क्या तुलसी ने वर्णाश्रम की पुन:प्रतिष्ठा के लिए षड्यंत्र किया ?
संदर्भ: मुक्तिबोध का आलेख—‘मध्ययुगीन भक्ति-आंदोलन का एक पहलू’ (जन विकल्प, सितंबर 2007)
अंधभक्ति किसी के प्रति हो, त्याज्य है। मुक्तिबोध जैसों ने स्वयं अंधभक्ति का प्रत्याख्यान रचा; उनके प्रति अंधभक्ति उनकी आत्मा का तिरस्कार है। अपने अनुयायियों में अंधभक्ति की लहर देखकर ही अंतत: मार्क्स को कहना पड़ा था, वे मार्क्स हैं, मार्क्सिस्ट नहीं। मानव-मस्तिष्क की सीमाओं के आलोक में यह स्वत:सिद्ध है कि अतिशय पारदर्शी ईमानदारी के बावजूद आकलन में विचलन हो सकता है। तो असहमति और विमर्श की गुंजाइश हमेशा बनी रहेगी।
अपने आलेख ‘मध्ययुगीन भक्ति-आंदोलन का एक पहलू’ में मुक्तिबोध ने बिंदु-दर-बिंदु पाँच निष्कर्ष निकालने (आगे देखें) के बाद यह स्थापित किया है कि निर्गुण मतवाद के जनोन्मुख रूप और उसकी क्रांतिकारी, जाति-विरोधी भूमिका के विरुद्ध तुलसीदास ने पुराण-मतवादी स्वरूप प्रस्तुत किया जिससे आगे चलकर वर्णाश्रम धर्म की पुनर्विजय की घोषणा हुई। सवाल है, क्या तुलसी ने इसे सायास, किसी षड्यंत्र के तहत किया ?
अपने आलेख में मुक्तिबोध स्वीकार करते हैं कि तुलसी नि:संदेह एक सच्चे संत थे और उनका रामचरितमानस साधारण जनता में भी उतना ही प्रिय रहा जितना उच्चवर्गीय लोगों में। यह भी कि कट्टरपंथियों ने अपने उद्देश्यों के अनुरूप तुलसी का उपयोग किया, जिस तरह आज (मुक्तिबोध के समय में) कट्टरपंथी हिन्दू शिवाजी और रामदास का कर रहे हैं। लेकिन मुक्तिबोध ने आश्चर्य भी व्यक्त किया है कि आजकल (मुक्तिबोध के समय में) प्रगतिवादी तबकों में तुलसीदास के संबंध में जो कुछ लिखा गया है, उसमें जिस सामाजिक-ऐतिहासिक प्रक्रिया के तुलसी अंग थे, उसको जान-बूझकर भुला दिया गया है।
अपने पहले निष्कर्ष में मुक्तिबोध भक्ति-आंदोलन की शुरुआत दक्षिण भारत से मानते हैं जो एक ऐतिहासिक तथ्य है। लेकिन आगे उन्होंने लिखा है कि दक्षिण से शुरू हुए इस आंदोलन को वेद-उपनिषदवादी शक्तियों ने प्रस्तुत नहीं किया, बल्कि आलवार संतों और उनके प्रभाव में रहनेवाले जन-साधारण ने किया; इसके प्रारम्भिक चरण में निम्नवर्गीय तत्व सर्वाधिक सक्षम और प्रभावशाली रहे, जब कि हिंदू सामंती वर्गों के समर्थक कट्टरपंथी तत्व इस नवीन सांस्कृतिक चेतना के एकदम विरुद्ध थे। यहाँ मुक्तिबोध ने दक्षिण के कर्नाटक इलाक़े में वसवन्ना द्वारा सम्पन्न हुए एक सशक्त और काफ़ी हद तक सफल जाति-विरोधी, ब्राह्मणी व्यवस्था-विरोधी आंदोलन की अवहेलना कर दी। वसवन्ना वेद-उपनिषदवादी धारा में ही पले-बढ़े एक विद्वान ब्राह्मण थे। उनके जाति-विरोधी आंदोलन की परिणति लिंगायत समुदाय के प्रादुर्भाव में हुई जो आज तक न केवल जीवित है बल्कि फल-फूल रहा है। लेकिन मुख्य मुद्दा यह है कि दक्षिण में वे कौन-सी शक्तियाँ थीं जिन्होंने आलवार संतों और बसवन्ना के क्रांतिकारी प्रभाव को नष्ट कर दिया, जिस काम के लिए, मुक्तिबोध के अनुसार, उत्तर भारत में तुलसी के रामचरितमानस का उपयोग हुआ। बंगाल में क्या प्रक्रिया हुई, इसका तो मुक्तिबोध के लेख में कोई सुराग़ तक नहीं मिलता, जब कि वहाँ भी (तुलसी के बाद के समय में) ‘भद्र लोक’ और श्रमजीवी जातियों के बीच वैसी ही खाई मौजूद पाई गई।
मुक्तिबोध ने केवल उत्तर भारत और महाराष्ट्र के सांस्कृतिक इतिहास के हवाले से भक्ति-आंदोलन की धारा और उसकी परिणति का लेखा-जोखा लिया है। उनकी स्थापना है कि उत्तर भारत में कट्टरपंथी तत्वों में से कई निर्गुण संतों के भक्ति-आंदोलन के प्रभाव में आ गए थे, लेकिन आगे चलकर उन्होंने भक्ति-आंदोलन को अपने तरीक़े से प्रभावित भी किया। उनके पुराणवादी संस्कारों से प्रेरित भावावेशवादी कृष्णभक्ति निर्गुण मत के विरुद्ध संघर्ष करने लगी, जिसने एक क़दम आगे बढ़कर तुलसी की रामभक्ति का रूप धारण कर लिया और वर्णाश्रम धर्म की पुन:प्रतिष्ठा कर दी। महाराष्ट्र के बारे में उन्होंने लिखा है कि ज्ञानेश्वर, तुकाराम आदि संतों की व्यापक मानवतावादी वाणी ने हिन्दू-मुस्लिम दोनों प्रकार के सामंती उच्चवर्गों से पीड़ित, ग़रीब, किसान जनता का मार्ग प्रशस्त किया, जिसके बाद सनातनी, ब्राह्मणवादी संत रामदास इन्हीं मानवतावादियों से आ मिले; उन्होंने शिवाजी के रूप में एक नायक खड़ा किया। शिवाजी के छापामार युद्धों के सैनिक और सेनाध्यक्ष समाज के ग़रीब और शोषित जातियों—कुनबियों, धनगरों, मराठों--से आए और एक नवीन सैन्य सामंतवाद को जन्म दिए। किन्तु शिवाजी के बाद राजसत्ता उच्च कुलोत्पन्न ब्राह्मण पेशवाओं के हाथ में पहुँच गई, जब कि सैन्य सत्ता उन्हीं शोषित जातियों से आए नए सामंतवादियों के हाथ में रही, और जातिवादी पुराणधर्म पुन: प्रतिष्ठित हो गया। तो, मुक्तिबोध के अनुसार, जो काम उत्तर भारत में निर्गुण धारा में घुसे सवर्णों की भावावेशवादी कृष्णभक्ति ने एक सोपान आगे बढ़कर तुलसी की रामभक्ति के रूप में किया, वही काम महाराष्ट्र में ब्राह्मण पेशवाओं और शोषित जातियों से आए सैन्य सामंतवादियों के गठजोड़ ने किया।
यहाँ यह ध्यातव्य है कि मुक्तिबोध ने दोनों में से किसी को किसी षड्यंत्र का हिस्सा नहीं बताया है।
इतिहास पर एक तटस्थ दृष्टि डालने से स्पष्ट हो जाएगा कि मुक्तिबोध ने महाराष्ट्र की एक जटिल ऐतिहासिक प्रक्रिया का अतिसरलीकरण कर दिया है—सिर्फ़ दो उदाहरण। एक, शिवाजी की निर्मिति में माँ जीजाबाई के साथ शुद्ध सनातनी ब्राह्मण दादा कोण्डदेव की भूमिका को उन्होंने बिल्कुल नज़रअंदाज़ कर दिया है। दो, जीजाबाई की ओर से देवगिरि के प्रसिद्ध यादवों तथा पिता शाहजी की ओर से मेवाड़ के सिसोदियों का वंशज होने का दावा करने के बावजूद शिवाजी को छत्रपति के रूप में राज्यारोहण के समय काशी से सनातनी पंडित गंगभट को बुलाने की ज़रूरत क्यों पड़ी ? इसका कोई उत्तर मुक्तिबोध के आलेख में नहीं मिलता।
उत्तर भारत में मुक्तिबोध ने जो सवर्णों की कृष्णभक्ति शाखा के तुलसी की रामभक्ति के रूप में प्रस्फुटन को वर्णाश्रम धर्म की पुनर्स्थापना के लिए ज़िम्मेदार ठहराया है, वह तो एकदम कल्पना-प्रसूत लगता है।
बौद्धिकों से एक सामान्य, प्रकृतिगत भूल, जो अक्सर हो जाती है, वह यह है कि वे समाज और मानव-व्यवहार की धारा को बदलने में विचारों की भूमिका को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर देखते हैं। एक रैदास आते हैं और उनकी वाणी से समाज का सोया हुआ शोषित वर्ग करवट लेने लगता है। फिर उसी धारा में रुक-रुककर या एक ही समय में कबीर, नाभा सिंपी, सेना नाई अदि आते हैं और सामाजिक क्रांति उठ खड़ी होती है। लेकिन आगे चलकर उसी धारा में उच्चवर्गीय कृष्णभक्त कवि घुस जाते हैं तो क्रांति की धारा कुंद पड़ने लगती है। फिर रामभक्ति लेकर तुलसी आते हैं और वह धारा उलट जाती है तथा वर्णाश्रम धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा हो जाती है।
विचारणीय यह है कि शोषित वर्ग के इन निर्गुण संतों में से किसी के पास कोई मठ या आश्रम नहीं था, न ही आज की तरह के प्रचारकर्ता थे, न छापाखाना था, न मीडिया था, न द्रुत आवागमन के सर्वसुलभ साधन थे. इनकी कृतियों की हस्तलिखित प्रतियाँ इनके जीवनकाल में कुछ गिने-चुने लोगों तक ही पहुँची होंगी। तो इनकी वाणी इनके इर्द-गिर्द जुटी जनता और उसके सम्पर्क में आनेवालों तक ही सीमित रही होगी. क्या इनके काव्य-जगत के नए रुझानों ने सामाजिक संरचना के यथार्थ और मानव-व्यवहार में कोई बदलाव किया ? इतिहास में इसका कोई साक्ष्य नहीं मिलता। मान्यता है कि कबीर ने एक लंबी उम्र पाई थी लेकिन जीवन के अंत तक उनकी वाणी में सामाजिक आडंबरों और ऊँच-नीच के भेद को लेकर उतनी ही तल्ख़ी बनी रही, जो इसी बात की परिचायक हो सकती है कि उनके जीवनकाल में तो कोई अपेक्षित परिवर्तन आया नहीं।
आज के परिदृश्य पर भी एक नज़र डाल ली जाए। मैंने जब से होश सँभाला है, देश के बौद्धिक वर्ग को प्राय: वामपंथी रुझानवाला, प्रगतिशील, नारीवादी. साम्प्रदायिकता-विरोधी, जाति-विरोधी और दलित, पिछड़ा व स्त्री अस्मिता का समर्थक ही देखा है। हंस-जैसी कई पत्रिकाएँ इस दिशा में निरंतर कार्य करती रहीं। लेकिन अगर संवैधानिक और जनतान्त्रिक व्यवस्था में वयस्क मताधिकार के प्रतिफल के रूप में निचली और पिछड़ी जातियाँ सत्ता में भागीदारी न पातीं तो इन सबके सारे प्रयास शायद ही कुछ हासिल कर पाते। अब संप्रदायिकता की उठान को देखिए। आधा गाँव, टोपी शुक्ला, आख़िरी कलाम जैसे अनेक सांप्रदायिकता-विरोधी उपन्यास केवल हिन्दी में आए। कविता-कहानी की तो कोई गिनती ही नहीं। यह तब है जब प्रचार माध्यमों द्वारा साहित्य और उसके रुझानों का समाज में जिस तरह से प्रचार-प्रसार होता है, कबीर आदि के युग में उसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती थी। वामपंथी दलों ने भी संप्रदायवाद पर लगाम लगाने का निरंतर प्रयास किया और आज भी कर रहे हैं। लेकिन हासिल क्या है— कोई भी निष्पक्ष प्रेक्षक यही पाएगा कि देश भर में मोटे तौर पर दोनों ही फ़रीकों में सांप्रदायिकता की भावना कम होने के बजाय बढ़ी है।
इस संदर्भ में विश्व में वामपंथी विचार की व्यावहारिक परिणति के इतिहास से भी कोई आशाजनक दृश्य नहीं उभरता। मार्क्स ने न केवल साम्यवादी विचार दिया, अपने मित्र एंजेल्स के साथ मिलकर लगातार यूरोप के समाजवादी आंदोलन में सक्रिय भूमिका भी निभाई। सन् 1848 में साम्यवादी घोषणापत्र के छपने से लेकर पूरे योरोप के तमाम बौद्धिक लोग इस आंदोलन को आगे बढ़ाने में प्राण-प्रण से जुटे रहे। यूरोप के विभिन्न देशों के वामपंथी समूहों और मज़दूर संगठनों को 1864 में फ़र्स्ट इंटरनेशनल के झंडे तले एकत्र किया गया। लेकिन 1871 में पेरिस विद्रोह हुआ तो इस आंदोलन के चलते नहीं, बल्कि प्रशा के साथ हुए युद्ध में फ़्रांस की पराजय से उत्पन्न हताशा के चलते, जिसे तुरंत दबा भी दिया गया। जब विश्व युद्ध आया, लेनिन ने भविष्यवाणी की कि दुनिया भर के श्रमिक मिलकर पूँजीवादी सरकारों का तख़्ता पलटा देंगे। हुआ ठीक उल्टा। युवा श्रमिकों और किसानों ने अपने-अपने राष्ट्र की ओर से लड़ते हुए दूसरे राष्ट्रों के अपने श्रमिक-किसान भाइयों का ही ख़ून बहाया। क्रांति हुई तो मार्क्स के विचार के अनुरूप किसी उन्नत पूँजीवादी देश में नहीं, बल्कि रूस में, जो अभी तक सामंतवाद की जकड़ से ही मुक्त नहीं हुआ था। और क्रांति में मुख्य भूमिका निभाई जर्मनी से पराजय की ओर उन्मुख रूस के हताश सैनिकों ने। खंदकों में ठंड और भूख से पीड़ित, ज़ार के लिए लड़ रहे इन हताश सैनिकों में जूते, कंबल और डबल रोटी बाँटकर जर्मनों ने उन्हें मोरचा छोड़कर भागने के लिए प्रेरित किया। और सोवियतों (समितियों) में श्रमिकों के साथ मोरचा छोड़कर भागे इन्हीं सैनिकों की भूमिका क्रांन्ति में निर्णायक सिद्ध हुई। राष्ट्रीय युद्धों में पराजयोन्मुख राष्ट्र के सैनिकों की उस राष्ट्र में सर्वहारा क्रांति लाने में भूमिका मार्क्सवादी प्रमेय में सर्वथा अकल्पनीय है।
रूस में क्रांति के लिए जो विशेष अवसर प्रथम विश्व युद्ध और उसमें रूस की पराजयोन्मुख हताशा ने प्रदान किया था, वैसा ही अवसर विश्वयुद्ध के ठीक पहले चीन पर जापानियों का बर्बर आक्रमण और युद्ध के दौरान जापानी क़ब्ज़े से चीन के मुक्ति-संघर्ष ने उपस्थित किया।साम्यवादियों द्वारा मुक्त किए गए इलाक़ों में जनता का जापानियों के अत्याचार से छुटकारा पाना माओ के विपुल जन-समर्थन का कारण बना। इस जन-समर्थन के चलते ही अमेरिका से च्यांग काई शेक की मदद में आए हथियार साम्यवादियों के हाथ में पहुँचते गए, जिससे अक्टूबर, 1949 तक पूरे चीन पर माओ का कब्ज़ा संभव हो सका।
और पूर्वी जर्मनी सहित पूर्वी व केंद्रीय योरोप के देशों तथा उत्तरी कोरिया में तो साम्यवाद लाने में किसानों-मज़दूरों या जनता के किसी तबक़े की कोई भूमिका ही नहीं रही, वहाँ तो एक अनन्य परिघटना के तौर पर नाज़ियों / जापानियों को हराते हुए सोवियत सेना जहाँ तक पहुँच सकी, वहाँ तक साम्यवाद आ गया. मार्क्स ने इस तरह की क्रांति की क्या तो परिकल्पना की होगी !
फिर आख़िर क्या हुआ कि पूर्वी जर्मनी के लोग जान जोख़िम में डालकर बर्लिन की दीवार फाँदने लगे और अंतत: उसे तोड़ना पड़ा। और हंगरी (1956), चेकोस्लोवाकिया (1968) तथा पोलैंड (1982-83) में साम्यवादी रूस के वर्चस्व द्वारा जिस तरह दमन हुआ उसी का नतीज़ा है कि मिलान कुंडेरा जैसे तमाम लोगों को भागकर पश्चिमी योरोप के देशों में (कुंडेरा को फ़्रांस में) शरण लेनी पड़ी; कुंडेरा के लगभग सभी उपन्यासों में पहले नाज़ी जर्मनी और फिर साम्यवादी शिकंजे में कसे इन देशों का आतंकित जन-मानस कहीं न कहीं से परिलक्षित हो ही जाता है।
तो एक बात जो समझ में आती है वह यह कि मानव-व्यवहार और इसलिए समाज-व्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन लाने में विचारों की भूमिका बहुत धीमी, बहुत क्षीण रही है। लोग प्राय: ग़लत-सही, न्याय-अन्याय की अवधारणा से नहीं, बल्कि अपनी अवैज्ञानिक और बहुत हद तक अपरिभाषेय प्रवृत्तियों और स्वभाव व चरित्र के विचलनों से परिचालित होते रहे हैं और किसी विचार के साथ जुड़े होने का बस नाट्य करते रहे हैं। असली मौक़ा आने पर स्वार्थ, सुरक्षा, शोषण और वर्चस्व जैसे तत्वों के घालमेल से बनी यही प्रवृत्तियाँ हावी हो जाती हैं और इनसे उपजे निहित स्वार्थ यथास्थिति की ऐसी क़िलाबंदी कर देते हैं कि वह विचारों और आदर्शों के तोड़े नहीं टूटती। और ये प्रवृत्तियाँ वर्गों और जातियों से परे होती हैं—सभी जगह अपवाद भी मिलते हैं, इसीलिए इन्हें अपरिभाषेय कहा।
इन्हीं सहजात मानव-प्रवृत्तियों के चलते जाति-उन्मूलन की लड़ाई वर्चस्व की लड़ाई में बदल जाती है और पहले की दुर्व्यवस्था ही फिर से उलटकर खड़ी होने लगती है। जातीय श्रेष्ठता, यहाँ तक कि जातीय अस्मिता की भावना मिथ्या ही नहीं अमानवीय भी है, यह एक तरह का नस्लवाद है, मनुष्यता के लिए अभिशाप है और इसी रूप में इससे निपटा जाना चाहिए। यह कहकर कि जातियाँ तो रहेंगी और सबका अपना गौरवशाली इतिहास है, सबकी अपनी पहचान है, जिसे दबाया गया है, उनकी पुन:प्रतिष्ठा की जानी चाहिए, हम फिर उसी ख़तरे की पूर्व-पीठिका तैयार कर रहे हैं, जिसने इस देश में बढ़ते-बढ़ते सुरसा का रूप धारण कर लिया था, और आज तक पीछा नहीं छोड़ रहा है। एक सुलभ शोषण के औज़ार के रूप में इसका बहुत क्रूर इस्तेमाल हुआ था और किसी न किसी रूप में आज भी हो रहा है।
शोषण वह मानवीय प्रवृत्ति है जो व्यक्ति-केन्द्रित है। सभी जातियों, सभी वर्गों और सभी धर्मों में अच्छे, सदाशय लोग मौजूद हैं और खुला, पूर्वाग्रह-मुक्त दिमाग़ रखनेवाले किसी भी व्यक्ति को दिख भी जाएँगे. तो सारे दुर्गुण न तो जाति-प्रसूत हैं, न निजी सम्पत्ति की देन हैं. मार्क्स की निजी सम्पत्ति-केंद्रित वर्ग-चेतना और वर्ग-स्वभाव में फ़्रायड के अवचेतन और सत्ता-कामना का तड़का लगा होता तो वह शायद सत्य के ज़्यादा क़रीब होता। और यदि उन्हें आधुनिक जेनेटिक्स की वैसी जानकारी होती जैसी आज उपलब्ध है तो शायद उनका प्रमेय ही कुछ और होता. जेनेटिक्स ने इस जनतान्त्रिक प्रमेय को सप्रमाण सिद्ध कर दिया है कि जाति,रंग और नस्ल की श्रेष्ठता या हीनता की सारी धारणाएँ शुद्ध बकवास हैं. और आर्थिक वर्ग की सभी मानवीय इकाइयाँ भी किसी भट्ठे से निकली ख़ास नंबर की ईंटों जैसी एकरूप नहीं होतीं. धूर्त और मासूम, पाखंडी और जेन्युइन हर वर्ग में पाए जाते हैं। और विश्व में मार्क्सवाद के क्रियान्वयन का इतिहास मानव-स्वभाव के इसी विचलन का इतिहास बन जाता है.
तुलसीदास के जीवन के जितने प्रसंग मिलते हैं, उनसे तो यही लगता है कि वे अपनी ही जाति से अपमानित, उसके आडंबरपूर्ण द्वेष के शिकार, भाषा-जैसे कई मुद्दों पर गर्हित-प्रतारित और भांति-भांति के लोगों द्वारा सताए हुए थे। भावुक, सहृदय व्यक्ति थे। ऐसे में उन्हें वाल्मीकि से चली आ रही उसी ब्राह्मणी परंपरा में राम-भक्ति का एक अवलंब मिला जो उन्हें परिवार, जाति और गुरु से प्राप्त हुई थी। उसे गले से लगाकर वे राममय हो गए। रामचरितमानस पढ़ते हुए लगता है, तुलसी के राम एक कल्पित किन्तु भाव-साकार इयत्ता के रूप में सदैव उनके सामने मौजूद हैं, जिसमें तुलसी वह सब कुछ भर देना चाहते है जो मनुष्य के बारे में उनकी आकांक्षा का चरम है। ‘नानापुराणनिगमागम’ से पुराणवादी परंपरा का संकेत भले मिलता हो, उत्तरकाण्ड में जो ज्ञान-भक्ति निरूपण है वह उपनिषदों के शुद्ध, निर्गुण एकात्मवाद से भक्तिवाद का सहमेल है। राम की सगुण भक्ति और औपनिषद निराकार तत्वज्ञान के साथ उसके संश्लेषण से इतर रामचरितमानस में जो कुछ है, उसका प्रतिपाद्य नहीं, मात्र आनुषंगिक है, और आज तक की सामान्य सवर्ण मानसिकता को देखते हुए काफ़ी उदार और समावेशी भी. ऐसे में रामचरितमानस को सायास वर्णाश्रम धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा का ‘श्रेय’ देना गले नहीं उतरता, वह चाहे बाबा नागार्जुन करें, चाहे मुक्तिबोध, चाहे कोई और।
वर्णाश्रम धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा तुलसी के वश का रोग ही नहीं था, किसी भी एक व्यक्ति या ग्रंथ के वश का नहीं था। और वश में होता भी तो, उसकी ज़रूरत ही नहीं थी। वर्णाश्रम धर्म कहीं गया ही नहीं था, बहुत मज़बूती से निहित स्वार्थों और शोषक मानव-प्रवृत्तियों से पोषित-संरक्षित अपनी जगह अटल था। जो काम महात्मा बुद्ध और काफ़ी समय तक राजाश्रय में रहे बौद्ध धर्म से नहीं हुआ, वह रैदास और कबीर आदि के करने से होनेवाला नहीं था।
कबीर का तत्वज्ञान निश्चय ही अधिक समतामूलक, आडंबर-विरोधी और मानवतावादी है और इस अर्थ में अधिक वैज्ञानिक और ‘आधुनिक’ भी. लेकिन हठयोग और तंत्र-विद्या के बीच झूलता उनका इंगला-पिंगलावाला रहस्यवाद तुलसी के उत्तरकाण्ड के औपनिषद रहस्यवाद से कहीं ज़्यादा अटपटा, मध्ययुगीन और प्रतिक्रियावादी है। मुक्तिबोध ने ठीक ही लिखा है कि हम कबीर से जनवादी संदेश तो लेना चाहते हैं लेकिन उनके रहस्यवाद से मुँह मोड़ना चाहते हैं, जो तत्कालीन विचारधारा की सीमाओं का द्योतक होने से केवल समाजशात्रीय अध्ययन का विषय हो सकता है। उसी तर्ज़ पर तुलसी का वर्णाश्रमवाद भी उनके समय और उनके जातीय परिवेश के समाजशास्त्रीय अध्ययन का विषय हो सकता है, लेकिन कहीं से उनके द्वारा किए गए किसी षड्यंत्र का द्योतक नहीं। किसी तरह के षड्यंत्र का विचार उनके सरल, सहृदय, भक्तिमय व्यक्तित्व से मेल नहीं खाता। ख़ासकर जब वे अपने ही वर्ग से भाषा आदि अनेक पहलुओं पर निंदित-प्रतारित रहे थे।
कबीर और उनके अनुयायी श्रमजीवी शोषित जातियों में आत्मविश्वास और आत्मसम्मान तो भर सकते थे लेकिन ब्राह्मणवादी सामाजिक संरचना में दरार पैदाकर उस आत्मसम्मान को स्वीकृति नहीं दिला सकते थे। वे ब्राह्मणवादियों के सामने बस रहस्य के थोड़ा और ऊंचे आसन पर बैठकर मुँह चिढ़ा सकते थे और, जैसा की संकेत है, तुलसी के समय में उनके अनुयायी यही कर रहे थे। पर यह कोई नई बात नहीं थी। बहुत प्राचीन काल से लोकायतों और आजीविकों की कर्मकांडविरोधी, वर्णविरोधी, अनीश्वरवादी और इहलोकवादी परंपरा चली आई थी। ये लोकायत और आजीविक ब्राह्मणवादियों को ताल ठोंककर शास्त्रार्थ के लिए ललकारा करते थे। बाद में वेदान्त के उत्कर्ष ने उन्हें इस क़दर निगल लिया कि उनके केवल विद्रूपात्मक संदर्भ माधवाचार्य के सर्वदर्शनसंग्रह (तेरहवीं शताब्दी) में शेष रह गए।
तो तुलसी और कबीर दोनों में जो सार्थक और समीचीन है उसे लेकर, उनके समय-सीमित और आज के लिए अप्रासंगिक हो उठे को छोड़ना पड़ेगा। परंपरा में यदि कुछ सारतत्व है तो उसके साथ तभी न्याय होगा। जहाँ नहीं वहाँ षड्यंत्र सूँघनेवाला (इसके लिए कुछ लोगों द्वारा एक जगह जुटकर की गई दुरभिसंधि का साक्ष्य अनिवार्य है) और छूटते ही नीयत पर निराधार शक कर देनेवाला इस तरह का सरलीकृत विमर्श गँदले पानी को और गँदला करने के सिवा और कुछ नहीं करेगा।
(क्रमशः)
कमलाकांत त्रिपाठी
© Kamlakant tripath
तुलसी का योगदान (1)
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