-दिन मनाना, मक़बरे बनवाना, उन्हें देखने जाना, नृत्य, संगीत, कविता या ग़ज़ल में शिरकत करना या उनका लुत्फ उठाना, तस्बीह पर जप करना, रेशमी वस्त्र पहनना-- यह सब कुफ़्र है. जैसे ही कोई मुसलमान इनमें से कुछ भी अपनाता है, वह काफ़िर हो जाता है और अपने जीवन और सम्पत्ति का अधिकार खो देता है, ग़ैर-मुसलमान तो काफ़िर है ही. मक्का में पैगम्बर की बेटी फातिमा और कई अन्य मुस्लिम संतों की मज़ारें वहाबी इख्वान तोड़ चुके हैं। चूँकि उनके प्रति श्रद्धा दिखाना कुफ़्र है, इसलिए उनकी शिनाख़्त नष्ट करना ज़रूरी है. सन्‌ 1975 में सऊदी शाह फ़ैसल के एक भतीजे ने उनका क़त्ल कर दिया  क्योंकि इस भतीजे का सगा भाई अरब में टेलीविजन-प्रवेश (जो निश्चित ही कुफ़्र है) के विरुद्ध हो रहे प्रदर्शन के दौरान सरकारी कार्रवाई में मारा गया था.

इस तरह वहाबियों द्वारा की गई क़ुरान की एकांतिक व्याख्या ने उस संतुलन और सामंजस्य को तोड़ दिया जिसे, एक कठिन समय और कठिन परिस्थितियों में हुए और कहीं-कहीं परस्पर-विरोधी और इसलिए भ्रामक लगते ‘इलहाम’ को, एक सहज, व्यावहारिक और आस्थापूर्ण जीवन जीने के अनुरूप ढालने के लिए, इस्लामी धर्मशास्त्र और विधिशास्त्र ने सदियों के प्रयास से हासिल किया था. और यह प्रक्रिया पैग़म्बर के जीवन-काल में ही शुरू हो गई थी. उनके व्यवहार में जो उदारता और समावेशी दृष्टि दिखती है, विशेष संदर्भ में उतरी क़ुरान की कुछ आयतों से उनको पुष्ट नहीं किया जा सकता. यह सिद्धान्त और व्यवहार का वह अंतर्निहित द्वैध है जो लगभग अपरिहार्य है. वहाबियों का कट्टर एकेश्वरवाद उस एकेश्वरवाद और उसकी मूल भावना से कोसों दूर जा पड़ता है, जिसे पैग़म्बर ने अपने जीवन-काल के व्यवहार में बहुत संयम, समझदारी, उदारता और दूरदर्शिता से, फूंक-फूंककर कदम उठाते हुए, सफलता पूर्वक लागू किया था. वहाबियों का एकनिष्ठ एकेश्वरवाद तो ख़ुदा की बनाई इस बहुरंगी दुनिया को काट-छाँटकर एक-सी करने की क़वायद में अंतत: नष्ट ही कर देगा.

नतीजतन, क़ुरान की जो आयतें (शुरू की पाँच फ़रिश्ता जिब्रील की मारफ़त) पैग़म्बर मुहम्मद को अल्लाह से नाज़िल हुई मानी जाती हैं, वहाबी उनका तात्पर्य निकालने में पैग़म्बर के स्वयं के व्यवहार और कार्यों को एक किनारे कर देते हैं. एक बार आयतें नाज़िल हो जाने के बाद वे सीधे ईश्वर की वाणी होने से परम (absolute) सत्य हो गईं। उनके नाज़िल होने का माध्यम बने मुहम्मद साहब के दावे को, कि ये आयतें उन्हें ईश्वर से नाज़िल हुई हैं, तो मान लिया किंतु इन आयतों की व्याख्या के लिए मुहम्मद साहब और उनके मंतव्य अप्रासंगिक हो गए. मनुष्य में ईश्वरीय वाणी के प्रति अंधश्रद्धा के नतीजे कितने ज़ालिम हो सकते हैं, इसकी कोई इंतिहा नहीं.

फ़िलहाल दुनिया के भिन्न-भिन्न भागों में ग़ैर-मुसलमानों के साथ मिल-जुलकर रहते, ईमानदारी से, शांतिपूर्वक अपनी रोजी-रोटी कमाते और और पुरखों से प्राप्त अपने धर्म और उसके प्रचलित कृत्यों के अनुपालन से संतुष्ट मुसलमानों को यह चैन और सुकून से तो नहीं ही रहने देगा. और मेरी अल्प-मति में किसी भी धर्म का पहला और अंतिम हासिल और असली लक्ष्य यही शांति, भाईचारा, चैन और सुकून है.

ऊपर अल क़ायदा सहित जितने भी सुन्नी धार्मिक आतंकी समूहों का ज़िक्र किया गया, सभी अपना सैद्धांतिक आधार वहाबी इस्लाम से ग्रहण करते हैं. सबका सैद्धांतिक और दूरगामी लक्ष्य दुनिया में इस्लाम का वर्चस्व और क़ुरान की शब्दस: व्याख्या के अनुसार शरीयत का शासन लागू करना है. इसे वे अपना सर्वोच्च धार्मिक कर्तव्य मानते हैं और उनमें से कुछ तो ऐसे होंगे ही जो पूरी सत्यनिष्ठा से ऐसा मानते हों. तो क़ुरान की आयतों के आधार पर ऐसे आतंकी समूहों का प्रत्याख्यान नहीं हो सकता. यही वह गुत्थी है जो सामान्य मुसलमानों को चुप रहने को मजबूर करती है और इन समूहों को अभूतपूर्व ताक़त देती है। किसी का इतना जबर्दस्त मानसिक अनुकूलन कर देना कि वह अधिकाधिक संभव संख्या में अनजान निरपराधों की हत्या के लिए अपनी जान न्योछावर करने को तैयार हो जाए, बिना अदम्य विश्वास और खाँटी प्रतीति के संभव नहीं हो सकता. एक मुस्लिम मित्र ने मुझे बताया कि नौजवानों को जिहादी बनाने के लिए जब उनका मानसिक अनुकूलन किया जाता है, उन्हें लगता है, सामनेवाला जो भी बोल रहा है, कोई इंसान नहीं, अल्लाह ख़ुद बोल रहे हैं, और यह उसका परम सौभाग्य और जीवन की सर्वोच्च सार्थकता है कि उसे अल्लाह का आदेश सुनने के लिए चुना गया। 
(क्रमश:)

कमलकांत त्रिपाठी
© Kamlakant Tripathi

भाग (1) का लिंक
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/01/1.html

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