Thursday 9 February 2023

कमलकांत त्रिपाठी / तुलसी का योगदान (5) तुलसी का रामचरितमानस और वाल्मीकीय रामायण का मूल स्वरूप - ख. पिछली पोस्ट—भाग 4, उपखंड क से आगे

इस विषय की पिछली पोस्ट (भाग-चार) में वाल्मीकीय रामायण के युद्धकाण्ड के अंतिम सर्ग (128) में फलश्रुति (ग्रंथ के माहात्म्य) का ज़िक्र आया था। इस सर्ग के अंत के कुल 19 (107-125) श्लोक रामायण की फलश्रुति का उल्लेख करते हैं। इस संदर्भ में स्पष्ट कर दिया जाये कि वाल्मीकीय रामायण में केवल दो काण्ड ही प्रक्षिप्त नहीं है, शेष काण्डों में भी बीच-बीच में प्रक्षिप्त जोड़े गये हैं। (देखें आगे)। उपरोक्त फलश्रुति तो पूरी की पूरी प्रक्षिप्त है। फलश्रुति के पहले ही श्लोक से स्पष्ट हो जाता है—

धर्म्यं यशस्यमायुष्यं राज्ञां च विजयावहम्‌। आदिकाव्यमिदं चार्षं पुरा वाल्मीकिना कृतम्‌॥107॥ 

[यह (महाकाव्य) धर्म, यश और आयु की वृद्धि करनेवाला तथा राजाओं के लिये विजयदायी है। यह आदिकाव्य है जिसे पूर्वकाल में ऋषि वाल्मीकि ने रचा था।] 

यह शायद वाल्मीकीय रामायण का एकमात्र श्लोक हो जिसमें किसी अन्य ने अपनी ओर से वाल्मीकि का नाम लेकर उनके बारे में कुछ लिखा है।   

इसके आगे के 18 श्लोक इस ग्रंथ को पढ़ने-सुनने से होनेवाले लाभों का पारंपरिक शैली में बढ़ा-चढाकर वर्णन करते हैं, जो यहाँ प्रासंगिक नहीं है। 

इन श्लोकों का प्रक्षेपक एक सरल, मासूम व्यक्ति लगता है। यह कार्य वह वाल्मीकि का स्थापन्न बनकर नहीं करता, स्वयं से पृथक्‌ उनका उल्लेख करता है, उन्हें पूर्वकाल का ऋषि बताता है. इस फलश्रुति से स्पष्ट हो जाता है कि इसके सन्निवेश के समय तक रामायण में कम से कम उत्तरकाण्ड नहीं था, अन्यथा, परम्परानुसार, फलश्रुति उत्तरकाण्ड के अंत में आती। तात्पर्य यह कि फलश्रुति उस आदिकाव्य की है जिसमें उत्तरकाण्ड शामिल नहीं है। स्पष्ट है कि यह ‘प्रक्षेपक’ शुरूआती दौर के प्रक्षेपकों में था, बल्कि असली अर्थ में प्रक्षेपक था ही नहीं। किंतु उत्तरकाण्ड को प्रक्षिप्त मानने का एक ठोस आधार अवश्य दे गया। बाद में आनेवाले उत्तरकाण्ड के घाघ प्रक्षेपकों ने उस काण्ड के अंतिम सर्ग (111) में फलश्रुति का समावेश तो किया किंतु युद्धकाण्ड में पहले ही आ चुकी फलश्रुति को हटाना भूल गये (अकृत्य करनेवाले कोई न कोई निशान छोड़ ही जाते हैं)। परिणाम यह हुआ कि आज उपलब्ध
वाल्मीकीय रामायण  में दो-दो जगह फलश्रुति मिलती है जो परंपरा के सर्वथा विपरीत है। छोटी-मोटी फलश्रुतियाँ बीच में भी मिल जायेंगी लेकिन वे सही अर्थ में फलश्रुति नहीं हैं। यह भी हो सकता है कि लौकिक संस्कृत के आदिकवि वाल्मीकि के समय तक किसी भी कृति में झूठी-सही फलश्रुति का पुछल्ला जोड़ने की परंपरा ही न रही हो।  

क्या वाल्मीकि राम के समकालीन थे (अंत:साक्ष्य के परिप्रेक्ष्य में)?  

वाल्मीकीय रामायण के बालकाण्ड के सर्ग-1 से सर्ग-4 तक वाल्मीकि-केंद्रित हैं। सर्ग-1 में नारद वाल्मीकि को संक्षेप में रामकथा सुनाते हैं। तब तक सीता के साथ लंका से लौटने पर राम को अयोध्या का राज्य प्राप्त हो चुका था। किंतु राम भविष्य में क्या करेंगे, नारद इसका भी एक ख़ाक़ा खींच देते हैं। भविष्य के संदर्भ में वे रामराज्य की अलौकिक सुव्यवस्था का वर्णन करते हैं, (भविष्य में) राम द्वारा अश्वमेध यज्ञ किये जाने, ग्यारह हज़ार वर्षों तक राज्य किये जाने, और उसके बाद उनके परमधाम पधारने का उल्लेख करते हैं। रामायण (तब तक थी कहाँ?) की संक्षिप्त फलश्रुति भी बता देते हैं। सर्ग-2 में तमसा के तट पर निषाद द्वारा क्रौञ्च-युगल में नर क्रौञ्च का वध किये जाने पर मादा के चीत्कार से द्रवित वाल्मीकि में श्लोक छंद में (लौकिक संस्कृत की प्रथम कविता?) का स्फोट होता है—मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती: समा:। यत्‌ क्रौञचमिथुनादेकमवधी: काममोहितम्‌॥15॥ 

वाल्मीकि इस अनायास स्फुटित श्लोक से विस्मित-संभ्रमित, अपने शिष्य भरद्वाज के साथ इस पर वार्ता करते हुए आश्रम पहुँचते हैं। तभी आश्रम में ब्रह्मा का आगमन होता है। वाल्मीकि यह श्लोक ब्रह्मा को सुनाते हैं। ब्रह्मा उसे अपने संकल्प और प्रेरणा का परिणाम बताकर वाल्मीकि को नारद द्वारा बतायी गई रामकथा के आधार पर रामकाव्य का सृजन करने का आदेश देते हैं। तदुपरांत वाल्मीकि राम के ‘उदार चरित’ का प्रतिपादन करनेवाले, ‘मनोहर पदोंवाले’ महाकाव्य की रचना कर डालते हैं (कितना समय लगा, किसी  को जानने की जिज्ञासा ही नहीं हुई)। सर्ग-3 में इस  महाकाव्य की विषय-वस्तु का वर्णन है। सर्ग-4 में वाल्मीकि 24 हज़ार श्लोकों का रामकाव्य लव-कुश को ‘पढ़ाते’ हैं। लव-कुश मुनिमंडली में उसका गायन करते हैं और प्रशंसित होते हैं। फिर एक दिन जब वे अयोध्या के मार्गों पर रामायण का गायन करते हुए विचर रहे होते हैं, उन पर राम की नज़र पड़ जाती है। राम उन्हें बुलाकर सम्मानित करते हैं और अयोध्या के राज-दरबार में वीणा-वादन के साथ उनका गायन सुनते हैं। यह उत्तरकाण्ड में राम के अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर लव-कुश द्वारा किये गये रामायण-गान से भिन्न है लेकिन बालकाण्ड में रामायण-गायन के इस प्रसंग का कोई संदर्भ उत्तरकाण्ड के गायन के प्रसंग में नहीं आता, जैसे राम उत्तरकाण्ड में पहली बार लव-कुश का रामायण-गान सुन रहे हों। प्रक्षेपण करनेवाले अन्विति का इतना ध्यान कहाँ रख पाते हैं!  

इन सर्गों में कहीं वाल्मीकि के अतिरिक्त किसी अन्य द्वारा इनके रचित होने का संकेत नहीं मिलता। जैसे वाल्मीकि ख़ुद अपनी कथा अपने लिए अन्यपुरुष का प्रयोग करते हुए लिख रहे हों।  

इस तरह वाल्मीकीय रामायण का प्रणयन कथा के आरम्भ में ही हो चुका होता है। किंतु आगे की कथा किसी स्थान विशेष पर विराजमान किसी के द्वारा वाचन का संकेत नहीं करती। सामान्य शैली में लिखी गई है जिससे आभास तो यही होता है कि वाल्मीकि क्रमवार उसकी रचना कर रहे हैं। 

किंतु सबसे बड़ी विसंगति यह है कि नारद के आगमन और रामकथा के संक्षिप्त वर्णन के समय तक राम बस अयोध्या लौटकर राज्य सँभाल पाये थे। आगे की कथा नारद ने भविष्यवाचन के रूप में बताई थी। उनके बताने के तत्काल बाद क्रौञ्च वध होता है, ब्रह्मा जी पधारते हैं, वाल्मीकीय रामायण की रचना होती है और लव-कुश द्वारा उसका गायन भी होने लगता है। उत्तरकाण्ड में सीता-निर्वासन तो राम द्वारा राज्य सँभाले जाने के काफ़ी समय बाद दिखाया गया है किंतु लवकुश रामायण लिखे जाने के तुरंत बाद कथा में कैसे प्रकट हो जाते हैं? अकारण नहीं कि विद्वानों ने उत्तरकाण्ड के साथ-साथ बालकाण्ड को भी प्रक्षिप्त माना है (आगे देखें), जो इस काण्ड के बिखरे हुए परस्पर असम्बद्ध प्रसंगों के अतिरिक्त इस अयुक्ति से भी सिद्ध होता है। वाल्मीकि को राम का समकालीन सिद्ध करने की गढंत का हिस्सा है यह।

राम और वाल्मीकि की समकालीनता (प्रक्षिप्त) उत्तरकाण्ड में पुन: प्रतिष्ठित होती है। इस संदर्भ में उत्तरकाण्ड के सर्ग-45, 49, 65, 66, 71, 72, 93, 94, 96, 97 और 98 द्रष्टव्य हैं।

सर्ग-45--सीता-केन्द्रित लोकनिन्दा से अवगत होने पर, तीनों भाइयों के साथ परामर्श करने और उनकी एकराय का कठोर राजधर्म के आधार पर खण्डन करने के बाद, राम लक्ष्मण से सीता को वन में छोड़ने के लिये कहते हैं। उन्हें हिदायत भी दे देते हैं—गंगा के उस पार, तमसा के तट पर वाल्मीकि का आश्रम है, उसी के निकट निर्जन वन में सीता को छोड़ देना (श्लोक-17,18)। 

सर्ग-49—निर्जन वन में सीता को अकेली विलाप करती देखकर कुछ ऋषिकुमारों ने वाल्मीकि को इसकी सूचना दी। तदुपरांत ऋषिकुमारों के साथ वाल्मीकि गंगातटवर्ती उस स्थान पर गये, दिव्यदृष्टि से सीता को पहचान लिया और उन्हें निर्दोष भी जान लिया। तब वे सीता को आश्रम के पास रहनेवाली कुछ तापसी स्त्रियों के पास ले आये, उन्हें सीता का परिचय दिया, उनके निष्पाप होने की बात बताई और देखभाल के लिए उन्हीं को सौंपकर आश्रम लौट आये (श्लोक--1-23)। 

सर्ग-65—राम की आज्ञा से लवणासुर का वध करने निकले शत्रुघ्न ने वाल्मीकि आश्रम में एक रात बिताई (श्लोक--2-7)। 

सर्ग-66—उसी रात सीता के जुड़वाँ पुत्र उत्पन्न हुए, मुनिकुमारों से समाचार पाकर वाल्मीकि तापसी स्त्रियों के आवास-खण्ड में स्थित सीता की पर्णकुटी तक गये, आवश्यक व्यवस्थाओं का निर्देश दिया और पुत्रों का नामकरण किया। ख़बर पाकर शत्रुघ्न भी रात में ही वहाँ  पहुँच गये (किंतु वल्मीकि के साथ नहीं) और सीता का दर्शन किया। 

सर्ग-71—लवणासुर के वध के बाद अयोध्या लौटते समय शत्रुघ्न पुन: वाल्मीकि-आश्रम पधारे, वहाँ भोजन किया, लव-कुश को बिना देखे रामायण का गायन सुना, सुनकर विस्मित भी हुये, किंतु गायकों के बारे में बिना कुछ पूछे, अपने शिविर लौट गये। 

सर्ग-72—प्रात:काल शिविर में नित्यकर्म से निवृत्त होकर शत्रुघ्न पुन: वाल्मीकि आश्रम आये किंतु इस बार भी सीता के पुत्रों—रामायण-गायकों--के बारे में कोई जिज्ञासा व्यक्त नहीं की। वाल्मीकि की आज्ञा लेकर वे अयोध्या के लिये प्रस्थान कर गये। 

लवणासुर अभियान में 12 साल लग गये थे। वाल्मीकि-आश्रम में शत्रुघ्न के दोनों पड़ावों के बीच के अंतराल में लव-कुश 12 वर्ष के हो गये थे, रामायण यादकर उसका गायन करने लगे थे। किंतु शत्रुघ्न ने दूसरे पड़ाव में न तो उनके बारे में कुछ पता लगाया, न ही वहाँ से अयोध्या लौटकर सीता और लव-कुश के बारे में राम को कुछ बताया। सात दिन अयोध्या में रहने के बाद, राम के आदेश पर, शत्रुघ्न यमुनातटवर्ती मधु प्रदेश की राजधानी मधुपुरी चले गये; राम ने उन्हें लवणासुर के वध के बाद उसके अत्याचारों से पीड़ित मधु प्रदेश के राजा के रूप में अभिषिक्त कर दिया था (सर्ग-63)। 

सर्ग-93—राम ने जब नैमिषारण्य में गोमती के तट पर अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया, वाल्मीकि अपने शिष्यों के साथ (अनाहूत, उन्हें क्यों नहीं बुलाया गया?) उसमें पधार गये और ऋषियों के लिए बने कुटीरों के पास अपने और अपने शिष्यों के रहने के लिए पर्णकुटीर बनवाकर उन्हीं में रहने लगे। उन्होंने अपने दो हृष्ट-पुष्ट शिष्यों (लव-कुश) को आदेश दिया कि वे चारों ओर घूम-घूम कर रामायण काव्य का गायन करें। विशेषकर राम के निवास और यज्ञ के ऋत्विजों के सामने। उन्हें यह भी सिखा दिया कि यदि राम उनसे पूछें कि वे किसके पुत्र हैं तो उत्तर में अपने को केवल ‘महर्षि’ वाल्मीकि का शिष्य बताएँ। लव-कुश द्वारा तदनुरूप घूम-घूम कर वीणावादन के साथ संगीत की उत्कृष्ट और त्रुटिहीन पद्धति से किये जा रहे गायन को राम ने सुन लिया। भरत को उन्हें अठारह-अठारह हज़ार स्वर्णमुद्रायें पुरस्कार में देने को कहा। भरत उन्हें स्वर्णमुद्राएँ देने लगे तो दोनों ने अस्वीकार करते हुए कहा—हम वनवासी हैं, जंगली फल-मूल से निर्वाह करते हैं, सोना लेकर क्या करेंगे? तब राम ने दोनों से पूछा--जो महाकाव्य आप गा रहे हैं उसकी श्लोक-संख्या कितनी है, उसके रचयिता कौन हैं और वे कहाँ रहते हैं? दोनों ने बताया—इस महाकाव्य में 24 हज़ार श्लोक हैं, इसके रचयिता भगवान्‌ वाल्मीकि हैं और वे इस यज्ञ में पधारे हुए हैं। तब यज्ञ के आयोजन में आये राजाओं और ऋषियों के साथ बैठकर राम ने रामायण {जो राम की अपनी ही कथा थी, किंतु उसमें सीता की (प्रक्षिप्त) त्रासदी शामिल नहीं की गई थी} का विधिवत्‌ गायन सुना। 

सर्ग-95—इस तरह कई दिनों तक राम ऋषियों, राजाओं और वानरों  के साथ रामायण का गायन सुनते रहे। तब उन्होंने वाल्मीकि के पास शुद्ध आचार-विचारवाले दूतों के माध्यम से संदेश भेजा—यदि सीता का चरित्र शुद्ध है, उनमें किसी तरह का पाप नहीं है तो आपकी अनुमति लेकर वे कल सुबह यहाँ भरी सभा में आयें और जनसमुदाय के सामने “अपनी शुद्धता प्रमाणित कर मेरा कलंक दूर करें।” [कैसी दुराग्रही क्रूरता, प्रजा की नहीं, स्वयं राम की, जिन्होंने युद्धकाण्ड में बेहद अप्रिय दृश्य उपस्थित कर सीता को अग्निपरीक्षा के लिये बाध्य किया था--आ चुका है।]  वाल्मीकि ने संदेश सुनकर कहा—ऐसा ही होगा [वहाँ सीता कहाँ थीं? वाल्मीकि आश्रम से नैमिषारण्य के यज्ञस्थल तक वाल्मीकि और उनके शिष्यों के साथ सीता के भी आने का उपरोक्त सर्ग-93 में कोई उल्लेख नहीं है।] 

सर्ग-96—दूसरे दिन सुबह-सुबह राम यज्ञशाला पहुँचे और सभी ऋषियों को वहाँ बुलाया। कुछ बिना बुलाये, कौतूहलवश भी आ गये। महापराक्रमी राक्षस और महाबली वानर भी कौतूहलवश वहाँ इकट्ठे हो गये। नाना देशों से पधारे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हज़ारों की संख्या में आ जुटे। इस जमावड़े के बारे में सुनकर वाल्मीकि जी सीता को साथ लेकर शीघ्र वहाँ पहुँच गये। सीता तपस्विनी का गेरुआ वस्त्र पहने हुए थीं। वे वाल्मीकि के पीछे-पीछे, सिर झुकाये, दोनों हाथ जोड़े हुए चल रही थीं, उनकी आँखों से झर-झर आँसू गिर रहे थे, वे लगातार अपने हृदय में राम का ध्यान कर रही थीं। जनसमुदाय के बीच पहुँचकर वाल्मीकि राम से बोले—सीता उत्तम व्रत का पालन करनेवाली, धर्मपरायणा हैं। आपने लोकापवाद से डरकर उन्हें मेरे आश्रम के निकट छोड़ दिया था। लोकापवाद से भयभीत आपको सीता अपनी शुद्धता का विश्वास दिलाना चाहती हैं। आप आज्ञा दें। ये दोनों कुमार कुश और लव सीता के गर्भ से जुड़वाँ उत्पन्न हुए हैं। ये आपके ही पुत्र हैं और आपके ही समान दुर्धर्ष वीर हैं। हे राम, मैं प्रचेता (वरुण) का दशम पुत्र हूँ। मेरे मुँह से कभी असत्य नहीं निकला है। मैं सत्य कहता हूँ, ये दोनों आपके ही पुत्र हैं। मैंने कई हज़ार वर्षों तक तपस्या की है। यदि सीता में कोई दोष हो तो मेरी तपस्या का फल नष्ट हो जाये.... (श्लोक 16-20)। अपनी सत्यनिष्ठा पर वाल्मीकि का वक्तव्य सर्ग के अंतिम श्लोक 24 तक जारी रहता है।

सर्ग-97—अपनी ज़िद पर अड़े राम ने वाल्मीकि को उत्तर दिया‌‌--आपके निर्दोष वचनों से मुझे सीता की शुद्धता पर पूरा विश्वास हो गया है। एक बार पहले भी (युद्धकाण्ड में अग्निपरीक्षा से) सीता की शुद्धता का प्रमाण मुझे प्राप्त हो चुका है जिसके कारण मैंने इन्हें अपने घर में स्थान दिया था। किंतु आगे चलकर घोर लोकापवाद उठा, जिससे विवश होकर मुझे इनका त्याग करना पड़ा। यह जानते हुये भी कि सीता सर्वथा निष्पाप हैं, मैंने केवल समाज के भय से इनका परित्याग किया। मैं यह भी जानता हूँ कि ये जुड़वाँ पुत्र  मेरे ही हैं। किंतु अब तो जनसमुदाय के बीच सीता के शुद्ध प्रमाणित होने पर ही मेरा इनसे (पुत्रों से) प्रेम हो सकता है...तब सीता ने कहा—राम के सिवा किसी अन्य पुरुष की ओर मेरा कभी चित्त तक नहीं गया (स्पर्श तो दूर की बात है)। यदि मैं मन, वाणी और कर्म से केवल राम की ही आराधना करती हूँ, उनके अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष को नहीं जानती तो भगवती पृथ्वी मुझे अपनी गोद में स्थान दें (श्लोक-15-16)।  सीता के इस प्रकार पृथ्वी की शपथ लेते ही भूतल से एक दिव्य, सुंदर सिंहासन प्रकट हुआ। दिव्य रत्नों से विभूषित, महापराक्रमी नागों ने उसे सिर पर धारण कर रखा था। सिंहासन के साथ ही पृथ्वी की अधिष्ठात्री देवी भी अपने दिव्य रूप में प्रकट हो गईं। दोनों भुजाओं से उन्होंने सीता को अपनी गोद में उठाया और सिंहासन पर आसीन करा दिया। सिंहासन पर विराजमान सीता जब रसातल में प्रवेश कर रही थीं, देवगण आकाश से पुष्पवर्षा कर रहे थे। सीता का भूतल में प्रवेश देखकर वहाँ उपस्थित कुछ लोग हर्ष (?) में तो कुछ विषाद में डूब गये। दो घड़ी तक सभी मोहाच्छन्न-से जड़वत्‌ बने रहे (श्लोक-17-26)। अगले सर्ग में राम के शोक का विस्तार से वर्णन है। 

[उत्तरकाण्ड का उपरोक्त विवरण इतना ढीला-ढाला, असम्बद्ध और अयुक्तियों तथा अत्युक्तियों से भरा हुआ है कि संक्षेप में गम्य बनाने के लिये काफ़ी मशक़्क़त करनी पड़ी है।]

ध्यान देने की बात यह है कि प्रक्षेपकों ने प्रबंध की अपनी अधकचरी क्षमता और असंतुलित दृष्टि के चलते राम को कहीं तो ईश्वरत्व से महिमामंडित कर अतिमानव बना दिया है तो कहीं औसत मनुष्यता से भी नीचे गिरा दिया है। युद्धकाण्ड में राम के कटु, कठोर किंतु प्रिय जीवनसाथी के प्रति मानवोचित असुरक्षा-भाव से उपजे संदेह, ईर्षा और अविश्वास के भावों ने सीता को अग्निपरिक्षा की ओर ठेला। इसके बावजूद उत्तरकाण्ड के प्रक्षेपकों ने पहले तो राम की आत्यंतिक रूप से    लोकापवाद-भीरु, एक कमज़ोर राजा की छवि गढ़ते हुए उनसे गर्भवती सीता का परित्याग कराया। फिर तथ्य को भलीभाँति जानते हुए भी राम को अपने असंवेदनशील दुराग्रह पर अड़ा हुआ दिखाकर उन्हें निरपराध सीता की मृत्यु का भी कारण बना दिया। उत्तरकाण्ड के शम्बूक प्रसंग में भी यही असंवेदनशीलता अपने अधिक क्रूर, अधिक अमानवीय संस्करण में दिखती है। यह वाल्मीकि की प्रबंध-शैली नहीं है। वाल्मीकि ने अतिप्राचीन काल से लोक में प्रचलित रामकथा के महत्वपूर्ण अंश राम की यात्रा को एक सुव्यवस्थित महाकाव्य का रूप प्रदान किया था। उनके लिये राम एक आदर्श पुरुष, आदर्श राजा हैं, लोकनायक हैं, जीवनमूल्यों की रक्षा के लिए सब कुछ न्योछावर करने को तत्पर रहते हैं। किंतु हैं मनुष्य ही, मनुष्य की संवेदना, उसके राग-विराग, उसकी मानवीय कमज़ोरियों से शासित होते हैं, उनसे त्रुटियाँ भी होती हैं, उनका परिमार्जन भी करते हैं। अयोध्याकाण्ड से युद्धकाण्ड तक उनका यह चरित्र सुसंगत एकरूपता में प्रतिबिम्बित होता है। किंतु प्रक्षेपकों ने जहाँ बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड जोड़कर कथा के अभिप्रेत और उसकी अन्विति को नष्ट कर दिया, वहीं अन्य काण्डों में भी यत्र-तत्र छिटपुट श्लोक घुसाकर राम की वाल्मीकि-निर्मित आदर्श मनुष्य, उदात्त लोकनायक की छवि को भी ऊपर उठाकर या नीचे गिराकर खंडित कर दिया।

बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड के उपरोक्त प्रसंग ही वाल्मीकि और राम को समकालीन बनाते हैं। ये प्रसंग ख़ुद वाल्मीकि द्वारा लिखे हुए होने का आभास देते हैं। किंतु सवाल है, वाल्मीकि अपने बारे में लिखते समय अन्य चरित्रों की तरह अन्य पुरुष में क्यों लिखेंगे? रचनाकार का, किसी भी कलाकर का, अपनी कलाकृति में अपने नाम का उल्लेख तक भारतीय परंपरा के प्रतिकूल है।  ऐसे में वाल्मीकि अपना ही गुणगान कैसे करेंगे? उत्तरकाण्ड के उपरोक्त प्रसंग में एक पात्र के रूप में वाल्मीकि की सत्यनिष्ठा पर लम्बा व्याख्यान चलता है जिसका केवल एक अंश ऊपर उद्धृत है।

मूल मुद्दा है क्या बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड के उपरिवर्णित प्रसंगों के अनुरूप वाल्मीकि को राम का समकालीन माना जा सकता है? यह इतिहास और भाषाविज्ञान दोनों का विषय है। कट्टर परंपरावादियों को छोड़ दें तो मेरी जानकारी में इतिहास या भाषाविज्ञान का कोई विद्वान वाल्मीकि को राम का समकालीन नहीं मानता। यह ज़रूर सर्वमान्य है कि वाल्मीकि लौकिक संस्कृत के आदिकवि हैं। सवाल है लौकिक संस्कृत साहित्य की भाषा कब बनी?   

वैदिक युग की मानक भाषा केवल आर्ष ग्रंथों (संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्‌) तक सीमित है। वैदिक युग की समाप्ति पर भिन्न-भिन्न क्षेत्र की प्राकृतों (पालि उनमें से एक क्षेत्र विशेष की प्राकृत थी) के साथ व्यवहार यानी बोलचाल में वैदिक भाषा से उद्भूत उसका एक परिवर्तित रूप प्रचलित हो गया था,  जो अलग-अलग इलाक़ों और अलग-अलग समुदायों में भिन्नता लिए हुए था। ऐसे में इस वैदिकेतर भाषा के विभिन्न रूपों को परिष्कृत और संस्कारित कर एक ऐसी समावेशी और सर्वमान्य मानक भाषा की निर्मिति का दुस्तर कार्य पाणिनि द्वारा सम्पन्न हुआ, जो पूरे देश के लिए हर तरह के साहित्य-सृजन, पठन-पाठन की भाषा बन सके। इसके अतिरिक्त देश भर के विद्वज्जनों के बीच ज्ञान-विज्ञान के आदान-प्रदान के लिये संपर्क भाषा का काम भी कर सके। वही भाषा संस्कृत है जो युगों-युगों के उत्कृष्ट सृजन को अपने भीतर सँजोये,  देश भर के संस्कृत विद्वानों के लिए आज भी गम्य, भारतीय प्रतिभा का कालातीत दर्पण बन गई। 

उपरोक्त भाषाई संक्रमण काल में वैदिक भाषा से उद्भूत जो भाषा व्यवहार में प्रचलित हो गई थी, उसमें एकरूपता लाने और उसके मानकीकरण के लिए उसे व्याकरण के अनुशासन में बाँधने का प्रयास पाणिनि के पहले भी हुआ था, किंतु संबंधित आचार्यों में मतैक्य नहीं था और किसी का मत सर्वमान्य नहीं हो सका था। पाणिनि ने उस संक्रमण काल की इस कठिन चुनौती को स्वीकार किया। उन्होंने विभिन्न शाखाओं की वैदिक संहिताओं, ब्राह्मण ग्रंथों, आरण्यकों और उपनिषदों का गहन अध्ययन कर उनकी शब्द-संपदा को सँजोया। फिर अपने समय में देश के भिन्न-भिन्न भागों में प्रचलित लोक-भाषा के भिन्न-भिन्न रूपों का सूक्ष्म निरीक्षण किया। दूर-दूर तक यात्राएँ कर विभिन्न समुदायों के विभिन्न पेशों में लगे लोगों द्वारा व्यवहृत शब्दों का संकलन और उनकी व्युत्पत्ति का विश्लेषण किया। ब्राह्मण, क्षत्रिय, सैनिक, व्यापारी, किसान, रँगरेज, बढ़ई, रसोइए, मोची, ग्वाले, चरवाहे, गड़रिए, बुनकर, कुम्हार आदि अनगिनत पेशेवर लोगों के पेशों में विशेष रूप से प्रयुक्त होनेवाले शब्दों का एक विशाल भंडार एकत्रकर उन्होंने अपनी समावेशी दृष्टि से उन्हें सर्व-स्वीकार्यता और नियमबद्धता की कसौटी पर कसा। फिर वैदिक भाषा के यास्क-प्रभृत वैयाकरणों तथा प्रचलित भाषा के अपने से पहले के आचार्यों के मतों का सम्यक्‌ समाहार किया। वैदेकितर भाषा के एक पूर्व आचार्य शाकटायन का मत था कि सभी संज्ञा शब्द धातुओं में प्रत्यय लगाकर बने हैं। पाणिनि ने मोटे तौर पर इस प्रमेय को स्वीकार कर लिया किंतु इसमें इतना जोड़ दिया कि बहुत-से ऐसे शब्द लोकजीवन के व्यवहार में आ गए हैं जिनकी धातु और जिनमें लगे प्रत्यय पकड़ में नहीं आते। इस तरह विपुल सामग्री एकत्रकर उसके सूक्ष्म मनन-विश्लेषण के उपरांत उन्होंने आठ अध्यायों के अपने अद्भुत्‌ ग्रंथ अष्टाध्यायी की रचना की, जिसमें उपरोक्त सामग्री का ऐसा सांगोपांग और युक्तिसंगत विवेचन है कि प्रचलित भाषा के पाणिनि के पहले के व्याकरण-ग्रंथ अप्रासंगिक होकर लुप्त हो गए। उनके बारे में आज उतना ही ज्ञात है जितना अष्टाध्यायी में आए उनके संदर्भों में उपलब्ध है। 

पाणिनि के सूत्रों पर कात्यायन ने वार्तिक लिखे और पतंजलि ने अपना प्रसिद्ध व्याकरण ग्रंथ महाभाष्य लिखा जिससे संस्कृत का सर्वमान्य रूप निखरकर सामने आया।

वाल्मीकि का रामायण इसी संस्कृत भाषा का आदि काव्य है।

दुर्भाग्य से पाणिनि का काल निर्विवाद रूप से तय नहीं है। विद्वानों ने उन्हें सातवीं ई.पू. से पाँचवीं ई. पू. के बीच रखा है। इससे इतना तो निश्चित है कि वाल्मीकीय रामायण की रचना पाँचवी शताब्दी ई. पू. के पहले नहीं हो सकती थी। यदि वाल्मीकि को पतंजलि (दूसरी शताब्दी ई. पू.) का भी परवर्ती माना जाये तब तो उनका काल पहली शताब्दी ई. पू. के पहले नहीं जा सकता। इन सीमाओं के भीतर वाल्मीकि का काल मोटे तौर पर पाँचवीं शताब्दी ई. पू. से पहली शताब्दी ई. पू. के बीच माना जा सकता है।

अधिकांश इतिहासकार रामकथा को आधुनिक अर्थ में इतिहास मानते ही नहीं। इधर कुछ इतिहासकारों ने इस दिशा में जो काम किया है उसके आधार पर रामायण काल को 2500 ई. पू. के बाद नहीं रखा जा सकता।

अस्तु, किसी भी व्याख्या या प्रमेय के अनुरूप, वाल्मीकि को राम का समकालीन सिद्ध करने का कोई तात्विक आधार नहीं बनता। यह प्रश्न रामायण के बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड के ऊपर वर्णित वाल्मीकि और राम दोनों से एक साथ जुड़े हुए प्रसंगों के कारण उठा है। यह विसंगति इसी प्रमेय को पुष्ट करती है कि वाल्मीकि को राम का समकालीन चित्रित करनेवाले बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड के ये प्रसंग बाद के प्रक्षिप्त है। वस्तुत: बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड पूरे के पूरे प्रक्षिप्त हैं। आगे इस पर और विचार होगा। 
(क्रमश:)

कमलकांत त्रिपाठी
© Kamlakant Tripathi

'कमलाकांत त्रिपाठी / तुलसी का योगदान (4) तुलसी का रामचरितमानस और वाल्मीकीय रामायण का मूल स्वरूप - क'.
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