Wednesday 6 October 2021

प्रवीण झा - रूस का इतिहास (10)

( चित्र: रूस का ऐतिहासिक परिधान ‘सराफैन’)

रूस ब्रिटेन से दस गुणा बड़ा था, मगर जनसंख्या आधी थी। ऐसे तर्क मिलते हैं कि किसानों को खेतों में घंटों काम कराना देश की अर्थव्यवस्था के लिए ज़रूरी था। सामंत गाँवों में नहीं रह कर बड़े शहरों में रहते थे। वे सिर्फ़ फसल की कटाई के बाद कर वसूलने या उसकी बिक्री आदि का जिम्मा लेते थे। गाँव के पंचायत में उनका हस्तक्षेप कम था। 

नब्बे प्रतिशत से अधिक जनसंख्या सर्वहारा वर्ग ही थी, जिनके लिए राजा चाहे कोई भी हो, जीवन एक जैसा ही था। वे चाह कर भी कभी कुलीन नहीं बन सकते थे। खेती करते, गीत गाते, मदिरा पीते, पारंपरिक ‘सराफैन’ परिधान पहनते, गिरजाघर जाते। 

इतने विशाल देश की ज़िम्मेदारी जब सोलह वर्ष के मिखाइल रोमानोव पर आयी, तो उनसे रूस को बड़ी उम्मीदें थी। वह उन उम्मीदों पर खरे भी उतरे। दशकों की अव्यवस्था खत्म होने लगी। उनकी सफलता की एक और वजह थी। 

उनके पिता जब पोलैंड की कैद से लौटे तो रूस के मुख्य पादरी (मित्रोपोलित) नियुक्त हुए। ऐसा पहली बार हुआ था कि राजा और धर्मगुरु एक ही परिवार से हों। पिता-पुत्र ने मिल कर रूस की जनता को यह विश्वास दिलाया कि अब आगे सब ठीक होगा। 

यहाँ भारतीय पाठकों को यह भी मन में रखना चाहिए कि यह सत्रहवीं सदी थी। मुगल शासक शाहजहाँ और औरंगज़ेब के समय भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया में महत्वपूर्ण स्थान रखती थी। एशिया की अपेक्षा यूरोप की संपत्ति कम थी, अमरीका तो खैर अपने शैशव काल में था। 

लेकिन, इस सदी के बाद पासा पलटना शुरू गया। डच का स्वर्ण-युग शुरू हो रहा था। उन्होंने मुगलों से व्यापार के लिए दुनिया की पहली बड़ी पब्लिक कंपनी बनायी थी- ‘डच ईस्ट इंडिया कंपनी’। इंग्लैंड और स्पेन अपना विस्तार अलग तरीके से कर रहे थे। वे अमरीका और अन्य स्थानों पर समुद्री रास्ते से पहुँच कर उपनिवेश बना रहे थे। वहीं फ्रांस के लुई चौदह विश्व इतिहास में सबसे लंबे शासन (72 वर्ष) का रिकॉर्ड बना रहे थे।

रूस सबसे बड़ा देश होने के बावजूद इन सभी देशों से बहुत पीछे चल रहा था। इसकी एक तार्किक वजह भी थी। रूस के पास समुद्र नहीं था। उत्तर में एक पोत था, जहाँ आधे वर्ष बर्फ ही जमा रहता। जहाँ वास्को द गामा और कोलंबस जहाज से दुनिया घूम रहे थे, रूस को तो जहाज़ बनाना भी नहीं आता था। ये कभी वाइकिंग वंशज रहे ज़रूर थे, मगर अब सब कुछ भूल चुके थे। वे अब खेतिहर थे, जहाजी नहीं। अगर रूस को यूरोप से कदम-ताल मिलानी थी, तो जहाज बनाना और चलाना सीखना ही था। 

रही बात समुद्र की, तो उनके पास दो रास्ते थे। पहला रास्ता बहुत पास था, पश्चिम के बाल्टिक सागर में। दूसरा रास्ता लंबा और दूहर था, पूरा साइबेरिया पार कर पूर्व में। रूस को एक नयी वैज्ञानिक सोच के राजा, अपनी पहली नौसेना और नए पोत की ज़रूरत थी।

मिखाइल रोमानोव के पोते पीटर ने छुटपन में ही एक नाव बना ली। वह उस नाव को दिखा कर कहते, 
“मैं इस नाव से दुनिया पर फ़तह करुँगा”

उन्हें समझाया जाता, 
“युवराज! आप जब ज़ार बनेंगे तो ज़रूर जाइएगा, मगर मॉस्को में समंदर है कहाँ?”
“मैं राजधानी ही उठा कर बाल्टिक सागर किनारे ले जाऊँगा”
“लेकिन, युवराज! वहाँ तो अभी स्वीडन का कब्जा है”
“जब मैं ज़ार बनूँगा तो वह रूस का होगा”
“अच्छा? और नाम क्या रखेंगे अपनी राजधानी का?”
“ज़ार पीटर की राजधानी होगी- पीटर्सबर्ग!”
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

रूस का इतिहास (9)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/10/9_5.html
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