सबसे कठिन होता है धार्मिक कट्टरता और धर्मान्धता से उबल रहे समाज में, सेक्युलर सोच या सर्वधर्म समभाव के, सार्वभौम और सनातन मूल्यों को बचाये रखना, उन पर टिके रहना और उनके पक्ष में मुखरता से अपनी बात रखना। समाज जैसे जैसे धर्मान्धता के पंक में धंसता जाता है, वह अपने हमअकीदा से भी यह उम्मीद करने लगता है कि वे भी उन्हीं की तरह कट्टरता की राह पर चल पड़े और खुद को कट्टर धर्मांध कहने पर गर्व करें। तभी धार्मिक और आस्थावान लोगो में से ही कोई, आगे आता है और अपनी आस्था के साथ साथ एक बहुभाषी, बहुधार्मिक, बहसमाजी और विविधितापूर्ण समाज के लिये, धर्मांधता के विरोध में, चट्टान की तरह खड़ा हो जाता है। वह, देश में चल रहे, स्वाधीनता संग्राम के मूल्यों और आदर्शों की स्थापित अवधारणा के साथ, न केवल खुद को मजबूती के साथ जोड़े रखता है वरन, जीवन पर्यंत उन्ही आदर्शो पर अडिग भी रहता है। ऐसे व्यक्ति की भूमिका, सहज ही इतिहास का ध्यान अपनी ओर खींचती है। इतिहास धारा के विपरीत तैरने वालो को नहीं भूलता है। मौलाना अबुल कलाम आजाद भारत के इतिहास में ऐसे ही व्यक्ति थे। वे न नास्तिक थे, न निरीश्वरवादी। वे थे अपने धर्म मे अपनी आत्मा की गहराई से आस्था रखने वाले, पर वे भारत के विचार, आइडिया ऑफ इंडिया के प्रबल पैरोकार थे। निजी धार्मिक आस्था और धर्मनिरपेक्षता में कोई वैर नहीं है और न ही कोई अंतर्विरोध है, यह मौलाना के व्यक्तित्व से सीखा जा सकता है।
मौलाना आजाद, अपने धर्म के प्रति न केवल सजग थे, बल्कि वे एक प्रैक्टिसिंग मुस्लिम भी थे। पर जब देश के मुस्लिम समाज का बहुसंख्यक वर्ग, चौधरी रहमत अली के सुझाये आइडिया ऑफ पाकिस्तान, अल्लामा इकबाल के मुसलमानों के लिए एक अलग सांस्कृतिक परिवेश की धारणा और मुहम्मद अली जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद जिसके अनुसार हिन्दू और मुस्लिम दो अलग अलग मुल्क है, और वे साथ रह ही नहीं सकते हैं, के, घातक सिद्धान्त के मायावी जाल में लहालोट हो रहे थे, तब मौलाना आजाद, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ थे। महात्मा गांधी के सत्य, अहिंसा और सेक्युलर मूल्यों के साथ थे और न केवल वे, कांग्रेस के साथ बने रहे बल्कि अपने पूरे जीवनकाल में जिन्नावादी दृष्टिकोण से अप्रभावित भी रहे। वे नेहरु, पटेल, आज़ाद की प्रसिद्ध त्रिमूर्ति के एक मजबूत स्तंभ थे। आजाद, कांग्रेस कमेटी के न सिर्फ आजीवन सदस्य रहे बल्कि जब भारत के बंटवारे की बात चल रही थी तो, वे कांग्रेस की तरफ से कांग्रेस अध्यक्ष की हैसियत से एक प्रमुख वार्ताकार भी थे।
मौलाना आजाद अपने समाज की तरफ से भी अकसर स्वाधीनता संग्राम के समय निदित हुए। बारहा उनकी आलोचना उनके कुछ सहधर्मी नेताओ ने, जो मुस्लिम लीग में थे, ने की। उनकी तरफ अंगुलियां उठीं और उनपर तंज कसे गए। एमए जिन्ना, भारत विभाजन के दौरान कांग्रेस की तरफ से लगातार हो रही उनकी मौजदूगी पर न केवल असहज होते थे, बल्कि वे यह दिखाने की बराबर कोशिश भी करते रहते थे कि वे ही, देश के मुसलमानों के एकमात्र रहनुमा है और उनकी पार्टी मुस्लिम लीग इस जमात की अकेली नुमाइंदा है। एमए जिन्ना, मिजाज और परवरिश से नास्तिक थे, पर इस्लाम के नाम पर एक नये मुल्क के लिये वे बड़ी शिददत से लड़ रहे थे। और उन्होंने उस मक़सद को प्राप्त भी किया।
पर इतिहास की विडंबना देखिये, जब भारत और पाक का बंटा हुआ नक्शा उनके सामने रखा गया तो ये बौखला गये और नाराजगी भरे स्वर में कहा कि, "मैंने ऐसे कीडे खाये हुये पाकिस्तान की कल्पना नहीं की थी।" अंग्रेजी का जो शब्द उन्होंने प्रयोग किया था, वह था, "Truncated and moth eaten Pakistan. उन्ही के शब्दों में, 'कीड़ा खाया पाकिस्तान', विभाजन के फार्मूले के अनुसार उन्हें स्वीकार करना पड़ा। देश में धर्मान्धता का जहर फैलाकर, दस लाख लोगों की भारत विभाजन से जुड़े दंगे में मरवाकर, पचास लाख लोगों को इधर उधर से विस्थापित कराकर, वे पुनः 11 अगस्त 1947 को, इसी द्विराष्ट्रवाद के विपरीत खड़े नजर आते है, जब वे कहते कि,
" You are free, You are free to go to your temples, you are free to go to your Mosques in this state of Pakistan. You may belong to any religion or caste or creed- That has nothing to do with the business of the State."
आप आजाद है। आप अपने मंदिरों में जाने के लिये आजाद है। आप अपनी मस्जिदों में जाने के लिये आजाद है, जहां इबादत करना चाहे आप किसी भी धर्म, जाति या नस्ल के हो सकते है राज्य को इससे कोई सरोकार नहीं है।
(11 अगस्त 1947 एमए जिंन्ना का भाषण। आइडिया ऑफ पाकिस्तान, स्टीफेन फिलिप कोहेन )
यहीं, यह सवाल उठता है कि, जिन्ना ने क्या अपने निहित, राजनीतिक उद्देश्य के लिए धर्मांधता का चोला ओढा था, या गांधी के बढ़ते कद से उनका ईगो आहत हुआ था, और वे मुस्लिम समाज की राजनीति की ओर बढ़ गए थे ? या कीडे खाये पाकिस्तान ने उसका हृदय परिवर्तन कर दिया था ? अक्सर जिन्ना के पक्ष में उनके इस भाषण को उद्धरित किया जाता है, पर अपने कायदे आज़म के इस भाषण पर पाकिस्तान कभी भी कायदे से नहीं चला।
और दूसरी तरफ, पर मौलाना आजाद का चरित्र यह प्रमाणित करता है कि अपनी धार्मिक आस्था के साथ मजबूती से जुड़े रहकर भी, एक बहुलतावादी समाज के सर्वधर्म समभाव या सेक्युलर मूल्यों के साथ जुड़े रहा जा सकता है। यही खूबसूरत अंदाज़, मौलाना अबुल कलाम आजाद को देश के इतिहास में अलग मुकाम पर रखता है।
मौलाना आजाद के पिता मोहम्मद खैरुदीन एक बंगाली मौलाना थे जो इस्लामी धर्मशास्त्र के बड़े विद्वान थे। उनकी माता अरब के मोहम्मद जाहरवागी की बेटी भी जो मदीना में एक मौलवी थे। मौलाना खैरूदीन आपने परिवार के साथ बंगाल में रहते थे, लेकिन 1857 के समय हुए विप्लव में उन्हें भारत छोड़कर अरब जाना पड़ गया । मौलाना आजाद का जन्म मक्का में ही हुआ। जब ये 2 वर्ष के थे, तब1890 में उनका परिवार वापस भारत आ गया और कलकत्ता में दोबारा बस गया। उर्दू अरबी तथा फारसी भाषाओं का ज्ञान उन्होंने बाल्यकाल में ही अर्जित कर लिया तथा इसी के सहारे से वे इस्लाम के धर्म ग्रन्थों, इतिहास तथा अन्य शास्त्रों सहित कई विषयों के विद्वान हो गए थे। यूरोपीय दर्शन का भी गहन अध्ययन उन्होंने किया था उनकी पहचान उच्च कोटि के विद्वान लेखक और श्रेष्ठ वक्ता के रूप में होने लगी थी।
यद्यपि उनका जन्म परम्परागत धार्मिक परिवार में हुआ था किन्तु ये प्रगतिशील विचारधारा के थे। एक बार इस्लाम के कठमुल्लापन तथा प्रगतिशील बुद्धिवाद के द्वंद्व ने, उनमे मानसिक क्रान्ति पैदा कर दी और उनका रुझान नास्तिकता की तरफ होने लगा था। परन्तु अन्ततोगत्वा "एक दिन वे अपने इस आध्यात्मिक द्वंद्व तथा आन्तरिक अनिश्चितता के ऊपर विजयी हो गए।" परिणामस्वरूप उनका धार्मिक दृष्टिकोण बदला लेकिन उनके धार्मिक दृष्टिकोण में नवीन ऊर्जा का समावेश हो उठा। यही ऊर्जा उनके सामाजिक, धार्मिक एवम् राजनीतिक विचारों का वाहक बनी। कठमुल्लापन एवम कटटरपन उनके स्वभाव से दूर रहा और वे समन्वयवादी विचारधारा को लेकर भारतीय राजनीति में प्रतिष्ठित हुए।
यह कहना गलत नही होगा कि, आधुनिक भारतीय मुस्लिम सामाजिक तथा राजनीतिक विचारकों की जमात में जहां कटटरपंथी साम्प्रदायिक मुस्लिम चिंतकों एवं राजनीतिक लोगों की कमी नहीं थी, वहीं मौलाना अबुल कलाम आजाद आधुनिकता के साथ साथ, इस्लाम तथा कुरान की शिक्षाओं के श्रेष्ठ ज्ञाता होते हुए भी, सामाजिक एवं राजनीतिक पटल पर राष्ट्रवादी विचारों के मुखर वक्ता थे। उन्होंने, आधुनिकता के संदर्भ में, प्रगतिशील विचार अपनाकर हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रचार से राष्ट्रीयता के निर्माण में योगदान देने की कोशिश की। 1923 में मौलाना आजाद कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे । इतनी कम उम्र में पहली बार किसी नेता को यह पद मिला था। इसके बाद उन्होंनेे दिल्ली में एकता सम्मेलन किया और खिलाफत एवं स्वराजी के बीच मतभेद कम करने की कोशिश की। 1928 में मौलाना आजाद किसी बात पर मुस्लिम लीग के खिलाफ खड़े हो गए और उनका साथ मोतीलाल नेहरू ने दिया। 1930 में गांधी जी के साथ नमक कानून तोड़ो आन्दोलन में वे गिरफ्तार हुए और 1934 में इन्हें जेल से रिहाई मिली। 1940 में मौलाना आजाद को रामगढ़ सेशन में इंडियन नेशनल कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। यहां उन्होंने, द्विराष्ट्रवाद और धर्म के आधार पर, बंटवारे की मांग की आलोचना और विरोध किया, साथ ही भारत की साम्प्रदायिक एकता की भी बात कही। वे 1946 तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष रहे।
भारत की आजादी के बाद मौलाना ने भारत के नये संविधान सभा के लिए कांग्रेस की तरफ से चुनाव लड़ा। जवाहर लाल नेहरू की सरकार ने मौलाना आजाद को उनकी पहली कैबिनेट में 1947 से 1955 तक शिक्षा मंत्री बनाया। 22 फरवरी 1958 को हृदयाघात के कारण मौलाना आजाद जी की अचानक मृत्यु हो गयी। भारत में शिक्षा के क्षेत्र में बदलाव लाने की शुरुआत मौलाना आजाद ने ही की है। इतिहासकार डॉ ताराचंद, उनका मूल्यांकन इन शब्दों में करते हैं,
" मौलाना अबुल कलाम आजाद की विचारधारा वाली मुसलमानों की एक विशाल संख्या में विभाजन के समय भारत को ही अपना राष्ट्र माना जबकि इस्लामी साम्प्रदायिकता के नफरतजन्य तमाम आतंकपूर्ण आचरण के भय ने पाकितानी क्षेत्र में रह रही अधिकांश गैर मुस्लिम जनता को भारत आने के लिए विवश कर दिया। भारतीय मुसलमानों को मौलाना आजाद की विचारधारा का सम्बल लेकर राजनीतिक राष्ट्रवाद के पैरों पर खड़े होना अधिक हितकारी एवम् सुरक्षात्मक उपाय लगा और उन्होंने भारत को ही अपना राष्ट्र तहेदिल से स्वीकार किया।"
( ताराचंद हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम मूवमेंट इन इंडिया vol III P-267)
मौलाना आजाद का लेखन.
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मौलाना आजाद की शिक्षा दीक्षा धर्म आधारित रही है। वे इस्लामी धर्मशास्त्र के विद्वान रहे है अपने समकालीन अन्य नेताओं की तरह वे पश्चात्य शिक्षा और सोच से जुड़े परिवेश में पले बढे नहीं थे। इसका कारण उनके परिवार की आजीविका का धर्म पर आधारित होना रहा है। वे अरबी और फारसी के विद्वान थे। अंग्रेजी व उर्दू में उनकी अच्छी पकड़ थी। उनका लेखन उनके समकालीन जवाहरलाल नेहरू की तरह न तो विपुल रहा और न ही उसका फलक उतना व्यापक रहा है। उन्होंने मुख्य रूप से तीन किताबें लिखी जिनमें एक तो इस्लाम और कुरान पर है। दूसरी उनके एक कभी ना भेजे गए पत्रों का संग्रह है। और तीसरी सबसे चर्चित और ईमानदार किताब उन्होंने लिखी है, भारत विभाजन की अंतर्कथा पर, 'इंडिया विन्स फ्रीडम'। इन किताबों का संक्षेप में वर्णन करते हैं।
1. तर्जुमा अल कुरआन
तर्जुमा अल कुरान एक धार्मिक किताब है। मौलाना एक हाफिज थे। कुरआन उन्हें हिफ़्ज़ थी। इस्लाम में हाफिज या कुरआन जिन्हें हिफ़्ज़ या याद हो, उनकी धार्मिक हैसियत बड़ी होती है। यह किताब कुरआन की टीका भी है और कुरआन का विद्वतापूर्ण अनुवाद भी। 253 पृष्ठों की इस पुस्तक में धार्मिक चर्चाएं की गयी है। यह उनका अराजनीतिक लेखन है। सीमित पाठक संख्या और धार्मिक स्वरूप के कारण उनकी यह किताब इस्लाम में रूचि और विभिन्न धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों के बीच लोकप्रिय तो रही पर सामान्य पाठक समाज इससे प्रभावित नहीं हुआ।
2. अल हिलाल
यह उनकी दूसरी पुस्तक है। अल हिलाल पत्रिका में लिखे गए लेखों का यह संकलन है, जिसे अली अशरफ ने किया है, और उन्होंने इसका अनुवाद उर्दू से अंग्रेजी में करके इसे प्रकाशित किया है जो 974 पृष्ठों की है। इस पुस्तक का प्रकाशन इंडियन काउंसिल ऑफ
हिस्टॉरिकल रिसर्च ने किया है। वह समय, स्वाधीनता संग्राम के प्रारंभ का काल था। इन लेखों में मौलाना के शुरुआती राजनीतिक विचारधारा का संकेत मिलता है।
3. गुब्बार ए खातिर
मौलाना द्वारा लिखी किताबों में गुबार ए खातिर एक अलग तरह की पुस्तक है। इस किताब में मौलाना आजाद द्वारा वर्ष 1942 से 1946 तक के लिखे गए उनके विभिन्न पत्रों का संकलन है और यही वह अवधि थी, जब वे महाराष्ट्र के अहमदनगर किले की जेल में बंद थे। यह गिरफ्तारी तब हुई जब ये बबई में कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने के लिए गए थे। 8 अगस्त 1942 को स्वालिया टैंक मैदान में महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा की थी और करो या मरो का नारा दिया था। इसी सभा के बाद कांग्रेस के सभी पहली पंक्ति के नेता ब्रिटिश राज द्वारा बंदी बना लिए गए और उन्हें अहमदनगर किले की जेल में रखा गया। यह पत्र उसी अवधि के है।
इस पुस्तक में 24 पत्रों का संग्रह है जो मौलाना आजाद ने अपने अभिन्न मित्र मौलाना हदीबुर्रहमान खान शेरवानी को लिखे थे। यह पत्र कभी भी भेजे नहीं जा सके थे। जब वे वर्ष 1946 में जेल से रिहा हुए तो उन्होंने इन पत्रों को अपने सचिव मोहम्मद अजमल खान को पुस्तककार करके प्रकाशित करने के लिए दिया था। यह संकलन 1948 में गुब्बार ए खातिर के नाम से प्रकाशित हुआ। इसी का अंग्रेजी में अनुवाद, सैलिस ऑफ माइंड के रूप में जीआर गोयल द्वारा किया गया है। मौलाना का यह आध्यात्मिक स्वरूप था जो उनके राजनीतिक स्वरूप से उन्हें अलग करता है। यह किताब उर्दू में लिखी गई थी और 1946 के संस्करण में इसकी, 250 प्रतिया छापी गई थी।
4. इंडिया विंस फ्रीडम
चौथी और मौलाना की सबसे चर्चित और लोकप्रिय पुस्तक है इंडिया फ्रीडम। भारत की आजादी और विभाजन पर लगभग हर शोधार्थी ने इस पुस्तक में दिए गए अनेक अंशो का उपयोग किया है। भारत विभाजन पर डॉ राममनोहर लोहिया द्वारा लिखी गई पुस्तक गिल्टी मैन ऑफ इंडिया पाटीशन (भारत विभाजन के अपराधी) और लेखक द्वय लैरी कॉलिन्स और डोमिनिक ला पियरे द्वारा लिखी गई बेहद तथ्यपूर्ण पुस्तक फ्रीडम ऐट मिडनाइट (आधी रात आयी आजादी) में मौलाना आजाद की इस किताब का एक प्राथमिक स्त्रोत के रूप में उपयोग किया गया है। मौलाना ने यह किताब बेहद इमानदारी से लिखी है। मौलाना 1923 में कांग्रेस अध्यक्ष होने के बाद गांधीजी के निकट तो रहे ही थे पर उन्हें, जवाहरलाल नेहरू का भी करीबी समझा जाता था। लेकिन भारत विभाजन में जवाहरलाल नेहरू की भूमिका की उन्होंने आलोचना भी की है। मौलाना मन और मस्तिष्क दोनों से ही सेक्यूलर मूल्यों के प्रति समर्पित थे और अंतिम दम तक यह चाहते थे कि देश ना बंटे लेकिन मौलाना इतने सक्षम भी नहीं कि वह इस दुखद त्रासदी को अकेले रोक लेते।
( विजय शंकर सिंह )
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