Thursday 2 February 2023

कमलकांत त्रिपाठी / धार्मिक आतंकवाद का वैश्विक उभार और वहाबी पुनुरुत्थान (3)

यूरोप का अंधकार युग, अरब सभ्यता का स्वर्णकाल एवं वर्तमान धर्मांधता और विचारांधता का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य किसी मज़हब या विचारधारा को समझने के लिए पुस्तकों में लिखे उसके सिद्धांतों की अपेक्षा  उसके व्यवहार के इतिहास को जानना ज़्यादा कारगर होता है। देखा यह गया है कि किसी मज़हब या विचार को व्यवहार में उतारने के लिए जैसे लोग मिले हैं वह वैसे ही हो गया है। व्यवहार्यता ही सभी मज़हबों एवं विचारों की अंतिम कसौटी है। और व्यवहार में उन्हें लाता है मनुष्य। मनुष्य की एक सिफ़त यह है कि वह उदात्त से उदात्त मज़हब या विचार को व्यवहार में अपने स्वभाव के अनुरूप ढाल लेता है। यही कारण है कि किसी भी मज़हब या विचारधारा में कोई भी दो मनुष्य हूबहू एक से नहीं मिलते। किसी मज़हब या विचारधारा की व्यवस्था में जब,  जिस स्वभाव के मनुष्यों का वर्चस्व होता है, तब वह उन्हीं के अनुरूप ढल जाता है।    

दुनिया के सांगठनिक धर्मों और विचारधाराओं का इतिहास पढ़ने पर एक नैराश्यपूर्ण आशंका होती है—कहीं अंध-आस्था और अंध-भक्ति मनुष्य के स्थायी और प्रकृत गुण तो नहीं? और वर्तमान विश्व-परिदृश्य की ओर नज़र डालने पर यह आशंका दृढ़ होने लगती है। इतिहास तो यही बताता है कि सभी धर्मों और विचारधाराओं का प्रणयन स्थान विशेष और काल विशेष की परिस्थितियों में, उन्हीं के मद्देनज़र हुआ लेकिन उनके गर्वोन्नत और अदूरदर्शी प्रणेताओं या  उनके अंध-अनुयायियों ने उन्हें सार्वभौम और सार्वकालिक बताकर बहुत वितंडावाद खड़ा किया। इससे मानव-ज्ञान और मानव-संस्कृति के स्वत:स्फूर्त विकास के मार्ग में विकट बाधा उत्पन्न हुई। विडंबना यह है कि इस तरह का अंधानुकरण उन प्रणेताओं के काम की बुनियादी तासीर के सर्वथा प्रतिकूल है, जिन्होंने अपने समय में सड़-गलकर असंगत हो चुकी मान्यताओं को चुनौती दी और भीषण विरोध के बावजूद अपने-अपने समय के विशेष संदर्भ में नए, अग्रगामी और इसलिए मानवता के लिए उपयोगी विचार दिए।

इस संबंध में ईसाइयत का इतिहास आँख खोलनेवाला है। रोमन साम्राज्य के मूर्तिपूजक दौर में ईसाइयों के उत्पीड़न और ईसाई संतों की शहादत का भयानक दौर चला, जो ईसाई धर्म की लोकप्रियता और उसके प्रचार-प्रसार का सबसे अहम कारण बना। लेकिन जैसे ही सम्राट कॉन्स्टेन्टाइन ने ख़ुद ईसाई धर्म स्वीकार कर (313 A D) इसे साम्राज्य का आधिकारिक धर्म घोषित कर दिया, चक्र उल्टी दिशा में चल पड़ा और साम्राज्य की ग़ैर-ईसाई प्रजा का ठीक उसी तरह उत्पीड़न शुरू हो गया, जैसे पहले ईसाइयों का हो रहा था। बाद में पश्चिमी रोमन साम्राज्य के पतन और पोप द्वारा रोमन साम्राज्य के भूत-तुल्य ‘पवित्र रोमन साम्राज्य’ की स्थापना (800 ई.) के साथ चर्च के खोखले आडंबरों और ईसाई जगत (Christendom) पर उसके निरंकुश नियंत्रण ने पूरे यूरोप को मध्ययुगीन अंधकार में डुबो दिया, जिसमें पुराने यूनान का मुक्त, विवेकपूर्ण चिंतन पूरी तरह लुप्त हो गया, और सारा चिंतन-मनन-लेखन सम्राट और पोप--लौकिक और पारलौकिक सत्ता--के अधिकार-क्षेत्र को लेकर चल रहे विवाद के इर्दगिर्द घूमने लगा। थोड़े-से धर्माधिकारियों को छोड़कर (कई राजाओं सहित) अधिकांश जनता अशिक्षित ही नहीं, निरक्षर थी। ईसाई चर्च विशाल भू-संपत्तियों पर क़ाबिज़ थे और उनके पदाधिकारी निरंकुश। यूरोप के सामंतवाद के मूल में यह विचार निहित था कि समस्त भूसंपदा का स्वामी अंतत: मुकुट (सम्राट या राजा) था। लिहाज़ा, ऊपर से नीचे (सम्राट से लेकर क़ाबिज़ भूस्वामी) तक प्रभु और अधीनस्थ (Lord and Vassal) की सोपान शृंखला में बंधे सामंत और चर्च के पदाधिकारी मिलकर ईसाई जगत का वह क्रूर परजीवी वर्ग बनाते थे जिसका सारा ताम-झाम निरीह, विवश भू-दासों (serfs) के श्रम पर निर्भर था।

मध्ययुग के इस अंधकार, धर्मोन्माद और विशेषाधिकार-केन्द्रित विषम सामाजिक व्यवस्था पर प्रभावी आघात किया पुनर्जागरण (Renaissance) ने।  यह इटली के उन तटीय शहरों-- वेनिस, जेनोआ, नेपल्स--से शुरू हुआ जो विश्व-व्यापार की नई मंडियों के रूप में उदित हो रहे थे, जहाँ दुनिया भर के व्यापारी आकर मिलते थे। वेनिस के एक स्वतंत्र गणराज्य होने से वह (पवित्र) रोमन सम्राट और पोप दोनों के शिकंजों से मुक्त था। वहाँ से जो हवा चली उसने इटली की अन्य तटीय मंडियों को भी अपने आगोश में ले लिया। उसके बाद मध्य इटली के शहर फ़्लोरेंस की बारी आई जो उस समय महाजनों (money-lenders) के जमावड़े के चलते यूरोप की वित्तीय राजधानी-जैसा बन गया था और नई सोच व नई खोजों के लिए आवश्यक माहौल और संसाधन मुहैया कराने की स्थिति में था। और वह भी उस समय एक नगर-गणराज्य होने से नए विचारों के लिए बेहद मुफ़ीद था। फ़्लोरेंस ने पुराने यूनान से प्रेरणा लेकर पहले दांते और पेट्रार्क (Petrarch) जैसे प्रसिद्ध कवियों को जन्म दिया (तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी), फिर लेवोनार्डो द विंसी (1452-1519), माइकेलेंजेलो (1475-1564) और राफेल (1483-1520)-जैसी बहुमुखी कला-प्रतिभाओं को, जिन्होंने धार्मिक मान्यताओं की जड़ता को तोड़ने और मानव-चेतना को मुक्त आकाश देने की पूर्व-पीठिका तैयार की। सोलहवीं शताब्दी बीतते-बीतते इटली मेँ कला की यह नई उठान धीमी पड़ने लगी , लेकिन इसका सिलसिला वहाँ से हॉलैंड (Rembrandt) और स्पेन (Velasquez) होता हुआ पूरे योरोप मेँ छा गया।

पहले आ चुका है कि, पुराने यूनान के लुप्त हुए ज्ञान को खोजकर पुन: सामने लाने और इस तरह पुनर्जागरण की पूर्वपीठिका तैयार करने में उन जिज्ञासु, उदार और सत्वग्राही अरब चिंतकों और विद्वानों का विशेष हाथ रहा जिन्होंने अरब सभ्यता के स्वर्णकाल को स्वर्णकाल बनाया। जब ईसाई जगत जड़ता के अंधकार में डूबा था, अरब से दर्शन, विज्ञान, कला और साहित्य की एक बहुमुखी रोशनी फूटी। अरबों ने दुनिया को तीन ख़ूबसूरत शहर दिए—दमिश्क, बग़दाद और कुर्तुबा (Cordoba--स्पेन), जिन्हें उन्होंने शिक्षा, साहित्य और ज्ञान-विज्ञान का केंद्र बना दिया। काहिरा, बसरा और कूफ़ा उनके अन्य शहर थे जहां से बौद्धिक जीवन का प्रकाश यूरोप तक  पहुँचा। अरब अच्छे इतिहासकर तो थे ही, काइनात की विविधता को समेटकर उसमें जीवंत रंग भरनेवाले अच्छे गल्पकार भी थे। ‘एक हज़ार एक रातें’ बग़दाद की प्रतिभा की उपज थी, जो आज भी लोगों को चमत्कृत करती है। अरबों ने वास्तुकला की सारसेनिक शैली ईजाद की, जिसमें अरब और सीरिया के ख़ूबसूरत खजूर-वृक्षों और उनके झुरमुटों की अनुकृति में सरल पर सुंदर और प्रभावोत्पादक खंभों, मीनारों, गुंबदों और मेहराबों का कल्पनाशील संयोजन था। इस्लाम में किसी आकार के चित्रण की मनाही के कारण उन्होंने ख़ूबसूरत, बारीक जालियों और मेहराबों पर सुंदर अरबी लिखावट में क़ुरान की आयतों द्वारा सजावट की एक अनोखी शैली विकसित की। 

अरब सभ्यता के इस स्वर्णकाल मेँ ज्ञान की अपार भूख के चलते पुरानी सभ्यताओं-- यूनान-रोम, ईरान और भारत—की विभिन्न विषयों की पुस्तकों का अध्ययन अपने उरूज़ पर था और गणित, बीजगणित, त्रिकोणमिति (trigonometry), खगोलशास्त्र (astronomy) और औषधिशास्त्र के ज्ञान का तुलनात्मक अध्ययन और संवर्धन हो रहा था। उस समय के अरबों की एक विशेषता यह थी कि वे ज्ञानार्जन को अपने-आप में एक जीवन-मूल्य मानते थे और इस पर इतना ज़ोर देते थे कि उन्हें जहां से जो भी मिला, उसे ग्रहण किया; यही नहीं, उसे और आगे बढ़ाने के लिए तत्पर हो उठे। हारून-अल-रशीद की ख़िलाफत (786-809) के समय बग़दाद में विद्वानों और कलाकारों की इतनी क़द्र थी कि उन दिनों दुनिया भर के विद्यार्थी, विद्वान और कलाकार बग़दाद विश्वविद्यालय का रुख़ करते थे। विज्ञान के क्षेत्र में अरबों की समझ ग़ज़ब की थी। उन्होंने दुनिया का पहला दूरबीन बनाया और नाविकों के लिए कुतुबनुमा विकसित किया। चीनियों के संपर्क से उन्होंने काग़ज़ बनाना सीखा और यह तकनीक यूरोप ले गए। सिंध में अपने शासन (आठवीं से दसवीं शताब्दी) के दौरान उन्होंने भारतीयों से चिकित्साशास्त्र, दर्शन, नक्षत्र-विज्ञान, गणित और शासन-संबंधी ज्ञान बटोरने में कोई संकोच नहीं किया। कई अरब विद्यार्थी औषधिशास्त्र में विशेषज्ञता हासिल करने तक्षशिला विश्वविद्यालय आए। अमीर ख़ुसरो ने लिखा है कि अरब ज्योतिषी अबू माशर बनारस आकर वहाँ दस वर्षों तक गणित ज्योतिष का अध्ययन करता रहा। अरब विद्वान भारत से ब्रह्मगुप्त की दो पुस्तकें—ब्रह्मसिद्धान्त और खंडरखाद्य—बग़दाद ले गए और वहाँ मौजूद भारतीयों की मदद से अल फ़ज़ारी ने अरबी में उनका अनुवाद किया। भारत से शून्य और दशमलव लेकर उन्होंने अरब संख्याएँ और अरब गणना-प्रणाली विकसित की जो आज विश्व की धरोहर है, वरना इस कंप्यूटर-युग में बड़ी संख्या की गणना के लिए सर्वथा अक्षम और अटपटी रोमन प्रणाली से कैसे काम चलता! भारतीय वेदान्त और बौद्ध धर्म के सिद्धांतों को लेकर अरबों ने एक उदार और समावेशी दर्शन विकसित किया, जिसमें स्वयं के भीतर ही ख़ुदा को ढूँढ़ने और आत्म-चिंतन द्वारा सत्य को पाने पर ज़ोर है, वही सर्वग्राह्य सूफ़ी संप्रदाय के रूप में प्रचलित हुआ। कुर्तुबा और बग़दाद के विश्वविद्यालयों में जो समावेशी अरब दर्शन विकसित हुआ, उसका प्रभाव पेरिस और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालयों पर भी पड़ा और पूरा यूरोप उससे अनुप्राणित हुआ। कहा जाता है कि कुर्तुबा के मुख्य पुस्तकालय में चार लाख पुस्तकें थीं, जिनमें दुनिया भर का मानव-ज्ञान सुरक्षित था। अलग से आ चुका है कि अरब सभ्यता के स्वर्णकाल के दो सितारों—इब्न सीना और इब्न रुश्द— ने किस तरह पुराने यूनान के लुप्त हुए ज्ञान को खोजकर योरोप को संप्रेषित किया, जिसने यूरोपीय नव-जागरण के लिए प्रकाश-स्तंभ का काम किया।

जैसा कि पहले आ चुका है, प्लेटो और अरस्तू की पुन:प्रतिष्ठा के साथ-साथ समुद्री मार्गों की खोज ने भी यूरोप को मध्ययुगीन अंधकार से बाहर निकालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो 1453 में कुस्तुंतुनिया पर उसमानी तुर्कों का क़ब्ज़ा हो जाने और उसके चलते रेशम और मसाले के पुराने व्यापार-मार्गों के बंद हो जाने के कारण अपरिहार्य हो गया था। समुद्री मार्गों ने एशिया के साथ व्यापार में यूरोपियों को आक्रामक वर्चस्व प्रदान किया और समुद्री शक्ति की अहमियत बढ़ जाने से ज़मीनी साम्राज्य के बजाए समुद्रपार उपनिवेश बनाने और उनके आर्थिक दोहन से गृहदेश के तेज़ी से सम्पन्न होने की स्थिति पैदा हुई । इससे मालामाल हुए यूरोपीय देशों में उपजी नई साहसिकता, ऊर्जा और आत्म-विश्वास ने वैज्ञानिक आविष्कारों और पूंजी-संचयन के योग से अंतत: औद्योगिक क्रांति को संभव बनाया, जिसने दुनिया का चेहरा बदल दिया।

इसी दौर (पंद्रहवीं से सत्रहवीं शताब्दी) मेँ विज्ञान की खोजों ने मानव-जीवन को एक नई गतिशीलता प्रदान की। स्वाभाविक है कि वैज्ञानिकों को शुरू मेँ चर्च के विकट विरोध का सामना करना पड़ा, क्योंकि सभी धार्मिक प्रतिष्ठानों की तरह चर्च भी यथास्थितिवाद का पोषक था और नहीं चाहता था कि लोग नई बातें सोचें या नया आविष्कार करें। स्वाभाविक है कि जिन मान्यताओं पर उसका शीराज़ा खड़ा था, उन पर प्रश्नचिन्ह लगने से उसे अपने अस्तित्व के लिए ख़तरा दिखाई पड़ता था। बाइबिल की शाब्दिक व्याख्या के आधार पर चर्च की मान्यता थी कि पृथ्वी ब्रह्मांड के केंद्र मेँ थी, सूरज तथा अन्य खगोलीय पिंड इसके चारों ओर चक्कर लगाते थे। [Psalm 104:5—‘The Lord set the earth on its foundations; it can never be moved.’] पोलिश गणितज्ञ और खगोलशास्त्री कॉपरनिकस (1473-1543) ने सिद्ध कर दिया कि, नहीं, पृथ्वी ही सूरज के चारों ओर चक्कर लगाती है। कॉपरनिकस तो चर्च के प्रकोप से बच गया क्योंकि जिस वर्ष उसकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘On the Revolution of Heavenly Bodies’ छपी (1543), उसी वर्ष उसका देहांत हो गया। उसकी मृत्यु के बाद ही चर्च वस्तुस्थिति से अवगत हो सका और तुरंत इस पुस्तक पर पाबंदी लगा दी। लेकिन जब इटली के ही एक दूसरे वैज्ञानिक जिऑर्डनो ब्रूनो (Giordano Bruno--1548-1600) ने कॉपरनिकस की बात दोहरा दी और यह भी कह दिया कि सभी तारे अपने-आप मेँ सूर्य थे, तो चर्च के बर्दाश्त से बाहर हो गया। धर्म-परीक्षण (Inquisition) की क्रूर प्रक्रिया से जिऑर्डनो को विधर्मी घोषितकर रोम मेँ ज़िंदा जला दिया गया (1600)। ब्रूनो का समकालीन दूसरा इटैलियन वैज्ञानिक गैलीलियो (1564-1642) ब्रूनो-जैसा साहसी नहीं निकला। अपने ही द्वारा बनाए गए दूरबीन के सहारे किए गए गहन निरीक्षण से उसने ब्रूनो की बात को सच पाया और कहा भी। फिर बाइबिल के प्रति पूरी निष्ठा दिखाते हुए उसने संत आगस्तीन का यह तर्क देने की कोशिश की कि बाइबिल की कविताओं, गीतों, निर्देशों और ऐतिहासिक वक्तव्यों को शब्दश: नहीं लिया जा सकता। उसके तर्क को अस्वीकारकर जब चर्च ने उस पर धर्म-परीक्षण की कार्रवाई शुरू की, अंतरात्मा को दबाकर उसे अपनी पहलेवाली बात से मुकरना पड़ा और घोषित करना पड़ा कि उससे ग़लती हो गई, पृथ्वी दरअसल ब्रह्मांड के केंद्र मेँ थी और सूर्य ही इसके चारों ओर चक्कर लगाता था। माना जाता है कि इस छद्म स्वीकारोक्ति के बाद वह धीरे-से बुदबुदाए बिना नहीं रह सका —--‘Eppersimuove.’ (‘फिर भी यह घूमती तो है’)। इसके बावजूद उसे कुछ समय तक क़ैद मेँ रहना पड़ा ताकि वह अपने ‘दूषित’ अंत:करण को प्रायश्चित्त की आग से शुद्ध कर सके। वहाँ से छूटने पर उसे जीवन भर अपने ही घर में नज़रबंद रखा गया, जहां तीन साल तक हर हफ़्ते पश्चात्ताप के सातों भजन उसे पढ़ने पड़ते थे। जिसे अक्षरस: ‘इलहाम’ माना जाता है, उसके प्रति अंध आस्था वैज्ञानिक सत्य के साथ किस क़दर निरंकुश ज़्यादती करती रही है, इसके प्रसंगों से इतिहास भरा पड़ा है...और विडंबना यह कि यह विवेकशून्य प्रक्रिया आज भी जारी है। अस्तित्व की शास्वत त्रासदी!

कैसी विडंबना है कि यूरोप को प्राचीन यूनान की रोशनी दिखानेवाले और यूरोपी पुनर्जागरण का उत्प्रेरक बननेवाले उसी अरब से ‘शुद्ध इस्लाम’ के नाम पर निकला वहाबी कट्टरवाद दुनिया भर में धार्मिक बुनियादपरस्ती और आतंकवाद का निर्यातक और प्रेरक बन गया--अंध आस्था का विध्वंसक चरण। 

क्रिया-प्रतिक्रिया की शृंखला से पूरे विश्व में धर्मांधता, धार्मिक जड़ता और तज्जनित अमानुषिक उन्माद का पुनरोदय हो रहा है. अमेरिका, फ़्रांस, इंग्लैंड, नार्वे, डेनमार्क में हुई असहिष्णु और हिंसक घटनाओं की प्रतिक्रिया में ईसाइयत की बुझ चुकी आग फिर से सुलगने लगी है। और उसका ख़ामियाजा भुगतना पड़ रहा है निर्दोष मुसलमानों को। हवाई अड्डों पर अधिक सघन जाँच तो सामान्य बात है, दुनिया भर में हर अपरिचित मुसलमान को आतंकी होने के शक की नज़र से देखा जाने लगा है। दुनिया भर में धर्मों की समावेशिता (inclusiveness) और ग्रहणशीलता (eclecticism) का स्थान एकांतिकता (exclusiveness) और बुनियादपरस्ती (fundamentalism)  ले रही है.

भारत में भी ऐसा दौर चल रहा है जिसमें हर चीज़ के लिए आगे के बजाए पीछे देखने और विगत के सब कुछ का महिमामंडन करने की प्रवृत्ति जड़ें जमा रही हैं. नए माहौल में पुष्पित-पल्लवित भी हो रही है. उसी का दुष्परिणाम है राजनीति में धार्मिक ध्रुवीकरण और भारत के दोनों समुदायों के बीच बढ़ती बदगुमानी, नफ़रत और विद्वेष। इतिहास और वर्तमान के एकल पाठ से खोज-खोज कर आत्मगौरव और पीड़ित मानसिकता के लिए खाद-पानी जुटाया जा रहा है। यह सब देश को कहाँ ले जाएगा?    

धर्म के नाम पर आज दुनिया में जो हो रहा है, उसे समझने के लिए यूरोप में धर्म-सुधार के अतिवादी दौर (प्रोटेस्टैंट-कैथलिक के बीच ख़ूनी संघर्ष) से मदद मिल सकती है। पहले की तरह आज भी सारी लड़ाई वर्चस्व की, दुनिया की सत्ता-संरचना और उसका केंद्र बदलने की है। जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे हम सैम्युएल हंटिंटन की स्थापनाओं (‘सभ्यताओं का संघर्ष’—1996) का ही अनुसरण करते दिखाई पड़ रहे हैं।

मार्क्स ने कल्पना तक न की होगी कि सर्वहारा-क्रांति के सात-आठ दशक बाद वैश्वीकरण और कार्पोरेट प्रभुत्वके अपने नए अवतार में पूँजीवाद फिर से हावी हो जाएगा। लेकिन उसी के साथ मानवता के दूसरे दुश्मन--सांगठनिक ‘धर्म’--की क्रूर, हिंसक, अतिवादी उछाल से दुनिया की व्यवस्था चरमरा उठेगी। पूंजीवाद-साम्यवाद का पुराना संघर्ष पीछे रह जाएगा और इतिहास आगे बढ़ने के बजाए लौटकर मध्ययुगीन धर्मांधता की अंध-गलियों में खो जाएगा।
 
ऐसे में प्रगतिशील वामपंथ का दिग्भ्रमित होना लाज़मी है। विडंबना यह है कि पूँजीवाद के प्रति अपनी पुरानी रंजिश के चलते, वर्चस्व की इस नई लड़ाई में, वामपंथ प्राय: कुछ धर्मांध शक्तियों का मुखर विरोध करता है तो चुप्पी साधकर कुछ के पाले में खड़ा दिखाई पड़ता है। कम से कम उनके दुष्कृत्यों की ओर से आँख-कान बंदकर वह पूँजीवाद और साम्राज्यवाद विरोधी वही पुराना राग अलापता जाता है। धुर दक्षिणपंथ और वामपंथ का यह गठजोड़ ऐसी समसामयिक गुत्थी है, जिसकी इतिहास में कोई नज़ीर नहीं.

आज का वामपंथ बदले हुए समय में धन और सत्ता के गठजोड़ से उपजे क्रोनी कैपिटलिज़्म,  श्रमिकों के मूल्य पर अधिकाधिक मुनाफ़ा कमाने के लिए आउटसोर्सिंग के परदे में लगातार बढ़ती ठेकेदार-उपठेकेदार-उपउपठेकेदार...की लंबी शृंखला से असंगठित क्षेत्र का विस्तार और उससे श्रमिकों तथा अन्य वेतनभोगियों के आत्यंतिक शोषण, तकनीक के अप्रत्याशित विकास और जीवन के हर क्षेत्र में अपूर्व तेज़ी से बढ़ते उसके प्रभाव, उससे उद्भूत आक्रामक विज्ञापन और निरंकुश उपभोक्तावाद जैसी नई समस्याओं, जीवन की बदलती प्राथमिकताओं, नई शक्तियों और नई परिस्थितियों से रूबरू नहीं हो पा रहा है। वह उसी पुराने रास्ते पर वही पुराना ढोल पीटता आगे बढ़ता दिखाई पड़ रहा है. इस अर्थ में वह अब परिवर्तनवादी नहीं, प्रतिक्रियावादी हो गया है. हर समस्या का हल डेढ़ सौ साल पीछे मुड़कर मार्क्स में ढूँढ़ता है.

यह हमारे समय की वह विडम्बना है जिससे आँख मूँदकर बौद्धिक लोग शुतुरमुर्ग़ बन गए हैं. देखते हैं तो बस अपने समानधर्मा अन्य शुतुरमुर्ग़ों को. परस्पर अहो-अहो की ऐसी जकड़बंदी है कि बाहर से कोई नई हवा प्रवेश नहीं कर सकती. इतने असहिष्णु कि कोई कुछ विपरीत कह दे तो तुरंत संदर्भ से छिटककर पहले उसकी लानत मलामत पर उतर आते हैं, इतने रुष्ट कि वश चले तो उसका ‘लिक्वीडेशन’ ही कर डालें. 

ऐसे में क्या यह सवाल प्रासंगिक नहीं हो उठा है—धर्मों के इस विभाजनकारी, घृणा-मूलक और वर्चस्ववादी युग में समाजवाद का भविष्य और उसका भावी स्वरूप क्या होगा? और भारत तो ऐसा देश है जहाँ धर्मों के साथ-साथ जाति-व्यवस्था भी एक जबर्दस्त विभाजक तत्व है जो शिक्षा, राजनीति, प्रशासन आदि को दबोचकर प्रतिगामिता की ओर ढकेल रही है। कला और साहित्य तक जातीय अस्मितावाद के सामान्य रूप—विखंडन—और उग्र रूप--परस्पर विद्वेष एवं घृणा--की चपेट में हैं जब कि संकट वस्तुत: पूरी मानवता के लिए है।   
(समाप्त)

कमलकांत त्रिपाठी 
© Kamlakant Tripathi

भाग (2) का लिंक
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/02/2.html 

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