तुलसी के रामचरितमानस की सामान्यजन और अभिजन दोनों में अपूर्व लोकप्रियता का रहस्य संभवत: लोक-जीवन, लोक-मन और लोक-संवेदना में तुलसी की गहरी पैठ है। उन्होंने लोकभाषा में अति सरल, गेय और आसानी से याद हो जाने योग्य दोहा, चौपाई और सोरठा छंदों में लोकाख्यान लिखा और उसमें शास्त्रीय परंपरा का अपना समस्त ज्ञान समाविष्ट कर उसे सर्वसुलभ बना दिया। उनके आख्यानों में निहित भावजगत् और उनमें वर्णित मानव-स्वभाव तथा मानव-व्यवहार से सामान्यजन का तादात्म्य इस क़दर त्वरित और घनीभूत होता है कि उसमें डूबकर शास्त्रीय परंपरा के कील-काँटे सम-सोझ हो जाते हैं, उनकी धार गोठिल पड़ जाती है। कम पढ़ा-लिखा पाठक (व स्रोता) भी उनमें अपने जीवनानुभव का निचोड़, अपने मन का ऊहापोह और दिल की धड़कन महसूस करता है, अपने चारों ओर बिखरे सामान्य लोकजीवन के मासूम, निर्मल चित्र देखता है। वह इतना विभोर हो जाता है कि कई अंश अनजाने ही उसे याद हो जाते हैं और गाहे-बगाहे उन्हें सूक्ति की तरह उद्धृत करने लगता है। अकारण नहीं कि अवध में रामचरितमानस के दोहे-चौपाइयाँ और उनकी अर्द्धालियाँ लोकजीवन की ज़मीन से उपजी कहावतों, उक्तियों, मुहावरों और सुभाषितों की कोटि में दाख़िल होकर उस जीवन के अविभाज्य अंग बन चुकी हैं।
एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा—
तिन्हहि बिलोकि बिलोकति धरनी। दुहुँ संकोच सकुचति बरबरनी॥
सकुचि सप्रेम बाल मृगनयनी। बोली मधुर बचन पिकबयनी॥
सहज सुभाय सुभग तन गोरे। नामु लखन लघु देवर मोरे॥
बहुरि बदन बिधु अंचल ढाँकी। पिय तन चितइ भौंह करि बाँकी।
खंजन मंजु तिरीछे नयननि। निज पति कहेउ तिन्हहि सिय सैननि॥
(अयोध्याकाण्ड, 116: 3-7)
[वनगमन के समय राम, लक्ष्मण और सीता एक गाँव से गुज़र रहे हैं। ग्राम्य-वधुओं द्वारा सीता से राम और लक्ष्मण के बारे में पूछे जाने पर—
दोनों की ओर देखकर गौरांगी सीता अपनी निगाह धरती में गड़ा लेती हैं। दोहरे संकोच से संकुचित—न बताने पर ग्राम्य-वधुओं को बुरा लगेगा और बतायें तो राम के बारे में कैसे बतायें! आख़िर हिरणशावक-जैसे सुंदर नेत्रोंवाली और कोयल-जैसी मधुर वाणीवाली सीता ने संकोच और प्रेम से विगलित स्वर में कहा—जो सहज स्वभाव और सुंदर, गोरे शरीर के हैं, उनका नाम लक्ष्मण है, वे मेरे छोटे देवर हैं। फिर उन्होंने अपने चंद्र-मुख को आँचल से ढक लिया और राम के शरीर पर एक नज़र डालकर भौंहों को टेढ़ी किया। खंजन पक्षी-जैसी अपनी आँखो को तिरछी किया और इशारे से उन्हें अपना पति बता दिया।]
जन-ग्राह्यता के इस पहलू को तुलसी ने लगातार कितनी अहमियत दी और इस पर कितना श्रम और समय ख़र्च किया, सोचकर आश्चर्य होता है। रामचरितमानस के हर काण्ड के प्रारम्भ में आये संस्कृत श्लोकों से यह पक्ष दिन की रोशनी की तरह साफ़ हो जाता है। ये सारे श्लोक संस्कृत व्याकरण और छंदशास्त्र की दृष्टि से सर्वथा त्रुटिहीन हैं, किंतु संरचना और शब्दचयन का ऐसा जादू कि हिंदी के सामान्य जानकार के लिए भी ये सहज गम्य हैं, जैसे इन संस्कृत पदों की कोई पृथक् भाषा ही न हो! संप्रेषण में यह सहजता, सरलता और गम्यता लाने के लिए कितनी दक्षता और कितना अध्यवसाय चाहिये, किसी भी रचनाकार को सहज एहसास होगा। उसे इस विडंबना का भी एहसास होगा कि सहज, सरल, सर्वगम्य लिखना कितना कठिन, कितना श्रमसाध्य होता है। भाषा और उसकी संप्रेषणीयता के प्रति तुलसी की अक्षुण्ण प्रतिबद्धता असाधारण कोटि की है जो उनकी निराडंबर और केन्द्रीभूत जनोन्मुखता की ही परिचायक हो सकती है।
विडंबना ही है कि भक्त तुलसी की निराडंबरता ही उन्हें अपने काव्य में निजी परिवेश और संस्कार तथा सामयिक भावबोध का अतिक्रमण करने और भक्तिमार्ग में अंतर्निहित समतावाद से इतर किसी वैचारिक-सामाजिक परिवर्तन की ज़मीन बनाने में अक्षम कर देती है। वे एक निष्ठावान भक्त कवि थे, समाज-सुधारक नहीं। कबीर के लिये जो सहज था, तुलसी के लिए उनके युग और उनके परिवेश के परिप्रेक्ष्य में एक आडंबरी मानवतावाद होता। वे आध्यात्मिक निष्ठा में भक्त थे किंतु सामाजिक निष्ठा में अपने युग के एक निरीह, निर्धन, निराश्रित ही सही, संयोग से ब्राह्मण थे और उसी के अनुरूप उन्हें शिक्षा-दीक्षा मिली थी। गंगा में इतना पानी बह जाने के बाद, मौजूदा दौर के शिक्षित ब्राहमणों की (राजपूतों की भी) सामान्य मानसिकता क्या है? मेरी समझ से स्वयं को साम्यवादी घोषित करने के बावजूद कुछ ब्राह्मण और राजपूत ओढ़े हुए साम्यवाद का लबादा उतरने पर कितने दंभी ब्राह्मण / राजपूत नज़र आते हैं, यह सामान्य अनुभव का विषय होना चाहिए। ब्राह्मण और राजपूत ही क्यों, अन्य जातियों में भी ऐसे लोग मिल जायेंगे जो जातीय अस्मिता के नये उभार से इस क़दर फूले रहते हैं कि छूटते ही नीयत का सवाल उठा देते हैं और उनके साथ सदाशय, सौहार्दपूर्ण संवाद असंभव हो जाता है। ऐसे में मध्यकाल की सीमाओं से सीमित तुलसी पर आधुनिक विवेकवाद और मानवतावाद की कसौटी थोपना और इस सम्बंध में उनके विचलन को अतिक्रामक महत्व देते हुए, कवि के रूप में उनके योगदान की पूर्ण अवहेलना करने से उनका समग्र और संतुलित आकलन कैसे हो सकता है?
विशिष्टाद्वैत से उपजी सर्वजन-सुलभ सगुण विष्णु-भक्ति के श्री-संप्रदाय के संस्थापक रामानुज (1017-1137) को ब्राह्मणों के जातीय दर्प के कारण कितना कुछ झेलना पड़ा था, इतिहास में निर्विवाद रूप से दर्ज है। रामानंद की राम-केन्द्रित सगुण भक्तिधारा रामानुज के विशिष्टाद्वैत से ही निकली थी। रामानंद रामानुज की शिष्य-परंपरा में, काशी-निवासी राघवानंद जी के शिष्य थे। वही उत्तर में इस धारा के सशक्त प्रचारक सिद्ध हुए। एक परंपरा के अनुसार कबीर ने रामानंद को अपना गुरु स्वीकार किया। कबीर का मानवतावाद रामानुज और रामानंद का मानवतावाद था जो संयोग से कबीर की सामाजिक स्थिति और उनके निजी परिवेश के लिये भी मुफ़ीद था। यह ज़रूर है कि कबीर रामानंदी सम्प्रदाय की सर्वसुलभ रामभक्ति तक सीमित नहीं रहे, शंकर के अद्वैत और तांत्रिकों के इंगला-पिंगलावाद की रहस्यमय वाणी में उलटवाँसियाँ भी रचते रहे। अंतत: उन्हें निर्गुण अद्वैतवाद का वह गूढ़ पद रचना पड़ा—‘एक कहूँ तो है नहीं, दो कहूँ तो गारी / है जैसा तैसा रहे कहे कबीर बिचारी।‘ साथ ही कबीर हिंदुओं और मुसलमानों दोनों की तत्वहीन पूजा-पद्धति और सामाजिक संरचना पर क़रारी चोट करते रहे जो सिकंदर लोदी के शासन के उनके समय में संभव था, आज के धार्मिक पुनरुत्थानवाद और धार्मिक ध्रुवीकरण के समय में शायद ही संभव होता। तुलसी मूलत: उसी रामानंदी सगुण धारा के भक्त थे और वही बने रहे। किंतु अपने भिन्न निजी परिवेश के चलते, तुलसी उस उन्मुक्त दार्शनिक बिंदु तक नहीं पहुँच सके, जिस बिंदु तक कबीर पहुँचे। दूसरी ओर, तुलसी ने राम को केंद्र में रखकर जनभाषा में जो सांगोपांग प्रबंधकाव्य लिखा, वह कबीर के लिए भी असम्भव था। दोनों का आकलन उनके अलग-अलग परिवेश और अलग-अलग कोटि की उपलब्धियों के परिप्रेक्ष्य में स्वतंत्र रूप से होना चाहिये। एक के परिवेश-गत विचलन की दूसरे के आदर्श से तुलना करना समीचीन नहीं कहा जा सकता।
तुलसी एक भक्त कवि थे, भक्ति कवि की मर्यादा के प्रति सतत सावधान। उस युग की कृष्ण भक्ति धारा में प्रचलित शृंगार रस का सहारा उन्होंने कभी नहीं लिया जैसा कि उनके समकालीन सूरदास ने किया। तुलसी मर्यादा पुरुषोत्तम का चरित्र रचने की संभावना से संगर्भित (वर्णाश्रमी) सामाजिक मर्यादा के कवि थे। उनका शृंगार भी तदनुरूप सामाजिक मर्यादा का शृंगार था जो अपनी सात्विक सीमा से पाठकों और श्रोताओं को चमत्कृत करता है—
कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन राम हृदय गुनि॥
मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्हीं। मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही॥
अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सियमुख ससि भए नयन चकोरा।
भये बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल॥
(बा. कां. 229: 1-4)
[जनकपुर। पुष्पवाटिका में सीता और राम का प्रथम मिलन। अनुप्रास की अद्भुत् ध्वनि से शुरू होती है चौपाई। (सीता के हाथों के) कंगन, (कमर की) करधनी, और (पैरों के) नूपुर की मिली-जुली ध्वनि सुनकर राम हृदय में विचार करने के बाद लक्ष्मण से कहते हैं—मानो कामदेव विश्वविजय के संकल्प से दुंदुभी बजा रहे हों। ऐसा कहकर राम ने पुन: सीता की ओर देखा। फिर तो सीता का मुख चंद्रमा बन गया और राम की दृष्टि उसे निहारने वाली चकोर। सीता को देखते हुए राम के सुंदर नेत्र स्थिर हो गये। मानो निमि (जनक के पूर्वज, जिनका निवास पलकों में माना जाता है) ने सकुचाकर राम की पलकों को त्याग दिया जिससे झपने-खुलने का उनका गुणधर्म जाता रहा।]
तुलसी ने वाल्मीकि के ग्रंथ में प्रक्षिप्त (दे. अगला भाग) सीता-निर्वासन और शम्बूक-वध प्रसंग को निकाल फेंका जो वाल्मीकि के निकटतर परवर्ती कालिदास (पहली शताब्दी ई. पू.) और भवभूति (आठवीं शताब्दी) नहीं कर सके। दोनों ने सीता के व्यक्तित्व को अधिक सशक्त, अधिक मुखर ज़रूर बनाया। भवभूति ने तो सीता-निर्वासन की त्रासदी को राम की राजनीतिक विवशता के दंड स्वरूप उनकी व्यक्तिगत त्रासदी—आत्मनिर्वासन की पीड़ा--में अंतरित करने का प्रयास किया। किन्तु दोनों उत्कृष्ट कवि परंपरा को विदीर्ण करनेवाले प्रक्षिप्त को नहीं पहचान सके।
तुलसी अपने परिवेश और संस्कार में सहज रूप से व्याप्त वर्णाश्रम और उसमें निहित पूर्वाग्रहों से तो मुक्त नहीं हो पाये किंतु उन पर ब्राह्मणवादी होने का आरोप सर्वथा निराधार है। राम ने आततायी ब्राह्मण रावण का वधकर उपमहाद्वीप के निवासियों को उसके आतंक से मुक्त किया। पौराणिक परंपरा के अनुरूप, इसके बावजूद, राम को ब्रह्महत्या का पाप लगा और उन्हें उसका प्रायश्चित्त करना पड़ा। तुलसी ने ब्राह्मणों द्वारा रचित इस अयुक्तिपूर्ण मिथक का परित्याग कर दिया। दूसरे ब्राह्मण परशुराम (जिन्हें विष्णु पुराण में विष्णु के दस मुख्य अवतारों में शामिल किया गया है) को तो तुलसी ने एक हास्यास्पद खलनायक बना दिया। शिवधनुष टूटने से कुपित, अपना फरसा लिये, तड़कते-भड़कते वे रंग में भंग डालने पहुँच जाते हैं। अपने दम्भपूर्ण दुर्वचनों से पहले लक्ष्मण, फिर राम को खुलेआम अपमानित करते हैं, लक्ष्मण की तो हत्या तक करने को तत्पर हो जाते हैं। फिर जैसे तड़कते-भड़कते आये थे, राम का प्रभाव जान लेने पर वैसे ही शांत और विनत होकर तपस्या के लिये वन चले गये। तुलसी ने अपने समय के पाखंडी ब्राह्मणों की जमकर ख़बर ली है। पत्नी की मृत्यु और घर व सम्पत्ति के नष्ट होने पर गृहस्थी के उत्तरदायित्व से पलायन कर मात्र जीविका चलाने के लिये सन्यासी बननेवाले ब्राह्मणों की घोर आलोचना की है। रामचरितमानस भ्रष्ट और ढोंगी ब्राह्मणों के कुकृत्यों से भरा पड़ा है। तुलसी उन्हें निरक्षर, लोलुप, दंभी कहते हैं, समाज की पतनोन्मुखता के लिए उन्हें उत्तरदायी ठहराते हैं—जिसमें तपस्वी का बाना (बड़े नाखून और बड़ी-बड़ी जटायें) बनाये लोग (आज की ही तरह) धनवान हैं जब कि गृहस्थ दरिद्र हैं।
खलनायक की भूमिका में समुद्र द्वारा शूद्र और स्त्री की अस्मिता के विरुद्ध कहे गये वचन, रावण के वचनों की तरह ही, तुलसी के वचन नहीं माने जा सकते। किंतु तत्कालीन समाज में शूद्रों के प्रति व्याप्त पूर्वाग्रह यत्र-तत्र रामचरितमानस में निश्चय ही व्यक्त हुआ है जो बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। किंतु रामचरितमानस का कोई शूद्र पात्र खलनायक या खल की भी भूमिका में नहीं मिलता।
इसके बरअक्स सम्पूर्ण रामचरितमानस का मूल स्वर द्वंद्वों और विरोधों में समन्वय और सामंजस्य का है। तुलसी-साहित्य के विशाल फलक पर शैव-वैष्णव, भक्ति-ज्ञान, निर्गुण-सगुण, क्षत्रिय-ब्राह्मण-निषाद-भील (शबरी), मानव-बंदर-रीछ, नागर संस्कृति-वन संस्कृति, उत्तर-दक्षिण, संस्कृत-अवधी-व्रज, दोहा-चौपाई-सोरठा-कवित्त--कई-कई आयामों में सामंजस्य और समन्वय का स्वर व्याप्त है जो किसी भी अन्य कवि की तुलना में तुलसी को विशिष्ट बनाता है।
तुलसी के काव्य-व्यक्तित्व के आकलन में आनुषंगिक को उभारकर केंद्रीय अभिप्रेत की अवहेलना करना उतना ही दुर्भावनापूर्ण है जितना तत्कालीन समाज में व्याप्त स्त्रियों और शूद्रों के प्रति पूर्वाग्रह जिसे तुलसी ने अपनी स्वभावगत सरलता में यत्र-तत्र बिना किसी लाग-लपेट के व्यक्त कर दिया है। कहना नहीं होगा, तुलसी से पॅलिटिकल करेक्टनेस की अपेक्षा करना सर्वथा परिप्रेक्ष्य-विहीन होगा। तुलसी और कबीर दोनों हमारी परंपरा की उत्कृष्ट देन हैं। उनमें आज के आधुनिक भावबोध के लिए जो प्रासंगिक है उसे सँजोने और जो अप्रासंगिक है उसे त्यागने के अलावा मुझे और कोई वरेण्य और संतुलित मार्ग नहीं दिखता। परंपरा में यदि कुछ मूल्यवान है तो उसकी सार्थकता इसी में हो सकती है।
(क्रमश:)
कमलकांत त्रिपाठी
© Kamlakant Tripathi
तुलसी का योगदान (2)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/02/2_4.html
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