“यद् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोSपि”: तुलसी में वाल्मीकि के सीता-राम सम्बंध की वैकल्पिक उद्भावना (संशोधित)
भिन्न-भिन्न काल में, भिन्न-भिन्न वैचारिक समूहों का प्रतिनिधित्व करनेवाली कई रामायणें लिखी गईं किंतु देश की मुख्य धारा में वाल्मीकीय रामायण को इतनी प्रतिष्ठा मिली कि ‘रामायण’ कहने से (विशाल हिंदी क्षेत्र में तुलसीकृत रामचरितमानस को छोड़कर) सामान्यत: वाल्मीकीय रामायण का ही बोध होता है. फिर इसके लौकिक संस्कृत (आध्यात्म-प्रधान वैदिक संस्कृत के बरअक्स, लोक में प्रचलित भाषाओं के शब्द भंडार को संसृष्ट कर पाणिनि द्वारा व्याकरण के औज़ार से गढ़ी गई एक समन्वयात्मक, मानक, संपर्क भाषा) का आदिकाव्य होने तथा अंत:साक्ष्य के अनुसार वाल्मीकि के राम के समकालीन होने की मान्यताओं के चलते अन्य रामायणें इसके समकक्ष कैसे आ सकती थीं? फिर भी तुलसीदास ने रामचरितमानस लिखते समय अपनी रचना के बारे में ‘नानापुराणनिगमागमसम्मतं’ और ‘यद् रामायणे निगदितं’ के साथ ‘क्वचिदन्यतोSपि’ कहना ज़रूरी समझा. सीता का चरित्र-निर्माण शायद इस क्वचिदन्यतोSपि के विस्तार का सीमांत है.
मध्यकाल की एक नारी-केंद्रित विशेषता संभवत: अलक्षित रह गई है. इसी काल में जयदेव ने अपने गीतगोविंदम् में कृष्ण को राधाकृष्ण में अंतरित कर दिया--भागवत पुराण में राधा का नामोल्लेख तक नहीं, बस रासपंचाध्यायी (भागवत,10:29-33) के एक प्रसंग में उस (अनाम) गोपी का ज़िक्र भर है, जिससे ‘आराधित’ कृष्ण प्रसन्न होकर, रासलीला के दौरान, कुछ समय के लिए, उसे साथ लेकर अन्य गोपियों से अलग, एकांत में चले गए थे: 10:30:28. इसी काल में तुलसी ने राम को सीता-निर्वासन के कलंक से मुक्तकर सीताराम में अंतरित कर दिया जिसे लोक-परंपरा ने अपूर्व स्वीकृति और प्रतिष्ठा प्रदान की. क्या यह महज़ ‘क्वचिद्’ था ?
रामचरितमानस लिखने के प्रारंभ में ही नहीं, तो अरण्य काण्ड तक आते आते तुलसी ने सीता को वाल्मीकीय सीता की त्रासदी से मुक्त करने का इरादा बना लिया होगा। इसीलिए अरण्यकांड में बिना किसी प्रकट संदर्भ के उन्होंने एक दोहे और उसके बाद पांच चौपाइयों का समावेश किया:
लछिमन गए बनहि जब लेन मूल फल कंद।
जनकसुता सन बोले बिहसि कृपा सुख बृंद॥23॥
सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करबि ललित नरलीला॥
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा॥
जबहिं राम सब कहा बखानी। प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी॥
निज प्रतिबिम्ब राखि तहँ सीता। तैसइ सील रूप सुबिनीता॥
लछिमनहुँ यह मरमु न जाना। जो कछु रचित रचा भगवाना॥
सीता की ओर से प्रतिरोध तो दूर, किसी जिज्ञासा, किसी आशंका तक का उल्लेख नहीं. बस ‘जबहिं राम सब कहा बखानी’ के अवगुंठन में तुलसी एक दोहे व पाँच चौपाइयों से परंपरा की पूरी ज़मीन बदलकर रख देते हैं.
वाल्मीकीय रामायण के युद्धकांड में सीता-प्रसंग
वाल्मीकि ने सीता के पक्ष से अपनी प्रतिबद्धता दिखाते हुए इस प्रसंग को सात सर्गों (112-118) में विस्तार दिया है. प्रारम्भ ही संदेह का बीज बो देता है. राम हनुमान से कहते हैं--आप महाराज विभीषण की आज्ञा लेकर लंकानगरी जाएँ और सीता से मिलकर, उनका कुशल समाचार पूछकर लौट आएँ; साथ ही उन्हें सुग्रीव व लक्ष्मण सहित मेरा कुशल समाचार भी दे दें और सूचित कर दें कि रावण युद्ध में मारा गया....बस ?.... सीता अशोकवाटिका में राक्षसियों से घिरी, स्नान-रहित, मलिन और सशंक बैठी हैं. राम आदि का कुशल समाचार देकर हनुमान सीता से कहते हैं--राम अपने शत्रु का वध करके सफलमनोरथ हो गए हैं और उन्होंने आपका कुशल समाचार पूछा है. फिर अपनी ओर से जोड़ देते हैं कि उन्होंने आपके उद्धार के लिए जो प्रतिज्ञा की थी उसके लिए निद्रा त्यागकर अथक परिश्रम किया और समुद्र में पुल बाँधकर, रावण का वध करके उसे पूरी किया. सीता जी इस ‘प्रिय’ समाचार को सुनकर हनुमान को कुछ पुरस्कार देना चाहती हैं किंतु उन्हें कोई उपयुक्त वस्तु नहीं दिखती (पास में कुछ है कहाँ?). हनुमान उन्हें आश्वस्त करते हैं कि उनके (हनुमान के) सारे प्रयोजन सिद्ध हो चुके हैं और सब कुछ मिल गया है. तब सीता हनुमान से सीधे-सीधे मन की बात कहती हैं—मैं अपने भक्तवत्सल स्वामी का दर्शन करना चाहती हूँ. हनुमान उनकी इच्छा पूरी होने का भरोसा देकर लौट आते हैं.
राम से सीता को दर्शन देने की पैरवी करते हुए हनुमान बताते हैं कि सीता जी शोक-संतप्त हैं और उनकी आँखों में आँसू भरे हैं.
हनुमान की बात सुनकर राम उन्हें कुछ उत्तर देने के बजाए ध्यानस्थ हो जाते हैं. फिर नीची निगाह किए हुए विभीषण से कहते हैं--सीता को सिर से (बाल धोकर) स्नान कराने के बाद दिव्य अंगराग व दिव्य आभूषणों से सुसज्जित कर शीघ्र मेरे पास ले आइए. मर्यादानुसार निवेदित किए जाने पर सीता ने विभीषण से कहा—मैं बिना स्नान किए, अभी ही पतिदेव का दर्शन करना चाहती हूँ. विभीषण ने आग्रह किया कि आपको रामचंद्र जी की आज्ञानुसार ही करना चाहिए. आख़िर सीता ने बाल धोकर स्नान किया, सारे शृंगार किए और बहुमूल्य वस्त्राभूषण धारणकर विभीषण के संरक्षण में पालकी में बैठकर श्रीराम के शिविर में आईं. पालकी दूर रख दी गई. विभीषण ने ध्यानस्थ राम के पास जाकर सीता के उपस्थित होने की सूचना दी. किंतु राम यह सोचकर कि सीता बहुत दिनों तक राक्षस के घर में रहीं, एक साथ रोष, हर्ष और विषाद में डूब जाते हैं. उन्हें सीता के पालकी से आने पर आपत्ति-सी है. जैसे-तैसे उन्होंने सीता को पास लाने की अनुमति दी. विभीषण अपने सुरक्षाकर्मियों से वानर योद्धाओं को वहाँ से दूर हटाने लगते हैं तो राम रोषपूर्वक इस काम को रुकवाते हैं और आदेश देते हैं कि सीता पालकी छोड़कर पैदल ही मेरे पास आएँ जिससे सभी वानर बेरोकटोक उनका दर्शन कर सकें. राम के इस आदेश से विभीषण, लक्ष्मण, सुग्रीव व हनुमान बहुत व्यथित होते हैं, उन्हें लगता है, सीता के प्रति राम न केवल निरपेक्ष हो गए हैं, उनसे अप्रसन्न भी हैं. ख़ैर, लज्जा से सिकुड़ी-सहमी सीता किसी तरह विभीषण के पीछे-पीछे चलती, राम के सामने उपस्थित होती हैं और इतने दिनों बाद राम का मुख देखकर निर्मल चंद्रमा की तरह खिल उठती हैं.
राम ने सीता से कहा—युद्ध में शत्रु को पराजित कर मैंने तुम्हें उसके चंगुल से छुड़ा लिया. मेरे अमर्ष का अंत हो गया, मुझ पर लगा कलंक धुल गया, मैंने शत्रु और शत्रु-जनित अपमान दोनों को नष्ट कर दिया. सबने मेरा पराक्रम देख लिया और मैं अपनी प्रतिज्ञा के बोझ से मुक्त हो गया. चंचल-चित्त रावण द्वारा तुम्हें हर लिए जाने से दुर्भाग्यवश जो दोष मुझे लग गया था, मैंने मानवोचित पुरुषार्थ से उसका परिमार्जन कर दिया.
राम इस कार्य में हनुमान, सुग्रीव और विभीषण के बहुमूल्य सहयोग का कृतज्ञतापूर्वक विस्तार से उल्लेख करते हैं किंतु सीता को समीप देखकर उनका हृदय लोकापवाद के भय से विदीर्ण हो रहा है.
राम सीता से आगे कहते हैं—तुम्हें मालूम होना चाहिए कि मैंने जो युद्ध का उद्योग किया, जिसमें मित्रों की वीरता से मुझे विजय मिली, वह तुम्हें पाने के लिए नहीं, सदाचार की रक्षा, चारों ओर फैले अपवाद के निवारण और अपने प्रसिद्ध वंश पर लगे कलंक को धोने के लिए था.....तुम्हारे चरित्र पर संदेह का अवसर उपस्थित है और तुम मेरे सामने खड़ी हो. जिस तरह रुग्ण आँखवाले को दीपक प्रतिकूल लगता है, उसी तरह तुम मुझे अत्यन्त प्रतिकूल लग रही हो. अत: हे जनकपुत्री, तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, चली जाओ. दसों दिशाएँ तुम्हारे लिए खुली हैं, अब मुझे तुमसे कोई मतलब नहीं.....रावण तुम्हें अपनी गोद में उठाकर ले गया, दुष्ट ने तुम पर कुदृष्टि डाली. ऐसी स्थिति में अपने कुल को उच्च बतानेवाला मैं तुम्हें कैसे ग्रहण कर सकता हूँ? तुम चाहो तो भरत या लक्ष्मण के संरक्षण में सुखपूर्वक रहने पर विचार कर सकती हो. इच्छा हो तो शत्रुघ्न, सुग्रीव या विभीषण के पास भी रह सकती हो. तुम-जैसी दिव्यरूप सुंदरी को घर में मौजूद देखकर रावण बहुत दिनों तक धैर्य नहीं रख पाया होगा.
इतने सारे लोगों के सामने राम के मुख से ऐसी भयंकर बातें सुनकर सीता हाथी की सूँड़ से आहत लता की तरह आँसू बहाने लगीं. लज्जा से गड़ गईं. अपने में ही सिमटकर रह गईं.
सीता का प्रतिकार:
सीता का प्रतिकार जैसे वाल्मीकि का अपना ही उद्गार हो. आँसुओं से भीगे अपने मुख को आँचल से पोंछते हुए सीता ने धीरे-धीरे बोलना शुरू किया—हे वीर, आप ऐसी कठोर, अनुचित, कर्णकटु, रूक्ष और अकथनीय बातें क्यों कर रहे हैं जो एक निम्न स्तर का पुरुष निम्नस्तर की स्त्री से ही कर सकता है ? मैं अपने सदाचार की शपथ लेकर कहती हूँ, मैं संदेह से परे हूँ. निम्न श्रेणी की स्त्रियों का आचरण देखकर समूची स्त्री-जाति पर आपका संदेह करना उचित नही. रावण के शरीर से जो मेरे शरीर का स्पर्श हुआ, मेरी अवशता में हुआ. मेरा दुर्भाग्य, मेरे अंग पराधीन थे. जो मेरे अधीन है—मेरा हृदय—वह सदा आपमें ही अनुरक्त रहा. हम दोनों इतने दिनों साथ रहे, इस दौरान हमारा परस्पर अनुराग बढ़ता ही गया. इतने पर भी आप मुझे नहीं समझ पाए तो इसमें मेरा क्या दोष ! जब आपने मुझे देखने के लिए हनुमान जी को भेजा था, तभी मेरा परित्याग कर दिया होता तो उसी समय मैं अपने प्राणों को त्याग देती. तब आपको अपने प्राणों को संकट में डालकर युद्ध आदि का उद्योग न करना पड़ता और आपके मित्रों को भी अकारण कष्ट न उठाना पड़ता. आपने एक ओछे मनुष्य की भाँति केवल रोष का अनुसरण किया और मेरे शील-स्वभाव का विचार न कर निम्न कोटि की स्त्री मान लिया......और अंत में, हे लक्ष्मण, मेरे लिए चिता तैयार करो, मेरे दु:ख का अब यही इलाज है, मिथ्या कलंक से कलंकित होकर अब मैं जीना नहीं चाहती.
लक्ष्मण ने रोष के साथ राम की ओर देखा किंतु राम ने इशारे से अपना अभिप्राय इंगित कर दिया और उनकी सम्मति से ही उन्होंने चिता तैयार की. उस समय राम ऐसे प्रलयकालीन संहारकारी यमराज-तुल्य दिख रहे थे कि कोई मित्र उन्हें समझाने, कुछ कहने, यहाँ तक कि उनकी ओर देखने तक का साहस नहीं कर सका. जब सीता ने राम की परिक्रमा की, वे सिर झुकाए खड़े रहे. फिर सीता ने अग्निदेव के समीप जाकर कहा—यदि मेरा हृदय कभी एक क्षण के लिए भी श्री रघुनाथ से दूर न हुआ हो तो संपूर्ण जगत के स्वामी अग्निदेव मेरी सब ओर से रक्षा करें....सीता के अग्नि- प्रवेश करते समय राक्षस और वानर ज़ोर-ज़ोर से हाहाकार कर उठे और उनका आर्तनाद चारों ओर गूँज उठा.
अंतत: मूर्तिमान अग्निदेव सीता को गोद में लिए हुए चिता से ऊपर उठे और यह कहते हुए उन्हें श्रीराम को समर्पित कर दिया कि इनमें कोई पाप या दोष नहीं है.
विस्तार में सीता के सतीत्व की साक्षी में कहे गए अग्निदेव के वचन सुनकर श्रीराम प्रसन्न हो गए. उन्होंने कहा—लोगों में सीता की पवित्रता का विश्वास दिलाने के लिए यह अग्नि-परीक्षा आवश्यक थी. यदि मैं यह न करता तो लोग यही कहते कि दशरथपुत्र राम बड़ा मूर्ख और कामी है. मुझे तो पहले ही विश्वास था कि अपने ही तेज से सुरक्षित सीता पर रावण कोई अत्याचार नहीं कर सकता था, जैसे महासागर अपनी तट-भूमि को नहीं लाँघ सकता.
यह है वाल्मीकि द्वारा उकेरा गया सीता का और सीता के संदर्भ में राम का चरित्र. किंतु अभी उत्तरकांड में सीता-निर्वासन का क्रूर कर्म शेष है जो अयोध्या में फैले जनापवाद के सम्मुख अंतत: राम के नतमस्तक हो जाने का प्रतिफल है.
लंकाकांड के उक्त प्रसंग में तुलसी की सीता
तुलसी में भी लंकाकांड में यह प्रसंग आता है. उस पर ‘यद् रामायणे निगदितम्’ की छाया भी है। किंतु भक्त तुलसी अरण्य काण्ड के उपरोद्धृत एक दोहे और पांच चौपाइयों की क़िलेबंदी से अपने आराध्य राम के चारित्रिक विचलन के समाहार का मार्ग निकाल लेते हैं।
यहाँ भी श्रीराम रावण पर विजय का समाचार देने और सीता का समाचार लाने हेतु हनुमान को उनके पास भेजते हैं. यहाँ भी इस समाचार को सुनकर प्रसन्न हुई सीता हनुमान को कुछ पुरस्कार देने की इच्छा व्यक्त करती हैं और हनुमान को यह कहकर समझाना पड़ता है कि रण में शत्रु-सेना को जीतकर निर्विकार खड़े राम को देखकर मैंने जगत् का राज्य पा लिया. यहाँ भी सीता ने हनुमान से ऐसा उपाय करने का आग्रह किया कि वे श्रीराम के कोमल श्याम शरीर का दर्शन कर सकें. लेकिन इसके आगे की कथा कुछ अलग राह पर चलती है.
हनुमान से सीता की राम को देखने की इच्छा की सूचना पाकर राम ने विभीषण और युवराज अंगद को बुलाया और उन्हें हनुमान के साथ अशोक वाटिका जाकर आदर के साथ सीता को ले आने को कहा. जब तीनों सीता के पास पहुँचे, राक्षसियाँ विनीत भाव से उनकी सेवा में लगी थीं. विभीषण के आदेश पर इन राक्षसियों ने विधिवत् सीता का स्नान कराया. अनेक प्रकार के आभूषण पहनकर सीता हर्ष के साथ एक सुंदर पालकी में सवार हुईं. पालकी के चारों ओर हस्तदंड लेकर रक्षक चले. जब रीछ-वानर सीता के दर्शन के लिए उमड़ने लगे, रक्षक क्रुद्ध होकर उन्हें हटाने दौड़े. तब श्रीराम ने हँसकर कहा, बेहतर होगा, सीता पैदल ही आएँ जिससे वानर उन्हें माता की तरह देख सकें. राम की बात सुनकर रीछ-वानर प्रसन्न हो गए. आकाश से देवताओं ने पुष्प-वर्षा की.
और तब अरण्यकांड में जोड़े गए उपरोक्त अंश से तुलसी ने तार जोड़ दिया:
सीता प्रथम अनल महुँ राखी. प्रगट कीन्हि चह अंतर साखी.
{सीता को (राम ने) पहले अग्नि में रख दिया था. अंतर्यामी राम अब उन्हें प्रकट करना चाहते हैं.}
और आगे-
तेहि कारन करुनानिधि कहे कछुक दुर्बाद। सुनत जातुधानीं सब लागीं करै विषाद॥
{इसी कारण करुणानिधि राम ने कुछ कटु वचन कहे जिन्हें सुनकर राक्षसियों को विषाद हुआ.}
राम ने कुछ कटु वचन कहे--किसके लिए और क्यों? निश्चय ही वे सीता के लिए थे. किंतु तुलसी सीता का नाम तक नहीं लेते. सीता पर उनका क्या प्रभाव पड़ा और उनकी क्या प्रतिक्रिया रही, तुलसी मौन. कटु वचन का एक ही असर हुआ कि उसे सुनकर राक्षसियों को विषाद हुआ. स्वाभाविक है, राक्षसियों को सीता के प्रति सहानुभूति थी. लेकिन स्वयं सीता को क्या हुआ? तुलसी इसे स्पष्ट करने की ज़रूरत नहीं समझते क्योंकि प्रस्तुत सीता छाया सीता हैं. राम व सीता दोनों इस तथ्य को जानते हैं।
इसके ठीक बाद की चौपाइयों में सीता राम के वचन को शिरोधार्य कर लक्ष्मण से शीघ्रता से चिता लगाने की बात करने लगती हैं:
प्रभु के वचन सीस धरि सीता। बोली मन क्रम वचन पुनीता॥
लछिमन होहु धरम के नेगी। पावक प्रगट करहु तुम बेगी॥
यहाँ वाल्मीकि के लक्ष्मण के अनुरूप तुलसी के लक्ष्मण ने भी राम से कुछ अपेक्षा की. किंतु उनकी ओर रोषपूर्वक देखकर नहीं. बस सजल नेत्रों से दोनों हाथ जोड़कर खड़े रह गए. और राम की चुप्पी से लक्ष्मण को उनका रुख़ समझ में आ गया तो दौड़कर चिता लगाने में व्यस्त हो गए.
चूंकि रामचरितमानस में जिस सीता का हरण हुआ था, वे असली नहीं, छाया सीता थीं, रावण के संपर्क में आने से सीता के प्रति राम के मन में किसी तरह के संदेह या क्रोध के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी. उनके कटु वचन बनावटी थे. सिर्फ़ इसलिए कहे गए ताकि छाया सीता अग्नि में समा जायँ और अग्निदेव असली सीता को (जो अरण्यकांड में अग्नि की सुरक्षा मे रख दी गई थीं) प्रकट कर दें.
यहां कथा की अन्विति में दोष देखा जा सकता है। पाठक तो यह रहस्य जानते हैं, इसलिए उन्हें राम के द्वारा यूं ही कुछ कटु वचन कहे जाने और सीता के तत्काल अग्निपरीक्षा के लिए तत्पर हो जाने से कोई अचंभा नहीं होगा. किंतु सुधी पाठक वहां उपस्थित लक्ष्मण, विभीषण, वानरसेना और राक्षसियों पर भी सुसंगत प्रतिक्रिया की अपेक्षा कर सकता है. यहां थोड़ी समस्या है। राम द्वारा वनवास काल में असली सीता को अग्नि को समर्पित कर, आगे की लीला के लिए छाया सीता का निर्माण अतिशय गोपन होने से लक्ष्मण तक को इसकी भनक नहीं. इसलिए सभी उपस्थितों की निगाह में सीता की पवित्रता सिद्ध करने के लिए अग्नि-परीक्षा का प्रसंग लाना आवश्यक था. किंतु तुलसी ने उसे असली सीता की छाया सीता से अदलाबदली के रूप में प्रस्तुत किया। सवाल है, उपस्थित लोगों की दृष्टि में अग्नि परीक्षा का अवसर क्यों और कैसे उपस्थित हुआ ? राम ने कटु वचन क्यों कहे और सीता उन्हें सुनकर चुपचाप अग्निपरीक्षा के लिए राज़ी कैसे हो गईं ? भक्त तुलसी इस किंचित् अन्विति-दोष की परवाह नहीं करते. वाल्मीकि ने राम और सीता के बीच जो कटु संवाद कराया था, वह भक्त तुलसी के लिए असंभव था. अपने आराध्य राम और माता सीता के मध्य वैसा कटु और अप्रिय दृश्य उपस्थित करना तुलसी के लिए अकल्पनीय था, राम और सीता दोनों की मर्यादा का हनन था। तो उन्होंने पूरे अप्रिय प्रसंग को एक चौपाई में समेट लिया—‘तेहि कारन करुनानिधि कहे कछुक दुर्बाद। सुनत जातुधानीं सब लागीं करै विषाद॥‘ इसमें सिर्फ़ एक शब्द है दुर्बाद और उसका असर है राक्षसियों का विषाद, छाया सीता ने उसे कैसे लिया, इस पर तुलसी मौन हैं. इसके बाद छाया सीता लक्ष्मण से शीघ्रता के साथ अग्नि प्रकट करने का निवेदन करने लगती हैं और किसी को कोई आश्चर्य नहीं होता.
इसी अग्नि-परीक्षा की बुनियाद पर तुलसी उत्तरकांड में सीतानिर्वासन प्रसंग को सिरे से ख़ारिज कर देते हैं. बचकर निकलते नहीं, बिल्कुल नकार देते हैं। उन्होंने लव और कुश का जन्म दिखाया किंतु वन में नहीं, अयोध्या में. वाल्मीकि को अस्वीकार करने के लिए तुलसी कोई प्रत्याख्यान नहीं रचते। बस छाया सीता की उद्भावना से उसका समाहार निकालते हैं। राम और उनके भ्राताओं के पुत्र-जन्म का प्रसंग तुलसी महज़ तीन चौपाइयों में समेटकर निकल जाते हैं--
दुइ सुत सुंदर सीता जाए। लव कुस बेद पुरानन्ह गाए॥
दोउ विजई बिनई गुन मंदिर। हरि प्रतिबिंब मनहुँ अति सुंदर॥
दुइ दुइ सुत सब भ्रातन्ह केरे। भए रूप गुन सील कनेरे॥
(दोहा-24 के बाद पाँचवीं, छठी और सातवीं चौपाइयाँ)
कहा जा सकता है कि अयोध्या में लव और कुश का जन्म महज़ ‘क्वचिदन्यतोsपि’ (कुछ जोड़ना भर) नहीं है। इस बिंदु पर आदिकावि का पूर्ण अस्वीकार और वैकल्पिक संरचना है। लव और कुश का ज़िक्र ही न आता तो वह शम्बूक प्रसंग की तरह बचकर निकल जाना कहा जा सकता था. किंतु यहां लव कुश का जन्म वन के बजाय अयोध्या में दिखाकर तुलसी आदि कवि की परंपरा के विरुद्ध मौन विद्रोह करते हैं। अपने लोकमंगलकारी भक्त व्यक्तित्व के सर्वथा अनुरूप।
वाल्मीकीय रामायण और तुलसीकृत रामचरितमानस का विस्तृत तुलनात्मक अध्ययन दोनों महाकवियों की दृष्टि और युगबोध की भिन्नता समझने में तो सहायक होगा ही, तुलसी के ‘यद् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोSपि’ की कठिन कसौटी और इसकी सीमाओं का भी ख़ुलासा करेगा.
(क्रमशः)
कमलाकांत त्रिपाठी
© Kamlakant Tripathi
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