Thursday, 14 October 2021

सावरकर प्रकरण - बंटवारे की भूमिका लिखने वाले, बंटवारे को रोक कैसे सकते थे ? / विजय शंकर सिंह

वीडी सावरकर पर एक और विवाद कि, उन्होंने गांधी जी के कहने पर अंग्रेजों से माफी मांगी थी, उदय माहुरकर और चिरायु पंडित की  किताब, द मैन हूं कुड हैव प्रीवेंटेड पार्टीशन, वीर सावरकर, के विमोचन के अवसर पर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह जी के एक बयान के बाद फिर से खड़ा हो गया है। यह किताब मैंने, न तो अभी मंगाई है और न ही पढ़ी है, इसलिए किताब में क्या लिखा है और कैसे सावरकर भारत पाक का बंटवारा रोक सकते थे, के बारे में कौन से ऐतिहासिक तथ्य और सुबूत दिए गए हैं, पर, कुछ भी टिप्पणी करना जल्दबाजी होगी।

पर भारत विभाजन की त्रासदी के लिये व्यक्तियों को जिम्मेदार ठहराने के पहले, हम उस विचारधारा का उल्लेख करते हैं, जिनके आधार पर भारत विभाजन की नींव पड़ी थी । वह विचारधारा है धर्म के आधार पर राष्ट्र की अवधारणा। हिंदू एक राष्ट्र है और मुस्लिम एक कौम है और दोनो एक साथ नहीं रह सकते हैं, यह दिव्यज्ञान बीसवी सदी में दो महान लोगो को हुआ, एक थे वीडी सावरकर और दूसरे थे, एमए जिन्ना। इस्लाम के आधार पर, अलग मुस्लिम कौम और अलग मुल्क पाकिस्तान की नींव और नाम भले ही, लन्दन में पढ़ रहे एक मुस्लिम छात्र चौधरी रहमत अली के नक़्शे औऱ पाकिस्तान शब्द से पड़ी हो, पर इसे धरातल पर उतारने के लिए जिम्मेदार, सावरकर और जिन्ना हैं, जिन्होंने इस सिद्धांत को गढ़ा। घृणा और भेदभाव के आधार पर गढ़े गए सिद्धांत, खोखले और अतार्किक होते हैं, और अंततः विनाशकारी भी होते हैं। द्विराष्ट्रवाद भी इसका अपवाद नहीं साबित हुआ। 

एक नाम और, इसी कड़ी में आता है मशहूर शायर अल्लामा इकबाल का, जो अपनी दार्शनिक शायरी और कौमी तराना के लिये प्रसिद्ध हैं। वे भी इस्लामी संस्कृति के संरक्षण के लिये एक नए मुल्क के ख्वाहिशमंद थे। पर जब यह बात जिन्ना को बताई गयी कि, अल्लामा इकबाल, मुसलमानों के लिये एक अलग मुल्क चाहते हैं, तो एमए जिन्ना ने हंसी उड़ाते हुए कहा था कि, 'वे शायर हैं, और शायर कल्पना में जीते हैं।' चौधरी रहमत अली आइडिया ऑफ पाकिस्तान, देकर इतिहास में कहीं गुम हो गए और अल्लामा इकबाल का 1936 में देहांत हो गया। तब तक पाकिस्तान या एक अलग इस्लामी मुल्क की सुगबुगाहट तो शुरू हो ही गयी थी, पर उसे तब भी कोई गम्भीरता से नही ले रहा था।

एमए जिन्ना मुस्लिम लीग की राजनीति के साथ पहले से ही जुड़े थे। वे थे तो, कांग्रेस में और महात्मा गांधी के भारत मे दक्षिण अफ्रीका से वापस आने के पहले ही कांग्रेस के स्टार नेताओ में से गिने जाते थे। वे न तो धार्मिक थे, और न ही एक प्रैक्टिसिंग मुस्लिम। वे पूरी तरह से, दिल दिमाग से, अंग्रेज थे, बंबई के बड़े और महंगे वकील थे, पाश्चात्य शान ओ शौकत से जीवन जीते थे और धर्म की राजनीति से दूर रहते थे।

सन, 1916 मे लखनऊ कांग्रेस में एक बड़ी घटना होती है जिसमें कांग्रेस और मुस्लिम लीग में, एक समझौता होता है। जिन्ना एक बड़े नेता के रूप में, 1916 में उभरते हैं, जिन्होने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर जोर देते हुए कांग्रेस का मुस्लिम लीग के साथ लखनऊ समझौता करवाया था। जिन्ना, 1910 ई. में वे बम्बई के मुस्लिम निर्वाचन क्षेत्र से केन्द्रीय लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य चुने गए फिर वे, 1913 ई. में मुस्लिम लीग में शामिल हुए और 1916 ई. में उसके अध्यक्ष हो गए।  जिन्ना ने मुस्लिम लीग के अध्यक्ष की हैसियत से संवैधानिक सुधारों की एक, संयुक्त कांग्रेस - लीग योजना पेश की। इस योजना के अंतर्गत कांग्रेस - लीग समझौते से मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्रों तथा जिन प्रान्तों में वे अल्पसंख्यक थे, वहाँ पर उन्हें अनुपात से अधिक प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था की गई। इसी समझौते को 'लखनऊ समझौता' कहा गया।

लखनऊ की बैठक में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के उदारवादी और अनुदारवादी गुटों का फिर से मेल हुआ। इस समझौते में भारत सरकार के ढांचे और हिन्दू तथा मुसलमान समुदायों के बीच, सम्बन्धों के बारे में प्रावधान था। मोहम्मद अली जिन्ना और बाल गंगाधर तिलक इस समझौते के प्रमुख निर्माता थे। जिन्ना, के तिलक से बहुत अच्छे संबंध थे। जब तिलक देशद्रोह के मुकदमे में अंग्रेजों द्वारा मुल्जिम बनाये गए थे तो अदालत में जिन्ना ने उनका मुकदमा लड़ा था और कोई फीस भी नहीं ली थी।

उस समय गांधी, दक्षिण अफ्रीका से आये ही थे और वे बहुत लोकप्रिय भी नही थे। कांग्रेस के बड़े नेता गोपाल कृष्ण गोखले की सलाह पर वे देश का भ्रमण कर रहे थे और जनता की नब्ज समझ रहे थे। भारत के अधिकांश जन मानस के लिये वे अल्पज्ञात थे,  पर दक्षिण अफ्रीका में उनके किये कार्यो से उनकी प्रसिद्धि देश मे फैलने लग गयी थी। 1916 के कांग्रेस  अधिवेशन में गांधी जी ने भी भाग लिया था और भाषण दिया पर वे, जनता पर बहुत प्रभाव नहीं छोड़ पाए थे। सरोजिनी नायडू ने उनके भाषण का उल्लेख करते हुए लिखा है कि, 'गांधी जी की आवाज़ धीमी थी और वे बहुत स्पष्ट बोल भी नहीं रहे थे।' 1916 में लखनऊ समझौते ने जिन्ना का कद बहुत बढ़ा दिया था। साथ ही, लखनऊ में ही एक ऐसी घटना का सूत्रपात होता है, जिसने गांधी को राष्ट्रीय परिदृश्य पर लाकर खड़ा कर दिया और वे अपनी अनोखी शैली से देश के सर्वमान्य नेता बन गए। वह घटना थी,  चंपारण के एक किसान राजकुमार शुक्ल से गांधी जी की मुलाक़ात और गांधी जी का चंपारण सत्याग्रह।

कांग्रेस के साम्राज्य विरोध का स्वरूप और नीति, चंपारण सत्याग्रह की इसी घटना के बाद से बदलने लगी। कांग्रेस जो इलीट और प्रतिवेदनवादी आभिजात्य लोगों की पार्टी थी, वह अब सड़क पर आ गयी और धीरे धीरे गांवों खेतों खलिहानों में फैलने लग गयी। उसी समय रौलेट एक्ट आता है, जिंसमे किसी को भी मुकदमा चलाये बिना जेल में बंद करने का अधिकार सरकार को मिल जाता है। कांग्रेस मुस्लिम लीग मिल कर इसका विरोध करते हैं। उधर अमृतसर में इसी के खिलाफ हो रही एक जनसभा पर जनरल डायर ने वहशियाना तरीके से गोली चला दिया जिंसमे सैकड़ो लोग मारे गए और हज़ारों घायल हो गए। पंजाब उबल पड़ा। वहां मार्शल लॉ लग गया। गांधी जी सहित अन्य नेताओं को पंजाब का दौरा करने से रोक दिया गया।  इस बर्बर घटना ने ब्रिटिश सदाशयता और उनके सभ्यता के खोल को उतार कर फेंक दिया।

फिर असहयोग आंदोलन शुरू होता है। हालांकि, चौरीचौरा की हिंसक घटना के बाद गांधी जी यह आंदोलन वापस ले लेते हैं, और उनकी आलोचना भी इस बिंदु पर होती है।  जिन्ना और गांधी का मतभेद जो पहले से ही था, असहयोग आंदोलन की घोषणा के बाद और बढ़ने लगता है। जिन्ना,  गांधी की जमीनी और जनता से जुड़ी राजनीतिक शैली को बहुत पसंद नही करते थे और जिन्ना और गांधी के बीच की वैचारिक दूरी बढ़ने लग जाती है। गांधी अपने अंदाज से आंदोलन चलाते हैं , और जिन्ना कुछ समय के लिये नैपथ्य में चले जाते हैं।

इसी बीच खिलाफत आन्दोलन शुरू होता है जो तुर्की के खलीफा के अपदस्थ होने के कारण एक धार्मिक आंदोलन था। यह आंदोलन सन् 1919 से 1924 तक चला था। इस आंदोलन का सीधे तौर पर भारत से कोई सम्बन्ध नहीं था। खिलाफत आंदोलन का मुख्य उद्देश्य तुर्की खलीफा के पद को पुनः स्थापित करना तथा वहाँ के धार्मिक क्षेत्रों से प्रतिबंधों को हटाना था। जिन्ना की दिलचस्पी इस आंदोलन के साथ बहुत अधिक नहीं थी। वे अली बंधुओ, जो खिलाफत आंदोलन के सूत्रधार थे, के निशाने पर भी अक्सर आते हैं। अली बंधु, जिन्ना का विरोध करते हैं, क्योंकि जिन्ना इस आंदोलन के पक्ष में खुलकर नही थे। गांधी इस आंदोलन को हिंदू मुस्लिम एकता के एक अवसर के रूप में लेते हैं, और इस आंदोलन का समर्थन करते हैं। हालांकि इस आंदोलन में गांधी जी के सहयोग को कुछ इतिहासकार, देश की राजनीति में सांप्रदायिकता की शुरुआत और तुष्टिकरण के रूप में देखते हैं। यह आंदोलन जैसे ही तुर्की का मामला हल हुआ, स्वतः समाप्त भी हो गया।

अब जेल से छूटने के बाद 1937 में सावरकर पुनः सक्रिय होते हैं पर उनकी सक्रियता, देश की आज़ादी के लिये नहीं होती है बल्कि हिंदुत्व की थियरी पर देश को ले जाने के लिये होती है। इस किताब का नाम काफ़ी दिलचस्प है- 'वीर सावरकर: द मैन हू कुड हैव प्रिवेंटेड पार्टिशन', जबकि सच ये है कि सावरकर उस व्यक्ति के तौर पर जाने जाते हैं जिन्होंने द्विराष्ट्र्वाद के सिद्धांत की बात सबसे पहले की। 1937 में हिंदू महासभा के अध्यक्ष बनने के सावरकर ने अपनी किताब 'हिंदुत्व: हू इज़ अ हिन्दू' में स्पष्ट तौर पर लिखा है कि,  "राष्ट्र का आधार धर्म है।" और उन्होंने भारत को 'हिंदुस्थान' कहा।  उन्होंने अपनी किताब में लिखा, "हिन्दुस्थान का मतलब हिन्दुओं की भूमि से है. हिन्दुत्व के लिए भौगोलिक एकता बहुत ज़रूरी है. एक हिन्दू प्राथमिक रूप से यहाँ का नागरिक है या अपने पूर्वजों के कारण 'हिन्दुस्थान' का नागरिक है.''

सावरकर ने 'हिन्दुत्व: हू इज़ अ हिन्दू' में आगे लिखते है,
''हमारे मुसलमानों या ईसाइयों के कुछ मामलों में जिन्हें जबरन ग़ैर-हिन्दू धर्म में धर्मांतरित किया गया, उनकी पितृभूमि भी यही है और संस्कृति का बड़ा हिस्सा भी एक जैसा ही है, लेकिन फिर भी उन्हें हिन्दू नहीं माना जा सकता. हालाँकि हिन्दुओं की तरह हिन्दुस्थान उनकी भी पितृभूमि है, लेकिन उनकी पुण्यभूमि नहीं है. उनकी पुण्यभूमि सुदूर अरब है. उनकी मान्यताएं, उनके धर्मगुरु, विचार और नायक इस मिट्टी की उपज नहीं हैं.''

इस तरह सावरकर ने राष्ट्र के नागरिक के तौर पर हिंदुओं और मुसलमान-ईसाइयों को बुनियादी तौर पर एक-दूसरे से अलग बताया और पुण्यभूमि अलग होने के आधार पर राष्ट्र के प्रति उनकी निष्ठा को संदिग्ध माना। पुण्यभूमि और पितृभूमि की थियरी ही विभाजन की नींव डालती है।

लगभग यही सोच जिन्ना की भी थी। हालांकि, जिन्ना के समर्थक, 11 अगस्त 1947 का उनका एक बहुचर्चित भाषण ज़रूर याद दिलाते हैं, जिंसमे वह एक धर्मनिरपेक्ष जैसे पाकिस्तान की बात करते हैं। पर वह भाषण भारत विभाजन की योजना को स्वीकार करने के बाद दिया गया था। अब आप जिन्ना का एक बेहद महत्वपूर्ण उद्धरण है जो मैं स्टीफेन कोहेन की किताब द आइडिया ऑफ पाकिस्तान, के पृष्ठ 28 से ले रहा हूँ, को पढ़े, 
"हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग धार्मिक दर्शन, सामाजिक रीति-रिवाजों और साहित्य से संबंधित हैं। वे न तो परस्पर विवाह करते हैं और न ही एक साथ भोजन करते हैं और वास्तव में, वे दो अलग-अलग सभ्यताओं से संबंधित हैं जो मुख्य रूप से परस्पर विरोधी विचारों और अवधारणाओं पर आधारित हैं।  जीवन और जीवन दर्शन पर उनके विचार अलग अलग हैं। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि हिंदू और मुसलमान इतिहास के विभिन्न स्रोतों से अपनी प्रेरणा प्राप्त करते हैं। उनके अलग-अलग महाकाव्य हैं, उनके नायक अलग हैं, और उनके अलग-अलग एपिसोड हैं। अक्सर एक का नायक  दूसरे का दुश्मन है, और इसी तरह, उनकी जीत और हार ओवरलैप होती है।"
जिन्ना के  द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत के मूल को आप इस बयान में समझ सकते हैं।  

जिन्ना और सावरकर के अपने अपने धर्मो के आधार पर राष्ट्र बनाने की अभिलाषा या जिद या षडयंत्र को उनके द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत से समझा जा सकता है। भारत के विभाजन में भयावह हिंदू-मुस्लिम दंगों की बड़ी भूमिका थी। चाहे मुस्लिम लीग का 16 अगस्त 1946 का डायरेक्ट एक्शन डे का कलकत्ता नरसंहार हो, या विभाजन के दौरान होने वाले दंगे, यह सब द्विराष्ट्रवाद की घातक सोच के नतीजे थे। भारत का बँटवारा केवल, हिंदू-मुस्लिम एकता से ही रुक सकता था जिसकी कोशिश, मनोयोग से, अकेले गांधी कर रहे थे, लेकिन हिंदू मुस्लिम को बुनियादी तौर पर एक दूसरे से अलग साबित करने में सावरकर और जिन्ना की बड़ी भूमिका थी। 

'वीर सावरकर: द मैन हू कुड हैव प्रिवेंटेड पार्टिशन' या 'वीर सावरकर: वह शख्स जो बंटवारे को रोक सकते थे' के लेखकद्वय, उदय माहुरकर और चिरायु पंडित में, उदय माहुरकर पत्रकार रह चुके हैं और फ़िलहाल भारत सरकार में सूचना आयुक्त के पद पर आसीन हैं। उनका एक ताजा इंटरव्यू बीबीसी ने लिया है, जिंसमे, बीबीसी ने उनसे पूछा कि,
" क्या उनकी नई किताब में इस बात का ज़िक़्र है कि महात्मा गांधी के कहने पर वीर सावरकर ने अंग्रेज़ों के सामने दया याचिका दायर की।" 
उदय माहुरकर ने कहा, "नहीं, मेरी किताब में इसका ज़िक़्र नहीं है."
जब बीबीसी ने उनसे जानना चाहा कि," क्या वो अपनी किताब के भविष्य के संस्करणों में इस बात को शामिल करेंगे ?"
तो उन्होंने कहा, "मैं इस बारे में तय करूँगा. आप मुझे ट्रैप (फँसाएं) न करें."

उदय माहुरकर से यह पूछने पर कि, " सावरकर पर किताब लिखते वक़्त उनके शोध में क्या राजनाथ सिंह के दावे वाली बात कहीं सामने आई ?"
इसके जवाब में उन्होंने कहा, "मैं ऐसा नहीं कह रहा हूँ कि, मेरा सावरकर पर पूरा अध्ययन है. सावरकर के बारे में अभी भी कई तथ्य हैं जो लोगों को नहीं मालूम. सावरकर जी पर मेरा अध्ययन अभी पूरा नहीं हुआ है. मैं आगे जाकर दूसरी किताब भी लिख सकता हूँ और इस बात को शामिल भी कर सकता हूँ. मैं ये दावा नहीं करता कि मैं सावरकर के बारे में सब कुछ जानता हूँ."

उदय माहुरकर ने इस बात के बारे में अपने साथी शोधकर्ताओं से बात करने के लिए कुछ समय माँगा और कुछ देर बाद बीबीसी से कहा, "वो बात सही है. बाबा राव सावरकर जो उनके भाई थे, वो गांधी जी के पास गए थे और गांधी जी ने उनको सलाह दी थी. किताब के अगले संस्करण में हम इस बात को शामिल करेंगे. गांधी जी से मिलने बाबा राव सावरकर के साथ आरएसएस के कुछ लोग भी गए थे. ये बात बाबा राव के लेखन में निकलती है."

यह लेख उदय माहुरकर और चिरायु पंडित द्वारा लिखी किताब की समीक्षा नहीं है। पर इतिहास के 1937 से 1947 के कालखंड में घटने वाली घटनाओं के अध्ययन के आधार पर, यह प्रमाण पूर्वक कहा जा सकता है कि, सावरकर और जिन्ना ने जिस साम्प्रदायिक और विभाजनकारी राजनीति की शुरुआत कर दी थी, वैसी दशा में भारत का विभाजन होना ही था। सावरकर, के बस की बात इसे रोकना नही था। आग लगा कर आग जब फैल जाय तो उसे रोकना बेहद कठिन होता है। सावरकर की पकड़ जनता पर बिल्कुल नहीं थी और न ही उन्होंने जनता से संवाद बनाने की कोशिश ही की। फिर भी उदय माहुरकर और चिरायु पंडित की किताब के शीर्षक के आधार पर यह बात मान भी ली जाय कि, वे बंटवारा रोक सकते थे, तो, उन्होंने उसे रोकने की कोशिश क्यों नहीं की, और कोशिश की तो क्या कोशिशें की ? 

© विजय शंकर सिंह 

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