Sunday 10 October 2021

शंभूनाथ शुक्ल - कोस कोस का पानी (14) जंगल की बंदरबाँट!

जब हम माता टीला पहुँचे तब रात हो चुकी थी और गाड़ी की हेडलाइट पेड़ों पर पड़ती तो ऐसा लगता कि हम घनघोर जंगल के बीच से गुज़र रहे हैं। चूँकि माता टीला डैम का गेस्ट हाउस काफ़ी ऊँचाई पर है इसलिए यह जंगल ऊपर को फैलता दीखता और इस लाइट में सागौन के पेड़ बहुत सुंदर लगते। दरअसल झाँसी से ललितपुर के बीच हरियाली ख़ूब है। शीशम, सागौन, नीम, आम, अर्जुन, महुआ, पीपल और बरगद आदि के। पत्थर खदानें हैं इसलिए ज़मीन की बंदरबाँट बहुत चलती है। जंगल और जंगल माफिया दोनों की मिलीभगत से अवैध कटान होता है। हज़ारों एकड़ में फैली यह हरियाली जल्द ही लुप्त हो जाएगी, यह आशंका रहनी, जायज़ है। गाँव के लोग सीधे हैं लेकिन वहाँ के दादू लोग गुंडई के बूते इन जंगलों को कटवाने में माफिया के लिए दलाली करते हैं। यह दादूगिरी भी यहाँ की दबंग जातियों की आय का एक स्रोत थी। हमें झाँसी से ललितपुर और चन्देरी जाते-आते समय एक भी गाड़ी नहीं दिखी, सिवाय कुछ जीपों को छोड़ कर। लेकिन हर दसवाँ आदमी बंदूक़ लिए दिखा। यहाँ तक कि एक साइकिल में तीन लोग सवार थे और तीनों के पास बंदूक़ें। मूलचंद ने बताया कि ये जंगल कटवाने वाले बड़े दादुओं के छोटे-मोटे दलाल हैं। 

माता टीला डैम का गेस्ट हाउस बहुत सुंदर है। कुछ दिनों पहले यहाँ लालकृष्ण आडवाणी को नज़रबंद कर रखा गया था इसलिए इसकी साफ़-सफ़ाई चकाचक थी। रात को भोजन के बाद हम पान खाने के लिए इस कोठी (गेस्ट हाउस) नीचे उतर कर गाँव की बाज़ार में गए तो सन्नाटा पसरा था। एक दूकान ज़रूर खुली थी, जहां हमें महोबे वाला पत्ता मिला। मूलचंद ने बताया आजकल यहाँ डाकुओं का आतंक बहुत है इसलिए सन्नाटा और ज़्यादा है। सुबह डाम-कोठी से बाहर निकल कर सैर की तो जंगल बहुत मोहक लगा। यह डैम बेतवा नदी पर बना है और ललितपुर ज़िले में पड़ता है। झाँसी से यह कोई 50 किमी होगा। उस समय नदी में पानी कम था इसलिए डैम सूखा पड़ा था। यहाँ झाँसी से लोग पिकनिक मनाने आ जाते हैं। 

बेतवा बुंदेलखंड की जीवन दायिनी नदी है। यह पठारों के बीच से बहती है इसलिए इसका पानी खूब निर्मल है। आप इसका पानी चिल्लू में भर कर पी सकते हैं। इस नदी में कहीं-कहीं मगर भी हैं। बेतवा नदी का उल्लेख महाभारत में वेत्रवती नाम से है। यह होशंगाबाद के क़रीब रायसेन से निकलती है और 232 किमी यह मध्यप्रदेश में बहती है तथा 358 किमी उत्तर प्रदेश में। ओरछा के पास यह उत्तर प्रदेश में मिलती है। हमीरपुर ज़िले में भरुआ सुमेरपुर के क़रीब यह यमुना नदी में मिल जाती है। मध्यप्रदेश के रायसेन, विदिशा, सागर, अशोकनगर, टीकमगढ़, ग्वालियर शहर इसी के पानी से सिंचित हैं तो उत्तर प्रदेश के झांसी, ललितपुर, जालौन और हमीरपुर। यह मालवा के पठार की सबसे बड़ी नदी है। इसे मध्य प्रदेश में गंगा जैसी मान्यता है। झाँसी से इसका पाट खूब चौड़ा होने लगता है। और हमीरपुर में तो यह विकराल रूप ले लेती है, ख़ासकर बरसात में। बुंदेलखंड में और भी नदियाँ हैं, लेकिन पठारी इलाक़ा होने के कारण यहाँ की ज़मीन अनुपजाऊ है। इसलिए भी ग़रीबी बहुत अधिक है। 

माता टीला के आसपास घूम कर हम शाम तक पुनः झाँसी वापस आ गए। यहाँ पर सर्किट हाउस में अपने कमरे थे ही। शाम को पंडित विश्वनाथ शर्मा का बुलावा आ गया। बैठकी और भोजन उनके यहाँ थी। जब हम सिविल लाइंस स्थित उनके आवास ‘मंगलम’ में पहुँचे तो दरबान लॉन में ले गया जहां कुछ टेबल और लॉन चेयर्स पड़ी थीं। एक टेबल पर कोहनी टिकाये एक अध-बुजुर्ग सज्जन बैठे हुए पंडित जी से गहन वार्ता में तल्लीन थे। उनकी अचकन पुरानी और मुड़ी-तुड़ी थी तथा बाहों के पास से सीवन खुली हुई। यही हाल उनके पाजामे का भी था। नाड़ा नीचे तक लटका था। बीच-बीच में वे अपना एक पहलू उठाते और फिर आत्मलीन मुद्रा में बैठ जाते। हम भी बैठ गए। पंडित जी उनका परिचय कराया कि आप छत्रपति महाराज ………. सिंह हैं। तभी अचानक वे उठे और ऊपर का शरीर आगे को झुका कर हवा का एक गोला पूरी लय के साथ दागा। पंडित जी ने बताया कि गैस से संतृप्त हैं। लेकिन पीने में कमी नहीं। वे महाराज श्री एक बस चलवाते थे और स्वयं ही उसके कंडक्टर थे। 

पंडित जी ने सुझाव दिया कि कल आप लोग झाँसी का सुकवा-टुकवा डैम देखो। यह मिट्टी से बना है। यह डैम बहुत पुराना है और झाँसी से 40 किमी दूर। इसके अलावा कल ही पारीछा डैम और बिजली घर भी देखना। परसों गढ़-कुंढार चलेंगे। मेरी सुकवा-टुकवा डैम देखने में दिलचस्पी हुई। 
(जारी)

© शंभूनाथ शुक्ल

कोस कोस का पानी (13)
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