Tuesday, 28 February 2023

बैंकों को तगड़ी चोट के बाद, साख बहाली के लिए, अडानी का सड़क पर तमाशा / विजय शंकर सिंह

हिंडन वर्ग रिपोर्ट के आने के बाद से एक भी दिन ऐसा नहीं गुजरा, जब शेयर बाजार में अडानी समूह के शेयरों में तेजी से गिरावट नहीं देखी गई। पिछली शाम जब बाजार बंद हुआ तो अडानी, 38वें नंबर थे और महज बत्तीस दिनों में ही, अडानी समूह को, ₹12,00,000 करोड़ या 150 बिलियन डॉलर का नुकसान हो चुका है। अगर अडानी एंटरप्राइजेज के शेयरों में 10% की और गिरावट निकट भविष्य में होती है तो, यह 52 सप्ताह के सबसे निचले स्तर को पार कर जाएगा। जिस तरह से शेयरों के दाम में गिरावट, थमने का नाम नहीं ले रही है, उससे अब यह स्पष्ट हो चला है कि, अडानी समूह ने, शेयर कीमतों में हेराफेरी या ओवर प्राइसिंग की है। यदि कोई अन्य सरकार, होती तो,  सेबी, एनएसई और बीएसई की नाक के नीचे हुई इस, धांधली के किस्से, तमाम अखबार, और टीवी चैनल, गला फाड़ फाड़ कर, बयान करते। लेकिन अब सब चुप हैं। मीडिया का यह रेंगता हुआ चरित्र, इस कालखंड के पत्रकारिता का एक त्रासद काल है। 

अब सरकार चाहे जो कुछ भी कहे या चुप बनी रहे, सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिकाओं पर, चाहे जो भी फैसला हो, पर हकीकत यही है कि, निवेशकों, जिसमे स्वदेशी और विदेशी दोनों हैं, ने, अडानी को बुरी तरह से नकार दिया है। अगर समूह की पांच कंपनियों से सर्किट लिमिट हटा दी जाए तो वे जल्दी ही, गिरकर कबाड़ के भाव हो जाएंगी। अडानी के प्रति, सरकार के खुले पक्षपात ने, भारत की नियामक सस्थाओं और कानून लागू करने वाली एजेंसियों तथा प्रधानमंत्री, नरेंद्र मोदी की छवि को बहुत नुकसान पहुंचाया है। अडानी का साम्राज्य जैसे जैसे दरक रहा है, सरकार और विशेषकर, प्रधानमन्त्री पर तरह तरह के आक्षेप और आरोप उठने लगे हैं। 

हिंडनबर्ग खुलासे का असर, अडानी समूह की माली हालत पर तो पड़ा ही है, पर उसका सीधा असर, उसके शेयरों में पूंजी लगा कर कुछ पैसा बना लेने की आशा बांधे सामान्य निवेशकों पर भी पड़ा है। पर इसका यह अर्थ, बिलकुल भी नहीं है कि, अडानी का एक भी शेयर न खरीदने वाले सामान्य नागरिक, इस धमाके से अछूते रह जायेंगे। अडानी की पूरी पूंजी ही बैंकों से लिए कर्ज पर आधारित है। यदि वह समय पर बैंकों, एलआईसी और अन्य वित्तीय संस्थानों को कर्ज की अदायगी नहीं कर पाता है तो, उसका असर बैंको पर पड़ेगा और उस असर के प्रभाव से हमारे आप जैसे सामान्य खाताधारक, भी अछूते नहीं रहेंगे। वैसे भी बैंकों का एनपीए या कर्ज को राइट ऑफ करने की प्रवृत्ति इधर बढ़ी है, वह भी कम चिंता की बात नहीं है। 

बैंकों या कर्ज देने वाले किसी भी वित्तीय संस्थान का एक साधारण सार्वभौमिक नियम है कि, दुनिया का कोई भी बैंक आपको, आपकी संपत्ति से अधिक उधार नहीं देता है। लेकिन उद्योगपति गौतम अडानी को, उनके द्वारा गिरवी रखी गई संपत्ति से कई गुना ज्यादा कर्ज दिया गया है। गौतम अडानी ने संपत्ति के रूप में, अपने शेयर रखे हैं, जो अब धीरे धीरे अपनी चमक और कीमत खोते जा रहे हैं। अडानी के अधिकतर, लोन, और निवेश सरकारी बैंकों जैसे, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, SBI, या जीवन बीमा निगम, एलआईसी जैसी संस्थाओं से आए हैं। 

यह कहा जा सकता है कि, अडानी का कारोबार बड़ा था, और अडानी की साख भी कम नहीं थी। लेकिन, अडानी समूह, टाटा और बिड़ला जैसे पारंपरिक औद्योगिक घरानों की तरह, मजबूत और भौतिक संपत्ति वाला घराना नहीं है। यह अभी खड़ा हो रहा था और एक तथ्य इसके पक्ष में, था कि, यह वर्तमान सरकार, और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अतिशय कृपापात्र है। 2014 के चुनाव में भी प्रधानमंत्री पद के दावेदार और मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अडानी के जिन निजी विमानो से चुनाव प्रचार कर रहे थे, उन विमानों पर अडानी ग्रुप का लोगो और नाम भी था। एक पूंजीपति का यह राजनैतिक निवेश था, जिसका लाभ, अडानी को मिला। 2014 के बाद, अडानी का कारोबार भी आसमान छूने लग गया। राजकृपा से इस समूह का विकास हुआ और अमीरों की अंतर्राष्ट्रीय सूची में, यह 609 अंक से तेजी से बढ़ते हुए, तीसरे नंबर तक पहुंच गया था। पर अब, हिंडनबर्ग खुलासे के बाद यह समूह फिर खिसक कर 38वें स्थान पर आ गया है। पतन का यह सिलसिला अभी जारी है। 

चुनावों में भ्रष्ट उद्योगपतियों की आर्थिक मदद लेना, भारत में एक परंपरा के रूप में विकसित हो चुका है। पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के समय भी, उस समय, कांग्रेस पर, औद्योगिक घराना बिड़ला और धीरूभाई अंबानी जैसे उद्योगपतियों से मदद लेने के आरोप लगते रहते थे। लेकिन तब यह खेल इतना खुलकर और निर्लज्ज तरह से नहीं खेला जा रहा था और न ही, जांच एजेंसियों, और निर्वाचन आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं को इस खेल में खुलकर शामिल किया गया था। मोदी सरकार की एक औद्योगिक समूह से अतिशय निकटता और पूंजी का राजनीति में, निर्द्वंद्व और निर्लज्ज प्रवाह की चाहत से, आज भारत की अर्थव्यवस्था चरमराने लगी है। अडानी समूह की विकास गाथा में, सरकार का कितना योगदान है, और सरकार ने किस किस कंपनी को, अडानी अधिग्रहित कर सकें, इसके लिए कैसे, नियमों को तोड़ा और पक्षपातपूर्ण नियम बनाए हैं, ईडी, प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई और आयकर जैसी जांच एजेंसियों का दुरुपयोग किया है, इस पर एक लम्बी सीरीज लिखी जा सकती है। 

सरकारी अफसर या नौकरशाही एक घोड़े की तरह होती है जो अपने सवार का इशारा समझती है। जब अडानी समूह अपना एफपीओ लाने वाले थी, तब भी सेबी के कुछ अधिकारियों को, अडानी के फूले गुब्बारे जिसमे कर्ज की हवा भरी थी, की, तथ्यता की जानकारी थी। पर सरकार और विशेषकर, प्रधानमंत्री, मोदी जी की गौतम अडानी से निकटता को देखते हुए, सेबी (भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड) ने अडानी को आईपीओ के साथ आगे बढ़ने की अनुमति दे दी। तब यह, संकेत मिलने लगे थे कि, यह कंपनी घाटे में जा सकती है। सेबी के अधिकारी इस बात को समझ रहे थे, और वे, इसके अंजाम से अच्छी तरह वाकिफ थे। ऐसी स्थिति में, सेबी को इन आईपीओ, एफपीओ पर रोक लगानी चाहिए थी, लेकिन सेबी के भ्रष्ट अधिकारियों ने अडानी के साथ वित्तीय गठजोड़ कर लिया और अडानी के भ्रष्ट तरीकों का समर्थन किया। इसका परिणाम यह हुआ कि, आज लाखों निवेशकों का नुकसान हुआ और यह नुकसान अब भी जारी है। साथ ही, भारत की अर्थव्यवस्था और बैंकिंग सेक्टर तथा एलआईसी की साख और हैसियत पर भी असर पड़ने लगा है। 

ऐसा नहीं है कि सेबी ने केवल अडानी की ही कंपनियों के प्रति ऐसी शातिर नरमदिली दिखाई हो, बल्कि एक ऐसी ही कंपनी थी पेटीएम,  जिसपर, सेबी की मेहरबानी हुई थी। यह कंपनी घाटे में चल रही थी और सेबी को चाहिए था कि, पेटीएम के आईपीओ को खारिज कर दे। लेकिन सेबी के अधिकारियों ने पेटीएम के बॉस विजय शेखर शर्मा से हाथ मिला लिया था।  नतीजतन, लाखों ग्राहकों को धोखा मिला, यह देश में एक बड़ा वित्तीय घोटाला है। आज भी सेबी, अडानी के शेयर घोटाले की जांच की बात तो कर रहा है, पर अडानी के साथ साथ सेबी की भी साख इस कदर गिर गई है, कि उनकी निष्पक्षता पर जनता को संदेह है। यदि आप स्प्राउट्स वेबसाइट पर उमेश गुजराती के लेख अनट्रस्टवर्दी सेबी पढ़ेंगे, तो सेबी के घोटालों के बारे में कई हैरान करने वाले तथ्य मिलेंगे। उमेश ने, सेबी अधिकारियों के भ्रष्टाचार को उजागर करते हुए 19 और 20 नवंबर 2021 को दो विशेष रिपोर्ट भी जारी की थीं। पेटीएम में करोड़ों का घोटाला स्प्राउट्स की वेबसाइट पर उपलब्ध है। लेकिन दुर्भाग्य से यह कांड भी दबा दिया गया। सेबी के वही अधिकारी आज भी फर्जी अडानी के समर्थन में घूम रहे हैं।

हिंडनबर्ग रिसर्च ने अडानी के शेयरों को 85 फीसदी ओवरवैल्यूड बताया और  अडानी ग्रुप पर शेयरों में हेरफेर का आरोप लगाया था। हिंडनबर्ग रिपोर्ट के बाद से अडानी की 10 लिस्टेड कंपनियों की मार्केट वैल्यू 146 अरब डॉलर या करीब 60 फीसदी घट गई है। यह आंकड़ा तीन चार दिन पहले का है। अडानी के कुछ शेयरों में तो लगातर लोअर सर्किट लग रहा है। सिर्फ अडानी ही नहीं एलआईसी (LIC) और कुछ बैंकों के शेयर भी नीचे आए हैं। कुछ सरकारी बैंकों के शेयर 18 फीसदी तक लुढ़क गए हैं। आइए जानते हैं कि ये कौन-से बैंकों के शेयर हैं।

० सरकारी क्षेत्र के बैंक ऑफ इंडिया का शेयर पिछले एक महीने में 18 फीसदी से अधिक गिर गया है। यह शेयर 24 जनवरी को ₹80.55 पर था। इस शेयर का 52 हफ्ते का उच्च स्तर ₹103.50 और 52 हफ्ते का निम्न स्तर ₹40.40 है। इस बैंक का बीएसई पर मार्केट कैप शुक्रवार को ₹28,745.48 करोड़ था।

० इंडियन ओवरसीज बैंक 17% टूटा है। बीते एक महीने में इंडियन ओवरसीज बैंक का शेयर 17 फीसदी टूट गया है। यह शेयर 24 जनवरी को 29.15 रुपये पर था। शुक्रवार को यह 24.20 रुपये पर बंद हुआ था। इस शेयर का 52 हफ्ते का उच्च स्तर 36.70 रुपये और निम्न स्तर 15.25 रुपये है।

० यूनियन बैंक ऑफ इंडिया का शेयर 16% टूटा है। बीते एक महीने में यूनियन बैंक ऑफ इंडिया का शेयर 16.7 फीसदी टूट गया है। यह शेयर एक महीने पहले ₹80 का था, जो शुक्रवार को ₹67.05 पर बंद हुआ है। इसका 52 हफ्ते का उच्च स्तर ₹96.40 और निम्न स्तर ₹33.55 है।

० सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया का शेयर 16.47% टूटा है। सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया का शेयर बीते एक महीने में 16.47% टूट गया है। यह शेयर शुक्रवार को ₹25.35 रुपये पर बंद हुआ था।

० पंजाब एंड सिंध बैंक का शेयर 15.6% टूटा है। पंजाब एंड सिंध बैंक की बात करें, तो यह शेयर बीते एक महीने में 15.6% टूटा है। यह शुक्रवार को 4.86 फीसदी या ₹1.30 गिरकर ₹25.45 पर बंद हुआ है। 

अडानी ग्रुप इस समय साख के संकट से जूझ रहा है। साख बहाली के लिए जरूरी है कि, यह समूह, एक निष्पक्ष ऑडिट कराकर हिंडनबर्ग के हर निष्कर्ष का विंदुवार समाधान प्रस्तुत करे और अपनी वित्तीय स्थिति को पारदर्शिता से सबके सामने रखे। लेकिन, ऑडिट कराने, और हिंडनबर्ग पर मुकदमा करने की बात कह कर, अब अडानी ने इन दो महत्वपूर्ण साख बहाली के कदमों पर, विराम लगा दिया है। अब समूह ने, साख बहाली के लिए,  इस हफ्ते रोड शो करने का कार्यक्रम जारी किया है। खबर है, कुछ एशियाई देशों में अडानी ग्रुप इस हफ्ते फिक्स्ड-इनकम इन्वेस्टर रोड शो करेगा। रॉयटर्स की एक रिपोर्ट से यह बात पता चली है कि, अरबपति गौतम अडानी का ग्रुप 27 फरवरी को सिंगापुर में रोड शो है। इसके बाद 28 से एक मार्च तक हांगकांग में रोड शो होगा।

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, अडानी ग्रुप का यह रोड शो निवेशकों को रिझाने के लिए हो रहा है। अडानी समूह, चाहता है कि उसके शेयरों में लोगों का भरोसा फिर से पैदा हो। बार्कलेज पीएलसी, बीएनपी परिबा एसए, डीबीएस बैंक लिमिटेड, डॉयचे बैंक एजी, अमीरात एनबीडी कैपिटल, आईएनजी, आईएमआई-इंटेसा सानपोलो एसपीए, एमयूएफजी, मिजुहो, एसएमबीसी निक्को और स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक ने रोड शो के लिए संभावित इन्वेस्टर्स को न्योता भी भेजा है। सिंगापुर और मॉरीशस जैसे देश टैक्स हैवन देश माने जाते हैं। इन देशों की कई कंपनियां अडानी ग्रुप के शेयरों में निवश करती आई हैं। यहां से अडानी के शेयरों के भाव को सपोर्ट मिलता है। अडानी ग्रुप इन निवेशकों का भरोसा फिर से जीतना चाहता है। इसके लिए यह ग्रुप दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में रोड शो आयोजित कर रहा है।

बिजनेस अखबारों और वेबसाइट्स के अनुसार, "अडानी समूह, ग्लोबल बाजार में, बॉन्ड की साख के लिए, निरंतर प्रयासरत है। स्टॉक मार्केट में जो स्थिति दिख रही है, उसमें इतनी जल्दी रिकवरी की उम्मीद नहीं दिख रही है। निवेशक जिन परियोजनाओं के आधार पर अडानी समूह में निवेश कर रहे थे, समूह ने कई परियोजनाओं ने अपने कदम पीछे खींच लिए हैं। जिसका असर निवेशकों पर देखने को मिल रहा है। अब जो फिक्स्ड इनकम इंवेस्टर्स हैं, उसपर कंपनी फोकस कर रही है। फिक्स्ड इनकम इवेस्टर्स वो निवेशक हैं, जिन्होंने अडानी समूह के बॉन्ड खरीद रखे हैं। अडानी समूह इन निवेशकों के घबराहट को कम करना चाहता है। उनका भरोसा जीतने की कोशिश कर रहा है।"
बेचैनी, बॉन्ड बाजार में भी है। बॉन्ड निवेशकों को लुभाने के लिए, उनके डर और बेचैनी को खत्म करने के लिए, उनके भऱोसे को जीतने के लिए अडानी ग्रुप ने इस रोड शो योजना को लागू किया है। इसका क्या प्रभाव, अडानी समूह की साख और शेयर पर पड़ता है, यह भविष्य बताएगा। 

इस दौरान कंपनी अपने बॉन्ड निवेशकों के सामने अपनी स्थिति, अपने कैश फ्लो, अपने कर्ज, अपनी प्लानिंग, रेवेन्यू, अपनी परियोजनाओं में आ रहे निवेश आदि की डिटेल साझा कर उनका विश्वास जीतने की कोशिश करेगी। ताकि ये निवेशक समूह के साथ बने रहे। समूह की कोशिश रहेगी कि बॉन्ड निवेशकों का भरोसा बना रहेष अगर बॉन्ड निवेशकों की घबराहट को अडानी समूह कम कर पाने में सफल रही तो वो हिंडनबर्ग के इस चोट से उबरने की दिशा में एक और कदम बढ़ा लेगी। फिलहाल तो, ऑफशोर शेल कंपनियों से मनी लांड्रिंग कर के धन मंगाने से लेकर, विकिपीडिया Wikipedia के लेखों के साथ छेड़छाड़ करने तक, अडानी समूह अब तक, सबसे घोटालेबाज पूंजीपति घराने के रूप में सामने आ रहा है। शेल कंपनियों में यदि मुंद्रा ड्रग जैसी ड्रग तस्करी का भी पैसा लगा हो तो, आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

विजय शंकर सिंह
© Vijay Shanker Singh 

Sunday, 26 February 2023

धोखा, घपला, मनी लांड्रिंग और अडानी समूह का ढहता साम्राज्य / विजय शंकर सिंह

पूरा एक महीना हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट आए हो गया, पर अब तक अडानी समूह ने उस संस्था के खिलाफ कोई कानूनी कार्यवाही तक शुरू नहीं की, जिसकी वजह में अडानी समूह के मालिक गौतम अडानी, जो कभी, दुनिया के दूसरे तीसरे नंबर के अमीर व्यक्ति थे, अब मात्र एक महीने में ही, खिसक कर तैतीसवें स्थान पर आ गए हैं, और अर्थ विशेषज्ञों की मानें तो यह गिरावट अभी और हो सकती है। हिंडन बर्ग ने तो अपनी रिपोर्ट में ही कह दिया था कि, अडानी समूह के शेयर, 85% अधिक मूल्य पर बाजार में हैं। अब तक 70% की गिरावट उसमें आ चुकी है।  यह एक ढहता हुआ आर्थिक साम्राज्य है, एक ऐसा आर्थिक साम्राज्य, जिसे सरकार का भरपूर समर्थन और अतिशय राजकृपा पिछले आठ साल से मिल रही थी। जब देश के जनता की आय, गिर रही थी, कल कारखाने बंद हो रहे थे, नौकरियां कम हो रही थी, तब देश के दो बड़े पूंजीपति घराने तेजी से अमीरी के सोपान पर चढ़ते चले जा रहे थे। उसमें भी अडानी तो सोपान से नहीं, बल्कि एलिवेटर से शिखरोन्मुख थे। अडानी का ढहता साम्राज्य, हमें खुशी नहीं देता है, क्योंकि इसने पहले से ही ऑफशोर पनाहगाहों में अरबों रुपये जमा कर रखे होंगे। इसका कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। पर वे खुदरा निवेशक, आम जनता, जिन्हें हम अपने परिवारों, दोस्तों के रूप में जानते हैं, वे आज अडानी के छल छद्म के पर्दाफाश से, अपनी गाढ़ी कमाई का धन गंवा रहे हैं, उनकी व्यथा जरूर हमे पीड़ित करती है। बात उनकी होनी चाहिए। 

हिंडनबर्ग रिपोर्ट के बारे में दुनियाभर के अखबार बातें कर रहे हैं, अपने आकलन लिख रहे हैं, अपने विश्लेषण से, निवेशकों को सजग कर रहे हैं, दुनिया भर की शीर्षस्थ रेटिंग एजेंसियां, शेयरों के दाम और कंपनी की हैसियत का मूल्यांकन कर रही है, आम निवेशकों और सरकारी बैंकों, एलआईसी, अन्य वित्तीय संस्थानों द्वारा अडानी समूह को दिए गए ऋण पर संकट आ खड़ा है, पर हर्षद मेहता, केतन पारिख जैसे बड़े घोटालों से भी बड़े घोटाले को लेकर, कोई जांच होने की तो बात ही छोड़ दीजिए, संसद में चर्चा तक नही हो रही है। अडानी का नाम लेना, वर्जित है, अडानी के बारे में सवाल पूछना मना है, और रहा सवाल अडानी और सरकार या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आपसी संबंधों पर कुछ बोलना, तो ईशनिंदा जैसा हो गया है। सदन में जेपीसी यानी संयुक्त संसदीय समिति की मांग ठुकरा दी गई। सदन में विपक्ष के नेताओं, राहुल गांधी तथा अन्य ने जो सवाल इस हिंडनबर्ग रिपोर्ट के संदर्भ में सरकार से जानना चाहे, उन्हे भी सदन की कार्यवाही से हटा दिया गया। आखिर, अडानी के नाम से, इतनी परेशानी क्यों? यहीं यह संदेह उठता है, कुछ तो है, जिसकी पर्दादारी है! 

पर यह पर्दा धीरे धीरे उठ रहा है। सूचना क्रांति के इस युग में, अब कोई राज़, पोशीदा रह जाय, यह मुमकिन नहीं रहा। 2014 में सरकार बनने के बाद, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के ऑस्ट्रेलिया दौरे में जब गौतम अडानी, उनके साथ दिखे, तो उस तस्वीर में, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की तत्कालीन चेयरपर्सन अरुंधती घोष भी दिखीं, जो एसबीआई से रिटायर होने के तुरंत बाद ही, रिलायंस के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर में शामिल हो गई थी, को, अडानी के ऑस्ट्रेलिया की कोयले खदान के लिए, ऋण स्वीकृति के लिए ऑस्ट्रेलिया बुलाया गया था। यह एक प्रकार का संदेश था कि, गौतम अडानी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कितने नजदीक है। फिर इसी तरह के और भी दौरे हुए, जहां पीएम के दौरे के बाद, अडानी समूह को, उक्त देश से, व्यवसायिक लाभ प्राप्त हुआ। जैसे श्रीलंका का बंदरगाह और बिजली प्रोजेक्ट तथा, इजराइल का हाइफा बंदरगाह। श्रीलंका की संसद में तो मंत्री ने खुलेआम यह कहा भी कि, अडानी को ठेका देने के लिए, पीएम नरेंद्र मोदी ने सिफारिश की थी। यह अलग बात है कि, उन्होंने बाद में इससे इंकार कर दिया। 

पूंजीवादी व्यवस्था में सरकार, पूंजीपतियों की लॉबी को दुनिया भर में उनके व्यवसायिक हितों के लिए भी काम करती है। पर यहां तो पूंजीपतियों की कोई लॉबी नहीं, बस दो ही पूंजीपति ऐसे हैं, जिनके लिए सरकार, या बेहतर होगा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुल कर, उनके हितों की रक्षा की। गौतम अडानी का उदाहरण ऊपर दिया जा चुका है, और दूसरा महत्वपूर्ण उदाहरण है, अनिल अंबानी का, जिन्हे हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड HAL से, राफेल का तयशुदा ठेका, रद्द कर,  सौंप दिया गया। विमान निर्माण में एचएएल का लंबा अनुभव धरा का धरा रह गया और अनिल अंबानी वह ठेका ले उड़े, जो फिलहाल खुद को दिवालिया कह चुके हैं। पर बात फिलहाल गौतम अडानी की ही की जाय तो उचित है, अन्यथा अनावश्यक विषयांतर हो जायेगा। 

अडानी समूह पर हिंडनबर्ग रिपोर्ट के आए एक माह बाद भी सरकार और प्रधानमंत्री की चुप्पी, इस बात को ही पुष्ट करती है कि, अडानी और पीएम के रिश्तों में कुछ ऐसा है, जिसे न तो सरकार, खोलना चाहती है और न ही, बीजेपी। और तो और खुद को सांस्कृतिक संगठन कहने वाली आरएसएस भी इस मुद्दे पर, अडानी के साथ है। हिंडनबर्ग के 88 सवालों का जवाब तो अडानी को देना है, पर सरकार भी इन सवालों से बच नहीं सकती है। आप को याद होगा, 2014 के आम चुनाव में, भ्रष्टाचार और कलाधन सबसे बड़े चुनावी मुद्दे थे। सरकार ने कालाधन का पता लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर एक कमेटी का गठन किया, एक एसआईटी भी गठित की गई, उसकी एक रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट में सीलबंद लिफाफे में सौंपी भी गई, पर उसका कोई भी विवरण सार्वजनिक नहीं किया गया। काले धन के मुद्दे पर, हर बार बात होती है और इधर बात पर बात होती रहती है, और उधर विदेशों में काला धन बढ़ता रहता है। 

हिंडनबर्ग रिपोर्ट में, मूल विंदु ही, शेल कंपनियों से अडानी समूह को निवेश का है। यह सारी कंपनिया, मारिशस, साइप्रस जैसे ऐसे देश हैं, जिन्हे टैक्स हेवेन कहा जाता है और वह कालाधन का स्वर्ग कहा जाता है। यह सारी कंपनिया, विनोद अडानी की है, और विनोद, गौतम अडानी के बड़े भाई हैं, जो भारतीय नागरिक नहीं हैं। इस बात की पूरी संभावना है कि, इन शेल कंपनियों से, अडानी समूह में आया हुआ पूरा निवेश, मनी लांड्रिंग के माध्यम से, आया हुआ काला धन है, जो भारतीय कानून के अंतर्गत एक दंडनीय अपराध है। क्या सरकार को, इस बात की जांच नहीं करनी चाहिए कि, यह शेल कंपनियां किसकी है, वे करती क्या हैं, उनके आय के स्रोत क्या हैं, और यह मनी लांड्रिंग का कोई मामला तो नहीं है, आदि आदि बिंदुओं पर, प्रवर्तन निदेशालय आदि एजेंसियों को, अब तक सक्रिय हो जाना चाहिए था, पर जांच की कोई सुगबुगाहट तक नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर एक स्वागतयोग्य पहल की है, और अदालत एक एक्सपर्ट का पैनल जांच के लिए बनाने जा रही है। अभी पैनल के नामों का खुलासा नहीं हुआ है। 

संसद में अडानी घोटाले की चर्चा भले ही बाधित कर दी जाय, अडानी शब्द का उल्लेख, भले ही, सदन में ट्रेजरी बेंच का ब्लड प्रेशर बढ़ा दे, पर जिस तरह से समूह के शेयरों में पिछले एक माह से, लगातार गिरावट जारी है, उसे देखते हुए, दुनिया भर के अर्थ विशेषज्ञ, यह आशंका जता रहे हैं, कि, कहीं, अडानी समूह का वर्तमान संकट एनरॉन कंपनी की ही तर्ज पर तो नहीं है ? अडानी समूह का नाम लिए बिना ही अमेरिका के पूर्व वित्तमंत्री और हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के चेयरमैन, लैरी समर्स ने, यह आशंका जताई है। ज्ञातव्य है, एनरॉन घोटाला कांड, अमेरिका की सबसे बड़ी लेखा धोखाधड़ी के परिणामस्वरूप हुआ था और ऊर्जा क्षेत्र की दिग्गज कंपनी, एनरॉन, उस घोटाले के कारण दिवालिया हो गई थी। कही अडानी समूह भी, उसी नक्शे कदम पर तो नहीं जा रहा है? 

लैरी समर्स ने भारतीय समूह का नाम लिए बिना भारत में अडानी विवाद की तुलना अमेरिका में "संभावित एनरॉन मोमेंट" से की है, और कहा कि इसका खाका जी20 के वित्त मंत्रियों के दिमाग में होगा, जब वे, इस सप्ताह के अंत में बैंगलोर में बैठक करेंगे। 17/02/23 को ब्लूमबर्ग के वॉल स्ट्रीट वीक पर सवालों का जवाब देते हुए समर्स ने समूह का नाम लिए बिना अडानी का मुद्दा उठाया। यह पूछने पर कि वह जी20 बैठकों में क्या देखना चाहते हैं, समर्स ने कहा: "हम अभी इसके बारे में बात नहीं करेंगे, लेकिन भारत में यह एक तरह का संभावित एनरॉन जैसा है। समर्स ने कहा: "और मैं कल्पना करता हूं कि भारत दुनिया के सबसे बड़े देश के रूप में उभर रहा है और भारत में बैठक हो रही है, इस बारे में सभी उपस्थित लोगों में बहुत उत्सुकता होगी कि यह सब कैसे हुआ और क्या हुआ, इस पर चर्चा हो सकती है।

एनरॉन घोटाला, अमेरिका की सबसे बड़ी लेखांकन धोखाधडी accounting and auditing fraud में से एक माना जाता है। इसके परिणामस्वरूप ऊर्जा और वस्तुओं की, इस दिग्गज कंपनी को दिवालिया होने के लिए मजबूर होना पड़ा था। कई वर्षों से, एनरॉन के शीर्ष अधिकारी एक संदिग्ध मार्क-टू-मार्केट अकाउंटिंग तंत्र का उपयोग करके मामलों की वास्तविक हैसियत और स्थिति को छिपाते रहे, जिसने वर्तमान आय में कुछ डेरिवेटिव अनुबंधों पर भविष्य के अवास्तविक लाभों को पहचान कर भ्रामक लाभ दिखाने की कोशिश की थी।

जब मामला नियंत्रण से बाहर होने लगा तो, एनरॉन के वित्तीय अधिकारियों ने कई विशेष प्रयोजन संस्थाओं (एसपीई) की स्थापना की, जहां संकटग्रस्त संपत्तियों का  अंबार था, ताकि कंपनी के बही-खाते साफ-सुथरे बने रहें। अंततः यह मामला, आर्थर एंडरसन द्वारा, एनरॉन से ब्रेकअप कर लेने के कारण, अमेरिका के सबसे बड़े लेखा घोटाले में बदल गया, जिसने एक लेखा परीक्षक के साथ-साथ एनरॉन के सलाहकार के रूप में भी काम किया था। इस खुलासे और घोटाले के कारण, एनरॉन के कई अधिकारियों को कारावास का दंड भी मिला। इस घोटाले के परिणामस्वरूप सार्वजनिक रूप से कारोबार करने वाली कंपनियों के लिए वित्तीय रिपोर्टिंग की सटीकता बढ़ाने के लिए डिज़ाइन किए गए नए नियमों और कानूनों को लाया गया। उनमें सबसे महत्वपूर्ण, सरबेंस-ऑक्सले अधिनियम (2002) है, जिसमें वित्तीय रिकॉर्ड को नष्ट करने, बदलने या गढ़ने के लिए जिम्मेदार कंपनियों और अधिकारियों पर कठोर दंड का प्राविधान है।

हिंडनबर्ग रिसर्च रिपोर्ट ने अडानी समूह की वित्तीय सत्यनिष्ठा पर सवाल उठाए हैं।  अडानी पर वैश्विक टैक्स हेवन में स्थित संस्थाओं से धन की मनी लांड्रिंग करने का आरोप लगाया गया है, जिनके लाभकारी स्वामित्व को अपारदर्शी कॉर्पोरेट संरचनाओं के पीछे छुपाया गया था। मनी लांड्रिंग, भारतीय कानून के अंतर्गत भी एक दंडनीय अपराध है। अंतर यह है कि अडानी पर अपनी सूचीबद्ध संस्थाओं के स्टॉक की कीमतों में इस तरह से हेरफेर करने का आरोप लगाया गया है कि इसने गौतम अडानी को सापेक्ष अस्पष्टता से विभिन्न वैश्विक अमीर सूची के शीर्ष पर पहुंचा दिया। 24 जनवरी को हिंडनबर्ग रिपोर्ट आने के बाद, अडानी समूह की कागजी संपत्ति सिकुड़ गई - नियामकों और शेयरधारकों को, जवाब और कारण का अंदाजा, टटोलते हुए छोड़ दिया गया। 

(विजय शंकर सिंह)

Thursday, 23 February 2023

लोकगीत गायिका नेहा सिंह राठौर को कानपुर देहात पुलिस की नोटिस / विजय शंकर सिंह

यूपी की कानपुर देहात जिले की अकबरपुर पुलिस ने, नेहा, Neha Singh Rathore नेहा सिंह राठौर को उनके एक गीत पर, नोटिस जारी किया है। गीत इस प्रकार है। पढ़े और खुद तय करें कि इस गीत में ऐसा क्या है जो समाज में वैमनस्य फैला रहा है ?

बाबा के दरबार बा, 
ढहत घर बार बा
माई बेटी के आग में झोंकत 
यूपी सरकार बा...

का बा यूपी में का बा
बाबा के डीएम त बड़ा रंगबाज बा
कानपुर देहात में ले 
आइल रामराज बा

बुलडोज़र से रौंदत दीक्षित के घरवा आज बा  
यही बुलडोजरवा पे 
बाबा के नाज बा
का बा यूपी में का बा

आग लगि त हिंदू जरिहें हें
जरिहें मुसलमान बा
ए बाबा 
एहिजा ना खाली
अब्दुल के मकान बा……।

अतिक्रमण हटाओ अभियान के अंतर्गत कानपुर देहात में प्रमिला दीक्षित और नेहा दीक्षित नाम की दो महिलाएं झोपड़ी में जल कर मर गईं। प्रशासन और पुलिस पर झोपड़ी में आग लगाने का आरोप है। सरकार ने, एसडीएम और लेखपाल को सस्पेंड कर दिया और खबर है, शायद, लेखपाल गिरफ्तार है। DM कानपुर देहात के खिलाफ अभी कोई कार्यवाही नहीं हुई है। 

इसी मामले में जब नेहा ने यह भोजपुरी गीत गाया तो, पुलिस ने धारा 160 CrPC के अंतर्गत नोटिस भेज दी। आरोप समाज में वैमनस्यता फैलाने का है। नेहा को नोटिस भेजने का निर्णय थानाध्यक्ष का अपना निर्णय तो नहीं ही होगा। यह निर्णय निश्चित ही DM/SP के स्तर पर लिया गया होगा। अब यह निर्णय DM/SP ने अपने विवेक से लिया है या उन्हे भी ऐसा करने के लिए कहा गया है,यह तो वही बताएं। 

पर मैं अपने सेवागत अनुभव से बता सकता हूं कि किसी गीत के आधार पर, जिसका कोई असर इलाके की कानून व्यवस्था पर न पड़ा हो या पड़ रहा हो, इस तरह की जारी नोटिस पहली बार देखने में आई है। धारा 160 सीआरपीसी, जिसके अंतर्गत यह नोटिस जारी है और जिसे, सफीना भी, कहा जाता है यह गवाहों को हाजिर होने के लिए भेजा जाता है। 

राजनीतिक दृष्टिकोण से, प्रेरित होकर, इस तरह की नोटिस जारी करने के फैसले से, एक बात स्पष्ट है कि, इस तरह की नोटिस और अहंकार में लिए, ऐसे प्रशासनिक फैसलों से, कोई भी, प्रशासनिक लाभ नहीं होता है, उल्टे सरकार, पुलिस और प्रशासन की किरकिरी ही होती है और सोशल मीडिया के इस युग में ऐसे फैसले सरकार विरोधी वातावरण भी बनाते हैं। 

(विजय शंकर सिंह)

Sunday, 19 February 2023

एक कविता - प्रक्षालन

निःशब्द वन, निस्तब्ध बुद्ध,
मंद पवन, चंचल चंद्र,
चकित जन, उत्कण्ठित मन,
प्रश्न किया, तथागत से,
प्रश्नाकुल शिष्य ने,
" शास्ता, कुछ उपदेश आज,
कुछ अमिय ज्ञान, कुछ मार्ग,
कोई अवलंब जीवन का,
कुछ कृपा करें , मुझ मूढ़ पर । "

मुंदे नयन, प्रशस्त ललाट,
अद्भुत अधर, मोहक मुस्कान,
देखते हुए शिष्य को ,
उत्तर तो दिया नहीं,
प्रतिप्रश्न और कर दिया,
बोले बुद्ध,
" भोजन के बाद कभी,
जूठे पात्र, धोये हो ? "

चकित शिष्य , हुआ और भ्रमित,
जागा कुछ भाव उपालम्भ का,
बोल पड़ा,
" जूठा पात्र, हर दिन तो धोता हूँ ,
भोजन के बाद उसे,
भला, बिना धोये,
कैसे खा लूंगा, जूठे बर्तन में ? "

बुद्ध मुस्कुराये,
खिल उठा चाँद,
बादलों के बीच ,
शिष्य की आँखों में देख,
पूछा,
" पात्र धोने के कार्य से कुछ सीखा,
या धोते रहे हो उसे
ऐसे ही अब तक ?"

" पात्र धोने में क्या सीखना, प्रभु,
यह तो कर्म है नित्य का,
सभी तो धोते हैं, जूठे पात्र को,
बिना प्रक्षालित किये , भला,
खा सकता है,
कैसे कोई उस पात्र में ?
अस्वस्थ न हो जाऊँगा ? "

शिष्य ने तर्क रखा,
और सोचने लगा,
जूठा पात्र भला, क्या देगा सीख मुझे !

अधखुले नयन तथागत के,
अधर हिले,
" ध्यान देना तुम,
पात्र , को बाहर तो कम
पर अधिक धोना पड़ता है
भीतर उसे ।
यह देह भी तो पात्र ही है ।
धोते तो इसको भी नित्य ही हो, तुम
पर अंदर कभी देखा है ?
झाँको और पैठो भीतर,
मन पर जो जमी धूल ,
चीकट जो चिपकी है ,
धोना पड़ता है अधिक उसे । "

शिष्य स्तब्ध, बोले बुद्ध फिर
" सब कुछ तो मन ही है ,
बांधे और रखता है साधे सबको,
कभी उदास तो ,
कभी पा चुका हो सब कुछ जैसे,
भरा हो आत्मतोष से,
बिलकुल पूर्णिमा के चाँद की तरह,
सम्पूर्ण कलाओं को समेटे ,
रश्मि बिखेरता,
और पराजित करता, अन्धकार को ।
साफ़ रखो, मन को, 

जूठे पात्र को, जैसे,
भीतर से अधिक धोते हो,
रखते हो, साफ़ उसे ! "

बुद्ध फिर हुए मौन,
आत्मलीन, आँखे मूंदे, स्मित अधर ,
सब शांत और दिव्य !
एक उजास दूर कही ,
क्षितिज के पार दिखने लगा
प्रत्यूष होने लगा !!

( विजय शंकर सिंह )
#कविता #vss

Saturday, 18 February 2023

अडानी समूह पर शेल कंपनियों से फंड लेने के आरोप और विनोद अडानी की भूमिका / विजय शंकर सिंह

हिंडनबर्ग रिसर्च रिपोर्ट में अडानी समूह द्वारा किए गए शेल कंपनियों द्वारा निवेश और शेयरों में ओवर प्राइसिंग और अन्य घपलों के बारे में विस्तार से यह समझाया गया है कि, कैसे इस समूह ने धोखाधड़ी और राजकृपा से पिछले नौ सालों में अप्रत्याशित विकास किया और एक समय दुनिया के दूसरे सबसे अमीर घराने में शुमार किया जाने लगा। इस रिपोर्ट के बाद, स्टॉक मार्केट में अडानी समूह के शेयरों के भाव गिरने लगे, समूह को अपना एफपीओ, ओवर सब्सक्राइब होने के बाद भी वापस लेना पड़ा, और अभी हाल ही में, छत्तीसगढ़ स्थित डीबी थर्मल पॉवर प्लांट का सौदा, ₹7000 करोड़ की रकम, न चुका पाने के कारण, रद्द करना पड़ा। समूह अब भी अपने निवेशकों का खोया हुआ भरोसा पाने की पूरी कोशिश कर रहा है, पर अभी भी निवेशकों का विश्वास बहाल नहीं हो पा रहा है, और समूह, अपने राजनीतिक संबंधों, विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ अपने संबंधों के कारण विपक्ष के निशाने पर भी है। 

इन्ही सब झंझावातों के बीच, फोर्ब्स की एक ताजा रिपोर्ट, जो फोर्ब्स के स्टाफ राइटर, जॉन हयात (John Hyatt) और गियोकॉमि टोगिनी (Giacomo Tognini) द्वारा लिखी गई है, इस समूह के निवेश में शेल कंपनियों की सांठगांठ पर विस्तार से प्रकाश डालती है। इस रिपोर्ट के प्रकाशित होने के बाद, अडानी समूह के इतनी तेजी से अमीर बनने और साम्राज्य विस्तार को लेकर, जो कुछ भी हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट में छपा है कि, उसकी पुष्टि होती है। इस रिपोर्ट में अडानी समूह पर खातों में हेराफेरी, अकाउंटिंग धोखाधड़ी और स्टॉक हेरफेर का आरोप लगाया गया है। हालांकि अडानी समूह ने इन आरोपों को निराधार बताया है। 

लेकिन आरोप, निराधार कैसे हैं, इसे उन्होंने, हिंडनबर्ग को भेजे गए अपने जवाब में,  स्पष्ट नहीं किया है। रिसर्च रिपोर्ट में, एक नाम का उल्लेख 151 बार किया गया है और समूह की धोखाधड़ी और शेल कंपनियों का मायाजाल, इसी नाम के इर्दगिर्द बुना हुआ दिखता है, यह नाम है विनोद शांतिलाल अडानी का, जो अडानी समूह के चेयरमैन, गौतम अडानी के सगे बड़े भाई हैं, और यूएई (संयुक्त अरब अमीरात) में रह कर व्यापार करते हैं। हिंडनबर्ग की पड़ताल के अनुसार, "विनोद अडानी, उस घोटाले के केंद्र में नज़र आते हैं, जिस घोटाले ने उनके भाई, गौतम अडानी के साम्राज्य और भारतीय व्यापार और एक शीर्ष  राजनीतिक व्यक्तित्व को इस समय घेर रखा है।"

हिंडनबर्ग रिपोर्ट के अनुसार, विनोद अडानी, "अपतटीय (ऑफशोर) शेल संस्थाओं की एक विशाल भूलभुलैया का प्रबंधन करता है।" जिसने "सामूहिक रूप से सौदों की आवश्यक पारदर्शिता का पालन करते हुए, भारतीय उद्योगपति, गौतम अडानी को, उनके समूह की सार्वजनिक रूप से सूचीबद्ध कंपनियों और उसकी निजी संस्थाओं में अरबों डॉलर का फंड स्थानांतरित किया है।" साथ ही, "विनोद अडानी ने, अडानी समूह को भारतीय कानूनों से बचाने में भी मदद की है, जिसके लिए गैर-अंदरूनी लोगों के स्वामित्व वाली कंपनी में, सार्वजनिक रूप से कारोबारी स्टॉक का कम से कम 25% होना आवश्यक है।" यानी न्यूनतम शेयर जो नियमानुसार किसी पब्लिक लिमिटेड कंपनी के जनता में हो सकते हैं, यानी 25%, उतने शेयर, जनता मे हैं। शेष, अडानी परिवार के पास हैं। 

रिपोर्ट के अनुसार, विनोद अडानी ने अडानी समूह में अपनी ऑफ शोर शेल कंपनियों, द्वारा भारी निवेश किया है। हालांकि, अडानी समूह ने, समूह के अध्यक्ष गौतम अडानी का, उनके भाई, विनोद अडानी के साथ बताए जा रहे, अनुचित कारोबारी संबंधों से इनकार किया है। अडानी समूह ने हिंडनबर्ग को, 29 जनवरी, 2023 को भेजे अपने, 413 पन्नों के जवाब में लिखा है, "विनोद अडानी, अडानी समूह की, किसी भी सूचीबद्ध कंपनियों या उनकी सहायक कंपनियों में, किसी भी, प्रबंधकीय पद पर नहीं हैं और समूह की कंपनियों के दैनिक मामलों में उनकी कोई भूमिका भी नहीं है।" अडानी समूह ने कहा है कि, समूह ने संबंधित पक्षों से जुड़े सभी लेन-देन की "विधिवत पहचान की है और उन्हें इस जवाब में स्पष्ट" भी कर दिया गया है।

हालांकि, फोर्ब्स में प्रकाशित लेख में, विनोद अडानी और अडानी समूह के बीच संबंधों के साथ साथ, अपतटीय निधियों (ऑफशोर फंड) से जुड़े उन लेन-देन की भी पहचान की गई है, जिन्हे, अडानी समूह ने, जानबूझ कर छुपाया है। लेख के अनुसार, ये पोशीदा लेनदेन, अडानी समूह को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से, डिज़ाइन किए गए प्रतीत होते हैं। ये सौदे हिंडनबर्ग रिसर्च रिपोर्ट में वर्णित, अडानी समूह पर, लेखा  अनियमितताओं के संदर्भ में, लगाए गए आरोपों को और बल देते हैं।"

ऑस्ट्रेलिया स्थित कॉर्पोरेट और वित्तीय विश्लेषण फर्म क्लाइमेट एनर्जी फ़ाइनेंस के निदेशक टिम बकले, जिन्होंने अडानी समूह और ऑस्ट्रेलिया में कोयला खदान विकसित करने की, समूह की योजना का अध्ययन किया है, कहते हैं, "मैंने हमेशा सोचा था कि यह उनके (अडानी बंधुओं के बीच) एक साझेदारी है। एक तरफ, गौतम अडानी का गर्मजोशी से भरा, मैत्रीपूर्ण, मिलनसार सार्वजनिक चेहरा है तो दूसरी ओर, किसी निजी टैक्स हेवन में मास्टरमाइंड, असली कठपुतली मास्टर के रूप में विनोद अडानी है।"
अडानी समूह और विनोद अडानी ने, फोर्ब्स द्वारा भेजे गए कुछ सवालों के जवाब नहीं दिए। फोर्ब्स ने अपने सवालों के जवाब भेजने का अनुरोध, विनोद अडानी से, उनके ईमेल पता, जो दुबई में उनके नाम पर पंजीकृत कई संपत्तियों से जुड़ा हुआ है, जिसमें एक अडानी ग्लोबल डोमेन है, पर भेजे थे।

अब फोर्ब्स ने, कुछ उन सौदों का उल्लेख अपने लेख में किया है, जो अडानी समूह के साथ विनोद अडानी ने किए हैं, और जिनका विवरण सबके सामने हैं। 
कुछ उदाहरण इस प्रकार है। 
० पिछली गर्मियों में, अंबुजा सीमेंट की सार्वजनिक फाइलिंग के अनुसार, विनोद अडानी की कंपनियों में से एक, एंडेवर ट्रेड एंड इंवेस्टमेंट लिमिटेड, ने भारतीय सीमेंट कंपनियों अंबुजा सीमेंट्स लिमिटेड और एसीसी लिमिटेड में स्विस फर्म होल्सिम के 10.5 बिलियन डॉलर के अधिग्रहण के लिए अडानी समूह के अधिग्रहण वाहन के रूप में काम किया। इस सौदे ने अडानी समूह को भारत की दूसरी सबसे बड़ी सीमेंट कंपनी बना दिया।

० पिनेकल ट्रेड एंड इन्वेस्टमेंट प्रा लिमिटेड, एक सिंगापुर की कंपनी है जो, अप्रत्यक्ष रूप से विनोद अडानी द्वारा नियंत्रित की जाती है। 2020 में, पिनेकल ने रूस के, राज्य स्वामित्व वाले VTB वीटीबी बैंक के साथ एक ऋण समझौता किया। अप्रैल 2021 तक, पिनेकल ने $263 मिलियन डॉलर उधार लिए थे और एक अनाम संबंधित पार्टी को $258 मिलियन उधार दिए थे। यहीं यह सवाल उठता है कि, पिनेकल ने रूस के बैंक से लोन लिया तो क्यों लिया, क्या उस रकम को, किसी अनाम कंपनी को पुनः कर्ज देने के लिये ऋण लिया गया था। 

० उसी साल, बाद में, पिनेकल ने ऋण के लिए गारंटर के रूप में दो निवेश फंड, एफ्रो एशिया ट्रेड एंड इंवेस्टमेंट्स लिमिटेड और वर्ल्डवाइड इमर्जिंग मार्केट होल्डिंग लिमिटेड की पेशकश की। जून 2020 और अगस्त 2022 में भारतीय स्टॉक एक्सचेंज फाइलिंग के अनुसार, विनोद अडानी, वर्ल्डवाइड इमर्जिंग फाइलिंग के फंड के मालिक प्रतीत होते हैं। विनोद, मॉरीशस स्थित एक्रोपोलिस ट्रेड एंड इंवेस्टमेंट्स लिमिटेड के अंतिम लाभकारी मालिक हैं, जो वर्ल्डवाइड इमर्जिंग मार्केट होल्डिंग लिमिटेड का 100% शेयरधारक है। 

० एफ्रो एशिया ट्रेड और वर्ल्डवाइड दोनों ही अडानी ग्रुप के बड़े शेयरधारक हैं। अडानी एंटरप्राइजेज, अडानी ट्रांसमिशन, अडानी पोर्ट्स और अडानी पावर में, दोनों फंडों के, कुल मिलाकर $4 बिलियन (16 फरवरी के बाजार मूल्य के करीब) का स्टेक है, जो सभी फंड को "प्रमोटर" संस्थाओं के रूप में स्वीकार करते हैं।

० निवेश ट्रैकिंग वेबसाइट ट्रेंडलाइन के अनुसार एफ्रो एशिया ट्रेड और वर्ल्डवाइड के पास कोई अन्य प्रतिभूतियां नहीं हैं। इसका मतलब यह है कि, पिनेकल का ऋण, अडानी कंपनी के फंड के शेयरों के मूल्य से प्रभावी रूप से सुरक्षित है। किसी भी फंड ने इन चार अडानी कंपनियों के लिए, भारतीय वित्तीय फाइलिंग में गिरवी शेयर का खुलासा नहीं किया है, जिसमें उन्होंने निवेश किया है।

फोर्ब्स के निष्कर्षों की समीक्षा करने वाले एक भारतीय प्रतिभूति विशेषज्ञ ने कहा, "अडानी समूह में निवेश किए गए धन के पीछे, अनिवार्य रूप से, कहीं से, उधार से लिया गया धन है।"  
भारत के प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) ने, अडानी समूह, पर, सुप्रीम कोर्ट में लगाए गए, आरोपों के के जवाब में, कहा है कि, "वह "हिंडनबर्ग रिपोर्ट में लगाए गए आरोपों के साथ-साथ बाजार गतिविधि, दोनों की जांच कर रहा है।"  
विनोद अडानी के स्वामित्व वाली इन दो अपतटीय संस्थाओं को, विनोद अडानी की कंपनी पिनेकल ने, रूस के वीटीबी बैंक से ऋण लेने के लिए गिरवी रखा था। तथ्य यह है कि पिनेकल ने अपने पास रखे, अडानी कंपनी के शेयरों के बजाय निवेश फंडों को गिरवी रखा है। "गिरवी रखे शेयरों का खुलासा करने के दायित्व से फंड को छूट मिल सकती है", ऐसा भारतीय प्रतिभूति विशेषज्ञ का कहना। पिनेकल, एफ्रो एशिया और वर्ल्डवाइड इमर्जिंग मार्केट से भी फोर्ब्स ने, सवाल पूछा था, पर उनका कोई जवाब, फोर्ब्स को नहीं मिला। 

लेख में गौतम और विनोद दोनो भाईयो के व्यक्तित्व पर एक रोचक टिप्पणी भी है। उसके अनुसार, "जहां गौतम अडानी, अडानी साम्राज्य का सार्वजनिक चेहरा हैं, वहीं विनोद अडानी, लो प्रोफाइल रहते हैं। विनोद की कुछ सार्वजनिक तस्वीरों में से एक में उन्हें, खुद को संबोधित एक पट्टिका के साथ भारतीय ध्वज प्रदर्शित करते हुए दिखाया गया है। साइप्रस के पासपोर्ट धारक और सिंगापुर के स्थायी निवासी, विनोद अडानी को कई नामों से जाना जाता है, जिसमें एक नाम विनोद शांतिलाल शाह भी शामिल हैं। उनकी जन्मतिथि भी एक रहस्य बनी हुई है और उस पर भी विवाद है।"

विनोद अडानी की संपत्ति के बारे में फोर्ब्स का अनुमान है कि, वर्ल्डवाइड इमर्जिंग मार्केट होल्डिंग लिमिटेड और एंडेवर ट्रेड एंड इंवेस्टमेंट लिमिटेड के अपने स्वामित्व के आधार पर विनोद की संपत्ति, कम से कम $1.3 बिलियन डॉलर की है। साथ ही, उसके पास अडानी समूह की कंपनियों और सीमेंट उत्पादकों अंबुजा और एसीसी के शेयर हैं। संपति का यह आकलन, अंबुजा और एसीसी में शेयर खरीदने के लिए इस्तेमाल की गई उधारी को घटाकर किया गया है।"
लेकिन विनोद अडानी की व्यक्तिगत संपत्ति को गौतम अडानी से अलग करना मुश्किल है, और उसकी कीमत बहुत अधिक हो सकती है।  वाशिंगटन, डीसी स्थित गैर-लाभकारी सेंटर फॉर एडवांस्ड डिफेंस स्टडीज द्वारा उपलब्ध कराए गए रियल एस्टेट डेटा के अनुसार, "विनोद के पास दुबई में 10 संपत्तियां भी हैं। सिंगापुर में उसका एक अपार्टमेंट है। पिनेकल कंपनी के फाइलिंग में यह अपार्टमेंट, विनोद अडानी के नाम पर पंजीकृत है, जिसकी अनुमानित अनुमानित रूप से, $4 मिलियन डॉलर है।"

फोर्ब्स ने पाया कि "विनोद अडानी, बहामास, ब्रिटिश वर्जिन आइलैंड्स, केमैन आइलैंड्स, साइप्रस, मॉरीशस, सिंगापुर और संयुक्त अरब अमीरात सहित अपतटीय टैक्स हेवन में कम से कम 60 संस्थाओं के मालिक हैं या उनसे जुड़े रहे है।"
विनोद अडानी, कम से कम तीन दशक से विदेश में रह रहे हैं। इकोनॉमिक टाइम्स में एक संपादकीय के अनुसार, "उन्होंने अमेरिका से इंजीनियरिंग की मास्टर डिग्री प्राप्त की और फिर 1976 में मुंबई में एक कपड़ा व्यवसाय स्थापित किया। 1980 के दशक में, विनोद ने अपनी बचत का उपयोग करके 1,000 डॉलर में एक छोटी प्लास्टिक पैकेजिंग फैक्ट्री खरीदी और  एक बैंक से ऋण लिया, और इसे चलाने में मदद करने के लिए अपने छोटे भाई गौतम अडानी को लगाया।" 
गौतम अडानी ने 2009 में फोर्ब्स को एक बातचीत में बताया था, "हमने अपना कारोबार, वस्तुतः शून्य से शुरु किया है।"

1989 तक, विनोद अडानी ने वस्तुओं में व्यापार करने के लिए अपनी कंपनी का विस्तार किया और उन्होंने सिंगापुर में एक नया कार्यालय खोला। 1994 में वह दुबई चले गए, जहां उन्होंने दुबई, सिंगापुर और जकार्ता, इंडोनेशिया में अपने कारोबारी संबंधों के साथ, चीनी, तेल और धातुओं का व्यापार करना शुरू किया। वह भी तब, जब उन्होंने अपतटीय (ऑफशोर) कंपनियों का साम्राज्य खड़ा करना शुरू कर दिया था।  खोजी पत्रकारों के एक सगठन ने, जिसने पनामा पेपर लीक का खुलासा किया है के अंतर्राष्ट्रीय संघ के अनुसार, "विनोद अडानी ने जनवरी 1994 में बहामास में एक कंपनी की स्थापना की। दो महीने बाद, उन्होंने कंपनी के दस्तावेजों पर अपना नाम विनोद शांतिलाल अडानी से बदलकर विनोद शांतिलाल शाह करने का अनुरोध भी किया।" जाहिर है यह नाम परिवर्तन किसी न किसी कारोबारी घोटाले के उद्देश्य से ही किया गया होगा। 

जब विनोद अडानी, दुबई में अपने कारोबार का विस्तार कर रहे थे, तब गौतम अडानी, अपने कैरियर की शुरुआत कर रहे थे। 1988 में अडानी समूह की स्थापना की गई और 1994 में इसे पब्लिक लिमिटेड किया गया। गौतम अडानी, लंबे समय तक, अपने भाई, विनोद अडानी, के व्यवसायों में,  गहराई से शामिल रहे हैं। विनोद अडानी की कंपनियों में, गौतम अडानी ने, विभिन्न एक्जीक्यूटिव पदों पर भी कार्य किया है। फोर्ब्स के लेख के अनुसार, "विनोद अडानी के 44 वर्षीय बेटे प्रणव अभी भी अदानी एंटरप्राइजेज में प्रबंध निदेशक हैं।"

2014 में अडानी समूह के 800 मिलियन डॉलर के बिजली संयंत्र उपकरणों के कथित ओवर-इनवॉइसिंग के एक घोटाले में, विनोद अडानी पर भारत के राजस्व खुफिया निदेशालय (डीआरआई) द्वारा अडानी समूह के कर्मचारियों के साथ मिल कर धोखाधड़ी करने का आरोप लगाया गया था, ताकि "विदेश में विदेशी मुद्रा निकालने की योजना बनाने की साजिश को अंजाम दिया जा सके।" यह मामला, शुरूआत में खारिज कर दिया गया, पर इसकी अपील हुई और अपील अभी भी, भारत के सीमा शुल्क अधिकारियों के समक्ष लंबित है। हालांकि अडानी समूह ने, इस आरोप से इनकार किया है।

भारत मे व्यापारिक घराने, अक्सर एक पारिवारिक समूह द्वारा संचालित होते हैं, और अडानी समूह भी इस प्रवित्ति का अपवाद नहीं है। मिशिगन यूनिवर्सिटी में कानून के प्रोफेसर और ज्वाइंट सेंटर फॉर ग्लोबल कॉरपोरेट के सह-निदेशक विक्रमादित्य खन्ना कहते हैं, "पारिवारिक व्यवसाय समूहों में एक तरफ सामने दिखने वाला भाई होता है तो दूसरी तरफ, नेपथ्य में रह कर काम करने वाला, और कम दिखाई देने वाला दूसरा भाई होता है। कारोबार करने की यह शैली, पश्चिमी कॉरपोरेट को भले ही अनोखी लगे, पर भारत में ऐसा होना, बिल्कुल भी असामान्य नहीं है।" 
वित्तीय कानून और नीति, विषय पर, मिशिगन यूनिवर्सिटी और भारत के जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल के बीच एक सहयोग सेमिनार में बोलते हुए, विक्रमादित्य आगे कहते हैं, "उसका एक कारण, एक ही परिवार में, अलग अलग तरह से हुआ, व्यक्तित्व का विकास है। यह भी महत्वपूर्ण है कि, कौन कहां काम करने में सहज महसूस करता है और उनके सापेक्ष, उसके पास कौशल क्या हैं? कुछ लोग धूप में रहना पसंद करते हैं, कुछ लोग छांव में रहना पसंद करते हैं।”

फोर्ब्स ने अपनी रिपोर्ट में साइप्रस, जिसे एक टैक्स हेवेन देश भी कहा जाता है, का भी उल्लेख किया है। "साइप्रस में कॉर्पोरेट रिकॉर्ड के अनुसार, 2012 में लेनदेन की एक सीरीज में, विनोद अडानी के स्वामित्व वाली, साइप्रस की एक कंपनी, वाकोडर इन्वेस्टमेंट्स ने, दुबई में एक अपतटीय फर्म से 232 मिलियन डॉलर का ऋण प्राप्त किया।  वाकोडर ने तब अनिवार्य रूप से, अडानी एस्टेट्स और अडानी लैंड डेवलपर्स, जो, अदानी इंफ्रास्ट्रक्चर और डेवलपर्स की सहायक कंपनियां हैं, में, परिवर्तनीय डिबेंचर खरीदने के लिए 220 मिलियन डॉलर खर्च किए थे। डिबेंचर, वे ऋण प्रमाणपत्र होते हैं, जिनपर, ब्याज का भुगतान होता हैं और एक विशिष्ट तिथि पर वे, इक्विटी में परिवर्तित हो जाते हैं। उन डिबेंचर को बाद में 2024 तक बढ़ा दिया गया था, जिसका अर्थ है कि विनोद अडानी के पास आज भी उनके होने की संभावना है।

2012 तक, अडानी इन्फ्रास्ट्रक्चर एंड डेवलपर्स सार्वजनिक रूप से कारोबार करने वाली अदानी एंटरप्राइजेज की सहायक कंपनी थी।  लेकिन उक्त लेन-देन के समय, जून 2012 में, अडानी एंटरप्राइजेज की 2013 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, अडानी एंटरप्राइजेज ने जाहिरा तौर पर अडानी इंफ्रास्ट्रक्चर एंड डेवलपर्स को बेच दिया, जिसने $81.5 मिलियन का लाभ दर्ज किया। चार साल बाद, यही कंपनी अडानी एंटरप्राइजेज की वार्षिक रिपोर्ट में फिर से दिखाई दी, लेकिन, इस बार "संबंधित उद्यम" के रूप में। यूनिवर्सिटी ऑफ न्यू साउथ वेल्स बिजनेस स्कूल में फाइनेंस के एसोसिएट प्रोफेसर मार्क हम्फ्री-जेनर कहते हैं, "तथ्य यह है कि अडानी इन्फ्रास्ट्रक्चर और डेवलपर्स बैलेंस शीट पर फिर से दिखाई दिए, तो यह सवाल उठता है कि क्या तब यह, वास्तविक बिक्री थी? शेयरधारकों को इस बारे में चिंतित होना चाहिए कि क्या दिखाए गए लाभ वास्तव में वास्तविक मुनाफे को दर्शाते हैं या वे केवल, दिखावटी ड्रेसिंग को दर्शाते हैं।"

2012 की बिक्री की रिपोर्ट के बावजूद, फोर्ब्स ने पाया कि 2017 तक, अडानी परिवार, अभी भी अडानी इंफ्रास्ट्रक्चर एंड डेवलपर्स को अडानी प्रॉपर्टीज नाम की एक अन्य कंपनी के माध्यम से, नियंत्रित करता है, जिसका स्वामित्व तीन शेयरधारकों के पास है: एसबी अडानी फैमिली ट्रस्ट;  गौतम अडानी के पुत्र, करण अडानी;  और अदानी एंटरप्राइजेज की सहायक कंपनी अदानी कमोडिटीज एलएलपी। व्हार्टन स्कूल में अकाउंटिंग के प्रोफ़ेसर डैन टेलर कहते हैं, "ऐसा लगता है कि कमाई बढ़ाने और बुक्स, (लेखाबही) से क़र्ज़ लेने से, कंपनी को फ़ायदा होता है या किसी और को फ़ायदा होता है। और इसलिए सवाल यह उठता है कि (लेनदेन) के लिए वैध व्यावसायिक कारण क्या था?"
लेन-देन के लिए एक और आसान संभावित व्याख्या पारिवारिक राजनीति है। प्रोफेसर खन्ना के अनुसार, "आप कभी-कभी अपने परिवार के एक सदस्य को कंपनी की एक विशेष शाखा चलाने के लिए देना चाह सकते हैं, क्योंकि, भारतीय परिवार के व्यवसायों में परिवार के विभिन्न सदस्यों के बीच यह एक आम व्यवस्था है।"

जबकि हिंडनबर्ग का आरोप है कि, विनोद अडानी अरबों डॉलर की धोखाधड़ी में एक केंद्रीय भूमिका में, सामने आ रहे हैं। शेल कंपनियों का मायाजाल फैला कर, उसके माध्यम से, भारत भेज कर अपने ही भाई, गौतम अडानी के व्यापारिक साम्राज्य में निवेश करना, काले धन, या टैक्स चोरी कर के छिपाए गए धन, को मनी लांड्रिंग करके भारत भेजना हुआ। यह भारतीय कानून के अनुसार, एक दण्डनीय अपराध है। हिंडनबर्ग रिसर्च रिपोर्ट के बाद शेयर बाजार में निवेशकों का भारी नुकसान हो रहा है और यह न हो, इसके लिए सेबी का गठन एक नियामक प्राधिकारी के रूप में हुआ है। सेबी के अनुसार, सेबी, शेयर बाजार से जुड़े घपलों और अनियमितता की जांच कर रही है। लेकिन इसके अतिरिक्त उक्त रिपोर्ट में शेल कंपनियों से जो धन भारत में अडानी समूह में, निवेश के लिए भेजा गया है, उसकी जांच सेबी द्वारा नहीं की जा सकती है। उसकी जांच, या तो ईडी को सौंपी जाय या सीरियस फ्रॉड ऑफिस या डीआरआई करे। पर सरकार ने अभी तक ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है कि, वह मनी लांड्रिंग के इस आरोप पर, उसनें क्या कदम उठाया है। जेपीसी की मांग अभी तक लंबित है। अब सुप्रीम कोर्ट ने एक्सपर्ट पैनल के गठन का निर्णय किया है। अब देखना यह है कि, सुप्रीम कोर्ट, जांच के क्या क्या विंदु तय करता है और जांच का स्वरूप क्या होगा। 

(विजय शंकर सिंह)

Wednesday, 15 February 2023

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ / आपबीती दास्तान (1)

मेरा जन्म उन्नीसवीं सदी के एक ऐसे फक्कड़ व्यक्ति के घर में हुआ था जिसकी ज़िंदगी मुझसे कहीं ज्यादा रंगीन अंदाज़ में गुज़री। मेरे पिता सियालकोट के एक छोटे से गांव में एक भूमिहीन किसान के घर पैदा हुए, यह बात मेरे पिता ने बतायी थी और इसकी तस्दीक गांव के दूसरे लोगों द्वारा भी हुई थी। मेरे दादा के पास चूंकि कोई ज़मीन नहीं थी इसलिए मेरे पिता गांव के उन किसानों के पशुओं को चराने का काम करते थे जिनकी अपनी ज़मीन थी। मेरे पिता कहा करते थे कि पशुओं को चराने गांव के बाहर ले जाते थे जहां एक स्कूल था। वह पशुओं को चरने के लिए छोड़ देते और स्कूल में जाकर शिक्षा प्राप्त करते, इस तरह उन्होंने प्राथमिक स्तर की शिक्षा पूरी की। चूंकि गांव में इससे आगे की शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी, वह गांव से भाग कर लाहौर पहुंच गये। उन्होंने लाहौर की एक मस्जिद में शरण ली। मेरे पिता कहते थे कि वह शाम को रेलवे स्टेशन चले जाया करते थे और वहां कुली के रूप में काम करते थे। 

उस ज़माने में ग़रीब और अक्षम छात्रा मस्जिदों में रहते थे और मस्जिद के इमाम से या आस-पास के मदरसों में नि:शुल्क शिक्षा प्राप्त करते थे। इलाक़े के लोग उन छात्रों को भोजन उपलब्ध कराते थे। जब मेरे पिता मस्जिद में रहा करते थे तो उस ज़माने में एक अफ़गानी नागरिक जो पंजाब सरकार का मेयर था, मस्जिद में नमाज़ पढ़ने आया करता था। उसने मेरे पिता से पूछा कि क्या वह अफ़ग़ानिस्तान में अंग्रेज़ी अनुवादक के तौर पर काम करना पसंद करेंगे, तो मेरे पिता ने अपनी इच्छा व्यक्त करते हुए अफ़ग़ानिस्तान जाने का इरादा कर लिया। यह वह समय था जब अफ़ग़ानिस्तान के राजमहल में आये दिन परिवर्तन होता रहता था। अफ़ग़ानिस्तान और इंग्लैंड के बीच डूरंड संधि की आवश्यकता का अनुभव भी उसी समय में हुआ और इसीलिए अफ़ग़ानिस्तान के राजा ने मेरे पिता को अंग्रेज़ों के साथ बात-चीत करने में सहायता करने के उद्देश्य से दरबार से अनुबंधित कर लिया। इसके बाद वह मुख्य सचिव और फिर मंत्री भी नियुक्त हुए। उनके ज़माने में विभिन्न क़बीलों का दमन किया गया जिसके परिणामस्वरूप हारने वाले क़बाइल (क़बीला का बहुवचन) की ख़ास औरतों को राजमहल के कारिंदों में वितरित कर दिया जाता था। ये औरतें मेरे पिता के हिस्से में भी आयीं, नहीं मालूम उनकी संख्या तीन थी या चार। बहरहाल अफ़ग़ानिस्तान के राजमहल में पंद्रह साल सेवा देने के बाद वह तंग आ गये और उनका ऊब जाना स्वाभाविक भी था क्योंकि राजा के अफ़ग़ानी मूल के कर्मचारियों को एक विदेशी का दरबार में प्रभावी होना खटकता था। मेरे पिता को प्राय: ब्रितानी एजेंट घोषित किया जाता और जब उस अपराध के फलस्वरूप उन्हें मृत्युदंड दिये जाने की घोषणा होती तो नियत समय पर यह सिध्द हो जाता कि वह निर्दोष हैं और उन्हें आगे पदोन्नति दे दी जाती। लेकिन एक दिन उन्होंने फ़कीर का भेस बदला और अफ़गानिस्तान के राजमहल से फ़रार हो गये और लाहौर वापस आ गये लेकिन यहां वापस आते ही उन्हें अफ़ग़ानी जासूस होने के आरोप में पकड़ लिया गया।

मेरे पिता की तरह फक्कड़ाना स्वभाव रखने वाली एक अंग्रेज़ महिला भी उस ज़माने में डाक्टर के रूप में दरबार से जुड़ी थी। उसका नाम हैमिल्टन था। उससे मेरे पिता की मित्रता हो गयी थी। अफ़ग़ानिस्तान के राजा से उसे जो भी पुरस्कार मिला था उसे उसने लंदन में सुरक्षित कर रखा था। इस प्रकार जब मेरे पिता अफ़ग़ानिस्तान से निकल भागे तो उसने उन्हें लिखा 'तुम लंदन आ जाओ'। इस आमंत्रण पर मेरे पिता लंदन पहुंच गये और जब ब्रिटेन की सरकार को उनके लंदन आगमन की सूचना मिली तो मेरे पिता को यह संदेश मिला कि चूंकि अब तुम लंदन में हो तो मेरे दूत क्यों नहीं बन जाते? मेरे पिता ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। और साथ ही उन्होंने कैंब्रिज में अपनी आगे की शिक्षा का क्रम भी जारी रखा। वहीं उन्होंने क़ानून की डिग्री भी प्राप्त की। मेरे पिता का नाम सुल्तान था इसलिए मैं फ़ारसी का यह मुहावरा तो अपने लिए दुहरा ही सकता हूं कि 'पिदरम सुल्तान बूद' (मेरे पिता राजा थे)।

क़ानून की डिग्री प्राप्त करने के बाद मेरे पिता सियालकोट लौट आये। मेरी आरंभिक शिक्षा मुहल्ले की एक मस्जिद में हुई। शहर में दो स्कूल थे एक स्कॉच मिशन की और दूसरा अमरीकी मिशन की निगरानी में चलता था। मैंने स्कॉच मिशन के स्कूल में प्रवेश ले लिया। यह हमारे घर से नज़दीक था। यह ज़माना ज़बरदस्त राजनीतिक उथल-पुथल का था। प्रथम विश्वयुध्द समाप्त हो चुका था और भारत में कई राष्ट्रीय आंदोलन आकर्षण का केंद्र बन रहे थे। कांग्रेस के आंदोलन में हिंदू और मुसलमान दोनों ही क़ौमें हिस्सा ले रही थीं लेकिन इस आंदोलन में हिंदुओं की बहुलता थी। दूसरी ओर मुसलमानों की तरफ़ से चलाया जाने वाला ख़िलाफ़त आंदोलन था।

प्रथम विश्वयुध्द की समाप्ति पर परिदृश्य यह था कि तुर्क क़ौम ब्रितानी और यूनानी आक्रांताओं के विरुध्द पंक्तिबध्द थी परंतु उस्मान वंशीय ख़िलाफ़त को बचाया नहीं जा सका और तुर्की अंतत: कमाल अतातुर्क के क्रांतिकारी विचारों के प्रभाव में आ गया जिन्हें आधुनिक तुर्की का निर्माता कहा जाता है। एक तीसरा आंदोलन सिक्खों का अकाली आंदोलन था जो सिक्खों के सभी गुरुद्वारों को अपने अधीन लेने के लिए आंदोलनरत था। इस प्रकार लगभग छ: सात साल तक हिंदू, मुस्लिम और सिक्ख तीनों ही अंग्रेज़ के विरुध्द एक साझे एजेंडे के तहत आंदोलन चलाते रहे।

हमारे छोटे से शहर सियालकोट में जब भी महात्मा गांधी, मोतीलाल नेहरू और सिक्खों के नेता आते थे तो पूरा शहर सजाया जाता, बड़े-बड़े स्वागत द्वार फूलों से बनाये जाते थे और पूरा शहर उन नेताओं के स्वागत में उमड़ पड़ता था। राजनीतिक गहमागहमी का यह दौर हमारे मन पर अपने प्रभाव छोड़ने का कारण बना।

इसी दौरान रूस में अक्टूबर क्रांति घटित हो चुकी थी और उसका समाचार सियालकोट तक भी पहुंच रहा था। मैंने लोगों को कहते हुए सुना कि रूस में लेनिन नाम के एक व्यक्ति ने वहां के बादशाह का तख्ता उलट दिया है और सारी संपत्ति श्रमजीवियों में बांट दी है।स्कूल की पढ़ाई का यही वह ज़माना था जब शायरी में मेरी रुचि उत्पन्न हुई। इसके पीछे दो कारण थे। हमारे घर के पास एक नौजवान किताबें किराये पर पढ़ने के लिए दिया करता था। मैंने उससे किराये पर किताबें लेनी शुरू कर दीं और धीरे-धीरे मैंने उसकी ऐसी सभी किताबें पढ़ डालीं जो क्लासिक साहित्य से संबंधित थीं। मेरा सारा जेब ख़र्च भी किताबें किराये पर लेने में खर्च हो जाता था। उस ज़माने में सियालकोट का एक प्रसिध्द साहित्यिक व्यक्तित्व अल्लामा इक़बाल का था जिनकी नज्मों को बड़े शौक से सभाओं में गाया और पढ़ा जाता था। वहां एक प्राथमिक विद्यालय भी था जिसमें मैं पढ़ता था। वहां मुशायरे भी होते थे, यह मेरे स्कूल की शिक्षा के अंतिम दिन थे। हमारे हेडमास्टर ने हमसे एक दिन कहा कि मैं तुम्हें एक मिसरा देता हूं, तुम इस पर आधाारित पांच छ: शेर लिखो, हम तुम्हारे कलाम (ग़ज़ल) को शायर इक़बाल के उस्ताद के पास भेजेंगे और वह जिस कलाम को पुरस्कार का अधिकारी घोषित करेंगे उसे ही पुरस्कार मिलेगा। इस तरह मैंने शायरी के उस पहले मुक़ाबले में पुरस्कार के रूप में एक रुपया प्राप्त किया था, जो उस ज़माने में बहुत समझा जाता था। सियालकोट में दो साल गुज़ारने के बाद मैंने लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज में प्रवेश ले लिया। सियालकोट से लाहौर आना रोमांच से भरपूर था। यूं लगा जैसे कोई गांव छोड़ के किसी अजनबी शहर में आ गया हो। उसकी वजह यह भी थी कि उस ज़माने में सियालकोट में न बिजली थी और न पानी के नल थे। भिश्ती पानी भरते थे या फिर कुंओं से पानी भरा जाता था। कुछ बड़े घरों में पीने के पानी के कुंए उपलब्ध थे। हम सब ही उस ज़माने में मिट्टी के तेल से जलने वाली लालटेनों की रौशनी में पढ़ते थे। यह लालटेन बड़ी ख़ूबसरूत हुआ करती थी। सियालकोट में मोटर कभी नहीं देखी। वहां के सभी अधिकारी बग्घियों में आते जाते थे। मेरे पिता के पास दो घोड़ों वाली बग्घी थी। जब मैं लाहौर आया तो हैरान रह गया। यहां मोटरें थीं, औरतें बिना बुर्क़े के नज़र आ रही थीं। और लोग अजनबी पहनावे अपने बदन पर पहने हुए थे। हमारे कॉलेज में आधे से अधिक शिक्षक अंग्रेज़ थे। हमारे अंग्रेज़ी के शिक्षक लैंघम (Langhom) थे, जो बहुत कड़े स्वभाव के थे, लेकिन शिक्षक बहुत अच्छे थे। मैंने अंग्रेज़ी के पर्चे में 150 में से 63 नंबर लिये तो सब दंग रह गये। कॉलेज में मेरा क़द बढ़ गया। और मुझे यह सलाह दी जाने लगी कि मैं इंडियन सिविल सर्विस की परीक्षा की तैयारी करूं। मैंने निश्चय कर लिया कि मैं परीक्षा में बैठूंगा लेकिन मैं इंडियन सिविल सर्विस की परीक्षा की तैयारी करने के बजाय धीरे-धीरे शायरी करने लगा। इस परिस्थिति के लिए कई कारण ज़िम्मेदार थे। एक यह कि डिग्री प्राप्त करने से पहले ही मेरे पिता का निधन हो गया और हमें यह पता चला कि वह जो कुछ संपत्ति छोड़ गये हैं उससे कहीं अधिक कर्ज़ चुकाने के लिए छोड़ गये थे और इस तरह शहर का एक खाता-पीता ख़ानदान हालात के झटके में ग़रीब और असहाय हो गया। दूसरा जो मेरे और मेरे ख़ानदान की परेशानियों का कारण बना वह व्यापक आर्थिक संकट और मंदी था जिसके प्रभाव से उस ज़माने में कोई भी व्यक्ति सुरक्षित न रह सका। मुसलमानों पर इसका प्रभाव अधिक पड़ा, चूंकि उनमें बहुतायत खेतिहर लोगों की थी। मंदी का प्रभाव कृषि पर अधिक पड़ा था। नतीजा यह हुआ कि गांव से शहर की ओर पलायन आरंभ हो गया क्योंकि छोटी जगहों में रोज़गार उपलब्धा कराने वाले संसाधान नहीं थे और ऐसे संसाधान पर प्राय: हिंदुओं का क़ब्जा था। सरकारी नौकरी भी एक रास्ता था लेकिन चूंकि मुसलमान शिक्षा के क्षेत्र में काफ़ी पिछडे हुए थे इसलिए यहां भी उनके लिए अधिाक अवसर नहीं थे। मेरे और मेरे ख़ानदान के लिए यह ज़माना राजनीतिक और वैयक्तिक कारणों से परीक्षा और परेशानियों का था। इस तनाव और सोच-विचार को अभिव्यक्ति के माधयम की आवश्यकता थी सो यह शायरी ने पूरी कर दी।

मेरी उम्र 17-18 साल के आस-पास थी और जैसा कि होता है मैं बचपन से ही साथ खेलने वाली एक अफ़ग़ान लड़की की मुहब्बत में गिरफ्तार हो गया। वह बचपन में तो सियालकोट में थी लेकिन बाद में उसका ख़ानदान आज के फैसलाबाद के समीप एक गांव में आबाद हो गया था। मेरी एक बहन की उसी गांव में शादी हुई थी। जब मैं अपनी बहन के पास गया तो उसके घर भी गया, वह लड़की तब पर्दा करने लगी थी। एक सुबह मैंने उसे तोते को कुछ खिलाते हुए देखा। वह बहुत ख़ूबसूरत लग रही थी। हम दोनों ने एक दूसरे को देखा और एक दूसरे की मुहब्बत में गिरफ्तार हो गये। हम छुप-छुप के मिलते रहे और एक दिन जैसा कि होता है उसकी कहीं शादी हो गयी और जुदाई का यह अनुभव छ:-सात बरस तक मुझे उदास करता रहा। इस अवधि में मेरी शिक्षा भी जारी रही और शायरी भी। स्थानीय मुशायरे में तीसरी बार जब मुझे भाग लेने का अवसर मिला तो मेरी शायरी को काफ़ी सराहा गया और इस तरह लाहौर जैसे शहर की बड़ी साहित्यिक हस्तियां मेरी शायरी से परिचित हुईं और सबने मुझे अपना आशीर्वाद देना चाहा। मैं अब अच्छा ख़ासा शायर बन चुका था।

यही वह दौर था जब उपमहाद्वीप में उग्रपंथ के पहले आंदोलन का आरंभ हुआ। उस आंदोलन के प्रभाव हमारे कॉलेज के अंदर भी पहुंच रहे थे और मेरा एक अभिन्न मित्र जिसे बाद में एक प्रसिध्द संगीतकार ख्वाजा ख़ुर्शीद अनवर के रूप में जाना गया, उस आंदोलन का सक्रिय कार्यकर्त्ता था। वह बम बनाने के लिए कॉलेज की प्रयोगशाला से तेज़ाब चुराने के अपराध में गिरफ्तार कर लिया गया। उसे तीन साल की सज़ा भी सुनायी गयी। वह कुछ समय तक ज़रूर जेल में रहा था लेकिन बाद में वह अपने प्रभावशाली पिता के रसूख के कारण छूट गया। मेरी बहुत सी जानकारियों का माध्यम वही था। वह अक्सर अपने आंदोलन का साहित्य मेरे कमरे में छोड़ जाता और जब कभी मैं उसे पढ़ता तो मेरे ऊपर जुनून सा छा जाता था, क्योंकि मेरे पिता अंग्रेज़ों के वफ़ादार और उपाधि प्राप्त थे लेकिन इतना ज़रूर हुआ कि मैं उग्रपंथियों के आंदोलन और उसके बहुत से राजनीतिक समूहों से परिचित हो गया। मेरे ऊपर उसका कोई गहरा प्रभाव नहीं पड़ा लेकिन वह सब कुछ मेर लिए महत्वहीन नहीं था।

तीन चार साल बाद मैंने पहले अंग्रेज़ी में और फिर अरबी में एम.ए. कर लिया और फिर मैंने शिक्षण का कार्य अपना लिया। उससे मुझे काफ़ी सहारा मिला और खानदान को आर्थिक संकटों से उबारने में सहायता भी। इस अवधि में मेरे कॉलेज के ज़माने के दो साथी आक्सफ़ोर्ड से मार्क्सिस्ट होकर लौटे थे। उनके अलावा उच्च घरानों के कुछ और लड़के भी इंग्लैंड की यूनीवर्सिर्टियों से कम्युनिस्ट विचार लेकर लौटे थे। उनमें से कुछ तो राजनीतिक दृष्टिकोण से व्यस्त हो गये, कुछ ने नौकरी के चक्कर में इस तरह के विचार को छोड़ दिया। लेकिन इसी टोली के नेतृत्व में साहित्य के प्रगतिशील आंदोलन का आंरभ हुआ। यह साहित्यिक आंदोलन, कम्युनिस्ट या मार्क्सिस्ट आंदोलन नहीं था। वैसे उसमें सक्रिय भाग लेने वालों में कुछ कम्युनिस्ट भी थे और मार्क्सिस्ट भी। असल में प्रगतिशील आंदोलन साहित्य में सामाजिक यथार्थ को बढ़ावा देने से संबंध रखता था और रूढ़िबध्द होकर कविता करने को बुरा समझता था। भाषा की कलाबाज़ी भी इस आंदोलन के लिए व्यर्थ थी। इस आंदोलन के प्रभावस्वरूप यथार्थवादी और राजनीतिक गीतों के चलन को बढ़ावा मिला। इस प्रकार का साहित्यिक चलन यूरोप और अमेरिका में भी फ़ासीवाद विरोधाी साहित्यिक प्रवृत्ति के रूप में उभरा, जिसके परिणामस्वरूप राजनीतिक सरोकार वाले साहित्य का जन्म हुआ।

1932-35 के मध्य का यही वह समय था जब उस साहित्यिक, राजनीतिक आंदोलन से मेरा जुड़ाव शुरू हुआ। मज़दूरों, श्रमजीवियों और किसानों के आंदोलनधार्मी गीत और राजनीतिक अभिव्यक्ति और नयी-पुरानी काव्य पध्दति के मिश्रण को लोगों ने सराहा और उन्हें पसंद भी किया। जब 1941 में मेरा पहला संग्रह प्रकाशित हुआ तो वह तेज़ी से बिक गया। फिर द्वितीय विश्वयुध्द की लहर आयी लेकिन हम लोगों ने उसका ज्यादा नोटिस नहीं लिया। हमारे विचार में उस युध्द से ब्रिटेन और जर्मनी का सरोकार था मगर 1941 में जापान भी उस युध्द में शामिल हो गया तो हमें कुछ आभास हुआ। क्योंकि उस समय अगर एक ओर जापानी भारत की सीमा तक आ गये थे तो दूसरी ओर नाज़ियों और फासिस्टों के क़दम मास्को और लेनिनग्राद तक पहुंच गये थे और तभी हमने महसूस किया कि युध्द से हमारा संबध्द होना आवश्यक है। इसलिए हम फ़ौज में शामिल हो गये। मुझे याद है पहले दिन जनसंपर्क विभाग के निरीक्षक एक ब्रिगेडियर के सामने मेरी पेशी हुई। वह औपचारिक रूप से फ़ौजी नहीं था, वह बहुत ज़िंदादिल आइरिश था और लंदन टाइम्स से संबंधा रखने वाला एक पत्राकार था। मुझे देखकर उसने कहा तुम्हारे बारे में पुलिस की खुफ़िया रिपोर्ट कहती है कि तुम एक पक्के कम्युनिस्ट हो, बताओ हो या नहीं। मैंने कहा मुझे नहीं पता कि पक्का कम्युनिस्ट कौन होता है। मेरा यह उत्तार सुनकर उसने कहा मुझे इससे कोई मतलब नहीं, चाहे तुम फ़ासीवादी विचार ही क्यों न रखते हो, जब तक तुम हमें कोई धोखा नहीं देते; मैं समझता हूं तुम धोखा नहीं दोगे। मैंने समर्थन में सिर हिला दिया।

यही वह ज़माना था जब ब्रिटेन और मित्र देशों के बीच संबंध बहुत अच्छे नहीं थे। उधर महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन आरंभ कर दिया था, जो पूरे देश में आग की तरह फैल गया था। ब्रिटेन के सामने दो संकट थे। एक तो फ़ौज़ में लोगों की भर्ती और दूसरे सरकार के विरुध्द ज़ोर पकड़ता हुआ जन आंदोलन। ब्रिटेन की फ़ौज के ब्रिगेडियर ने मुझसे इस आंदोलन के विषय में विचार-विमर्श करते हुए पूछा तो मैंने कहा कि ब्रिटेन अपने अस्तित्व के लिए भाग ले रहा है, जापान ब्रिटेन के लिए एक बड़ा ख़तरा है और अगर जापान तथा जर्मनी विजयी होते हैं तो ब्रिटेन को सौ-दो सौ साल तक गुलाम रहने का दंश झेलना होगा, और इसका मतलब यह है कि हमें अपने देश को इस कष्ट से सुरक्षित रखने के लिए ब्रिटेन की फ़ौज का हिस्सा बनकर लड़ना चाहिए। अंग्रेज़ अपने लिए नहीं लड़ रहा है वह भारत के लिए लड़ रहा है। मेरे इस तर्क को सुनकर उसने कहा तुम जो कुछ कह रहे हो ये तो सब राजनीति है मगर इस तर्क को फ़ौज के लिए स्वीकार्य कैसे बनाया जाये? मैंने कहा कि इस विचार को फ़ौज के लिए स्वीकार्य बनाने का तरीक़ा वही होना चाहिए जो कम्युनिस्टों का है। उसने चौंककर पूछा क्या मतलब? मेरा जवाब था, हम कम्युनिस्ट एक छोटी टोली बनाते हैं। फ़ौज के हर यूनिट में इस तरह की एक विशेष टोली बनाने के बाद हम अफ़सरों को यह बताते हैं कि फ़ासिज्म क्या है और उन्हें यह भी समझाते हैं कि जापान और इटली वालों के इरादे क्या हैं। इसके बाद उन अफ़सरों से कहा जाता है कि वे उक्त टोली में बतायी जाने वाली बातों को अपने यूनिटों के सिपाहियों को जाकर समझायें और बतायें। इस तरह हम इस रणनीति के तहत पहले फ़ौजी अफ़सरों को मानसिक रूप से सुदृढ़ करते थे और फिर उनके माधयम से आशिक्षित सिपाहियों को भी एक दिशा देते थे। इस पध्दति का विरोध भी बहुत हुआ।

बात वायसराय, कमांडर-इन-चीफ़ और फिर इंडिया आफ़िस तक पहुंची। मुझसे कहा गया कि मैं अपनी योजना को लिखित रूप में प्रस्तुत करूं। अंतत: इस योजना को मंज़ूरी मिल गयी और हमने फिर 'जोश ग्रुप' बनाये जो बहुत सफल रहा और इसके परिणामस्वरूप मैं ब्रिटेन द्वारा सम्मानित किया गया और तीन सालों में कर्नल बना दिया गया। उस ज़माने में ब्रितानी फ़ौज में एक भारतीय के लिए इससे ऊंचा फ़ौजी पद कोई और नहीं था। उस ज़माने में मुझे फ़ौज की कार्य पध्दति और ब्रितानी सरकार को जानने का अवसर मिला। मुझे पत्राकारिता का अनुभव भी उसी ज़माने में हुआ, क्योंकि सभी मोर्चे पर भारतीय फ़ौज के प्रचार का काम मेरे ही जिम्मे था और मैं बहुत हद तक भारतीय फ़ौज के लिए राजनीतिक अधिकारी (पॉलीटिकल कमिश्नर) का काम करने लगा। युध्द की समाप्ति पर मैं फ़ौज से अलग हो गया। उस समय मेरे सामने दो रास्ते थे या तो विदेश सेवा से संबंध्द हो जाता या फिर सिविल सेवा से। लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया।

यह वह ज़माना था जब पाकिस्तान के लिए आंदोलन और भारतीय कांग्रेस का स्वाधाीनता आंदोलन अपने चरम पर था। मेरे एक पुराने मित्र जो एक बड़े ज़मींदार भी थे और जो पंजाब कांग्रेस पार्टी के अधयक्ष रहने के बाद मुस्लिम लीग में आ गये थे मुझसे कहने लगे कि मैं सिविल सेवा में जाने की इच्छा समाप्त कर दूं क्योंकि वह लाहौर से एक अंग्रेज़ी दैनिक निकालने की योजना बना रहे थे। उन्होंने उस अख़बार का संपादन करने का प्रस्ताव दिया जो मैंने स्वीकार कर लिया और मैंने जनवरी 1947 में लाहौर आकर पाकिस्तान टाइम्स का संपादन संभाल लिया। मैं चार साल पाकिस्तान टाइम्स का संपादक रहा। इसी अवधि में पाकिस्तान टे्रड यूनियन का उपाध्यक्ष भी मुझे बना दिया गया। 1948 में नागासाकी और हिरोशिमा पर होने वाली बमबारी के बाद कोरियाई युध्द भी छिड़ गया। इस बीच स्काटहोम से यह अपील आयी कि हम शांति-स्थापना के लिए आंदोलन चलायें। उस अपील के समर्थन में अमन कमेटी की स्थापना हुई और मुझे उसका संचालक बना दिया गया। अब मैं ट्रेड यूनियन, अमन कमेटी और पाकिस्तान टाइम्स तीनों मोर्चे पर सक्रिय था और सक्रियता तथा कार्यशैली के लिहाज़ से यह बहुत व्यस्त समय था। उसी ज़माने में आई.एल.ओ की एक मीटिंग में भाग लेने के लिए पहली बार देश से बाहर जाने का अवसर मिला। मैंने सन फ़्रांसिस्को के अतिरिक्त जेनेवा में भी दो अधिावेशनों में भाग लिया और इस तरह अमेरिका और यूरोप से मैं पहली बार परिचित हुआ।

1950 में मेरी मुलाक़ात अपने एक पुराने मित्र से हुई। यह जनरल अकबर ख़ान थे जो उस वक्त फ़ौज में चीफ़ आफ़ जनरल स्टाफ़ नियुक्त हुए थे। जनरल अकबर ने बर्मा और कश्मीर के मोर्चे पर होने वाले युध्दों में बड़ा नाम कमाया था। मैं इस साल मरी में छुट्टियां बिताने गया हुआ था। वहीं उनसे भेंट हुई। बातों के दौरान उन्होंने कहा कि हम लोग फ़ौज में हैं। उन्होंने यह भी बताया कि जिन्होंने कश्मीर में हुई मोर्चेबंदी का सामना किया है वे देश की वर्तमान परिस्थिति से असंतुष्ट हैं और यह मानते हैं कि देश का नेतृत्व कायरों के हाथों में है। हम अभी तक अपना कोई संविधान नहीं बना पाये। चारों ओर अव्यवस्था और वंशवाद का चलन है। चुनाव की कोई संभावना नहीं, हम लोग कुछ करना चाहते हैं। मैंने पूछा क्या करना चाहते हो? उनका जवाब था हम सरकार का तख्ता पलटना चाहते हैं और एक विपक्षी सरकार बनाना चाहते हैं। मैंने कहा यह तो ठीक है लेकिन उन्होंने मेरी राय भी मांगी। मैंने कहा यह तो सब फ़ौजी क़दम है। इसमें मैं क्या राय दे सकता हूं। इस पर जनरल अकबर ख़ान ने मुझे अपनी गोष्ठियों में आने और उनकी योजनाओं के बारे में जानकारी लेने की बात कही। मैं अपने दो ग़ैर-फ़ौजी दोस्तों के साथ उनकी गोष्ठी में गया और उनकी योजनाओं से अवगत हुआ। उनकी योजना यह थी कि राष्ट्रपति भवन, रेडियो स्टेशन वगैरह पर क़ब्ज़ा कर लिया जाये और फिर राष्ट्रपति से यह घोषणा करवा दी जाये कि सरकार का तख्ता पलट दिया गया है और एक विपक्षी सरकार सत्ता में आ गयी है। छ: महीने के भीतर चुनाव कराये जायेंगे और देश का संविधान निर्मित किया जायेगा। इसके अतिरिक्त अनगिनत सुधार किये जायेंगे। इस पर पांच छ: घंटे तक बहस होती रही और अंतत: यह तय हुआ कि अभी कुछ न किया जाये क्योंकि अभी देश किसी भी ऐसी स्थिति से नहीं जूझ रहा है कि जिसके आधार पर जनता को आंदोलित किया जाये। दूसरे, इस तरह की योजनाओं के क्रियान्वयन में ख़तरों का सामना करना पड़ता है। उस समय पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाक़त अली ख़ान थे। किसी तरह इस योजना की ख़बर सरकार के कानों तक पहुंच गयी। मैं तो इस अवधि में उन सभी घटनाओं को भूल चुका था कि अचानक सुबह चार बजे मेरे घर को फ़ौजियों ने घेर लिया और मुझसे कहा गया कि मैं उनके साथ चलूं। मैंने कारण पूछा तो मुझे जवाब मिला कि मुझे गवर्नर जनरल के आदेश से गिरफ्तार किया जा रहा है। चार महीने तक मुझे कैद रखा गया और फिर मुझे मालूम हुआ कि मुझे क्यों क़ैद किया गया। संविधान सभा ने एक विशेष अधिनियम को पारित किया और उसे रावलपिंडी षडयंत्र अधिनियम का नाम दिया गया। उस अधिनियम के तहत हम पर गुप्त मुक़द्दमा चलाया गया। अंग्रेज़ों के ज़माने से ही षडयंत्र संबंधी क़ानून बड़े ख़राब थे। आप कुछ कर नहीं सकते थे। अगर यह सिध्द हो जाये कि दो व्यक्तियों ने मिलकर क़ानून तोड़ने की योजना बनायी है तो उसे षडयंत्र का नाम दे दिया जाता था और अगर कोई तीसरा व्यक्ति इसकी गवाही दे दे तो फिर अपराध सिध्द मान लिया जाता था। सरकार ने अधिनियम बनाकर बचाव करने की सभी संभावनाओं को समाप्त कर दिया था। बनाये जाने वाले अधिनियम के तहत तो केवल सज़ा ही मिल सकती थी, भागने का कोई रास्ता भी नहीं था। यह मुक़द्दमा डेढ़ साल तक चलता रहा और हममें से हर एक के लिए उसके पद के अनुसार भिन्न-भिन्न दंड निश्चित किये गये। जनरल को दस साल, ब्रिगेडियर को सात साल, कर्नल को छ: साल और हम सब असैनिकों को उससे कम यानी चार साल की क़ैद की सज़ा सुनायी गयी।

मेरी हिरासत का यही वह समय था जो रचनात्मक रूप से मेरे लिए बहुत उर्वर सिध्द हुआ। मेरे पास लिखने-पढ़ने के लिए वक्त ही वक्त था, फिर मुझमें शासकों के विरुध्द बहुत आक्रोश और क्रोध था, क्योंकि मैं निर्दोष था।

इसी अवधि में मेरी शायरी के दो संग्रह, काल कोठरी के उस दौर में तैयार हो गये। एक तो हिरासत के दिनों में ही प्रकाशित हो गया था और दूसरा मेरी रिहाई के बाद प्रकाशित हुआ। जब आप को चार साल के क़रीब जेल में रखा गया हो और बंदी होने का दुख भी आपके हिस्से में आया हो, तो निश्चित रूप से बाहर की दुनिया में आपका मूल्य बढ़ जाता है। जब मैं जेल से बाहर आया तो मुझे अनुभव हुआ कि मैं पहले की तुलना में अधिक प्रसिध्द और लोकप्रिय हो गया हूं। मैं दोबारा पाकिस्तान टाइम्स से जुड़ गया और मैंने अमन कमेटी तथा ट्रेड यूनियन से अपने संबंधा फिर से स्थापित कर लिये। यह तीन चार साल का समय ऐसी ही गहमागहमी में गुज़र गया। पाकिस्तान में वामपंथी आंदोलनों पर पाबंदी लगा दी गयी। यही स्थिति तीन चार साल तक जारी थी कि देश में पहला मार्शल लॉ लागू हो गया और पहली सैनिक सरकार स्थापित हो गयी, जिसका अर्थ था कि किसी भी व्यक्ति को बिना किसी अपराध के गिरफ्तार किया जा सकता है। उस समय के मार्शल लॉ ने एक अत्याचार यह भी किया कि हर उस व्यक्ति को पकड़ना शुरू कर दिया गया जिसका नाम 1920 के बाद की पुलिस रिपोर्टों में दर्ज़ मिला था। इस तरह जेल में हमें नब्बे साल और अस्सी साल के बूढ़े मिले, कुछ की तपेदिक तथा अन्य बीमारियों के कारण जेल में ही मृत्यु हो गयी। मैंने लाहौर क़िला में डेढ़ महीने गुज़ारा और फिर चार पांच महीने के बाद मुझे रिहा कर दिया गया। मैंने फिर पाकिस्तान टाइम्स के दफ्तर की ओर रुख़ किया और तब मैंने देखा कि उसका दफ्तर पुलिस के घेरे में था। मेरे पूछने पर पता चला कि पाकिस्तान टाइम्स पर फ़ौजी सरकार ने क़ब्जा कर लिया है और इस तरह मेरी पत्रकारिता का अंत हो गया। मैं ऊहापोह में था कि क्या करूं। उन दिनों एक अमीर वर्ग जो मेरी शायरी को पसंद करता था, मेरी चिंता से अवगत था। उन लोगों ने पूछा आप क्या करना चाहते हैं? मैंने कहा मुझे नहीं मालूम तो किसी ने सुझाव दिया, क्यों न संस्कृति से संबंधित कोई गतिविधि आरंभ की जाये। मैंने कहा यह अच्छा विचार है और इस प्रकार हमने लाहौर में 'आर्ट कौंसिल' की स्थापना की। कौंसिल एक पुराने और टूटे-फूटे घर में थी जो आज के आलीशान भवन जैसा आकर्षक नहीं था। कौंसिल का आरंभ हुआ और उसके भवन में प्रदर्शनियों, नाटकों और आयोजनों का तांता लगा रहता था। तीन चार साल तक यह गतिविधि चलती रही और मैं इसी अवधि में बीमार पड़ गया। पहली बार दिल का दौरा पड़ा। और इसी बीच मुझे लेनिन विश्व शांति पुरस्कार दिये जाने की घोषणा हुई। किसी ने मुझे फोन पर ख़बर सुनायी तो मुझे विश्वास नहीं हुआ, मैंने जवाब में कहा बकवास मत करो, मैं पहले ही बीमार हूं। मेरे साथ ऐसा मज़ाक न करो। उसने उत्तर में कहा, मैंने टेलीप्रिंटर पर यह ख़बर ख़ुद देखी है, तुम्हारे साथ पुरस्कार पाने वालों में पिकासो और दूसरे भी हैं।

जब मैं स्वस्थ हो गया तो मुझे पुरस्कार ग्रहण करने और मास्को आने के लिए आमंत्रित किया गया। मैं मास्को के बाद लंदन चला गया और लंदन में दो वर्ष तक रहा। मैं लंदन से लाहौर आने के बजाय कराची लौट आया। कराची में मैं मिस्टर महमूद हारून के निवास स्थान पर ठहरा। उनकी बहन जो डाक्टर थीं और मेरी मित्र थीं, उन्होंने मुझे लिखा कि श्रीमती हारून बीमार हैं और आपको देखना और मिलना चाहती हैं। मेरे आने पर श्रीमती हारून ने मुझे बताया कि उनका जो फ़लाही फ़ाउंडेशन है उसके अधीन स्कूल, अस्पताल और अनाथालय चल रहा है। उनके लड़के के पास फ़ाउंडेशन चलाने के लिए समय नहीं है क्योंकि वह व्यापार तथा राजनीतिक गतिविधियों में व्यस्त रहे हैं। अच्छा होगा कि फ़ाउंडेशन की व्यवस्था मैं संभाल लूं। मैंने फ़ाउंडेशन के स्थान पर उसकी गतिविधियों का निरीक्षण किया तो देखा कि वह गंदी बस्ती का इलाक़ा था, जहां मछुआरे, ऊंट वाले, नशीली दवाओं का व्यापार करने वाले और आपराधिक गतिविधियों में लिप्त व्यक्ति रहा करते थे। मुझे यह इलाक़ा अच्छा लगा, और हमने इस क्षेत्रा में अपनी गतिविधिा तेज़ कर दी। स्कूल को कॉलेज में परिवर्तित कर दिया, एक तकनीकी संस्थान भी स्थापित किया और अनाथालय की भी व्यवस्था की। इस प्रकार कोई आठ साल तक मैं शैक्षणिक और प्रशासनिक गतिविधियों से जुड़ा रहा। इस बीच 65 और 71 के युध्द भी हुए। इन दोनों युध्दों के दौरान मैं अत्यधिक मानसिक तनाव से प्रभावित रहा। उसका कारण यह था कि मुझसे बार-बार देशभक्ति के गीत लिखने की फ़रमाइश की जा रही थी। मेरे इनकार पर यह ज़ोर दिया जाता कि देशभक्ति और मातृभूमि की मांग यही है कि मैं युध्द के या देशभक्ति के गीत लिखूं। लेकिन मेरा तर्क यह था कि युध्द अनगिनत व्यक्तियों के लिए मृत्यु का कारण बनेगा और दूसरे पाकिस्तान को इस युध्द से कुछ नहीं मिलने वाला है। इसलिए मैं युध्द के लिए कोई गीत नहीं लिखूंगा। लेकिन मैंने 65 और 71 के युध्दों के विषय में नज्में लिखीं, 65 के युध्द से संबंधित मेरी दो नज्में हैं।...

बांग्लादेश युध्द के ज़माने में मैंने तीन-चार नज्में लिखीं। लेकिन उन नज्मों की रचना में युध्द गीतों का आग्रह करने वालों को मुझसे और भी निराशा हुई। परिणामस्वरूप मुझे सिंध में भूमिगत हो जाना पड़ा। युध्द समाप्त हुआ तो पाकिस्तान के दो टुकड़े हो चुके थे।

चुनाव के बाद फ़ौजी सरकार समाप्त हो गयी थी और भुट्टो के नेतृत्व में पीपुल्स पार्टी की सरकार स्थापित हो चुकी थी। उनसे मेरे अच्छे संबंध थे । उस ज़माने में जब वह विदेश मंत्री थे और उस समय भी जब वह विपक्षी पार्टी के नेता थे। उन्होंने मुझे अपने साथ काम करने के लिए आमंत्रित किया। मैंने पूछा मेरा काम क्या होगा, तो उन्होंने स्पष्ट किया कि मैं पहले से ही सांस्कृतिक गतिविधियों में भागीदार रह चुका हूं। क्यों न उसी क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर पर कुछ काम करूं। मैंने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और नेशनल कौंसिल ऑफ़ आर्ट्स (राष्ट्रीय कला परिषद्) की स्थापना की। इसके अतिरिक्त मैंने 'फ़ोक आर्ट्स' जो अब 'नेशनल इंस्टीटयूट ऑफ़ फ़ोक हेरिटेज' है, की स्थापना की। मैं इन परिषदों की देख-रेख में चार साल तक व्यस्त रहा कि सरकार फिर से बदल गयी। इस अवधिा में मेरा गद्य और पद्य लिखने का क्रम लगातार जारी रहा। इसी अवधि में मेरी शायरी का अंग्रेज़ी, फ़्रांसीसी, रूसी तथा अन्य दूसरी भाषाओं में अनुवाद होता रहा। ज़ियाउल हक़ के शासन काल में मेरे प्रभाव को नकार दिया गया। वैसे भी इस सरकार में संस्कृति का महत्व पहले जैसा नहीं रहा था, मैंने सोचा मुझे कुछ और करना चाहिए।

मैं एशियाई और अफ़्रीकी साहित्यकार संगठन के लिए कुछ-न-कुछ करता ही रहता था। उनकी गोष्ठियों में भी भागीदारी होती रहती थी। उस संगठन का दफ्तर काहिरा में था जहां से उस संगठन की पत्रिाका लोटस (स्वजने) का प्रकाशन होता था।

कैंप डेविड समझौते के बाद अरब के लोगों का यह अनुरोधा था कि उसका दफ्तर काहिरा से कहीं और स्थानांतरित कर दिया जाये। लोटस का मुख्य संपादक जो संगठन का सचिव भी था, उसकी साइप्रस में गोली मार कर हत्या कर दी गयी थी। अब लोटस का संपादन करने वाला कोई नहीं था। इस समय एफ़्रो-एशियाई साहित्यकार संगठन का दफ्तर कहीं नहीं था। इस पत्रिका के संपादन के लिए मुझे आमंत्रित किया गया और यह भी फैसला हुआ कि संगठन का दफ्तर बैरूत में स्थानांतरित कर दिया जाये। मैं अफ़्रीकी एशियाई साहित्यकारों के संगठन और उसकी पत्रिका लोटस से चार साल तक जुड़ा रहा और फिर हमें इससे फ़ुर्सत मिल गयी।

बैरूत पर आक्रमण के एक महीने बाद मैं किसी-न-किसी तरह वहां से निकलने में सफल हो गया और पाकिस्तान पहुंच गया। यहां आते ही मैं एक बार फिर बीमार हो गया।

अब जो यह एलिस के बारे में आप लोग पूछ रहे हैं तो मैं बताऊं। जब मैं कॉलेज में पढ़ाने लगा था तो जैसा मैंने बताया, मेरे कुछ साथी आक्सफ़ोर्ड से वापस लौटे तो वे मार्क्सवादी विचारधारा के समर्थक थे। उसी में एक साथी जो मार्क्सिस्ट था उसकी पत्नी जो अंग्रेज़ थी वह भी मार्क्सिस्ट थी। एक दिन उसने मुझसे पूछा, तुम उदास और निराश क्यों रहते हो, फिर स्वयं ही बोली, तुम्हें इश्क़ हो गया है क्या ? तुम बीमार लगते हो। उसने कुछ किताबें मुझे दीं और कहा कि उन्हें पढ़ूं उसने स्पष्ट किया, तुम्हारा दुख बहुत कुछ व्यक्तिगत ढंग का है। ज़रा पूरे हिंदुस्तान पर नज़र डालो, अनगिनत लोग भूख और बीमारी के शिकार हैं। तुम्हारा दुख तो उनकी तुलना में कुछ भी नहीं है। और तब प्रेम के विषय से मेरा ध्यान हट गया और मैंने व्यापक संदर्भों में सोचना आरंभ कर दिया। मेरी नज्म 'मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न मांग' इसी बदलते हुए सोच का परिणाम थी। मेरे मित्र जिनकी पत्नी का उल्लेख मैंने किया वह एक अच्छे साहित्यकार थे और एक कॉलेज के प्रिंसिपल भी थे। उनके साथ शिक्षण के कार्य में व्यस्त हो गया। कोई तीन चार साल बाद मेरे मित्र की अंग्रेज़ पत्नी की एक बहन उन लोगों से मिलने अमृतसर आयी, जहां मैं पढ़ा रहा था। मेरी उस महिला से जब मुलाक़ात हुई तो हम मित्र बन गये लेकिन उन्हीं दिनों युध्द छिड़ गया और वह महिला अपने देश वापस न लौट सकी। मैं भी कैंब्रिज जाने वाला था मगर न जा सका और इस तरह हमारी मित्रता गहरी होती गयी और एक दिन हमने शादी कर ली। वह महिला एलिस थी।
जहां तक बैरूत में मेरे प्रवास का संबंध है तो मैं यह स्पष्ट कर दूं कि मैं फ़िलिस्तीनियों का समर्थक था जिन्हें एक षडयंत्र द्वारा अपने देश से निकाल दिया गया था। यह अजीब बात थी कि इज़राइली जिन्हें नाज़ियों के हाथों कठोर यातना झेलनी पड़ी थी, वे भी अब फ़िलिस्तीनियों को इसी प्रकार कष्ट देने के लिए उतारू थे, जबकि फ़िलिस्तीनियों ने इज़राइलियों का कुछ नहीं बिगाड़ा था। लेकिन शायद इज़राइलियों के अत्याचारी व्यवहार के पीछे हिंसक मनोग्रंथि काम कर रही थी। शक्तिशाली का साथ तो सब देते ही हैं क्योंकि उसमें कोई हानि नहीं होती। कमज़ोर का साथ देने वाले कम होते हैं और उसमें केवल हानि ही हिस्से में आती है। मैंने बैरूत प्रवास के दिनों में कमज़ोर का साथ देने को अपना रचनात्मक धर्म स्वीकार किया था।
(जारी) 

(फ़ैज़ अहमद फ़ैज़) 
(उर्दू से अनुवाद : मो. ज़फ़र इक़बाल) 

Tuesday, 14 February 2023

बुलडोजरी गवर्नेंस / विजय शंकर सिंह


कानपुर में दीक्षित परिवार के मां बेटी की झोपड़ी में जला कर की गई हत्या, कानून को, गैर कानूनी तरह से लागू करने की जिद का परिणाम है। ऐसा बिलकुल नहीं है कि, कानून को सदैव कानूनी तरह से ही लागू किया जाता रहा है या आगे भी कानूनी तरह से ही लागू किया जाता रहेगा, पर यह जरूर है कि, कानून को गैर कानूनी तरह से लागू करने की जिद और फरमान, शासन के उच्चतम स्तर से, जारी किए जाने की परंपरा, गवर्नेंस की एक नई शैली की शुरुआत है, जिसके अनेक दुष्परिणाम भविष्य में हमें आपको देखने पड़ सकते हैं।

कानून व्यवस्था सुदृढ़ करने के नाम, पर कानून का खुला उल्लंघन करते हुए, जिस तरह से बुलडोजर को, ही कानून की किताबें मान लिया जा रहा है, उससे एक बेअंदाज और बेलगाम  नौकरशाही और पुलिस तंत्र के विकसित होने का खतरा उत्पन्न हो गया है जो, कानून को कानूनी तरह से लागू करने वाली एजेंसियों को, एक संगठित और प्रशिक्षित विधितोड़क, कानून लागू करने वाले गिरोह में बदल कर रख देगी। बुलडोजर, इस तरह के गिरोह के नए प्रतीक के रूप में उभर रहा है और हैरानी की बात है कि, ऐसी मनोवृत्ति को उन पढ़े लिखे लोगों का समर्थन भी हासिल है, जो खुद को, कानून के राज के हिमायती के रूप में, दिखाते हुए नहीं थकते हैं।

वे बुलडोजर को महिमामंडित भी करते हैं। यदि सरकार पक्षपात रहित होकर शहरी या ग्रामीण क्षेत्रों में, हर तरह के अतिक्रमण को चिह्नित करके, बिना किसी नोटिस या विधि में दी गई कानूनी प्रक्रियाओं को दरकिनार करके, उन अतिक्रमण का बुलडोजरी समाधान, जैसा कि पिछले कुछ सालों से किया जा रहा है, करने लगे, तो क्या तब भी, बुलडोजर को ही न्याय का प्रतीक मान लेने वाला समाज, इससे सहमत हो जाएगा ? कदापि नहीं। वह इसे आतंक का राज कहने लगेगा। वह तभी तक चुप है जब तक कि, यह 'बुलडोजर प्रक्रिया संहिता', के कानून से वह बचा हुआ है। 

यकीन मानिए, कानून को लागू करने वाली एजेंसियों ने जिस दिन कानून को कानूनी तरह से लागू करने की मनोवृति को, तिलांजलि देने की आदत और मानसिकता विकसित कर ली, उस दिन न कानून का राज बचेगा, न गवर्नेंस और न ही कोई सभ्य कहा जाने वाला विधिपालक समाज। हम एक ऐसे अराजक, और अनिश्चित आशंका में जीने के लिए अभिशप्त समाज में तब्दील हो जायेंगे, जहां, कानून, अदालतें, पुलिस और प्रशासन, किसी नियम कायदे से नहीं, बल्कि अपनी सनक और हनक से हांकी जाने लगेंगी। ऐसे अशनि संकेत अब दिखने भी लगे हैं।

यहीं, यह बात भी जोड़ना समीचीन होगा कि, यदि कानून लागू करने वाली एजेंसी को, एक बार गैर कानूनी तरह से कानून लागू करने की छूट मिल जाएगी, तो फिर उन्हे कानूनी तरीके से ही कानून को लागू करने वाली मानसिकता में ढालना आसान नहीं होगा। आज यह प्रवृत्ति संक्रामक रूप ले चुकी है और इसका समाधान किया जाना चाहिए। एनकाउंटर स्पेशलिस्ट, दबंग, सिंघम जैसी पुलिसिंग या बिना किसी तहकीकात और कानूनी प्रक्रिया के ही, मात्र बदले की कार्यवाही या सबक सिखाने के नाम पर, तोड़फोड़ कर देना, एक अराजक और ऐसे शासनतंत्र को विकसित कर रहा है, जिसे सभ्य समाज नहीं कहा जा सकता है।

(विजय शंकर सिंह)

Friday, 10 February 2023

पीएम नरेंद्र मोदी की डिग्री सार्वजनिक करने के मामले में अदालत का फैसला सुरक्षित / विजय शंकर सिंह

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की डिग्री की वैधता को लेकर विवाद 2014 से ही है। जब वे वाराणसी से अपना नामांकन देने गए तो शिक्षा के कॉलम में एमए लिखा और तभी से उनकी डिग्री को लेकर विवाद उठने लगा। विवाद का कारण, उन्ही के कुछ इंटरव्यू थे जिसमे एक इंटरव्यू में जिसे राजीव शुक्ल ने लिया था, में कहा था कि, मैं कोई पढ़ा लिखा नहीं हूं। एक अन्य इंटरव्यू में, जो किसी दक्षिण भारतीय अखबार में छपा था, उन्होंने खुद, इंजीनियरिंग करने की बात कही है। पर तथ्य क्या है यह तब सामने आया जब अमित शाह और अरुण जेटली ने एक प्रेस कांफ्रेंस करके नरेंद्र मोदी की डिग्री दिखाई, जिसमे उन्हे गुजरात यूनिवर्सिटी से एमए इन एंटायर पॉलिटिकल साइंस बताया। 

अब एक नया विवाद खड़ा हो गया। एंटायर पॉलिटिकल साइंस के नाम से कोई डिपार्टमेंट, गुजरात विश्वविद्यालय में नहीं है। गुजरात ही नहीं बल्कि दुनिया के किसी भी विश्वविद्यालय में, एंटायर पॉलिटिकल साइंस के नाम से न तो कोई  विभाग है और न ही ऐसी कोई डिग्री है। राजनीति शास्त्र यानी पॉलिटिकल साइंस, एक मान्य विषय है और दुनिया भर में इसकी पढ़ाई होती है। जब अमित शाह और अरुण जेटली ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर के मोदी जी की डिग्री सार्वजनिक की तो उस पर कई सवाल उठे। एक सवाल कंप्यूटर से डिग्री छापने का भी उठा और सबसे हैरानी की बात है, एक सामान्य सी जानकारी, जो गुजरात ओर दिल्ली यूनिवर्सिटी दोनो ही सूचना के अधिकार के अंतर्गत आरटीआई प्रार्थनापत्र के उत्तर में उपलब्ध करा सकते है, पर कभी रिकॉर्ड नहीं मिल रहा है तो कभी रिकार्ड खोज रहे हैं, कह कर वे इसे टालते रहे। 

अपील दर अपील पार करते हुए यह प्रकरण, सूचना आयुक्त तक पहुंचा और जब सूचना आयुक्त ने गुजरात विश्वविद्यालय को, डिग्री दिखाने के लिए आदेश दिया तो गुजरात विश्वविद्यालय ने इसकी अपील अहमदाबाद हाइकोर्ट में कर दी। 9 फरवरी को इस मामले में बहस हुई और बहस के बाद अदालत ने फैसला सुरक्षित रख लिया। बहस के दौरान, विश्वविद्यालय की ओर से सॉलिसिटर जनरल (एसजी) तुषार मेहता ने तर्क दिया कि, "छिपाने के लिए कुछ भी नहीं है, विश्वविद्यालय को सूचना का खुलासा करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है।"

एक तरफ यह कहा जा रहा है कि छुपाने के लिए कुछ नहीं है, पर विश्वविद्यालय को खुलासा करने के लिए मजबूर नही किया जा सकता। लेकिन, डिग्री का खुलासा तो, प्रेस कॉन्फ्रेंस में अमित शाह और अरुण जेटली पहले ही कर चुके है। डिग्री गूगल पर अभी भी उपलब्ध है। यदि डिग्री वास्तविक है और इसमें कोई फर्जीवाड़ा नहीं है तो, उसे सार्वजनिक करने से यूनिवर्सिटी परहेज क्यों कर रही है ? आरटीआई कानून, सरकार या संबंधित विभाग को सूचना देने के लिए, बाध्य करने के लिए बना हैं। फिर मजबूर नहीं किया जा सकता क्या अर्थ है?

गुजरात विश्वविद्यालय ने गुरुवार को गुजरात उच्च न्यायालय को बताया कि, "सूचना के अधिकार अधिनियम (आरटीआई अधिनियम) के तहत दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के डिग्री प्रमाण पत्र की प्रतियां प्रस्तुत करने का केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) का निर्देश पीएम की निजता को प्रभावित करता है।"
आज सुनवाई के दौरान विश्वविद्यालय की ओर से सॉलिसिटर जनरल (एसजी) तुषार मेहता ने तर्क दिया कि छिपाने के लिए कुछ भी नहीं है, इसलिए विश्वविद्यालय को जानकारी का खुलासा करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है। एसजी तुषार मेहता ने कहा, "इससे तक प्रधानमंत्री की निजता भी प्रभावित होगी।"

अब यह एक नया और हास्यास्पद तर्क है कि, किसी भी व्यक्ति की शैक्षणिक डिग्री का सार्वजनिक करना, उसकी निजता का उल्लंघन है। शैक्षणिक डिग्रियां गर्व करने की चीज होती है। यदि डिग्री में कोई फर्जीवाड़ा नहीं है तो उसे लोग अपनी उपलब्धि के रूप में बताते थे। कुछ लोग उसे फ्रेम कराकर अपने ड्राइंग रूम और दफ्तर में टांगते भी हैं। डिग्री लेते हुए फोटो और उसका विवरण, अखबारों में छपवाते भी हैं। हर उस जगह, यह डिग्रियां मांगी जाती है, जहां शैक्षणिक योग्यता का कॉलम होता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनाव नामांकन में शैक्षणिक योग्यता का कॉलम था और उन्होंने उसमे इसका उल्लेख किया है। आज यही तो सूचना मांगी जा रही है कि, उनकी शैक्षणिक योग्यता की डिग्री कहां है। 

सीआईसी का विरोध करते हुए एसजी ने कहा, "लोकतंत्र में, कोई फर्क नहीं पड़ता कि पद पर आसीन व्यक्ति डॉक्टरेट है या अनपढ़। साथ ही, इस मुद्दे में कोई सार्वजनिक हित शामिल नहीं है। यहां तक ​​कि उनकी निजता भी प्रभावित होती है।"  
यह बात बिलकुल सही है कि, संविधान में पीएम के पद के लिए किसी शैक्षणिक योग्यता की जरूरत नहीं है, लेकिन यहां मामला शैक्षणिक योग्यता की अर्हता का है ही नही, बल्कि डिग्री की वैधता का है। यदि नरेंद्र मोदी ने एमए किया है तो उसकी डिग्री सार्वजनिक की जाय, यदि नही किया है तो उन्होंने मिथ्या शपथपत्र दिया है। 

एसजी तुषार मेहता ने तर्क दिया कि "मांगी गई जानकारी का सार्वजनिक व्यक्ति के रूप में पीएम की भूमिका से कोई लेना-देना नहीं है।
हमें किसी की बचकानी और गैर-जिम्मेदार जिज्ञासा को संतुष्ट करने के लिए जानकारी प्रस्तुत करने के लिए नहीं कहा जा सकता है। साथ ही, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि मांगी गई जानकारी का सार्वजनिक शख्सियत के रूप में उनकी (नरेंद्र मोदी की) भूमिका से कोई लेना-देना नहीं है।"

इसके अलावा, उन्होंने तर्क दिया कि "लोकतंत्र में कोई फर्क नहीं पड़ता कि पद धारण करने वाला व्यक्ति डॉक्टरेट धारक है या एक अनपढ़ व्यक्ति है और इसमें कोई सार्वजनिक हित शामिल नहीं है।"
उन्होंने आगे कहा, "उदाहरण के लिए, यदि कोई आरटीआई के तहत जानकारी मांगता है कि भारत के राष्ट्रपति की ऊंचाई, बैंक बैलेंस आदि क्या है, तो क्या यह तार्किक होगा? क्या इसका कोई सार्वजनिक हित है? आरटीआई अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार, मांगी गई जानकारी सार्वजनिक गतिविधि से संबंधित होनी चाहिए, एसजी ने रेखांकित किया। उदाहरण के लिए, वे यह नहीं पूछ सकते कि मैंने कौन सा नाश्ता किया लेकिन हाँ नाश्ते के लिए कितनी राशि खर्च की गई।"

यहां भी एसजी, शैक्षणिक योग्यता और बैंक बैलेंस को एक समान मान कर देख रहे हैं। बैंक बैलेंस न तो कोई पूछता है और न ही बैंक बिना किसी अधिकृत संस्थान, जैसे आयकर, ईडी या पुलिस जो उससे जुड़े किसी मामले की जांच कर रहा है, को छोड़ कर, किसी को देता है। पर डिग्री, बैंक बैलेंस नहीं है। और यह शैक्षणिक योग्यता सार्वजनिक है जो निर्वाचन आयोग के कागज़ों और लोकसभा सचिवालय के दफ्तरों में और वेबसाइट पर उपलब्ध है। गुजरात यूनिवर्सिटी को केवल इस बात की दस्तावेजों के साथ पुष्टि करनी है। 

दूसरी ओर, अरविंद केजरीवाल की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता पर्सी कविना ने एसजी की दलीलों का खंडन करते हुए कहा कि इसमें कोई बचकानी और गैरजिम्मेदाराना जिज्ञासा नहीं थी। कविना ने कहा, "यदि आप नामांकन फॉर्म (चुनाव के दौरान दाखिल) को देखते हैं तो उसकी शैक्षिक योग्यता का उल्लेख होता है। इसलिए, हम डिग्री प्रमाणपत्र मांग रहे हैं न कि उसकी मार्कशीट।"
कविना ने कहा, "उनका (मोदी का) एक राजीव शुक्ला के साथ साक्षात्कार नेट पर उपलब्ध है न कि डिग्री पर। इसलिए हमने डिग्री की प्रति मांगी।"

अहमदाबाद हाइकोर्ट के न्यायमूर्ति बीरेन वैष्णव ने दोनो पक्ष को सुनने के बाद याचिका पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया। अदालत गुजरात विश्वविद्यालय द्वारा दायर अपील पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें सीआईसी के आदेश को चुनौती दी गई थी, जिसमें प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) के जन सूचना अधिकारी (पीआईओ) और गुजरात विश्वविद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय के पीआईओ को मोदी की स्नातक और स्नातकोत्तर डिग्री का विवरण प्रस्तुत करने का निर्देश दिया गया था। नरेंद्र मोदी के अनुसार, उन्होंने 1978 में, दिल्ली  विश्वविद्यालय से स्नातक और 1983 में गुजरात विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी की। 

(विजय शंकर सिंह)

भगवान सिंह / बात स्वर्गों की और जमीं की भी, बात औरों की हम सभी की भी.

भारत के विषय में कोई भी बात बिना स्वर्ग की चर्चा किए पूरी नहीं की जा सकती, क्योंकि देवता यहां  स्वर्ग से उतरे थे और मनुष्य बने थे। रामायण पर तो चर्चा संभव ही नहीं, राम तो स्वतः विष्णु के अवतार हैं।  

अवतार की कहानियां दूसरी सभ्यताओं में भी रही हैं।  मिस्र के फिरौन को तो  धरती पर परमात्मा का प्रतिनिधि ही माना जाता था, उस तक किसी की सीधे पहुंच नहीं हो सकती थी। मिस्र बहुदेववादी था।  कई देवी-देवता कई भूमिकाओं में उसकी सहायता करते थे। मिस्र की स्वर्ग की कल्पना और राजा की भूमिका में भारत से कई समानताएं मिलती हैं, पर उनमें स्वर्ग की भौगोलिक स्थिति के विषय में कोई सूचना नहीं है। 
   
सामी कथाओं के आदम स्वर्ग से निकाले गए थे, जबकि भारत में स्वर्ग से उतरे थे। पश्चिमी देशों की स्वर्गभूमि पूरब में थी, भारत का स्वर्ग उत्तर में था। यह हिमालय से परे था, परंतु कितनी दूर, इसकी ठीक जानकारी किसी को नहीं थी, क्योंकि जिस चरण पर इन कहानियों को याद किया और लिपिबद्ध किया जा रहा था, उस समय तक न जाने कितने हजार साल बीत चुके थे। पौराणिक भाषा में कही गई कहानी की धुंध में कई युगों का इतिहास छिपा रहता है जिसे व्यवस्थित करते हुए, इतिहासकार का अपनी समझ पर विश्वास डगमगाने लगता है।  भारतीय सामाजिक स्मृति में भी देवों की दिशा पूर्व है। देवलोक पूर्वोत्तर में है जो फैल कर कर पूरे हिमालय को घेर लेता है। फिर स्वर्ग भी अनेक हो जाते हैं जिन पर संकट आता रहता है जिसके  निवारण के लिए इन्द्र को रघुवंशी राजाओं की शरण में आना पड़ता है। वे जाते हैं और असुरों से उनकी रक्षा भी करते है। कुछ ऋषि, जैसे नारद स्वर्ग से धरती तक का चक्कर लगाते रहते हैं। फिर त्रिदेवों के अपने धाम हैं। देवों पर संकट आता है तो वे दौड़ कर विष्णु के पास समाधान या रक्षा की गुहार ले कर पहुंच जाते हैं। विष्णु उन्हें निराश नही करते। यह सहायता छल-कपट तक पहुंच जाती है। वह ईश्वर हैं पर परमेश्वर नहीं। ब्रह्मा और महेश के सामने उनकी नहीं चलती।  ये तीनों देव सगुण और साकार हैं जो परमेश्वर की तीन शक्तियों - सर्जना, रक्षण और विनाश से लैस है। ये सारे विवरण इतने गड्डमड्ड हैं कि इन्हें प्रलाप तक नहीं कहा जा सकता, इसके बाद भी ये न तो न निराधार हैं न ही उपेक्षणीय। इनमें एक दीर्घ काल-प्रसार के कई चरणों का इतिहास सिमटा हुआ है ।

हम यहां अत्यंत क्षीण आधार पर एक  एक ऐसी संभावना की बात करने जा रहे हैं जिसकी सत्यता का दावा नहीं करते और गलत मान नहीं पाते। उत्तर की दिशा में स्वर्ग की कल्पना क्या भारतीय समाज के किसी समुदाय में बचे रह गए इस विश्वास  पर आधारित है, कि उसके पूर्वज उत्तर की दिशा में स्थित किसी सुदूर क्षेत्र से भारतीय भूभाग में आए थे? तिलक ने वैदिक जनों  के आदि देश के रूप में उत्तरी ध्रुव  का प्रस्ताव रखा था। इसमें कई तरह की गलतियां हैं जिनमें कुछ औपनिवेशिक दबाव में और कुछ उस समय तक की जानकारी के स्रोतों की सीमा के कारण हैं। हम इसमें कुछ सुधार करके आर्यों की जगह मानव समुदायों की बात कर सकते हैं क्योंकि आर्य का प्रयोग कृषि के बाद ही किया जा सकता है। इसके लिए हमें आर्कटिक से प्रस्थान के मामले में  तिलक  द्वारा सुझाई गई काल रेखा को भी बहुत पीछे ले जाना होगा।  उस दशा में  हमें  उनकी अपेक्षा अधिक ठोस प्रमाण मिल जाएंगे।  उस क्षेत्र में रहने वाले मानव समुदायों की यह यात्रा विगत हिमयुग की तीव्रता के दौर में आर्कटिक क्षेत्र से, प्राणरक्षा के लिए,  दक्षिण की दिशा में पलायन करने वाले लोगों के साथ शुरू होती है। परंतु आहार की उपलब्धता और आबादी के दबाव और आपसी टकराव के कारण वे हजारों वर्ष बाद अपनी जगह बदलते रहे। 

यह याद किसी समुदाय की चेतना में कैसे बनी रह गई इसका पता हमें नहीं है यद्यपि यह सच है कि विगत हिमयुग के किसी चरण पर उत्तरी ध्रुवप्रदेश से लोगों का पलायन, दक्षिण की दिशा में, पूरे उत्तरी गोलार्ध में - यूरोप, एशिया, अमेरिका सभी की ओर हुआ था। इस दौर में यूरोप से लेकर एशिया तक के कुछ ही ऐसे कोने बच रहे थे, जो हिम युग की उग्रता से उस रूप में प्रभावित नहीं हुए थे, जिस तरह दूसरे। संभव है चारों ओर से घिर जाने के बाद कुछ लोगों ने अपनी जान बचा ली हो और वहां  बाद में भी बने रह गए हों  परंतु शेष आबादी दक्षिण की ओर भारत पर्यंत पलायन करने को बाध्य हुई थी और भारत उस काल का सबसे आकर्षक क्षेत्र था। इसका प्रसार संभवत मकर रेखा तक था।
   
सृष्टि की दो तरह की कहानियां प्रचलित है।  पहली ब्रह्मांड की सृष्टि, जीवों-जन्तुओं और मनुष्य की  सृष्टि से संबंधित है और दूसरी कृषि के आरंभ से संबंधित।  भारत में इन दोनों के कई रूप मिलते हैं। हम दूसरी कोटि की कथाओं  से इतिहास तक - काल्पनिक से वास्तविक तक - पहुंचने का प्रयत्न करें तो पश्चिम का पुराण कहता है कि खेती का ज्ञान उसे पूरब से मिला।  जिन देवों के बीच आदम किसी स्वर्ग में  रहता था वह पूर्व में था। भारतीय झूम खेती के अनुभव का सार सत्य यह हैं कि अपने प्रयत्न से अन्न उपजाने वालों को इसलिए प्रताडित करके देश देशांतर में भागने को मजबूर  किया जाता रहा कि उनके इन प्रयोगों से प्राकृतिक साधनों को क्षति पहुंच रही थी। उनके इस पलायन के ही कृषिविद्या का प्रसार भूमध्य सागर से लेकर प्रशांत महासागर तक के देशों में जहां तहां हुआ।  भारत में देवों की दिशा पूर्व मानने वाले कुरुक्षेत्र में बसे वैदिक परंपरा के लोग थे और पूरबी का भारतीय आशय भोजपुरी क्षेत्र रहा है क्योंकि दूसरी सहस्राब्दी ई.पू. तक उससे पूरब का क्षेत्र दलदल था। कुरुक्षेत्र  में बसने वाले मध्य गंगाघाटी क्षेत्र से आए थे। पर देव भूमि या वह भूभाग जहां उन्होंने स्थाई खेती आरंभ की वह जैसा कि हम आगे देखेंगे, कुरुक्षेत्र से पूर्वोत्तर में वर्तमान नेपाल में था जो कालक्रम से फैल कर  पूरे पर्वतीय  क्षेत्र के लिए प्रयोग में आने लगा। 

भारतीय जनों में एक समुदाय की चेतना में युगों पुरानी याद बनी रही कि धरती पर उनका आगमन सुदूर उत्तर के ऐसे क्षेत्र से हुआ है जहां कभी अंधेरा नहीं होता है, जो स्वर्गोपम है, इस लोक में जाने की कामना भारतीय चेतना में लगातार बनी रही है। वीर गति पाने वाले योद्धा की आत्मा जिस स्वर्लोक को जाती है वह यही है। उनका केसरिया बाना उसी लोक के रंग का है।  इसका सबसे मार्मिक चित्रण ऋग्वेद के नवेंं मंडल की कुछ ऋचाओं में है:

यत्र ज्योतिरजस्रं यस्मिन् लोके स्वर्हितम् ।
तस्मिन् मां धेहि पवमानामृते लोके अक्षित इन्द्रायेन्दो परि स्रव ।। 
(ऐ सोम, तुम हमें उस लोक में पहुंचा दो जहां  निरंतर प्रकाश बना रहता है, जिसमें स्वर्ग बसा हुआ है, जो जिस अमृत लोक में कोई बूढ़ा नहीं होता।) 

यत्र राजा वैवस्वतो यत्रावरोधनं दिवः ।
यत्रामूर्यह्वतीरापस्तत्र माममृतं कृधीन्द्रायेन्दो परि स्रव ।।  
(जहां के राजा विवस्वान है, जो द्युलोक की सीढ़ी है, जहा का जल अमृत है, उस लोक में हमें पहुंचा कर अमर कर दो।) 

यत्रानुकामं चरणं त्रिनाके त्रिदिवे दिवः ।
लोका यत्र ज्योतिष्मन्तस्तत्र माममृतं कृधीन्द्रायेन्दो परि स्रव ।। 9.113.7-9
(जहां कोई भी कामना पूरी हो जाती, जो तीनो लोक से न्यारा है, जहां के लोग आभादीप्त रहते है, मुझे वहांं पहुंचा कर अमर बना दो, ऐ सोम इन्द्र के लिए स्रवित होओ।)
  
अति दीर्घ जातीय स्मृति पर अंकित आर्कटिक क्षेत्र का इससे सटीक  चित्रण संभव नहीं। जहां तक सात या नव स्वर्गों की बात है वे वैदिक कालीन व्यापारिक प्रसार के दौर के सुरक्षित प्राकरवेष्ठित अड्डे हैं जहां के नगर सेठ (इंद्र) असाधारण संपन्नता के साथ मुक्ताचार करते थे पर इनकी ( शोर्तुगाई, डैश्ली, सपल्ली, सूसा, वसुकनि, आदि ) सुरक्षा के बाद भी स्थानीय उपद्रवियों से समय-समय पर त्रस्त हो जाते थे और ऐसे अवसरों पर वे भारतीय राजाओं से सहायता का अनुरोध करते थे और रघुवंशी  इस दृष्टि से सबसे साहसी थे। 
  
अब पौराणिक मलबे को जब टुकड़े टुकड़े जोडते हुए सही क्रम में रखते हैं तो हमारे सामने एक ऐसा  विस्मयकारी इतिहास आता है जिसका आधुनिक काल से पहले किसी अन्य को पता ही न था।

भगवान सिंह
© Bhagwan Singh
लेखक, वैदिक अध्ययन के विद्वान और लेखक हैं। 

सुप्रीम कोर्ट ने हिंडनबर्ग मामले की पड़ताल के लिए, विशेषज्ञों की समिति गठन के बारे में संकेत दिया है / विजय शंकर सिंह

अडानी-हिंडनबर्ग मामले में दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने आज शुक्रवार को भारतीय निवेशकों की सुरक्षा के बारे में चिंता व्यक्त की और नियामक तंत्र में सुधार के सुझावों पर केंद्र सरकार और भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) के विचार मांगे। भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ ने नियामक ढांचे को मजबूत करने पर सुझाव देने के लिए एक विशेषज्ञ समिति के गठन का भी प्रस्ताव दिया।  

पीठ दो याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें अमेरिका स्थित शॉर्टसेलिंग फर्म हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट के बारे में जांच की मांग की गई थी, जिसने अडानी समूह की कंपनियों के शेयर की कीमतों को प्रभावित करके शेयर बाजार में हलचल मचा दी थी।  पीठ ने मामले को सोमवार (13 फरवरी) के लिए स्थगित कर दिया है और भारत के सॉलिसिटर जनरल को मंत्रालय के निर्देश के बाद वापस आने के लिए कहा है।

मामला संज्ञान में आते ही सीजेआई चंद्रचूड़ बेंच में अपने साथियों जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जेबी पारदीवाला के साथ करीब पांच मिनट तक चर्चा में रहे.  चर्चा के बाद, सीजेआई ने भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से कहा, जो सेबी का प्रतिनिधित्व कर रहे थे:

"यह सिर्फ एक खुला संवाद है। वे अदालत के सामने एक मुद्दा लाए हैं। चिंता का विषय यह है कि हम भारतीय निवेशकों की सुरक्षा कैसे सुनिश्चित करते हैं? यहां जो हुआ वह शॉर्ट-सेलिंग था। संभवत: सेबी भी इसकी जांच कर रहा है। कृपया बताएं  आपके अधिकारी भी यह कोई जादू-टोना नहीं है जो हम करने की योजना बना रहे हैं। मान लीजिए कि शॉर्ट-सेल के परिणामस्वरूप, शेयरों का मूल्य गिर सकता है। खरीदार को अंतर का लाभ मिलता है। यदि यह छोटे पैमाने पर हो रहा है, कोई परवाह नहीं करता। लेकिन अगर यह बड़े पैमाने पर होता है, तो कुछ रिपोर्टों के अनुसार, भारतीय निवेशकों को होने वाला कुल नुकसान कई लाख करोड़ रुपये का होता है। हम कैसे सुनिश्चित करें कि भविष्य में हमारे पास मजबूत तंत्र हैं?  क्‍योंकि आज पूंजी भारत से बाहर आ-जा रही है। हम भविष्‍य में कैसे सुनिश्चित करें कि भारतीय निवेशक सुरक्षित रहें? बाजार में अभी हर कोई है। कहा जाता है कि नुकसान दस लाख करोड़ से अधिक का है। हम यह कैसे सुनिश्चित करें कि  वे सुरक्षित हैं? हम यह कैसे सुनिश्चित करें  भविष्य में नहीं होता है?  हम सेबी के लिए किस भूमिका की परिकल्पना करते हैं?  उदाहरण के लिए, एक अलग संदर्भ में, आपके पास सर्किट ब्रेकर हैं।"

इस पर सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा, 
"मेरे लिए तुरंत जवाब देना थोड़ी जल्दबाजी होगी। ट्रिगर बिंदु (हिंडनबर्ग) रिपोर्ट थी, जो हमारे क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र से बाहर थी। ऐसे नियम हैं जो, इन सब चिंताओं से निपटते हैं। हम भी चिंतित हैं। सेबी भी स्थिति की बारीकी से निगरानी कर रहा है।"

इसके बाद CJI ने एक समिति गठित करने का सुझाव दिया। सुझावों में से एक, कुछ समिति बनाने का है ... 
"हम सेबी या नियामक एजेंसियों पर कोई संदेह नहीं डालना चाहते हैं। लेकिन सुझाव व्यापक विचार प्रक्रिया है ताकि कुछ इनपुट प्राप्त किए जा सकें। और फिर  सरकार इस बात पर विचार कर सकती है कि क्या क़ानून में कुछ संशोधन की आवश्यकता है, क्या नियामक ढांचे के लिए संशोधन की आवश्यकता है। एक निश्चित चरण के बाद हम नीति के क्षेत्र में प्रवेश नहीं करेंगे, लेकिन एक तंत्र होना चाहिए जो ऐसा नहीं करता है।  यह भविष्य में नहीं होगा। यह वह चुनौती है, जिसका सामना सरकार को करना है। हमें एक तंत्र स्थापित करने की आवश्यकता है जो यह सुनिश्चित करे कि भविष्य में ऐसा नहीं होगा।"

 CJI ने जारी रखा, 
"मेरे साथी जस्टिस नरसिम्हा का एक सुझाव है, मौजूदा शासन की मंशा के बारे में सोमवार को वापस आकर बताए कि सरकार क्या चाहती है।  मौजूदा व्यवस्था को कैसे मजबूत किया जाए और क्या इससे प्रक्रिया में मदद मिलेगी?  क्या हम एक विशेषज्ञ समिति बनाने पर विचार कर सकते हैं, जिसे प्रतिभूति बाजार, अंतरराष्ट्रीय बैंकिंग क्षेत्र के विशेषज्ञों और बुद्धिमान मार्गदर्शक व्यक्ति के रूप में एक पूर्व न्यायाधीश को लिया जा सकता है। अंतत: इनपुट तो डोमेन विशेषज्ञों से ही लेना होगा।  हमें भी ऐसी स्थिति पर  यकीन नहीं हो रहा है।  हम सिर्फ गौर से इस पर विचार कर रहे हैं।  हम सेबी को भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका दे सकते हैं।  हमें सेबी को मजबूत करने के बारे में भी सोचने की जरूरत है ताकि भविष्य में इससे निपटने के लिए बेहतर प्रावधान हों।  यह एक नई दुनिया है।  भारत वह नहीं है जो 1990 के दशक में था।  साथ ही शेयर बाजार एक ऐसी जगह है जहां केवल उच्च मूल्य के निवेशक ही निवेश करते हैं।  यह एक ऐसी जगह भी है जहां, बदलती कर व्यवस्था के साथ, मध्यम वर्ग का एक व्यापक वर्ग निवेश करता है।"

सॉलिसिटर जनरल (एसजी) ने कहा, 
"सेबी जो भी वैधानिक तंत्र है, इस मसले को देख रहा है। हम आप को संतुष्ट करने में सक्षम होंगे।"

इस पर सीजेआई ने कहा, 
"आप वित्त मंत्रालय के विशेषज्ञों के साथ भी परामर्श कर सकते हैं। हमें एक सार्थक उपाय और कार्ययोजना दें। यह एक महत्वपूर्ण मामला है। हम इस बात से भी सचेत हैं कि हम जो कुछ भी कह रहे हैं, वह शेयर बाजार को भी प्रभावित कर सकता है, जो काफी हद तक भावनाओं पर चलता है। इसलिए हम सतर्क हैं।"  
सीजेआई ने आगे कहा, 
"हालाँकि, याचिकाओं पर बहुत अच्छी तरह से विचार नहीं किया गया। कभी-कभी हमें इससे आगे जाने की आवश्यकता होती है।"

अदालत में इस विचार विमर्श के बाद, पीठ ने आदेश दिया:

"हमने सॉलिसिटर जनरल को यह सुनिश्चित करने के संबंध में अपनी चिंताओं का संकेत दिया है कि, देश के भीतर नियामक तंत्र को विधिवत रूप से मजबूत किया जाए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि भारतीय निवेशकों को अस्थिरता से बचाया जा सके, जैसा कि हाल के दो हफ्तों में देखा गया है बाजार बेहद अस्थिर है। बदले में मौजूदा नियामक ढांचे के उचित मूल्यांकन और निवेशकों के हित में नियामक ढांचे को मजबूत करने और प्रतिभूति बाजार के स्थिर संचालन की आवश्यकता होगी। हमने एसजी को यह भी सुझाव दिया है कि क्या वे समिति के सुझाव को स्वीकार करने के इच्छुक हैं। यदि भारत संघ सुझाव को स्वीकार करने के लिए इच्छुक है, तो समिति के गठन पर आवश्यक प्रस्तुतियाँ मांगी जा सकती हैं।"

एसजी ने आश्वासन दिया कि,
"सेबी स्थिति की बारीकी से निगरानी कर रहा है।  हम स्पष्ट करते हैं कि उपरोक्त का उद्देश्य सेबी या किसी वैधानिक प्राधिकरण द्वारा अपने वैधानिक कार्यों के निर्वहन पर कोई प्रतिबिंब नहीं है।"

इस दो याचिकाएं दायर की गई है। एक विशाल तिवारी द्वारा और दूसरी एमएल शर्मा द्वारा। 

० विशाल तिवारी द्वारा, दायर जनहित याचिका में हिंडबर्ग रिसर्च रिपोर्ट की सामग्री की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश के नेतृत्व में एक समिति के गठन की मांग की गई है।

० दूसरी याचिका एडवोकेट एमएल शर्मा द्वारा दायर की गई है और 'शॉर्ट-सेलिंग' को धोखाधड़ी का अपराध घोषित करने की मांग करती है। उक्त याचिका हिंडनबर्ग के संस्थापक नाथन एंडरसन के खिलाफ जांच की मांग करती है, "कृत्रिम क्रैशिंग की आड़ में शॉर्ट सेलिंग के माध्यम से निर्दोष निवेशकों का शोषण करने के लिए"।

24 जनवरी 2022 को अमेरिका स्थित हिंडनबर्ग ने अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें अडानी समूह पर अपने स्टॉक की कीमतों को बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर हेराफेरी और अनाचार करने का आरोप लगाया गया था।  अडानी ग्रुप ने 413 पन्नों का जवाब प्रकाशित करके आरोपों का खंडन किया और यहां तक ​​कि इसे भारत के खिलाफ हमला करार दिया।  हिंडबर्ग ने एक प्रत्युत्तर के साथ यह कहते हुए पलटवार किया कि 'धोखाधड़ी को राष्ट्रवाद द्वारा अस्पष्ट नहीं किया जा सकता' और अपनी रिपोर्ट पर कायम रहे। हिंडबर्ग रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद से, अडानी के शेयरों में शेयर बाजार में गिरावट आई है।  स्टॉक की कीमतों में गिरावट के साथ, उलझे हुए समूह को अपने एफपीओ को वापस बुलाने के लिए मजबूर होना पड़ा।

अब अगली तारीख, 13 फरवरी को निर्धारित की गई है। अब सरकार को यह बताना है कि क्या वह एक ऐसी समिति जिसमें, सुप्रीम कोर्ट के जज सहित वित्तीय और कॉरपोरेट मामलों के विशेषज्ञ होंगे के गठन और इस मामले की जांच पड़ताल के लिए सहमत है या नही। समिति का गठन, सुप्रीम कौन करेगा और सदस्यों का चयन भी वही करेगा। यह भी हो सकता है कि, सरकार  कोई दूसरा विकल्प सुझाए। लेख लाइव लॉ और बार एंड बेंच की खबर पर आधारित है। 

विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh