हम फिर मूलकथा से थोड़ा अलग हटते हैं, लेकिन है यह भी बुंदेलखंड ही। आपने योरोप, अमेरिका, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया और एशिया के पूर्वी, मध्य तथा दक्षिणी-पूर्वी देशों के ट्रैवेलॉग पढ़े होंगे। मगर मैं आज आपको एक ऐसा यात्रा संस्मरण सुना रहा हूं जो आपने न तो पढ़ा होगा न सुना होगा अलबत्ता देखा होगा लेकिन उसे लिपिबद्घ करने का प्रयास संभवत: नहीं किया होगा। यह बात 1974 की है। हमारे एक रिश्तेदार थे शुक्ला जी। शुक्ला जी मेरी ममेरी बहन के पति थे और कानपुर की पराग दूध डेयरी में वर्कर थे। मजूरी तो न के बराबर थी मगर जिंदादिल खूब थे। जितना कमाते उतने में ही घर चलाते और दोस्तों को भी खिलाते। जाति के बांभन सो मांस-मदिरा से दूर-दूर तक नाता नहीं मगर शुक्लाजी मस्त आदमी थे। एक दिन बोले कि उनके एक साथी पाठक जी के भाई की शादी होनी है। बारात इटावा में चंबल के किनारे किसी गांव में जाएगी। गर्मी की छुट्टियां थीं और मैं भी खाली बैठा था। कालेज बंद हो चुके थे सो कह दिया कि चलेंगे। मुझे चंबल के बीहड़ देखने और डाकुओं की कहानियां सुनने का शौक था। हम अगले दिन भरी दोपहरी में पहले तो शुक्ला जी के गांव चल दिए जो नबीपुर के निकट लालपुर के करीब था। कानपुर में एक सबसे मशहूर जगह है गंदानाला चौराहा। मालूम हो कि कानपुर आज से नहीं वर्षों से ऐसा ही रहा है। वहां के नाम अत्यंत अकमनीय किस्म के रहे हैं। जैसे घुसियाना, कछियाना, खलासी लेन, हालसी रोड, मूलगंज, हटिया, झकरकटी, अफीम कोठी, कर्रही, गुजैनी, बर्रा, टर्रा, हर्रा और हूलागंज टाइप। खैर इस गंदेनाले से हमने बस पकड़ी। मिनी बस थी और खूब ठसाठस भरी हुई। मगर किसी तरह बस में घुस ही गए। हम करीब घंटे भर बाद नबीपुर जाकर उतरे। फिर वहां से पैदल जाना था। पहले तो हमने एक हलवाई की दूकान से पेठा खाया और वहीं एक घड़े से निकाल कर पानी पिया। उनके गांव पहुंचे। गांव खूब चमन था और रात में काफी देर तक गवनई-बजनई होती रही। गवनई-बजनई का मतलब कोई लता मंगेशकर या मोहम्मद रफी का गान अथवा लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का तान नहीं बल्कि हरमोनियम और मंझीरे के साथ “पिय हिय की सिय जाननहारी, मनि मुदरी मन मुदित उतारी” का सस्वर पाठ था। सुबह का प्रोग्राम बना कि अभी बारात तो कल चलना है इसलिए शुक्ला जी के भैया की ससुराल चला जाए जो कि कालपी के पास आटा में थी। हमने लालगंज से पैसेंजर ट्रेन पकड़ी और आटा पहुंच गए। शुक्ला जी के भैया भोपाल में पुलिस कांस्टेबल थे पर वे भी उतने ही मस्त और फक्कड़। उनके साला तो कोई नहीं था पर सालियां आठ थीं। अब सोचिए कि इन आठ सालियों के मजाक और तीखे बैन-नैन-सैन झेलते हुए बेचारे सुकुल तो घरऊ ही बन गए होंगे। रात हम सब लोग अटरिया पर सोए और जाने कहां-कहां की बातें करते रहे।
अगले रोज शाम हम भोगनीपुर आए और वहीं से बारात चली। पता चला कि बारात पाठक जी के भाई के नहीं उनके किसी दोस्त बाबूसिंह गौर की थी। जो कि जाति से ठाकुर थे। शाम आठ बजे हम लोग भोगनीपुर से चले वाया यूपी रोडवेज की बस से। दस बजे के आसपास औरय्या पहुंचे। पता चला कि रात्रि विश्राम यहीं पर है। अब सुबह आगे की यात्रा प्रारंभ की जाएगी। अब रात्रि विश्राम का मतलब यह नहीं कि किसी आलीशान कोठी या गेस्ट हाउस में हमारे शयन का इंतजाम था। वहीं बस अड्डे पर हम सब जिसको जहां जगह मिली पसर गए। रात को गौर जी के भाई चंचल गौर ने अंगौछे में सतुआ माँड़े और एक-एक पीड़ा सबको बांटा। साथ में गुड़ की भेली भी। यह डिनर लाजवाब था। सबेरे सबको जल्दी ही हाजत महसूस हुई। आखिर सतुआ ने कमाल दिखाया। सब लोग बोतलें ले-लेकर भागे और बस अड्डे के पास ही भारत स्वच्छ का नारा देते हुए जिंदाबाद कर आए। नहाने के लिए एक सार्वजनिक नल था वहीं पर अखबार बदल-बदलकर नहाए। चूंकि हर एक के पास अंगौछा तो था नहीं इसलिए अखबार पहन कर नेकर उतारे गए। अखबार का यह अभिनव प्रयोग भारत वालों की ही ईजाद है।
हमने फिर बस पकड़ी बकेवर के लिए। हममें से किसी को भी अभी तक पता नहीं था कि बारात जानी कहां है। वर के भाई ने बताया कि लखना में नोखे सिंह बताएंगे कि बारात कहां जानी हैं और वहां से हम चकर नगर जाएंगे उसके बाद बारात को ऊँटों के जरिये गंतव्य तक ले जाया जाएगा। हमने वहां से करीब आठ बजे बस पकड़ी और साढ़े दस तक आ गए बकेवर जिला इटावा। यहां से लखना जाने के लिए गणेश छाप टैम्पू किए गए और हम बारह बजे तक लखना पहुंच गए। वहां देवी का एक मंदिर है और वहां के राजा की गढ़ी देखी। कोई शुक्ला राजवंश का परिवार ही वहां राज करता था। बताया गया कि एक बार यहां की रानी साहब ने मोतीलाल नेहरू को बुलवाया वकालतनामा भरने के लिए तो उन्हें एक बगीचे में ठहराया गया। रात को पत्तों के गिरने से नेहरू जी की नींद न खुल जाए इसलिए पत्तों को लोकने के लिए हर पेड़ के नीचे दस-दस सिपाही लगाए गए। वहीं लखना में नोखे सिंह ने हमारे भोजन का इंतजाम किया था। पूरी और कद्दू की सब्जी तथा अमियां और गुड़ की चटनी। नोखेसिंह ने बताया कि बारात बुरतोली नामक गांव में जानी है जो भिंड की सीमा पर है। वे यह नहीं बता पाए कि जिला भिंड है अथवा इटावा। और किसी ने यह जानने का प्रयास भी नहीं किया कि यह बुरतोली गांव है किस देश या प्रदेश में। क्योंकि अगर यह भिंड में है तो मध्य प्रदेश हुआ और अगर इटावा में है तो हमारे सूबे में ही है।
अब चकरनगर तक पैदल जाने का ही प्रोग्राम बना। नोखे सिंह ने बताया कि वहां पर दस ऊँट खड़े हैं। हम ऊँट की सवारी की चाह में दोपहर दो बजे वहां से चल दिए और भागते हुए करीब चार किमी पैदल चलकर चकर नगर पहुंचे। वहां पर सिवाय एक ब्लाक आफिस और एक पंजाबमार्का हैंडपंप के कुछ नहीं था। ऊँट तो दूर वहां कोई बैलगाड़ी तक नहीं थी। अब दूल्हे मियाँ बाबू सिंह जो कि अपना भारी-सा पीतांबर पहने-पहने ऊब चुके थे बिफर गए कि बिना ऊँट पर चढ़े वे ब्याहने नहीं जाएंगे। उनके भाई शिव परताप ने उन्हें मां-बहन की गालियां देते हुए कहा कि ससुरे न जाओ ब्याहने कउन तोरे लाने बइठा है। बड़ी मुश्किल ते तो दुल्हन जुगाड़ी ऊपर से कहत है कि हम ऊँट पे चढ़ब। अब क्या हो सकता था हम सब पैदल ही चले। नोखे सिंह लखना में ही रह गए थे। किसी को रास्ता भी नहीं पता। हमने अंदाज से एक बीहड़ का रास्ता पकड़ा और चलते रहे। करीब दो कोस चलने के बाद एक चरवाहा दिखा उससे पूछा कि भैया ये बुरतोली कहां है। उसने पहले तो काफी देर तक विचार किया फिर बोला कि बस दद्दा दुइ कोस होई। हम फिर उस ऊबड़-खाबड़ बीहड़ में चलने लगे। दो घंटे हो गए और अब सूरज भी ढलने लगा फिर एक गांव पड़ा वहां पर किसी से पूछा तो फिर जवाब मिला दुइ कोस। हम फिर चलने लगे। प्यास के कारण गला सूखने लगा और बीहड़ में पानी कहां था। जो गांव पड़ें वे भी पानी के नाम पर बस इतना ही कहें कि बस आगे ही तो है बुरतोली वहां पर जाकर पीना। रात नौ बजे हमें एक कोठरी में एक दिया जलता दिखा तो हम वहां पहुंचे और पूछा तो पता चला कि यही बुरतोली है। अब हमारे साथ चल रहे बैंड वालों ने अपना ढोल पीटना शुरू कर दिया तथा मझीरा भी। मगर कहीं कोई जनवासा नहीं दिखा। कुछ दूर बाद कुछ और घर मिले और एक जगह तबेले का गोबर समेट कर बना था जनवासा। बीहड़ में गाय-भैसें तो होती नहीं अलबत्ता बकरियां खूब थीं। हम वहीं जाकर रुके। कुछ देर बाद लड़की वाले आ गए और पत्तलें लगा दीं। एक-एक फिट के व्यास वाली पूरियां और कद्दू की सब्जी। तथा खूब सड़ाए हुए दही को खगालकर बनाया गया रायता जिसे पीते ही लगा दिमाग सनाका खा गया। इस पदार्थ को वहां पर सन्नाटा बोलते हैं। पानी के नाम पर बस एक-एक कुल्हड़ दे दिया गया और हिदायत दी कि पानी बस एक घड़ा ही है। इसी से काम चलाना होगा।
रात हम उसी तबेले में सोए। हालांकि दिन जितना गर्म था रात उतनी ही सुहानी। सुबह कदमों की चहलकदमी से नींद खुली तो देखा कि सामने के कुएं पर कुछ औरतें पानी भर रही हैं। एक औरत जगत पर है और दो औरतें रस्सी पकड़े नीचे खड़ी हैं। जगत वाली औरत जब गगरी रस्सी में बांध कर नीचे को गिराती है तो उसके भर जाने पर दो औरतें रस्सी लेकर भागती हैं और करीब साठ-सत्तर फिट जाकर रुकती हैं तब पानी से भरी गगरी ऊपर आ पाती है। तब पता चला कि यहां पानी खींचना कितना दूभर है। शायद इसीलिए यहां पर राहगीर को पानी पिलाने की परंपरा नहीं है। सुबह हम बारातियों को आटा, दाल, चावल दे दिया गया और एक गगरी भर देसी घी भी। कहा गया कि आप लोग चंबल के किनारे चले जाओ वहीं पर खुद खाना बनाकर खाओ। यह कच्ची थी यानी कच्ची रसोई जिसे ब्राह्मण नहीं जीम सकते थे। उन्हें खुद अपना खाना बनाना पड़ता था। चूंकि वह ठाकुरों की बारात थी इसलिए उस दिन उनके लिए मांसाहार का विशेष प्रबंध था। पर उनमें से जितने ठाकुर शाकाहारी थे वे हमारे साथ चले। हमने पाया कि सिर्फ वर और उसके भाई के अलावा बाकी के लोग हमारे साथ चल दिए। क्योंकि सब को चंबल में नहाने और वहीं पर जाकर दाल, चावल, रोटी खाने की ललक थी। बूढ़े और अधबूढ़े लोग तो खाना बनाने में लग गए और हम सरीखे लड़के नदी स्नान में। पर गांव के लोगों ने समझा दिया था कि लोटा लेकर स्नान करना। चंबल में पांव तक न धरना क्योंकि चंबल बड़ी धोखेबाज नदी है। आपको पानी के भीतर जमीन साफ दिखेगी पर जैसे ही पांव नदी में डाला में तो जमीन तक पहुंचने के चक्कर में गजों नीचे चले जाएंगे। गज और ग्राह की कथा इसी चंबल नदी के पानी पर ही लिखी गई थी। हमने वहां दोपहर भर खूब मजे किए। इसके बाद भोजन। अरहर की दाल, चावल और हर थाली में लुटिया भर ताया हुआ घी। आनंद आ गया। दो दिन बारात रुकी और चौथे दिन हम जैसे गए थे वैसे ही वापस आ गए।
(जारी)
© शंभूनाथ शुक्ल
कोस कोस का पानी (15)
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