जब तक पूँजीवादी व्यवस्था की लूट सामान्य ढंग से चलती है वह जनतांत्रिक मुखौटा लगाये रहता है। जैसे ही आर्थिक संकट बढने लगता है बढती पूँजी के मुकाबिल मुनाफा कम तेजी से बढता है तो उसे लूट के नये निर्मम रास्ते अपनाने पडते हैं - निजीकरण, सार्वजनिक संसाधनों की लूट, शिक्षा स्वास्थ्य आदि सार्वजनिक सेवाओं को निजी महँगा करना, वंचित समुदायों के लिए कुछ हद तक मददगार योजनाओं को बंद करना, श्रमिकों से कम मजदूरी पर अधिक काम लेना, सुरक्षा इंतजामों पर खर्च बंद कर देना, गरीब किसानों को अपना उत्पाद कम से कम कीमत पर बेचने को मजबूर करना, वगैरह।
किंतु सामान्य जनतांत्रिक मुखौटे में इस निर्मम लूट को चलाना मुमकिन नहीं होता। उसके लिए एक निरंकुश सत्ता चाहिए, साथ ही एक ऐसा गुंडा दल भी जो किसी भी विरोधी को कुचल डालने के लिए सत्ता की मदद में भीड़ भी जुटा सके। यही फासीवाद की मूल पहचान है जो आर्थिक संकट के वक्त में पूँजीवादी लूट को बढाने का औजार है।
फासीवाद अपनी लूट के लिए सामाजिक समर्थन दो तरह से जुटाता है। एक, उसके जरिये विकास तेज करने का सपना दिखा कर। दूसरे, विरोधियों को हमेशा समाज से काट 'अन्य' बनाकर। 'अन्य' कभी हरामखोर कामचोर श्रमिक होते हैं, कभी 'माओवादी' आदिवासी होते हैं तो कभी नॉर्थ ईस्ट के 'चिंकी', कभी 'अलगाववादी' कश्मीरी तो कभी 'पाकिस्तानी' मुसलमान, कभी आरक्षण की खैरात माँगने वाले दलित तो कभी 'हिंदी विरोधी' तमिल, या 'देशद्रोही' वामपंथी। यह अन्यकरण फासिस्टों को हमेशा इनमें से किसी हिस्से को कुचलने के लिए शेष को अपने पक्ष में जुटाने या चुप रखने में मदद करता है क्योंकि ये सब एक व्यापक एकता में गुँथ विरोध में जुट जायें तो फासिस्टों की चिंदियां उड जायेंगी।
इस काम में इनकी सक्रिय या छिपी मदद वो करते हैं जो इस दमन के खिलाफ संघर्षों को एक समुदाय तक सीमित करने के भावनात्मक तर्क देते हैं। मुसलमानों की लडाई है तो मुसलमान बनकर ही लडनी पडेगी; या मुसलमानों का तो बस बहाना है असली अत्याचार तो दलितों आदिवासियों पर है बस वे ही लडेंगे; कश्मीरियों को अपने लिये खुद हथियार उठाने चाहिये या लड सिर्फ वामपंथी ही रहे हैं बाकी सब धोखा दे रहे हैं; उत्तर भारत वाले तो सब गोबर बुद्धि हैं, शिक्षित दक्षिण वालों को या सारे प्रगतिशील बंगालियों को अपना अलग फासिस्ट मुक्त देश बना लेना चाहिए; ऐसे सब जितने बड़े लडाकू विचार देने वाले कूढमगज हैं ये चाहे अनचाहे फासिस्टों की मदद करते हैं, संघर्षों को एक दायरे में महदूद कर उनके कुचले जाने की तैयारी का हिस्सा होते हैं। इनसे सावधान रहना चाहिए।
इसके पक्ष में हाना आरेंट जैसे 'यहूदियों को यहूदी बनकर लडना चाहिए' वाले उद्धरण जो बाँट रहे हैं उनसे पूछिये कि दुनिया भर के तीन करोड़ गैर यहूदी हिटलर मुसोलिनी को मिटाने में अपनी जान की कुर्बानी नहीं देते तो अकेले यहूदी खुद लड लेते?
( मुकेश असीम )
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