Friday 22 October 2021

प्रवीण झा - रूस का इतिहास - दो (9)

कार्ल मार्क्स के ‘सर्वहारा’ (प्रोलिटेरियट) में किसान मूल रूप से थे ही नहीं। उनके लेखों का सामंतवाद और खेती-बाड़ी से प्रत्यक्ष संबंध नहीं था। मार्क्स के ‘दास कैपिटल’ में पूंजीवाद की व्याख्या है, सीधा विरोध नहीं। मूलत: उस पुस्तक में किसी भी फैक्ट्री या उद्योग से पूँजी कैसे बनती है, या बननी चाहिए; श्रमिकों के कितने घंटे काम करने से कितना उत्पादन होता है; एक सूती के कपड़ा बनने में किस तरह के स्किल लगते हैं; उनका वेतन कैसे निर्धारित होता है, इस तरह के प्रश्नों का उत्तर है। आज के यूरोप में जो श्रम कानून हैं, या ‘कार्य घंटे’ (वर्किंग हावर) और छुट्टियाँ हैं, उसमें इसी पुस्तक के सिद्धांतों का प्रयोग है। यहाँ साम्यवादी देश नहीं, बल्कि पूँजीवादी देशों की बात कर रहा हूँ। 

मार्क्स के सहयोगी फ्रेडरिक एंजल्स के पिता कपड़ा मिलों के मालिक थे। इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति के बाद, और ख़ास कर भारत की वजह से, कपड़ा मिल तरक्की पर थे। वहाँ से बने कपड़े पूरी दुनिया में जा रहे थे। चूँकि वह क्रांतिकारी मिज़ाज के युवक थे, उनके पिता ने उनको कपड़ा मिल का मैनेजर बना कर भेज दिया कि शायद उनके विचार बदल जाएँ। वह जब अपनी फैक्ट्री का काम संभालने आए, तो उन्होंने हर बात नोट करनी शुरू की। एक कपड़ा बनने में कितना कपास, कितने घंटे, किस तरह के स्किल और कितने मजदूर लगते हैं। कपड़े की कीमत का कितना हिस्सा मजदूरों तक पहुँचता है। उन्होंने उनकी बस्तियों में जाकर देखा कि वे रहते कैसे हैं। 

उन्होंने यह बातें अपने मित्र कार्ल मार्क्स को बतानी शुरू की, और इसी से ये कंसेप्ट बना कि दुनिया में एक नया वर्ग जन्म ले रहा है। यह वर्ग तमाम उद्योगों के कामगारों का है, जो शोषण का नया माध्यम बन कर उभर सकता है। यह ‘वर्किंग क्लास’ अगर अपने अधिकारों के लिए एकजुट नहीं हो, तो पूँजीवाद उसका ग्रास करती रहेगी। वह कितना भी पसीना बहा ले, वह लाभ का एक बहुत छोटा हिस्सा ही पा सकेगा। उसमें उसका श्रम-मूल्य भले निहित हो, उसके स्किल और अनुभव को दरकिनार किया जा सकता है। आज ऐसी स्थिति नहीं है, लेकिन उस समय के यूरोप में यही हो रहा था।

रूस में नए उद्योग, नए खदान, नए रेलवे-लाइन, नयी सड़कें धड़ल्ले से बन रही थी। उन्नीसवीं सदी में रूस अपने स्वर्ण युग की ओर बढ़ रहा था, जहाँ दिन-रात उत्पादन हो रहा था। उद्योगों के मालिक राजशाही युग के सामंत कम ही थे, बल्कि कुछ धनी किसान वर्ग के उद्यमी लोग थे। कुछ यहूदी व्यापारी थे, और कुछ कॉलेज से पढ़ कर आए नए अभिजात्य। वे ज़ार से कॉन्ट्रैक्ट लेते और काम करते, अथवा यूरोप में व्यापार करते। रूस के पास असीम संसाधन थे। भाँति-भाँति के अयस्क, हीरा के खदान, हर तरह की फसल, और खाली पड़ी ज़मीन। मजदूरों की तो खैर कोई कमी नहीं थी। किसान अपने खेतों से उठ कर शहर आ रहे थे, और विदेशों से भी मजदूर रूस आ रहे थे। 

पूरे यूरोप में ही एक नए वर्ग का उदय हो रहा था, जो न सबसे निचली सीढ़ी पर था, न सबसे ऊपर। यह था- मध्य वर्ग। यह घंटों मेहनत करने वाला वर्ग था। यह पढ़ा-लिखा वर्ग था। यह प्रगतिशील वर्ग था। यह अपने परिवार की चिंता करने वाला वर्ग था। यह बचत करने वाला वर्ग था। यह नौकरी जाने से डरने वाला वर्ग था। यह अपने बच्चों में भविष्य देखता था। यह शिक्षा को अपनी ज़रूरत मानता था। एक क्रांति के लिए इस वर्ग का जागना ज़रूरी था, लेकिन यह वर्ग बारह घंटे काम कर घर जाकर अपने परिवार के साथ रहता। क्रांति कब करता? 

जॉर्ज प्लेखानोव ने मार्क्स के लेखों का रूसी अनुवाद कर उसे सेंट पीटर्सबर्ग भेजना शुरू किया। वह मजदूरों तक पहुँचने लगा। उन्हें यह महसूस हुआ कि उनसे घंटों काम कराया जाता है। इतवार के अतिरिक्त छुट्टी नहीं मिलती। रहने के लिए छोटी खोली दी जाती है, जहाँ एक सामूहिक शौचालय है, और सफाई की व्यवस्था नहीं। खाने का समय नहीं दिया जाता, घर जाने की छुट्टी नहीं मिलती, और वेतन कम मिलता है। 

1885 की जनवरी में रूस के एक कपड़ा मिल ने एक नयी चीज देखी। ऐसा पहले कभी रूस में सुना भी नहीं गया था। वहाँ कामगारों ने अचानक एक दिन अपना काम बंद कर दिया, और अपनी माँग रखने लगे। यह रूस की पहला हड़ताल थी। 

रूस ने एक और नयी चीज देखी। इन हड़तालों में सबसे आगे की पंक्ति में महिलाएँ थी, जो सदियों से घरों में गौण रही थी। उस समय ज़ार को या पूँजीपतियों को इन महिलाओं में कुछ भले न दिखा हो, लेकिन एक सत्य यह है कि भविष्य में जो ज़मीनी क्रांति हुई उसमें लेनिन नहीं थे। वह तो रूस में ही नहीं थे। 

ज़मीन पर रूस की क्रांति महिलाओं ने शुरू की, महिलाएँ अगली पंक्ति से लड़ी, और महिलाएँ जीती। 
(क्रमश:)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

रूस का इतिहास - दो (8)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/10/8_22.html 
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